कविते तू गंगा बन, बह मेरे मन में

मंतव्य


प्रवीण प्रणव 

‘डॉ. अहिल्या मिश्र’ हिन्दी साहित्य में राष्ट्रीय स्तर पर एक जाना पहचाना नाम है। साहित्य की लगभग सभी विधाओं में इन्होंने समान अधिकार के साथ लिखा है। लेकिन साहित्य की दुनिया में इनकी आरंभिक पहचान एक कवयित्री की है। ‘पत्थर, पत्थर, पत्थर’, ‘कैक्टस पर गुलाब’, ‘आखर अंतः दीप के’, और ‘श्वास से शब्द तक’ इनके प्रकाशित कविता संग्रह हैं जिनमें ‘श्वास से शब्द तक’ इनकी चुनिंदा कविताओं का संकलन है। साहित्यिक समझ और अभिरुचि इन्हें विरासत में मिली है लेकिन इस कठिन डगर में इन्होंने जो अपनी पहचान बनाई है, वह इनकी खुद की जद्दोजहद, खुद का संघर्ष और खुद के दृढ़ निश्चय का परिणाम है। बिहार से सपरिवार हैदराबाद आ कर यहाँ स्थापित होना और साथ ही एक नए शहर, नए परिवेश में साहित्यिक रुचि की अलख जगाए रखना आसान नहीं था। आरम्भिक दिनों में डॉ. अहिल्या मिश्र को कई शुभचिंतकों का सहयोग मिला लेकिन जैसे ही थोड़ी पहचान मिली, राह में अड़चन बन खड़े हो जाने वाले भी कई मिले। डॉ. अहिल्या मिश्र की सम्पूर्ण साहित्यिक यात्रा इसी सहयोग और विरोध के दो पाटों के बीच बहती नदी है। ‘श्वास से शब्द तक’ में डॉ. अहिल्या मिश्र के प्रति अपने उद्गार व्यक्त करते हुए प्रो. ऋषभ देव शर्मा लिखते हैं “कविता डॉ. अहिल्या मिश्र का अपना चुनाव है, स्वयं चुना गया कार्यक्षेत्र। यहाँ वे अपनी शर्तों पर रहती हैं, खेलती हैं, लड़ती-झगड़ती हैं, बोलती हैं, सीखती हैं, कभी-कभी गाती और गुनगुनाती भी हैं। कुल मिलाकर जीती हैं। उनकी काव्यात्मक अभिव्यक्तियाँ आवेग की निष्पतियाँ  हैं। अहिल्या जी ने अपने जीवन के तमाम मधुर और कोमल तथा कटु और तिक्त अनुभवों को बेलौस अभिव्यक्ति प्रदान की है।” स्वयं डॉ. अहिल्या मिश्र ने कविता के बारे में लिखा है- “कविता एक सतत प्रक्रिया है जो समय के दो पहियों पर चलती हुई मनुष्य को छूती है, सहलाती है, बहलाती है। कुछ सुनती है, सुनाती है। देखती है, दिखाती है, आगे बढ़ती जाती है। कविता बस कविता होती है, वह अच्छी या बुरी नहीं होती। वह अपना, पराया नहीं होती। वह होती है, तो अपने होने का आभास दिलाती है।  कविता कामिनी के याचक बहुत हैं किंतु यह तो समय का सच बन लुभाती है।“ 

लेखन या सृजन में अकारण व्यवधान का आना अकसर मानसिक अशान्ति का कारण बनता है। धर्मवीर भारती ने सृजन के दौरान आई निराशा पर अपनी एक कविता में लिखा कि सृजन के दौरान कई तरह के व्यवधान थकान पैदा कर सकते हैं लेकिन इस थकान के बाद एक नई उम्मीद की किरण भी राह देखती है इसलिए सृजन के थकान को भूल कर आगे बढ़ना ही सच्चे साहित्यकार का कर्म और कर्तव्य दोनों है। अधूरे सृजन से निराशा भला/किस लिए जब अधूरी स्वयं पूर्णता/सृजन की थकन भूल जा देवता!/ प्रलय से निराशा तुझे हो गई/सिसकती हुई साँस की जालियों में/सबल प्राण की अर्चना खो गई/थके बाहुओं में अधूरी प्रलय/और अधूरी सृजन योजना खो गई/प्रलय से निराशा तुझे हो गई/इसी ध्वंस में मूच्र्छिता हो कहीं/पड़ी हो, नयी जिन्दगी, क्या पता?/सृजन की थकन भूल जा देवता।  डॉ. अहिल्या मिश्र ने भी अपनी ओर फेंके गए पत्थरों से ही अपने लिए सफलता की सीढ़ियाँ बनाई और एक बेहतरीन कवयित्री के रूप में अपनी पहचान स्थापित करते हुए न सिर्फ राष्ट्रीय बल्कि कई अंतर्राष्ट्रीय मंचों से कविता पाठ किया और अपनी कविताओं की सरलता लेकिन प्रभावी विषय-वस्तु की वजह से साहित्य प्रेमियों, समीक्षकों और आलोचकों का ध्यान आकृष्ट किया। हालांकि सफलता के बाद भी अपने संघर्ष की स्वीकारोक्ति में उन्हें कोई परहेज नहीं। ये स्वीकारोक्ति आज की युवा पीढ़ी के साहित्यकारों के लिए भी एक मंत्र-वाक्य है कि सफलता के द्वार बिना सृजन के दर्द को सहे, छूना मुश्किल है। सृजन के बारे में डॉ. अहिल्या मिश्र कहती हैं -  “सृजन सहज नहीं होता। यह मशरूम की खेती नहीं है। ढेर सारे दर्द, छटपटाहट, व्याकुलता एवं बेचैनी के बाद भी कभी-कभी दो पंक्तियां नहीं रची जाती हैं। कई-कई दिनों तक अस्त-व्यस्त सी मानसिक स्थिति, वातावरण में घुलते-मिलते जीते जाने पर भी, एक शब्द का सलीका नहीं पैदा कर पाती। कभी अनायास ही शब्द के मोती झरने लगते हैं और सुख-दुख के अनुभव का शाब्दिक गुलदस्ता तैयार हो जाता है। ऐसी ही प्रक्रिया एवं क्षणों का प्रमाण है मेरी ये रचनाएं। अतः इनमें कई बार असंगतियाँ भी उभर आई हैं। मेरे अनुभवों के खार एवं खुशियों के हार को हर श्वास की धमक के साथ शब्दों में पिरो कर मैंने अपनी कविताओं का सृजन किया है। ये खट्टे-मीठे शब्दों के गुम्फ आपको शबरी के बेर की तरह चुन-चुन कर अर्पित हैं।“ अपनी कविता में डॉ. मिश्र ने लिखा - सृजन का दर्द होता है भारी /कलम कंपकपाती है/मनोबल लड़खड़ाता है/मन छटपटाता है/व्यथा सहनी पड़ती है/सारी की सारी/शब्द न्यास में अक्षर/बिन्दु बनता क्षण भर/सदियों बुनता बुद्धि सपन/तब कर पाता कोई कवि कर्म/सारा जग जब सोता लंबी तान कर/वह जागता हाथ लेखनी पकड़/फिर जग सुख दुख का बोध/उसे सताता बनकर भारी शोध/यही कविता की पीड़ा प्रक्रिया है सारी/सृजन का दर्द होता है भारी।  सृजन के इस दर्द को अनिवार्य बताते हुए कन्हैयालाल नंदन ने भी लिखा - अजब सी छटपटाहट,/घुटन, कसकन, है असह पीङा/समझ लो/साधना की अवधि पूरी है/अरे घबरा न मन/चुपचाप सहता जा/सृजन में दर्द का होना जरूरी है। 

एक ऐसे दौर में जब महिला कवयित्रियों के लिए तय पगडंडी बना दी गई होय जहाँ उनकी कविताओं में प्रेम, विरह, करुणा, विक्षोभ आदि के स्वर ही स्वीकृति पाते हों, डॉ. अहिल्या मिश्र ने इन तय मानकों को मानने से इनकार करते हुए अपने लिए दी गई पगडंडी को न सिर्फ अपने हौसले से चैड़ी सड़क में परिवर्तित किया बल्कि न जाने कितनी ही कवयित्रियों को प्रोत्साहित किया कि वह भी मंचीय वाहवाही के जाल से आजाद होते हुए अपनी भावनाओं को अपनी रचनाओं में इस सरलता और सहजता से व्यक्त करें कि उनकी पहचान सिर्फ मंचीय न रहकर साहित्यिक बने। खामोशी से बने-बनाए रास्ते पर चलने की बजाय डॉ. मिश्र ने अपने कविताओं के माध्यम से अपनी एक अलग आवाज बनाई है और उनके इस आवाज में आज कई नवोदित कवयित्रियां अपने स्वर मिला रही हैं। अपनी दृढ़ता को डॉ. मिश्र ने अपनी कविता ‘शब्दों का सौदागर’ में यूं वर्णित किया है - मैं कोई प्रेम कविता नहीं/जो सबों के लिए केवल सपने बुने/और उसमें डूबकर आप भी/अपने लिए कोई सपना चुनें।/पत्थरों की सख्ती से बनी/ऊंची मीनार हूँ मैं/हाँ जी जहाँ पहुँच कर/आप अपनी बुलंदी तो माप सकते हैं/किन्तु मुझको, इसको, उसको, किसी को/गड्ढेे में नहीं डाल सकते/इसीलिए तो अंगार में भी/लावे सा खौलने लगी हूँ मैं/जी हाँ हुजूर, अब तो बोलने लगी हूँ मैं।  प्रो. ऋषभ देव शर्मा ने लिखा “इसमें संदेह नहीं कि इन कविताओं में हमें एक बोलने वाली औरत दिखाई देती है जिसकी एक आँख  में कोमल सपने और दूसरी आँख में क्रांति का आह्वान है। जिंदगी के हादसों ने इस मुखर स्त्री को यदि अवसाद और तिक्तता दी है, तो लड़ने और जीतने का सलीका और हौसला भी दिया है।“ 

डॉ. मिश्र की कविताओं में बिम्ब और प्रतीक नये नहीं हैं लेकिन उनका प्रयोग और उनके मायने अलग हैं। ‘पत्थर, पत्थर, पत्थर’ नामक कविता संकलन में कई कविताओं में पत्थर को प्रतीक के रूप में प्रयोग किया गया है। यहाँ पत्थर उनके व्यक्तित्व की दृढ़ता को तो दर्शाता ही है लेकिन साथ ही उनकी कविताओं में अनगढ़ पत्थरों की खूबसूरती और सौंधी माटी की खुशबू का भी परिचायक है। मुक्त छंद में लिखी कविताओं में पत्थरों सा खुरदुरापन है और साथ ही है विचार और भाव की दृष्टि से पत्थरों सी दृढ़ता भी। सतीश चतुर्वेदी ने श्वास से शब्द तक की भूमिका में लिखा-“डॉ. अहिल्या मिश्र की रचनाओं में आत्मा की आवाज का स्वर बहुत प्रबल है और आंध्र प्रदेश जैसे राज्य में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए उपयुक्त विषय और शैली का चयन इस प्रकार किया गया है कि अन्य भाषा-भाषी गण साधारण हिंदी के इन शब्दों को अपनाकर राष्ट्रभाषा हिंदी को सुगमता से अपना सके। शब्द चिंतन के पश्चात अंतर्मन में जब नृत्य करने लगते हैं तो भावनाएं उनको अपना कर गले लगाती है और वही कविता ऊंची नीची धरती पर साकार बन जाती है। कविता के शब्द स्मृति बन वार्तालाप के अंग बन जाते हैं और राष्ट्रभाषा के गान  सभी तरफ गूंजने लगते हैं।” डॉ. मिश्र की कविताओं से गुजरना न तो फूल की पंखुरियों को छूने जैसा रूमानियत भरा एहसास है न नर्म दूब पर नंगे पाँव चलने का सुख। ये कविताएं तीखे सवाल करती हैं, हमारे स्याह चेहरे को सामने लाती हैं और फिर हमें आईना दिखाती हैं। ये कविताएं किसी समस्या का समाधान दे कर हमारे जख्मों पर मरहम लगाने की कोशिश नहीं करती बल्कि अपने चुभते सवालों और तीखे व्यंग्य से हमारे घावों को कुरेद कर हमें सोचने पर विवश करती हैं। एक कवयित्री के तौर पर डॉ. मिश्र अपनी कविताओं में सुख-दुख, अच्छे-बुरे, न्याय-अन्याय की यात्रा में शरीक नहीं होतीं, वह तटस्थ और खामोश रहते हुए अपनी कविताओं को मुखरित होने का अवसर देती हैं और ये कविताएं, खुद को मिले इस अवसर के साथ भरपूर न्याय करती हैं। डॉ. अहिल्या मिश्र ने ‘श्वास से शब्द तक’ किताब में अपने शब्दों में लिखा है- “कविता अपने समय की भी संवाहिका होती है। कविता में देश काल और परिस्थितियाँ मुखर रहती है। कवि समय की सारी विद्रूपताओं को उकेरता है। कैक्टस की चुभन के साथ फूलों की गमक का सुंदर मिश्रण कवि की अपनी थाथी शब्दों का जामा पहनती है। कवि श्वास लेता है। जीवित रहने का सक्षम प्रमाण देता है। संघर्ष रत हो जीवन का सत्य पीता है। पुनः उसे शब्द के माध्यम से अक्षरित कर औरों के समक्ष प्रस्तुत करता है। बिंदु से सिंधु तक की प्रक्रिया घटित होती है और तब शब्दों का महासागर अर्थ की दुनिया में अपना आधिपत्य जमाता है। कवि दूर खड़ा होकर उस परिमार्जन का आनंद उठाता है।“ अपनी एक कविता ‘पत्थर’ में डॉ. मिश्र ने लिखा है - मैं मील का पत्थर हूँ/असीमितता ही जिसकी/एकमात्र पहचान होती है/ जिसका न दोस्त/न दुश्मन/न अपना/न पराया/न ही कोई मेहमान होता है/अपने स्थान पर अडिग/अभेद/अचल/खड़ा रहता है/किन्तु गति का/विस्तृत, संकलित/दिनमान होता है।      

राष्ट्रीय फलक पर डॉ. अहिल्या मिश्र ने न सिर्फ कवयित्री के तौर पर बल्कि एक साहित्यकार के तौर पर जो प्रतिष्ठा अर्जित की है वह दशकों की उनकी मेहनत, लगन और निरन्तरता का प्रतिफल है। बिना किसी तय प्रतिफल के कर्म किए जाना, कितनी भी व्यस्तता के बीच अपने लेखन और साहित्य के लिए समय निकाल पाना और न सिर्फ अपने पूर्ववर्ती बल्कि अपने समकालीन और नवोदित साहित्यकारों के साहित्य को लगातार पढ़ना, ये उनके ऐसे गुण हैं जिन पर किसी भी साहित्यकार को रश्क हो सकता है। दक्षिण में हिन्दी भाषा के प्रति लोगों को आकृष्ट करने का काम डॉ. मिश्र ने बखूबी किया है। सतीश चतुर्वेदी लिखते हैं- “तेलुगु भाषी साहित्यकारों में हिंदी कविता के आकर्षण को बनाए रखने के लिए उन्होंने इन रचनाओं की रचना की है। सरल, सुंदर, मुहावरेदार भाषा में अपनी बात को सलीके से कहने का इन का अंदाज निराला है। महाकवि निराला ने छंद का बंधन तोड़कर कविता को परम स्वतंत्र बना दिया। परंतु इसके बाद नई कविता की एक बाढ़ सी आ गई और साहित्य को कविता, अकविता, नग्नता और फूहड़ता से बचाया न जा सका। महाकवि आनंद मिश्र और डॉ. चंद्र प्रकाश वर्मा ने भी स्वच्छंद कविता की रचना की परंतु निराला के समान स्वर, लय, ताल का भी ध्यान रखा इसीलिए आज भी इनकी रचनाएं महत्वपूर्ण और स्मरणीय हैं।” उम्र के इस पड़ाव पर भी डॉ. मिश्र की ऊर्जा और उनके उत्साह की बराबरी शायद ही कोई युवा कर पाए। ‘कल करे सो आज कर’ की उक्ति को दुहराते हुए अपनी कविता ‘समय का पत्थर’ में इन्होंने लिखा- मैं तो इतिहास का/मात्र एक खुला हुआ पन्ना हूँ/जो इसका गवाह है कि/मैं पाने और खोने के बीच फंसा हुआ हूँ/यह मत भूलो कि/वही इतिहास में स्थान पाते हैं/जो अपने कर्मों से/सफलता की कहानी लिखते हैं/....गर जीना है/तो जियो ! आज ही में जी लो/व्यर्थ संशय से निकालो मुझको/कल किसने देखा है/कल पर न टालो मुझको।  कवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी कविता में कर्म की प्रधानता पर जोर देते हुए लिखा ‘‘यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो/समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो/कुछ तो उपयुक्त करो तन को/नर हो, न निराश करो मन को।/कुछ काम करो, कुछ काम करो।‘‘ डॉ. अहिल्या मिश्र भी हर दिन को एक नया दिन मानते हुए, नये संकल्प के साथ कुछ नया करने का आह्वान अपनी कविता ‘कर्म’ में कुछ यूं करती हैं -  सुबह तड़के ही/खुली खिड़की से झाँकता सूर्य/अपनी मृदुल किरणों संग/मलय अपनी बचकानेपन से भरी नर्म/व नाजुक अंगुलियों से सहलाकर/मेरे गालों का स्पर्श कर/थपथपाते हुए/मेरे कानों में कह गया/उठ जाग, चल पड़, आगे बढ़/लंबे रास्ते पर दूर जाना है/आराम के क्षण कब के समाप्त हो चुके।  

डॉ. मिश्र आधुनिकता की विरोधी नहीं हैं और न ही कहीं से भी कुछ बेहतर को ग्रहण करने की मानसिकता के खिलाफ। हाँ मगर आँखें मूँद पाश्चात्य का अनुकरण करना उन्हें स्वीकार्य नहीं। अपने संस्कार, अपनी संस्कृति को त्याग कर ‘आधुनिकता’ की आड़ में अमूल्यों का वरण करने को वह पतन के मार्ग का अनुगामी मानती हैं। अपनी कविता ‘गति/क्षति/अवनति’ में उन्होंने लिखा -  हम सभ्य बनने की/नकल मात्र करते हैं/और इस हास्यास्पद कोशिश में/अपनी अक्ल, समझदारी, ईमानदारी/सभी ध्वंस कर बैठते हैं/बाकी बच जाता है/केवल पाश्चात्य के नकल का/घिनौना स्वरूप/और रुदन करती अपनी ही सहचरी/कोंचती है, ढहाती है, लड़खड़ाती है/अपने संस्कारों के स्वरूप को/अपने ही मन का विद्रूप/और बेनकाब होता है/वीभत्स स्वार्थ/कितना घिनौना है/यह नंगापन।  सभ्य होने के प्रयास में असभ्यता का चोला ओढ़ लेने की मूर्खता के विरुद्ध सिर्फ डॉ. अहिल्या मिश्र ने ही आवाज नहीं उठाया बल्कि हर दशक में कई कविओं ने इस तथाकथित ‘प्रोग्रेसिव’ होने के खिलाफ लिखा। फूलों की खूबसूरती तभी है जब वह अपनी जड़ों से जुड़ा रहे। अपनी टहनियों से काटकर गुलदस्ते में सजा देने से थोड़ी देर को खूबसूरती भले ही बढ़ जाय पर इस खूबसूरती की उम्र नहीं होती। आधुनिकता के होड़ में लगी आज की पीढ़ी के लिए अदम गोंडवी ने लिखा “विकट बाढ़ की करुण कहानी नदियों का संन्यास लिखा है/बूढ़े बरगद के वल्कल पर सदियों का इतिहास लिखा है। /क्रूर नियति ने इसकी किस्मत से कैसा खिलवाड़ किया है/मन के पृष्ठों पर शाकुंतल अधरों पर संत्रास लिखा है। /नागफनी जो उगा रहे हैं गमलों में गुलाब के बदले/शाखों पर उस शापित पीढ़ी का खंडित विश्वास लिखा है।“ अपनी सभ्यता और संस्कृति के मूल्यों और उनका अनुसरण करते हुए प्राप्त संतोष, सुख और खुशहाली की तुलना गुलाब से और उधार की ओढ़ी हुई विद्रूप आधुनिकता के कारण पैदा हुए दुख, अवसाद और वितृष्णा की तुलना कैक्टस से करते हुए अपनी एक कविता ‘कैक्टस’ में डॉ. मिश्र ने लिखा - कल तक सभ्यता की बेटी/अपने रंगमहल के गुलदानों में/गुलाब लगाती थी/काँटों से अलग-थलग।/आज सज्जा कक्ष के दृष्टि परक कोने में/यत्नों के साथ बहुत सारी/नागफनी सँवारी गई है।/हमारे बीच गुलाब की/नर्मी गर्मी अब शेष हो गई है/बच गया है केवल/कैक्टस कैक्टस कैक्टस।

जिस तरह की अंधी दौर में आज हम सब शामिल हैं और प्रगतिवाद ने नाम पर कुछ भी आत्मसात करने को आतुर हैं, डॉ. मिश्र इससे चिंतित नजर आती हैं। उनकी चिन्ता निर्मूल भी नहीं, उनके अपने स्वअर्जित अनुभव बहुत हैं जिसकी वजह से वह अपनी शंका जाहिर  करती हैं। लेकिन अपनी कविता में अपनी शंकाओं के कारण वह भविष्य में किसी अनिष्ट की भविष्यवाणी नहीं करतीं, वह कविता ‘अगली सदी की ओर’ में बस एक सवाल खड़ी करती हैं, जिसका जबाव इस पर निर्भर करता है कि आने वाली पीढ़ी अपनी गलतियों से सीख लेते हुए सन्मार्ग पर चलेगी या आधुनिकता के नाम पर फूहरता और नग्नता का वरण जारी रहेगा।  समय चंचल बालक सा चुहल करता/तेज धावक सा भागता जा रहा है/आध्यात्म मठाधीश हो/आराम फरमाने लगा है/थका पराभाव अस्थि पंजर बन/सिरहाने खड़ा हिल रहा है।/विनाश तांडव के बाद क्या फिर?/नवीन रथ पर सवार/बारह घोड़ों की सवारी करता दिनकर/इसमें नवजीवन का आह्वान करेगा?/आज की शापित रश्मियाँ/शान्तिसिक्त नवौढ़ा बनेंगी?/या यथावत स्थिति बनी रहेगी?       

डॉ. अहिल्या मिश्र के जीवन में कई झंझावात आए और उन्होंने हर परिस्थिति से डटकर मुकाबला किया। कैंसर जैसी बीमारी, जहाँ जीवन और मृत्यु के बीच की डोर धुंधली होने लगती है, से लड़कर जीवन को गले लगाने वाली डॉ. मिश्र अपनी कविता ‘प्रतिद्वंद्विता’ में जीवन और मृत्यु के बीच द्वंद्व की बात तो करती हैं लेकिन विजय की घोषणा नहीं करतीं। जीवन और मृत्यु ने बीच का द्वंद्व सनातन है। आज की विजय, कल हार में बदल सकती है। इसलिए निर्णय महत्वपूर्ण नहीं, महत्वपूर्ण है इस द्वंद्व में ईमानदारी, निष्ठा और हौसले के साथ भाग लेना और फिर सिर्फ एक दिन को छोड़ कर, हर दिन जीवन की विजय होगी मृत्यु पर, अवसाद हारेगा जब उम्मीदों के गीत गूँजेंगे और हृदय की धड़कन, जीवन के लय पर थिरकेगी। मन मेरा आज बंधनों में/अंटा पड़ा है/टूटने लगा है श्वास/घटने लगा है लहू का उच्छवास/छोड़ता नहीं डोर/इस अभिलाषा का।/टूटती नहीं छोर/घटती नहीं होड़/मृत्यु मनाना चाहती है/द्विगविजय।/हृदय पाना चाहता है/जीवन की लय/गीत और अवसाद में/छिड़ गई है प्रतिद्वंद्विता। किसी भी डर के आगे सीना तान कर खड़े हो जाना डॉ. अहिल्या मिश्र का स्वभाव रहा है। उनका यह स्वभाव उनकी लेखनी में तो नजर आता ही है, उनके संपर्क में आने वाले लोगों में ये साहस संक्रमण की तरह फैलता है। न सिर्फ हैदराबाद लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर न जाने कितने ही साहित्यकारों को डॉ. मिश्र ने अपने स्नेह और प्रेम से सींच कर इस लायक बनाया है कि आज वे हर चुनौतियों की आँखों में आँख डालने का हौसला रखते हैं।  धीमे-धीमें भेड़िये का/भेड़ियापन/बच्चे की आँखों में उतर आया/अब वह बड़ा हो गया/उसने भेड़िये की आँखों में आँखें डाल दीं/फिर उसे अब भेड़िये का डर कैसा?   

डॉ. मिश्र एक ऐसी साहित्यिक बेल हैं जिसके फूलों की खुशबू शहर, नगर, देश सर्वत्र फैली है लेकिन इस बेल की जड़ें अब भी गाँव में मजबूती से जुड़ी हैं। वर्षों पहले इन्होंने शहर को अपनाया लेकिन गाँव को त्याग कर नहीं। और यही वजह है कि ‘गाँव से पलायन’ और ‘शहर का विस्तार’ पर उनकी दृष्टि सम्यक है। शहर के विस्तार और गाँव को लीलते जाने की प्रक्रिया पर अपनी कविता में नीरज नीर ने लिखा- “देख कर साँप,/आदमी बोला,/बाप रे बाप!/अब तो शहर में भी/आ गए साँप।/साँप सकपकाया,/फिर अड़ा/और तन कर हो गया खड़ा।/फन फैलाकर/ली आदमी की माप।/आदमी अंदर तक/गया काँप।/आँखें मिलाकर बोला साँपः/मैं शहर में नहीं आया/जंगल में आ गये हैं आप।/आप जहाँ खड़े हैं/वहाँ था/मोटा बरगद का पेड़।/उसके कोटर में रहता था/मेरा बाप।/आपका शहर जंगल को खा गया।/आपको लगता है/साँप शहर में आ गया।“ डॉ. मिश्र भी शहर में शालीनता का आडंबर ओढ़े और हाथों में खंजर लिए लोगों की तुलना सांपों से करती हैं और ऐसे लोगों से मिल कर उन्हें गाँव याद आता है जहाँ तमाम प्रगतिवाद के बाद आज भी आडंबर का आवरण उतना गहरा नहीं है। अपनी कविता ‘सांप और शहर’ में डॉ. मिश्र लिखती हैं -  सुना है/आज कल शहर में/साँप ही साँप/बसने लगे हैं/आओ चलो चलें/गाँव के बीच से होते हुए/अंतिम छोर से गुजरते हुए/जंगल की ओर/जहाँ एक सदन/एक कुटिया/एक मचान/बनाएँ/वन काट कर एक खेत रोपें/नये सिरे से एक बरगद उगाएँ/जिसकी छाया में अपने चेहरे से फूटते/पसीने सुखाने को बैठ पाएँ/एक पीपल, एक अशोक और एक आम भी/अंकुरित करें/गहरी नींद सोने को।  डॉ. मिश्र की इस कविता को पढ़ते हुए सहसा ही अज्ञेय की कविता याद आती है जहाँ उन्होंने शहर में रहने वाले लोगों में छल-कपट की भावना होने पर तंज करते हुए लिखा  “साँप !/तुम सभ्य तो हुए नहीं/नगर में बसना/भी तुम्हें नहीं आया।/एक बात पूछूँ--(उत्तर दोगे?)/तब कैसे सीखा डँसना-/विष कहाँ पाया?”

डॉ. मिश्र के साहित्य के पात्र किसी भी अन्याय के प्रतिकार में लड़कर स्थिति में आमूल-चूल परिवर्तन कर डालने का माद्दा रखने का दंभ नहीं भरते। लेकिन इनके पात्र खामोश रहकर किसी भी जुल्म को सह जाने की प्रवृति का भी विरोध करते हैं। इन पात्रों को मालूम है कि जुल्म की ताकत ज्यादा है और प्रतिकार की आवाज क्षीण, लेकिन कुचल दिए जाने के खौफ के बाद भी अन्याय का वरण नहीं करते। विरोध और प्रतिकार की ये आवाज पाश की कविता की याद दिलाती है - मैं घास हूँ/मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊँगा/बम फेंक दो चाहे विश्वविद्यालय पर/बना दो होस्टल को मलबे का ढेर/सुहागा फिरा दो भले ही हमारी झोपड़ियों पर/मेरा क्या करोगे/मैं तो घास हूँ हर चीज पर उग आऊँगा। डॉ. मिश्र की कविता में भी स्वीकारोक्ति है कि कुछ देर के लिए प्रतिरोध की आवाज दबा दी जाएगी, अत्याचार बढ़ेंगे लेकिन ये उद्घोष भी है कि प्रतिरोध की आवाज फिर उठेगी और तब तक उठती रहेगी जब तक जुल्म खत्म न हो जाय। अपनी कविता ‘उजड़े घोसले’ में डॉ. मिश्र ने लिखा - दरिंदों!/महल पर महल बनाओ/झोंपड़ी को तोड़ कर, उजाड़ कर/क्योंकि शक्ति और शासन के/इकलौते दोस्त हो तुम/फिर हमारी हस्ती कहाँ स्वीकारोगे?/निश्चय ही हम/बिन पनपे पौधों की तरह/तुम्हारी गरिमा की मिट्टी के नीचे/दाब कर रह जाएंगे।/लेकिन दबते-दबते भी/फूट कर निकल आएंगे/कुछ नए पौधे/तुम्हारी विशाल धरती के नीचे से/और तुम्हारे अस्तित्व को झकझोर देंगे। प्रतिरोध की आवाज उठती रहनी चाहिए तब तक, जब तक यह जन-मानस की आवाज न बन जाय और तब जुल्म का अंत निश्चित है। केदारनाथ सिंह ने अपनी एक कविता में इसी भावना को उद्धृत करते हुए लिखा कि वह अन्याय के विरुद्ध उठती हर आवाज का समर्थन करेंगे चाहे वह कितनी भी कमजोर क्यों न हो। हमारा यह समर्थन ही एक दिन इस आवाज की संबल बनेगा और उस दिन पीछे हटने की बारी जुल्म करने वालों की होगी। केदारनाथ सिंह ने लिखा - आदमी के जनतंत्र में/घास के सवाल पर/होनी चाहिए लंबी एक अखंड बहस/पर जब तक वह न हो/शुरुआत के तौर पर मैं घोषित करता हूँ/कि अगले चुनाव में/मैं घास के पक्ष में/मतदान करूंगा/कोई चुने या न चुने/एक छोटी सी पत्ती का बैनर उठाए हुए/वह तो हमेशा मैदान में है।/कभी भी.../कहीं से भी उग आने की/एक जिद है वह। 

डॉ. मिश्र ने कविताओं के लिए नया विषय, नये मिथक और कहन की सरलता लेकिन कथ्य में दृढ़ता जैसे आयाम चुने और इनके साथ न्याय किया। आज कविताओं की भीड़ में भी डॉ. मिश्र की कविताओं का स्वर दूर से पहचान में आता है और इसकी वजह यही है कि उन्होंने तय मार्ग पर यात्रा करने की बजाय बंजर और पथरीले रास्ते को चुना और उनसे गुजरते हुए अपनी साहित्यिक यात्रा पर एक के बाद एक कई पड़ाव पार करती रहीं। किसी तय और पहचाने हुए रास्ते की यात्रा का परिणाम भी तय है लेकिन किसी नये रास्ते की खोज कर उसपर यात्रा करने के जोखिम तो हैं लेकिन साथ ही संभावनाएं भी असीम हैं। डॉ. मिश्र ने भी इस यात्रा की चुनौती को स्वीकार करते हुए अपने लिए जिन संभावनाओं के द्वार खोले, उनकी आज की उपलब्धियां उन संघर्षों का परिणाम हैं। अपनी कविता ‘दहकते शोले’ में डॉ. मिश्र ने लिखा- न तो शृंगार पर लिखा, न अभिसार पर लिखा है/न तो स्वीकार पर लिखा, न शब्दों के भ्रम जाल पर लिखा है/न तो इनकार पर लिखा, न ही विरह व्यापार पर लिखा है/मैंने तो दहकते शोलों के आगार पर लिखा है/मैंने तो केवल जलते अंगार पर लिखा है।

किसी बेहतरीन मूर्ति को देखते हुए खुशी होती है लेकिन हमारा ध्यान मूर्तिकार के अथक परिश्रम पर शायद  ही जाता हो। हम किसी खूबसूरत चित्रकारी की प्रशंसा चित्र को देखने के बाद करते हैं लेकिन चित्र बनाने की प्रक्रिया में चित्रकार ने जो मेहनत किया, शायद ही हम उसका अनुमान लगा पाएं । किसी भी मुश्किल कार्य के सम्पादन में अनेक रुकावटें आती हैं, किसी गंगा के धरती पर अवतरण के लिए भगीरथ प्रयास की आवश्यकता होती है। डॉ. अहिल्या मिश्र की कविताओं में सरलता, सहजता और प्रभावी तत्वों का जो सुंदर समायोजन है वह वर्षों की साहित्यिक साधना का प्रतिफल है। और अब, जब उनके दशकों के प्रयास से कविता उनके मानस में अपने विभिन्न स्वरूपों में, उसी सुंदरता के साथ प्रस्फुटित हो रही है तो उनकी कामना है कि यह प्रवाह अबाध गति से यूं ही निरंतरता पाती रहे। डॉ. मिश्र की कविताओं में गंगा के पहाड़ी रास्तों से गुजरते हुए जो कोलाहल और गर्जन होता है उसकी बानगी देखने को मिलती है। कहीं उनकी कविताएं विद्रोह के तेवर लिए उफनती गंगा की तरह सारे तटबंधों को तोड़ देने पर आतुर दिखती हैं तो कहीं बंजर भूमि पर अपनी तलहटी से उपजाऊ मिट्टी डाल कर उसे उर्वरा शक्ति प्रदान करने जैसी उदारता का परिचय देती है। गंगा की लहरों का प्रवाह चाहे रौद्र हो या शांत गति से प्रवाहित हो, एक गुण जो नहीं बदलता, वह है गंगा के पानी की मिठास। डॉ. मिश्र की कविताएं भी चाहे जिस किसी भी भावना को प्रदर्शित करती हों, अपनी सरलता, सहजता, कहन की प्रभावी शैली और पठनीयता को बनाए रखती हैं। डॉ. मिश्र की अभिलाषा जहाँ वह कविता के प्रवाह को गंगा की तरह अपने मन में बहने का आह्वान करती हैं, को हमारा भी समर्थन, और हमारी भी अभिलाषा है कि डॉ. मिश्र की साहित्यिक सक्रियता यूं ही बनी रहे और न सिर्फ कविता लेकिन सभी साहित्यिक विधाओं में उनकी लेखनी यूं ही निर्भीक, तटस्थ और बेबाक हो अपना धर्म निभाती रहे। मन निरद्वंद्व हुआ है अब तो/विहंगम दृष्टि मिला है अब तो/ऊंच नीच का भेद मिटा है अब तो/शाश्वत गान सुना है अब तो/समता का मूल्य भाषित/कर जीवन गगन में/कविते तू गंगा बन/बह मेरे मन में।

बालशौरी रेड्डी का सम्मान करते हुए डाॅ. अहिल्या मिश्र 

साँची कहूँ पुस्तक का लोकार्पण करते हुए डॉ. हरजिंदर सिंह 

(लालटू सिंह), प्रो. ऋषभदेव शर्मा, शुभदा बांजपे एवं परिवार के साथ

प्रसिद्ध लेखक विष्णु प्रभाकर जी के सम्मान में 

कादम्बनी क्लब हैदराबाद में आयोजित गोष्ठी

बिहार एसोसियेशन के अध्यक्ष मानवेन्द्र मिश्र सभा की अध्यक्ष डाॅ. अहिल्या मिश्र और गोष्ठी में अपनी बात रखते हुए डाॅ. आशा मिश्र ‘मुक्ता’

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