डॉ. अहिल्या मिश्र की कहानियों में जीवन दर्शन एवं सामाजिक सरोकार

मंतव्य

डॉ. एस. कृष्ण बाबु, -अध्यक्ष, दक्षिण भारतीय राजभाषा संस्थान, 
201, श्रीवेंकट सौशील्यम, लॉसंस बे कॉलनी, विशाखपट्टणम - 530017, मो.: 8885990777

भारतीय काव्यशास्त्र के अनुसार पाँच ललित कलाओं में, काव्य कला का सर्वोन्नत स्थान है, क्योंकि उसमें अन्य ललित कलाओं की तुलना में लोक हित का अत्यधिक सामर्थ्य अन्तर्निहित रहता है। कोई भी कला लोक कल्याण की दिशा में तभी सार्थक प्रयास कर सकती है जब वह मानव जीवन की विविध समस्याओं का समाधान करके उसे सुकून पहुँचाती है। ऐसा करने के लिए उसके पास कुछ विशेष संकल्पनाओं का होना अनिवार्य है। सही मायने में इन संकल्पनाओं के समुदाय को ही जीवन दर्शन कहा जा सकता है और साहित्य के अंतर्गत जो कृति इस जीवन दर्शन का प्रभावी प्रतिपादन कर पायेगी वह अवश्य ही मानव समाज के कल्याण में अपना पूरा योगदान दे सकेगी।

इस अवसर पर 'समय के कटघरे में' नामक अपनी कहानी में डॉ. अहिल्या मिश्र जी का कथन इस प्रकार है, ‘मतलबी होना तो मनुष्य का गुणधर्म होता है, किंतु आज तो हमने जीवन दर्शन ही परिवर्तित कर डाले हैं। इस भागदौड़ के युग में लोगों के पास क्षणांश का भी अभाव है। अपने मनोरंजन और भौतिक सुख की ही पूर्ति संभव नहीं, फिर दूसरों के लिए कहाँ किसे और कैसे फुर्सत हो? किंतु कुछ लोग हैं जो निरे मूर्ख होते हैं। जिनके पास बेकार समय है और जो औरों के लिए जीना सोच लेते हैं। उन्हें हर कदम पर अपमानित होना पड़ता है, किंतु वे अपनी आदत नहीं छोड़ पाते। भौतिक सुखों के संसाधन जिसकी विज्ञान ने असीमित उपलब्धि करवा दी है, उसकी चाहत उन्हें नहीं होती। आधुनिक जीवन दर्शन उन्हें नहीं लुभा पाता। वे फक्कड़मस्त होते हैं। अपने रास्ते पर बढ़ते चले जाते हैं। लोगों को सुख बाँटते चले जाते हैं। सुख का बँटवारा कर अपने लिए आत्मिक सुख की खरीदारी करते हैं। किंतु उनका यह धन सदा दिन दूना रात चैगुना बढ़ता है। 

जीवन दर्शन एक व्यापक संकल्पना है जिसमें मानव मात्र के कल्याण की प्रत्याशा की जाती है। इसमें भू जीवन को सुंदर स्वर्ग बनाने का तथा ईश्वर को धरती पर लाने का आग्रह रहता है। इसके लिए भारतीय आध्यात्मवाद और पाश्चात्य भौतिकवाद का समन्वय अत्यंत अनिवार्य है। जहाँ वैश्विक एकता की आकांक्षा करते हुए मनुष्य कोटि में किसी प्रकार के भेद-भाव को समाप्त कर देने की इच्छा प्रकट होती है, वहीं सकारात्मक जीवन दर्शन का प्रतिफलन होता है। इन आशयों की पूर्ति के लिए अहिल्या मिश्र की कहानियों में प्रकट की गई दार्शनिकता को समसामयिकता अथवा आधुनिकता के मूल्यों के संदर्भ में देखने-परखने की चेष्टा वर्तमान समाज में उपयुक्त जीवन दर्शन की स्थापना के लिए अत्यंत आवश्यक है। वैज्ञानिक प्रगति की आवश्यकता तो है, परंतु उसके साथ-साथ नैतिक मूल्यों और आदर्शों का यदि समाज में लोप हो जाए तो की गई वैज्ञानिक प्रगति का दुरुपयोग मानव कल्याण के लिए हानिकारक हो सकता है।

आधुनिक हिंदी साहित्य में जीवन दर्शन से संबंधित अनेक संकल्पनाओं का चित्रण मिलता है। आधुनिक हिंदी उपन्यास साहित्य पर स्वतंत्रता संग्राम अर्थात् गांधीजी के नेतृत्व में भारतीयों द्वारा स्वतंत्रता के लिए किए गए संघर्ष का प्रभाव पड़ना अत्यंत सहज है। परंतु इस सारी प्रक्रिया में गांधीजी द्वारा अहिंसा, सत्य, धार्मिक सहिष्णुता के साथ-साथ पवित्र जीवन यापन पर दिया गया बल द्रष्टव्य है। वास्तविक साध्य सत्य का अन्वेषण ही है। जिसमें सत्य न हो उसमें सौंदर्य भी दिखाई नहीं देता। इस संदर्भ में यह बात उल्लेखनीय है कि कोई भी साहित्यकार अपने चारों ओर की राजनैतिकता और सामाजिकता के प्रति उदासीन नहीं रह सकता। जाने-अनजाने में वे स्थितियाँ किसी न किसी तरह साहित्य के अंतर्गत स्थान पा लेती हैं। ऐसी स्थिति में अहिल्या मिश्र जी की कहानियों के ऊपर गांधीजी के उपर्युक्त सिद्धांतों का प्रभाव पड़ना सहज ही है। इसी दृष्टि से अहिल्या मिश्र की कहानियों के अंतर्गत प्रतिपादित गांधीजी के जीवन दर्शन का विश्लेषण करके उपयुक्त निष्कर्ष निकालना अत्यंत समीचीन होगा।

आधुनिक युग के जीवन दर्शन का एक अन्यतम पहलू है समसमाज का निर्माण। सभ्यता और संस्कृति के साथ साथ सामाजिक क्षेत्र में विविध वर्ग भी विकसित हुए जिनमें दो प्रमुख भेद किए जा सकते हैं- शोषक वर्ग और शोषित वर्ग। इनमें व्याप्त आर्थिक असमानता मानव जीवन को दुर्भर बना रही है। इसी कारण उसे दूर करने के लिए सहृदयों द्वारा किए गए प्रयासों का प्रभाव साहित्य पर पड़ना अत्यंत सहज है। इसमें शोषित एवं श्रमिक वर्ग के प्रति सहानुभूति, शोषण एवं अत्याचार का विरोध, श्रेणी सजगता तथा शोषक वर्ग के प्रति घृणा एवं विद्रोह की भावना, जन शक्ति में आस्था, विजय में विश्वास, अत्याचार, अनीति और विषमता को मिटाकर साम्य के आधार पर समाज में नव निर्माण के लिए क्रांति का आह्वान, जीवन के प्रति आशावादी दृष्टिकोण, आत्म निर्भरता एवं स्वाभिमान की भावना, मानवता का समर्थन, समाजवादी विधान में विश्वास, जड़-रूढ़ि रीतियों का विरोध, ग्राम जन जीवन का चित्रण, नारी के प्रति उदार भावना जैसे विविध आयामों को आधार बनाकर कहानियों को उस पृष्ठभूमि में प्रतिपादित करने की सक्रिय चेष्टा डाॅ. अहिल्या मिश्र की कहानियों स्पष्टतया दिखाई पड़ती है।

जीवन दर्शन से संबंधित जो पहलू ऊपर प्रस्तुत किए गए हैं, वे लौकिक और भौतिक हैं। परंतु साहित्य के अंतर्गत प्रतिपादित होनेवाले जीवन दर्शन में आध्यात्मिक और पारलौकिक तत्वों की भी महानता स्वतः स्पष्ट है। इसी दृष्टि से अहिल्या मिश्र की कहानियों के अंतर्गत जड़ और चेतन दोनों ही तत्वों की समानता, जगत की सत्यता, मध्ययुगीन संतों की घातक निषेध वर्जनाओं से उद्घार, अंतः चेतना की महानता जैसे तथ्यों को भी सफल रूप में उजागर किया गया।

जीवन दर्शन के अंतर्गत एक अन्यतम महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि वह मानव मात्र को आदर्श व्यक्तित्व निर्मित करने की प्रेरणा देता है। इस प्रक्रिया में वह मनुष्य को अपना दृष्टिकोण सकारात्मक बनाकर सामाजिक क्षेत्र में एक आदर्श व्यक्ति बनाने का संदेश देता है। प्रेम देना और तद्वारा दूसरे लोगों का प्रेम प्राप्त करना तथा अपनी मधुर एवं तर्कयुक्त वाणी से लोगों को आकर्षित करके अपने मानवीय संबंधों को सुदृढ़ बनाना जैसे कार्यकलाप भी आदर्श जीवन दर्शन के प्रमुख अंग हैं। इस संदर्भ में ‘फाँसी का फंदा‘ नामक कहानी में डॉ. अहिल्या मिश्र का कथन है, ‘प्रेम एक नैसर्गिक भाव है। जीवन जीने के लिए एक अंतःप्रेरणा की सत्पूर्ति प्रेम द्वारा ही संभव होती है। आयु के अनुसार प्रेम का रूप भी परिवर्तित होता है। पूर्वाद्ध में प्रेम विशुद्ध भौतिक होता है। शनैः शनैः यह परिवर्तित आकर्षण के अवयवों से होता हुआ ईश्वरीय या आध्यात्म की मनः स्थित के भाव-बोध से पूर्ण हो जाता है। यह रसधार स्वार्थ और शारीरिक आकर्षणों के तत्वों के बीच बहती हुई आध्यात्म रूपी सागर में समावेश पाकर मानव को आपादमस्तक प्रेममय बना देती है। प्रेम साधना का नैरंतर्य ही वास्तव में मत्र्य जीवन का अमत्र्य रामबाण है। जिसे ज्ञानी माया के रूप में देखते हुए विरक्ति की खोज में निर्लिप्ति का प्रदर्शन करने की कोशिश मात्र करते हैं। किंतु इस मार्गारोहण में योगिराज कृष्ण के पथगामी बिरले ज्ञानी ही हो पाते हैं। ऐसा करना चाहते तो बहुत हैं, कदाचित उनसे सन्मार्ग के चयन में ही मौलिक भूल हो जाती है। भ्रम सागर, मोह सागर या अहम् सागर में डूबा मनुष्य इसकी क्षणिकता को ही जी पाता है। 

प्रभावी संप्रेषण, मानवीय सहयोग और सहानुभूति की भावना के द्वारा आदर्श व्यक्तित्व का निर्माण भी जीवन दर्शन के महत्वपूर्ण अंग माने जा सकते हैं। अहिल्या मिश्र ने अपनी कहानियों में अपने प्रभावी पात्रों और उनके कारण घटित घटनाओं द्वारा इन सभी तथ्यों को प्रदर्शित किया है।

जीवन दर्शन का एक अन्यतम पहलू यह है कि उसका स्वरूप मानव जीवन की प्रत्येक दशा में परिवर्तित होता रहता है। मनुष्य की बाल्यावस्था में जो जीवन दर्शन होता है आगे चलकर किशोरावस्था में नहीं रहता। यौवनावस्था, गृहस्थ, प्रौढ़ावस्था, वानप्रस्थ और वैराग्य प्रत्येक स्थिति में मानव जीवन का दर्शन अलग होता है। उससे संबंधित मूल्य और आदर्श भी परिवर्तित होते रहते हैं। इसी तथ्य का उल्लेख करती हुई डॉ. अहिल्या मिश्र अपनी कहानी ‘सात फेरों का प्रतिकार‘ में कहती है, ‘‘बचपन और खिलौनों का साथ चोली दामन का साथ होता है। जीवन के अन्य मोड़ों पर बचपन बीता हुआ कल अवश्य होता है। पर टूटे हुए खिलौने अपना मोह बनाए रखते हैं। यही तो जीवन-दर्शन और जिजीविषा होती है। यही स्थिति किशोरावस्था में मनुष्य मात्र के लिए निर्मित होने वाला जीवन-दर्शन की भी है। इस अवस्था में उसके मानवीय संबंध बढते है और परिवार के साथ-साथ कुछ बाह्य परिवेश की स्थितियों से भी वह संबद्ध होता है। परन्तु विवाहित होने के पश्चात् प्रत्येक स्त्री-पुरुष का जीवन दर्शन कुछ अलग ही होता है। कुछ लोग अपनी वैयक्तिक विचारधारा के कारण परिवार के अन्य सदस्यों के चिंतन को महत्त्व न देकर अपने लिए जीवन दर्शन सम्बन्धी एक अलग ही फिलॉसफी तैयार कर लेते हैं। डॉ. अहिल्या मिश्र की कहानी ‘धरती की परिक्रमा करता हुआ चाँद’ की नायिका भावना के बारे में कहानीकार कहती हैं- ‘‘भावना की अपनी मान्यता थी। उसकी अपनी फिलॉसफी थी। वह सोचा करती थी कि आजकल कौन बच्चे, किसके होते हैं? बेटी तो जन्म से पराई होती है और बेटा पालपोस कर बड़ा करो, पढ़ाओ, लिखाओ, फिर बड़ा होकर या तो विदेश चला जाएगा या फिर आने वाली बहू का होकर रह जाएगा। इससे तो अच्छे ये निमुहें जानवर हैं। जो पालनहार के प्रति ईमानदार एवं वफादार होते हैं। उम्र भर स्नेह के बदले स्नेह देते हैं। मेरा बच्चा तो यह पामोलियन हैं, जिससे खेलकर मेरा मन बहलता है। इसके स्नेह में डूबकर मैं बहुत खुश हूँ। मुझे कोई बच्चा नहीं चाहिए। मैं बच्चा पैदा नहीं करूँगी। बच्चों के रूप में आजकल मनुष्य नहीं स्वार्थी पैदा होते हैं। मैं दूसरों की स्वार्थ पूर्ति के लिए क्यों सोचूँ? मेरा स्वार्थ, मेरा प्रेम सब कुछ यह पामोलियन है। यही भावना अपनी ननद भव्या के जोर देने पर एक बेटे को जन्म तो देती है, लेकिन उसके जन्म लेने के तुरंत पश्चात उसके पालन-पोषण का दायित्व अपनी सास शिखा और ननद भव्या पर छोड़ देती है। बेटे का नाम लिखित रखा जाता है और वह अपनी बुआ भव्या के चारों तरफ ‘बुआ माँ‘ कहते हुए चक्कर काटता रहता है। उच्च शिक्षा प्राप्त करके वह विदेश चला जाता है जहाँ मेरी नामक अमेरिकन युवती से विवाह कर लेता है। आए दिन भावना के पति और सास का देहांत हो जाता है तो वह अकेली पड़ जाती है। लिखित उसका सगा बेटा होते हुए भी उसे अपनाने के लिए कतई स्वीकार नहीं करता। तब भावना को लगता है कि यौवन में उसने अपने व्यक्तित्व के अंतर्गत जिस जीवन दर्शन को विकसित किया था वह वाक्य में उसके लिए उपयुक्त सिद्ध नहीं होता। परंतु अतीत को दोहराना किसके लिए संभव होगा। डॉ.अहिल्या मिश्र की यह कहानी प्रत्येक मनुष्य को अपने व्यक्तित्व में सही जीवन दर्शन को विकसित करने के लिए बाध्य करती है।

किसी भी युग के जीवन दर्शन में समसामयिक सभ्यता और संस्कृति का महत्वपूर्ण स्थान होता है। भारतीय सभ्यता के विकास क्रम में जाति-पाँति के जिस भेदभाव ने स्थान प्राप्त कर लिया, वह नितांत असहनीय और तिरस्कार योग्य है। इस दृष्टि से हमारे वर्तमान जीवन दर्शन का स्वरूप न केवल विकृत हो गया बल्कि उसे परिष्कृत करना अत्यंत अनिवार्य हो गया है जो डॉ. अहिल्या मिश्र जैसी प्रतिभावान कथाकार ही अपनी कथाकृतियों द्वारा कर सकती हैं। यद्यपि सरकार द्वारा अछूत समझे जानेवाले अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को सामाजिक सुरक्षा देते हुए आजीविका प्राप्त करने के विविध क्षेत्रों में आरक्षण का प्रावधान किया गया, फिर भी देहाती प्रांतों में उच्च वर्ग द्वारा उनके प्रति किए जानेवाले नकारात्मक व्यवहार को देखने से मानवतावादी चिंतन रखनेवाला कोई भी व्यक्ति अत्यंत दुखी होगा। ऐसे दुख का अनुभव करनेवाले व्यक्ति की आयु का, उसकी वेदना और संवेदना से कोई संबंध नहीं रहता। 

डॉ. अहिल्या मिश्र की ‘उलटी लटकती छिपकली‘ इसी विकट सामाजिक विडंबना के कारण असह्य मानसिक वेदना का अनुभव करती है। मिनी अपने पिता की दूसरी पत्नी की प्रथम संतान थी। चार वर्ष की अबोध मिनी अपने जमींदार परिवार की कठोर मान्यताओं से परिचित नहीं थी। लखिनी उनके घर की नौकरानी थी, जो जात की एक दुसाधिन महिला थी। जिसके साथ काम पर उसका सात वर्ष का पुत्र मोहित भी आया करता था। जाति-पाँति के भेदभाव से अनभिज्ञ मिनी उस अछूत लड़के के साथ खेलना चाहती थी। चोरी-छुपे मोहित के साथ खेलनेवाली मिनी को उसकी दादी माँ ने ‘जो मिनी को फूल से भी नहीं छूती थी उसे क्रोधवश कसकर एक चाँटा मार दिया। हतप्रभ होकर मिनी बोल उठी, ‘दादी माँ आपने मुझे मारा। मैं जाऊँगी और खेलूँगी, मोहित के साथ रोज खेलूंगी। चाहे आप मुझे कितना ही क्यों न मारे।‘ मिनी के परिवार वाले अपने परंपरागत संस्कारों से विवश होकर मिनी को मोहित से दूर रखने के लिए हॉस्टल भेज देते हैं। सातवीं कक्षा समाप्त होने के पश्चात् जब वह घर लौटती है तो तब भी उस स्थिति में कोई सुधार नज़्ार नहीं आता। अब वह सामाजिक क्षेत्र में छुआछूत का भेदभाव समझने लगी। वह सोच उठती कि उसके शरीर में बहनेवाला खून लखिनी और मोहित के शरीर में बहनेवाले खून से अलग है क्या? यह समाज इतनी कठोर सजा क्यों देता है? उसने भगवान से बड़े और ऊँचे परिवार में जन्म लेने की इच्छा जाहिर नहीं की थी। फिर भगवान ने उसे यह सजा क्यों दी? छुआछूत के भेदभाव को दूर करके प्रत्येक मनुष्य को समान रूप से देखने के जीवन दर्शन का प्रचलन यदि कोई कर सकता है तो वह मात्र डॉ. अहिल्या मिश्र जैसी कथाकार ही कर सकता है।

युवा पीढ़ी को आदर्शमय ढंग से रूपायित करनेवाले अभिभावकों एवं बड़े बुजुर्गों के प्रति युवकों के सम्मान एवं कृतज्ञता के अभाव भरे विकृत जीवन दर्शन को प्रस्तुत करनेवाली कहानी ‘उड़ान का साक्षी‘ विवेच्य संदर्भ में अहिल्या मिश्र का एक और उत्कृष्ट प्रयास है जो वर्तमान युवा वर्ग की स्वार्थी मानसिकता को दूर करने की चेष्टा करने में अत्यंत सक्षम है। ‘विषय‘ की शैशवावस्था में ही उसकी माता का देहांत हो गया था। उसके पिता जीवन बाबू ने दूसरा विवाह किए बिना उसे पाल-पोसकर बड़ा किया। एक मामूली किसान होते हुए भी जीवन बाबू ने काफी मेहनत करते हुए विषय की हर ख्वाहिश को पूरा किया। विषय भी शिक्षा में तेज था। इसलिए जीवन बाबू ने उसे अच्छी शिक्षा दिलाई। उनका एकमात्र उद्देश्य था कि विषय को अधिक से अधिक सुविधाओं के साथ योग्य बनाएँ। उन्होंने अपने बेटे को माँ बनकर पाला है और समर्पित पिता बनकर उसकी इच्छाएँ पूरा करते रहे। जब जीवन बाबू ने अपने ही गाँव की एक सुंदर एवं पढी लिखी लड़की से विवाह करने का प्रयास विषय के सामने रखा तो उसने इस प्रस्ताव को बड़ी निर्ममता से ठुकरा दिया। एक विदेशी कंपनी में ऊँची तनख्वाह पर नौकरी प्राप्त विषय ने अपनी पसंद की लड़की के साथ कोर्ट मैरिज कर ली। दोनों पति-पत्नी जीवन बाबू का आशीर्वाद लेने गाँव आए। लौटते समय जीवन बाबू को भी साथ चलने का प्रस्ताव किया। वास्तव में उन्होंने अपने पुत्र को गाँव से जोड़े रखने के लिए ही उसकी शादी किसान की बेटी से करनी चाही थी। अब वे कह उठे, ‘जब तक तुम्हारे डैने में उड़ने की ताकत नहीं थी तब तक तुम्हें मेरी जरूरत थी। मैंने अपनी फौलादी शक्ति के बल पर तुम्हारे डैने को मजबूत बनाया। तुम्हें उड़ान भरने के लिए उत्साहित करता रहा। अब तुम्हें मेरी जरूरत नहीं है। मैं अपनी धरती को छोड़कर तुम्हारे उड़ान का साक्षी नहीं बन सकता। जीवन बाबू जैसे बुजुर्गों के प्रति युवा वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में चित्रित विषय की मानसिक विकृति को दूर करने की दिशा में कथाकार द्वारा किया गया यह प्रयास समसामयिक जीवन दर्शन को प्रसारित करने की अवश्य ही एक अद्भुत चेष्टा है। प्रस्तुत कहानी के जीवन बाबू पात्र के स्वावलंबी होकर गाँव में ही रह जाने का निर्णय भी कहानीकार द्वारा प्रतिपादित आदर्श जीवन दर्शन का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। विकृत सामाजिक यथार्थ को सुंदर तथा आकर्षक बनाते हुए मानव कल्याण के लिए की जानेवाली संघर्षपूर्ण चेष्टा को ही ‘सामाजिक चेतना‘ के नाम से अभिहित किया जा सकता है। वर्तमान समाज में व्याप्त विविध समस्याओं, विसंगतियों एवं विडंबनाओं के प्रति कोई भी सक्रिय व्यक्ति अपने मस्तिष्क में दो प्रकार के भाव उत्पन्न करता है। पहली श्रेणी के अंतर्गत उसके वे भाव आते हैं, जिनके कारण वह अपने आप को हताश अथवा निस्सहाय पाता है। ऐसी भावनाओं के कारण वह अत्यंत निष्क्रिय हो जाता है और उससे मानव समाज के लिए किसी प्रकार का उपयोग संभव नहीं होता ।

सामाजिक यथार्थ की विकृतियों के कारण मानव मन में उत्पन्न होनेवाले दूसरे प्रकार के भाव उसे सामाजिक दृष्टि से अत्यंत सक्रिय बनाते हैं। सामाजिक क्षेत्र के चरित्रहीन लोगों को चरित्रवान बनाने के लिए प्रयत्नशील होने को बाध्य करते हैं। व्यष्टि और समष्टि दोनों ही क्षेत्रों में व्याप्त मूल्यहीनता को समाप्त कर देने की दिशा में संघर्ष करने के लिए प्रेरित भी करते हैं। ऐसी प्रेरणा पाकर वे लोग सामाजिक चेतना से पूर्णतया अभिभूत हो जाते हैं और उनकी इस प्रवृत्ति के कारण समाज कल्याण कुछ हद तक संभव हो जाता है। परंतु किसी भी युग में सामाजिक क्षेत्र के अंतर्गत ऐसे लोगों की संख्या बहुत अधिक नहीं होती। जितनी भी होती है उसमें कलाकारों, विशेष रूप से साहित्यकारों का स्थान सर्वोपरि होता है। भारतीय साहित्य में, वह भी हिंदी साहित्य के अंतर्गत मध्य युग से ही सामाजिक चेतना की यह प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है। आधुनिक युग तक आते-आते हिंदी के गद्यकारों ने अपनी साहित्यिक कृतियों में सामाजिक चेतना के इस आदर्श को पूरी तरह से उजागर करने का प्रभावी प्रयास करना आरंभ किया। 

विविध साहित्यिक विधाओं के अंतर्गत वर्तमान संदर्भ में सामाजिक चेतना को प्रचुर मात्रा में उजागर करने की अत्यधिक क्षमता कथा साहित्य में ही पायी जाती है। कथाकृतियों की वर्णनात्मकता, कथात्मकता, रोचकता जैसी प्रवृत्तियों के कारण, आम पाठक वर्ग इस साहित्यिक विधा के प्रति अधिक आकर्षित रहते हैं और यह विधा सामाजिक चेतना के प्रसारण संबंधी अपने साहित्यिक आशय के संपादन में पूर्णतया सफल हो पाती है। कथा साहित्य में भी अपनी संक्षिप्तता के कारण कहानियाँ यह कार्य और भी सफलतापूर्वक कर पा रही हैं, इसमें कोई शक नहीं।

अपनी वैविध्यपूर्ण वस्तु चेतना के सहारे वर्तमान भारतीय समाज में व्याप्त कई समस्याओं को प्रकाश में लाते हुए उनपर तर्कपूर्ण विचार प्रस्तुत करके उनके लिए आदर्श समाधान प्रस्तुत करनेवाले कहानीकारों में डॉ. अहिल्या मिश्र का नाम सर्वोपरि माना जा सकता है। प्रेमचंद से लेकर इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक तक जितने भी कहानीकारों ने भारतीय जनजीवन को अपनी वस्तु चेतना का आधार बनाकर उसमें व्याप्त विडंबनापूर्ण स्थितियों के आदर्श समाधान प्रतिपादित किए, निस्संदेह वे ही कथाकार अत्यंत लोकप्रिय हुए और उनकी कहानियाँ सार्थक एवं स्मरणीय बन गई। इस श्रृंखला में डॉ. अहिल्या मिश्र का नाम विशेष उल्लेखनीय और पठनीय ही नहीं, बल्कि इनका जितना प्रचार-प्रसार संभव होगा, भारतीय सामाजिक व्यवस्था के लिए उतना ही लाभदायक होगा, इसमें दो राय नहीं हैं। इस तथ्य की पुष्टि के लिए डॉ. अहिल्या मिश्र की कुछ कहानियों का हवाला देते हुए यह सिद्ध करना उपयुक्त होगा कि उनमें वर्तमान मनुष्य के लिए आवश्यक सामाजिक चेतना के स्वरूप को कैसे उतारा गया!

आधुनिक युग का मनुष्य धन और संपत्ति को ही अपने जीवन के लिए आवश्यक एवं अत्यंत महत्वपूर्ण घटक मान रहा है। उनके सम्मुख उसके लिए पारिवारिक अथवा सामाजिक क्षेत्र के कोई भी मानव संबंध महत्वपूर्ण नहीं होते। वह यह भूलता जा रहा है कि उसकी इसी प्रवृत्ति के कारण वह एक अत्यंत अशांत मानसिकता का अनुभव कर रहा है। इसी तथ्य को उजागर करती हुई डॉ. अहिल्या मिश्र कृत ‘सबक‘ कहानी में रामू नामक पात्र कहता है, ‘इन्सानियत बड़ी ऊँची चीज है। रुपयों के तराजू से दोस्ती और फर्ज नहीं तोले जाते।‘ आज समाज में व्याप्त लोभ-लालच एवं इससे उत्पन्न दहेज की पीड़ा देने या लेने से पहले हम अपने मनुष्य होने की बात सोचें‘ तो बड़ा अच्छा होगा। संक्षेप में कहानी का सारांश इस प्रकार है:-

राम और श्याम बचपन से घनिष्ठ मित्र थे। राम एक संपन्न परिवार का सदस्य था। मध्यवर्गीय श्याम कुछ विशेष संपन्न नहीं था। श्याम अपने पुत्र रंजन के लिए राम की पुत्री आशा का हाथ माँगता है। इसके लिए राम की स्वीकृति पाकर वह अत्यंत प्रसन्न हो जाता है। वह चाहता है कि आशा ढेर सारे गहने और भारी रकम लेकर लक्ष्मी की भाँति उसके घर में आएगी। परंतु विवाह के पश्चात् ऐसा नहीं होता तो वह हताश हो जाता है और राम को खरी कोटी सुनाने लग जाता है। इस पर राम उसे समझाता है- ‘‘तुम्हारा गुस्सा देखकर मुझे दुःख हुआ। क्या हमारी दोस्ती से बड़ा हमारे बीच पैसा हो गया। गुस्सा थूक दो और बच्चों को दुआ दो कि दोनों सुखी रहें। पैसे के लिए आदमी नैतिकता न खोए। दोस्ती पर सब कुछ कुर्बान किया जा सकता है। बेटी चाहे मेरी हो या तुम्हारी, वह लक्ष्मी होती है। उससे बड़ा धन और क्या चाहिए।’’ राम के इन शब्दों से गरिमामय भारतीय संस्कृति में परंपरागत रूप से प्राप्त संस्कारों को महत्व देने और उनकी तुलना में धन अथवा संपत्ति को तुच्छ समझने का संदेश देकर कहानीकार ने सामाजिक चेतना प्रसारित करने की जो प्रभावी चेष्टा की वह अवश्य ही अन्य सृजनशील कलाकारों के लिए अनुसरणीय माना जा सकता है।

यद्यपि सरकार द्वारा अछूत समझे जानेवाले अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को सामाजिक सुरक्षा देते हुए आजीविका प्राप्त करने के विविध क्षेत्रों में आरक्षण का प्रावधान किया गया। फिर भी देहाती प्रांतों में उच्च वर्ग द्वारा उनके प्रति किए जानेवाले नकारात्मक व्यवहार को देखने से मानवतावादी चिंतन रखनेवाला कोई भी व्यक्ति अत्यंत दुःखी होगा। ऐसे दुःख का अनुभव करनेवाले व्यक्ति की आयु का, उसकी वेदना और संवेदना से कोई संबंध नहीं रहता। डॉ. अहिल्या मिश्र की “उलटी लटकती छिपकली‘‘ इसी विकट सामाजिक विडंबना के कारण असह्य मानसिक वेदना का अनुभव करती है। मिनी अपने पिताकी दूसरी पत्नी की प्रथम संतान थी। चार वर्ष की अबोध मिनी अपनी जमींदार परिवार की कठोर मान्यताओं से परिचित नहीं थी। लखिनी उनके घर की नौकरानी थी जो जात की एक दुसाधिन महिला थी जिसके साथ काम पर उसका सात वर्ष का पुत्र मोहित भी आया करता था। जाति-पाँति के भेदभाव से अनभिज्ञ मिनी उस अछूत लड़के के साथ खेलना चाहती थी। चोरी-छुपे मोहित के साथ खेलनेवाली मिनी को उसकी दादी माँ ‘‘जो मिनी को फूल से भी नहीं छूती थी उसे क्रोधवश कसकर एक चाँटा मार दिया।” हतप्रभ होकर मिनी बोल उठी - ‘‘दादी माँ! आपने मुझे मारा। मैं जाऊँगी और खेलूँगी, मोहित के साथ रोज खेलूँगी। चाहे आप मुझे कितना ही क्यों न मारे।‘‘ मिनी के परिवार वाले अपने परंपरागत संस्कारों से विवश होकर मिनी को मोहित से दूर रखने के लिए हास्टल भेज देते हैं। सातवीं कक्षा समाप्त होने के पश्चात् जब वह घर लौटती है तब भी उस स्थिति में कोई सुधार नहीं नजर आता। अब वह सामाजिक क्षेत्र से छूआछूत का भेद भाव समझने लगी। वह सोच उठती कि उसके शरीर में बहनेवाला खून लखिनी और मोहित के शरीर में बहनेवाले खून से अलग है क्या? यह समाज इतना कठोर सजा क्यों दी जाती है? उसने भगवान से बड़े और ऊँचे परिवार में जन्म लेने की इच्छा जाहिर नहीं की थी। फिर भगवान ने उसे यह सजा क्यों दी? छूआछूत के भेद भाव को दूर करके प्रत्येक मनुष्य को समान रूप से देखने की मानवता का प्रसारण करनेवाले इन भावनाओं से बढकर क्या सामाजिक चेतना हो सकती है?

युवा पीढ़ी को आदर्शमय ढंग से रूपायित करनेवाले अभिभावकों एवं बड़े बुजुर्गों के प्रति युवकों के सम्मान एवं कृतज्ञता के अभाव भरी सामाजिक विकृति को प्रस्तुत करनेवाली ‘‘उड़ान का साक्षी‘‘ विवेच्य संदर्भ में अहिल्या मिश्र का एक और उत्कृष्ट प्रयास है जो वर्तमान युवा वर्ग की स्वार्थी मानसिकता को दूर करने की चेष्टा करने में अत्यंत सक्षम है। जिसका विवेचन ऊपर प्रस्तुत किया गया है।

एक अन्यतम उदाहरन के रूप में ‘मोहभंग‘ कहानी का उल्लेख किया जा सकता है जिसकी की नायिका अमिधा अपने पति की मृत्यु के पाँच वर्ष के पश्चात् तक अपने परिवार में बेटे बहू - अक्षर तथा अक्षता और उनके बच्चों के व्यवहार में आए हुए परिवर्तन से विह्वल होकर वृद्धाश्रम में निवास करने का निर्णय कर लेती है। कथाकार अहिल्या मिश्र का यह सुझाव हम सबको स्वीकार करना होगा कि प्रत्येक दंपति अथवा मनुष्य के लिए अपने जीवन के संध्या काल में अपने परिवार के विविध सदस्यों से अपना मोह त्याग देना ही वर्तमान संदर्भ में अत्यंत उपयुक्त होगा।

समसामयिक समाजकी एक अन्यतम विकृति है, अंध विश्वासों का भरमार। ढोंगी साधुओं और धोखेबाज संत महात्माओं के चारों तरफ आजकल भोले भाले लोगों की भीड़ इतनी बढ़ गई कि उन साधु संतों को साँस लेने तक की फुरसत नहीं मिलती। शिक्षित और अशिक्षित सभी वर्गों के लोगों से दान दक्षिणा के रूप में प्राप्त अपार संपत्ति के कारण वे झूठे साधु एक विलासमय जीवन व्यतीत करने लग गए हैं। यही नहीं, भक्ति एवं श्रद्धा के साथ उनके सान्निध्य में आनेवाली किशोरी युवतियों का किसी न किसी बहाने शारीरिक उपभोग तक करने में ऐसे साधु संकोच नहीं करते। वर्तमान समाज में व्याप्त ऐसी असभ्य व्यवहार धारा को सहृदय पाठकों के सम्मुख लाकर उसके प्रति उन्हें जागरूक करने की चेष्टा करती हुई लिखी गई कहानी ‘पापी सन्यासी‘ इस दिशा में कहानीकार डॉ अहिल्या मिश्र का एक और प्रभावी कदम है। प्रस्तुत कहानी का घटनाक्रम संक्षेप में इस प्रकार है:

नित्यानंद एक पढ़ा लिखा समझदार पुलिस अधिकारी था। वह एक आस्थावान एवं परिश्रमी युवक था। वह अकसर स्वामी श्रद्धानंद के प्रवचन सुनने जाता। राधा कृष्ण का प्रेम और रासलीला उसका प्रिय विषय था। वह परमात्मा को कृष्ण और अपनी आत्मा को राधा मानकर राधा के वेष में विचरण करता था। वह शहर में पधारनेवाले अन्य साधु संतों का दर्शन भी करता था। उनके सामने उमड़ती भीड़ एवं उन पर चढ़नेवाला चढ़ावा को वह ध्यान से देखता था। परिणामस्वरूप उसके मना में सांसारिक एवं जैविक प्रेम का दिन प्रतिदिन ह्रास होने लगा। कहानीकार के गाँव में स्वामी राधारमण जी के प्रवचनों का भी बहुत सम्मान था। परंतु हारमोनियम सिखाने के बहाने लेखिका की सहेली प्रेमा से दुर्व्यवहार किया था। इसीलिए ऐसे गुरुओं से लेखिका को नफरत हो गई थी। अहिल्याजी की दादी ने अपने परिवार के सभी सदस्यों को ऐसे ही एक गुरु से दीक्षा दिलवाई थी। परंतु लेखिका ने ऐसे लोगों से दीक्षा लेने के लिए मना कर दिया था। ऐसी सामाजिक चेतना से भरी कहानी पढ़कर कोई भी सहृदय पाठक अपने विवेक और तर्क के आधार पर यह निश्चय कर पाएगा कि आध्यात्म और दर्शन के नाम पर सामाजिक क्षेत्र में संपन्न होनेवाली आस्था प्रधान प्रक्रियाओं में से कितनों को और कितना महत्व दिया जा सकता है।

धर्म और आध्यात्म से संबंधित विडंबनापूर्ण स्थितियों के कारण मानव जीवन में विशेष रूप से नारी जीवन में आनेवाले उथल पुथल का चित्रण अहिल्या मिश्र की एक अन्यतम कहानी ‘रिश्तों का कसैलापन‘ में भी देखने को मिलता है। प्रस्तुत कहानी की नायिका ऊष्मा अपने जीवन में घटित दुखद घटनाओं के कारण हताश होकर अपने भटके मन को साधने हेतु एक संत के संगत में जा पहुँची। वह कपटी भी उष्मा के रूप यौवन की चमक से चैंधिया गया और उष्मा को आध्यात्म के स्थान पर भौतिक सुखों का पाठ पढ़ाकर शांति के लिए झूठे रास्ते पर चलने का मार्गदर्शन देने लगा।

वैसे तो अहिल्या मिश्र की अनेक कहानियों में प्रसारित सामाजिक चेतना समसामयिक जीवन के विभिन्न पहलुओं को छूती हुई सहृदय पाठकों को विकृत सामाजिक यथार्थ पर चिंतन करने तथा इसे सुधारने की दिशा में संघर्ष करने के लिए बाध्य कर देती है। पेट की भूख और रोटी की खोज में अपनी बहुमूल्य शैशवावस्था तक का अनजाने में ही बलिदान कर देनेवाले अबोध एवं मासूम बाल श्रमिकों की दुखद परंतु आशापूर्ण वस्तु चेतना से अनुप्राणित ‘सूनी आँखों का बचपन‘ नामक कहानी, विवेकवान बुद्धिजीवियों, लेखकों, प्राचार्यों एवं शोधकर्ताओं के लिए आयोजित सम्मेलनों में नारी के मर्यादारहित कामनाओं और इच्छाओं भरे उद्दाम रूप तथा पुरुष के प्रति उसकी लालसा के भयानक तिमिर को दर्शानेवाली मानसिक विकृति को चित्रित करते हुए वैसी स्थिति से शैक्षिक क्षेत्र को मुक्त करने का प्रयत्न करनेवाली ‘एक रात का सफर‘ नामक कहानी, मनुष्य मात्र को उसकी शैशवावस्था में ही अच्छे भले संस्कार देने की चेष्टा करनेवाले और ऐसा करके एक मनमौजी, लापरवाह, शरारती, चुहल-बाजी लड़के को आदर्शवान एवं सकारात्मक मूल्यों में विश्वास करनेवाले लड़के के रूप में सुधारनेवाले एक भव्य चरित्रवान शिक्षक की ‘सच्चाई की सीख‘ नामक कहानी- इस प्रकार डॉ. अहिल्या मिश्र की सभी कहानियाँ सामाजिक चेतना के विभिन्न पहलुओं को उजागर करते हुए सहृदय पाठकों को उन पर विचार करके सक्रियहोकर विकृत सामाजिक यथार्थ को परिष्कृत करने के लिए बाध्य कर देती हैं। समाज के प्रतिएक दायित्वपूर्ण कथाकार के रूप में डॉ. अहिल्या मिश्र ने जिन अद्भुत कथाकृतियों का सृजन किया वे निस्संदेह प्रत्येक सामाजिक को एक अद्वितीय स्फूर्ति से भरकर उसे एक व्यवस्थित एवं आदर्श समाज के निर्माण की दिशा में अग्रसर होने के लिए प्रेरित एवं प्रोत्साहित करेंगे।

वैसे तो इस लेख के एक छोटे-से कलेवर में डॉ. अहिल्या मिश्र द्वारा अपने कथा साहित्य में प्रतिपादित जीवन दर्शन को प्रकाश में लाना साधारण कार्य नहीं है। फिर भी जो प्रयास ऊपर किया गया है, उससे पाठकों को यह अवश्य सिद्ध हो जाएगा कि उन्हें अपने लिए किस प्रकार के जीवन दर्शन की आवश्यकता होगी। वास्तव में ऐसे बहुत कम मनुष्य होते हैं जो अपने लिए एक विशेष और आदर्शवान जीवन दर्शन का विकास करने हेतु प्रयत्नशील रहते हैं। परंतु यह तो अनिवार्य है कि प्रत्येक मनुष्य के लिए कोई न कोई जीवन दर्शन उसके व्यक्तित्व में निहित रहता है, उसके विचार, उसके द्वारा अपनाए जानेवाले आदर्श और वे सभी मूल्य जिनका वे अनुसरण करते हैं, उसके जीवन दर्शन को निर्मित करते हैं। डॉ. अहिल्या मिश्र ने बड़े ही प्रभावी ढंग से यह सिद्ध करके दिखाया है कि जहाँ ये विचार सकारात्मक होते हैं तथा ये मूल्य और आदर्श लोक कल्याणकारी होते हैं वहाँ जीवन दर्शन भी वैश्विक समाज के लिए अनुसरणीय और कल्याणकारी सिद्ध होगा।

नागरी प्रचारिणी सभा आगरा में सम्मान के लिए मंचस्थ

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