‘वैचारिक क्रान्ति के विचलन का आख्यान’

समीक्षा


समीक्षक : संदीपा दीक्षितसंदीपा दीक्षित, मया बाजार, फैजाबाद

आर. डी. आनंद, फैजाबाद (उत्तर प्रदेश), मो. 9451203713

प्रसिद्ध माक्र्सवादी आलोचक आर.डी. आनंद सर का एक आलोचनात्मक कविता-संग्रह ‘‘जय भीम कॉमरेड‘‘ है। उसकी प्रस्तावना लिखते समय आनंद सर ने चेतावनी दी है कि इस संग्रह में ‘‘मैं‘‘ को आर डी आनंद न समझा जाय बल्कि वह ‘‘मैं‘‘ उस जाति का कर्ता है। इस संग्रह में तीन प्रकार के ‘‘मैं‘‘ है। प्रथम ‘‘मैं‘‘ दलित कर्ता है। दूसरा ‘‘मैं‘‘ कम्युनिस्ट कर्ता है। तीसरा ‘‘मैं‘‘ ब्राह्मण कर्ता है। इस संग्रह की कविताओं में व्यंग भी है। सामान्य तौर पर पाठक आनंद सर को कर्ता समझ कर मार खा जाता है और वह आनंद सर को अपने कैटेगरी का दलित अथवा कम्युनिस्ट मान बैठता है जबकि हकीकत यह है कि आनंद सर दलित आलोचना से कम्युनिस्टों की और कम्युनिस्ट आलोचना से दलितों की आँख खोलने का प्रयास करते हैं। इसी तरह आनंद सर जब ब्राह्मणों को कर्ता बनाते हैं, तो वे दलितों के वैचारिक भँवरजाल को ब्राह्मणों द्वारा कहलवाते हैं। इस संग्रह में ‘‘जय भीम‘‘ शब्द भी है और ‘‘लाल सलाम‘‘ शब्द भी है। इसमें ‘‘आम्बेडकरवाद‘‘ भी है और ‘‘माक्र्सवाद‘‘ भी है। इसमें ‘‘दलित‘‘ भी है और ‘‘सर्वहारा‘‘ भी है। इसमें ‘‘आम्बेडकरवादी‘‘ भी हैं और ‘‘माक्र्सवादी‘‘ भी हैं। आनंद सर ने बहुत बारीकी से ‘‘आम्बेडकर‘‘ और ‘‘माक्र्स‘‘ की मध्यस्तता की है। इस संग्रह की ढ़ेर सारी कविताएँ बहुत ही उत्कृष्ट हैं। ‘‘जय भीम‘‘, ‘‘जय भीम कॉमरेड‘‘, ‘‘कॉमरेड मुझे बताओ‘‘, ‘‘हम दक्षिणपंथी ही सही हैं‘‘, ‘‘सांस्कृतिक क्रान्ति‘‘, ‘‘उसका नाम क्या है‘‘, ‘‘अहिंसा और करुणा‘‘, ‘‘जाति और वर्ग‘‘, ‘‘वह क्रान्ति का दर्शन है‘‘, ‘‘मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ‘‘, ‘‘तू मेरा अंश है‘‘, ‘‘सर्वे कहता है‘‘, ‘‘आम्बेडकर ने कहा था‘‘, ‘‘मुक्ति खूबसूरत है‘‘, ‘‘वह हमें श्रेष्ठ सिद्ध करता है‘‘, ‘‘नए ब्राह्मण का उदय‘‘, ‘‘अपना दीप जला रखना‘‘, ‘‘इंकलाब जिंदाबाद‘‘ जैसी कविताएँ बहुत ही ऐतिहासिक महत्व की कविताएँ है जिन पर हमें लगातार विमर्श आमंत्रित करते रहना चाहिए। ये सभी कविताएँ क्रान्तिकारी दस्तावेज हैं। इतनी बेहतरीन कविताओं के लिए हमें आनंद सर का शुक्रगुजार होना चाहिए। 

आर डी आनंद सर के संग्रह ‘‘जय भीम कॉमरेड‘‘ की पहली कविता जो संग्रह के शीर्षक नाम से ही है, पूरी पुस्तक का निचोड़ है। मात्र एक कविता ‘‘जय भीम कॉमरेड‘‘ से ही ‘‘दलित और कम्युनिस्ट विमर्श‘‘ का उद्देश्य पूरा हो जाता है लेकिन अन्य कविताएँ भी इस विमर्श के विभिन्न पहलुओं को विमर्श के केंद्र में लाकर वैचारिक क्रान्ति को सफल करते हुए ‘‘आम्बेडकरवादियों और माक्र्सवादियों‘‘ को एक दूसरे के नजदीक लाते हैं। आनंद सर की कविताओं के निहितार्थ को समझने के लिए बहुत ईमानदारी, सच्चाई और क्रान्तिकारी उद्देश्य की नितांत आवश्यकता है क्योंकि ये कविताएँ व्यक्ति को क्रान्ति की सफलता के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ होने की माँग करती हैं। वह व्यक्ति इन कविताओं के निहित उद्देश्य को नहीं समझ सकता है अथवा गलत अर्थ ग्रहण कर बैठेगा जो व्यक्ति खेमेबाजी में विश्वास रखता है अथवा आम्बेडकर साहब को ईश्वर मान बैठा है अथवा माक्र्स को यांत्रिक ढंग से समझता है। ‘‘जय भीम कॉमरेड‘‘ कविता में सबसे पहला वाक्य है ‘‘सुनो कॉमरेड‘‘ अर्थात यह कविता कम्युनिस्टों व माक्र्सवादियों को संबोधित है। स्पष्ट है कि इस कविता का कर्ता दलित है। ‘‘जय भीम‘‘, ‘‘लाल सलाम‘‘ और ‘‘नीला सलाम‘‘ अपने अपने सन्निहित अर्थों के साथ मजबूती से खड़े हैं। ‘‘जय भीम‘‘ और ‘‘नीला सलाम‘‘ आम्बेडकरवादियों का प्रतिनिधित्व और ‘‘लाल सलाम‘‘ कम्युनिस्टों अथवा माक्र्सवादियों का प्रतिनिधित्व करता है। आम्बेडकरवादी दलित कर्ता शब्दों का अर्थ समझाते हुए कहता है कि ‘‘लाल सलाम‘‘ के ‘‘लाल‘‘ का अर्थ है ‘‘खून‘‘ अर्थात ‘‘क्रान्ति‘‘ तथा ‘‘नीला सलाम‘‘ के ‘‘नीला‘‘ का अर्थ है ‘‘शान्ति‘‘ अर्थात ‘‘अहिंसा‘‘। आम्बेडकरवादी साथी कहता है हमें ‘‘क्रान्ति‘‘ नहीं चाहिए। हमें ‘‘तानाशाही‘‘ नहीं पसंद है। हमें ‘‘स्वतंत्रता‘‘ चाहिए। हम ‘‘अहिंसावादी‘‘ हैं। हमें ‘‘साम्यवाद‘‘ नहीं चाहिए। हमें ‘‘लोकतंत्र‘‘ चाहिए। इस कविता में आम्बेडकरवादी साथी आगे कहता है कि तुम्हे ‘‘कॉमरेड‘‘ शब्द पसंद है लेकिन हमें ‘‘मान्यवर‘‘ (साहब) कहना अच्छा लगता है। तुम्हें वर्ग-संघर्ष चाहिए, हमें संविधान प्रिय है। तुम ‘‘पूँजीवाद‘‘ विरोधी हो, तो हम ‘‘ब्राह्मणवाद‘‘ विरोधी हैं। तुम हमें ‘‘वर्ग-संघर्ष‘‘ के नाम पर बरगला कर ‘‘संविधान‘‘ के साथ धोखा करना चाहते हो। हम ऐसा हरगिज नहीं होने देंगे क्योंकि हम आम्बेडकरवादी हैं। तुम साम्यवाद चाहते हो तो हम राजकीय समाजवाद लाएँगे किन्तु तुम क्रान्ति के द्वारा खून बहाकर, हत्या करवा कर और शान्ति भंग करके साम्यवाद लाना चाहते हो और हम आम्बेडकरवादी अहिंसा का मार्ग अपनाकर करुणा, प्रज्ञा, शील द्वारा संविधान में राज्य के मार्फत समाजवाद लाएँगे। 

इस कविता के व्याख्यायित अर्थों में दलित कॉन्सेप्ट स्पष्ट है। वास्तव में, यह विमर्श अनायास नहीं है। 2003, 2007 और 2011 में राजकीय इंटर कॉलेज गोसाइगंज, आम्बेडकरनगर में माक्र्सवादी दलित चिंतक और लेखक आर डी आनंद सर का लम्बा-लम्बा भाषण सुना था जिसमें उन्होंने बुद्ध, माक्र्स, समाजवाद, साम्यवाद, लोकतंत्र, वर्ग-संघर्ष, क्रान्ति, शान्ति, प्रज्ञा, करुणा, शील, श्रमिक वर्ग, शोषक, शोषित, मालिक, मजदूर, पूँजीवाद, ब्राह्मणवाद इत्यादि शब्दावलियों का प्रयोग करते हुए एक विमर्श रचा था। चूँकि, उस समय आनंद सर का नाम गोसाईगंज समिति वाले अक्सर लिया करते थे और आनंद सर को एक युवा बुद्धिजीवी आम्बेडकरवादी माक्र्सवादी चिंतक और क्रान्तिकारी मानते थे। मेरी बहुत इच्छा थी कि आनंद सर को सुनें इसलिए मैं एक छात्रा के रूप में सर का भाषण सुनने गई थी। भाषण के अनेक बिंदुओं को मैंने अपने डायरी में नोट किया था। जब आनंद सर से सम्मुख बात करने का अवसर मिला, तो मैंने कई बार इन शब्दों के मायने-मतलब जानने का प्रयास किया तथा आनंद सर द्वारा कही गई पुस्तकों को पढ़ा। तब मैंने जाना कि सत्य क्या है। आज जब आनंद सर की कविताओं को पढ़ रही हूँ, तो मुझे लगा कि आनंद सर ने इन कविताओं के विमर्श को कहाँ-कहाँ से उठाया है और कैसे कविता के संक्षिप्त भूभाग में एक बहुत बड़े प्लाट को समाहित किया है। आज मुझे पता चला कि यह विमर्श डॉ. आम्बेडकर साहब के किताब ‘‘जातिप्रथा उन्मूलन‘‘, ‘‘बुद्ध अथवा कार्ल माक्र्स‘‘ तथा ‘‘राज्य और अल्पसंख्यक‘‘ की समझ से उपजा है। इस विमर्श में बाबा साहब के दो लेख ‘‘संसदीय लोकतंत्र और श्रमिक वर्ग‘‘ तथा ‘‘1938 में मनमाड रेलवे कर्मचारियों को संबोधित किया गया भाषण‘‘ भी शामिल कर लिया जाय, तो यह विमर्श और भी अच्छी तरह स्पष्ट हो जाता है। ‘‘जातिप्रथा उन्मूलन‘‘ एक ऐसी पुस्तक है जिससे हमें जातिप्रथा उन्मूलन अर्थात ब्राह्मणवाद का समूल नाश की प्रेरणा मिलती है और एक आम्बेडकरवादी के रूप में दलित ब्राह्मणवाद का विरोध करता है। ‘‘बुद्ध अथवा कार्ल माक्र्स‘‘ 1956 में काठमांडू में दिया गया भाषण है। इस पुस्तक में बाबा साहब ने बुद्ध और माक्र्स के सिद्धांतों की तुलना की है। तुलना करते हुए मूल सिद्धांतों को लगभग एक पाया। दोनों को साम्यवादी कहा। बाबा साहब की दृष्टि में बुद्ध और माक्र्स के साम्यवाद लाने के रास्ते में एकता नहीं बनी। बुद्ध अहिंसावादी थे और माक्र्स क्रान्ति को अनिवार्य मानते थे। आम्बेडकर साहब ने कहा क्रान्ति में खून बहेगा और सर्वहारा की तानाशाही में व्यक्ति की स्वतंत्रता खत्म हो जाएगी। डॉ. आम्बेडकर ने क्रान्ति और तानाशाही को खारिज कर दिया। रह गया समाजवाद। डॉ.आम्बेडकर ने समाजवाद को तो स्वीकार किया लेकिन क्रान्ति रहित समाजवाद, खून रहित समाजवाद, तानाशाही रहित समाजवाद और व्यक्ति की स्वतंत्रता सहित समाजवाद को स्वीकार किया। बाबा साहब डॉ. आम्बेडकर ने अपने समाजवाद का नाम दिया ‘‘राजकीय समाजवाद‘‘। अंत में डॉ. आम्बेडकर ने कहा कि बुद्ध अथवा माक्र्स में से किसी को अपनाना जरूर पड़ेगा लेकिन मैं बुद्ध के मार्ग को अपनाऊँगा क्योंकि बुद्ध के मार्ग में हिंसा नहीं करुणा है तथा बुद्ध का साम्यवाद माक्र्स के साम्यवाद से भी कठोर है। तभी से आम्बेडकरवादी दलित साथी माक्र्सवाद को वैज्ञानिक समाज विज्ञान की श्रेणी में नहीं रखता है और न पढ़ता है। विज्ञान को डोग्मा मानता है। माक्र्सवाद को आम्बेडकरवाद के रास्ते का रोड़ा मानता है। एक बात और है। आम्बेडकर साहब के बाद मा. कांशीराम ने भी कह दिया कि कम्युनिस्ट हरी घास का हरा साँप है। माक्र्सवाद को ब्राह्मण युवकों का खिलौना मान लिया। माक्र्सवाद को ब्राह्मणवाद का रक्षक मान लिया गया। सभी माक्र्सवादियों/कम्युनिस्टों को आम्बेडकरवादी दलित मानता है कि माक्र्सवादी/कम्युनिस्ट ब्राह्मणवाद विरोध के रास्ते में आम्बेडकरवादियों को माक्र्सवाद के नाम पर गुमराह करने के लिए कम्युनिस्ट पार्टियाँ बनाए हुए हैं। उद्धृत है कविता का अंशः

सुनो कॉमरेड! / मैं दलित हूँ / तुम्हारे लाल सलाम से / अच्छा है मेरा जय भीम / जय भीम हमेशा नीला सलाम करता है / लाल का अर्थ है खून / नीला का अर्थ है शान्ति / हम क्रान्ति नहीं चाहते / हमें तानाशाही नहीं पसंद है / हम स्वतंत्र जीना चाहते हैं / हम अहिंसावादी हैं / तुम्हारे साम्यवाद से / हमें लोकतंत्र अधिक प्रिय है। 

(जय भीम कॉमरेड, पेज 15)

आनंद सर की इस कविता के कुछ अंशों को पढ़कर आप को इतिहास के सत्य और भविष्य के अनिवार्यता का अंदाजा लगाते हुए माक्र्सवादी दर्शन को सर्वव्यापी बनाने की आवश्यकता है क्योंकि माक्र्सवाद एक क्रान्तिकारी दर्शन है और क्रान्तिकारी दर्शन को उन तथाकथित ब्राह्मणवादियों व गैर-क्रांतिकारियों के हाथों से छीन लेने की जरूरत है, ऐसा आनंद सर का मानना है। ‘‘वह क्रान्ति का दर्शन है‘‘ का अंश विचारणीय हैः

माक्र्सवाद एक विज्ञान है / विज्ञान पर उनकी बपौती नहीं है / और न हमें / उनकी बपौती समझकर / विज्ञान को छोड़ ही देना चाहिए।      (जय भीम कॉमरेड, पेज 37)

एंगेल्स के अनुसार, इतिहास की भौतिकवादी धारणा के अनुसार, इतिहास का चरम निर्णायक तत्व वास्तव में, जीवन का उत्पादन और पुनरुत्पादन है। इससे अधिक न माक्र्स ने और न मैंने ही कभी कहा है। अतः यदि कोई इसे तोड़-मरोड़ कर यों कहे कि आर्थिक तत्व ही एकमात्र निर्णायक तत्व है, तो वह हमारी प्रस्थापना को निरर्थक, अमूर्त और गूँगी शब्दावली मात्र बना देता है। आर्थिक परिस्थिति बुनियाद है, पर ऊपरी ढाँचे के विविध तत्व वर्ग-संघर्ष के राजनीतिक रूप और परिणाम-ऐतिहासिक क्रम पर अपना प्रभाव डालते हैं और बहुत जगह तो उनके रूप के निर्धारण में इनका ही पलड़ा भारी रहता है। इन सारे तत्वों की अन्योन्य क्रिया चलती है जिसमें आकस्मिक घटनाओं के अनंत समूह के मध्य से (अर्थात ऐसी चीजों और घटनाओं के अनंत समूह के मध्य से जिनका आंतरिक संबंध इतना दूरवर्ती अथवा अप्रमेय होता है कि हम उसे अनुपस्थित अथवा नगण्य मान सकते हैं।) आर्थिक गति अंततोगत्वा अनिवार्य गति के रूप में प्रकट होती है। ऐसा न हो तो इच्छानुसार इतिहास के किसी युग में इस सिद्धांत को घटित करना गणित के सरलतम समीकरण हल करने से भी अधिक आसान होता है। (संदभर्ः एंगेल्स-संकलित रचनाएँ भाग-4, पृष्ठ 151-जोजेफ व्लरिव के नाम एंगेल्स का पत्र, माक्र्सवादी सौंदर्यशास्त्र-संपादक ज्ञानरंजन-कमला प्रसाद, पृष्ठ 19)

इतिहास का निर्णायक तत्व / जीवन का उत्पादन और पुनरुत्पादन है / लेकिन आर्थिक तत्व एक निर्णायक तत्व नहीं है / यदि कोई इसके विपरीत कहता है / यदि कोई इसको तोड़-मरोड़ कर कहता है / तो वह माक्र्स की स्थापना को / निरर्थक, अमूर्त और गूंगी शब्दावली मात्र बना देता है / आर्थिक परिस्थिति बुनियाद है / लेकिन ऐतिहासिक संघर्ष क्रम में / रूप और परिणाम अन्योन्य क्रिया करते हैं / इसके बावजूद भी / विद्वानों ने आलोचना की है कि / माक्र्स सिर्फ आर्थिक दर्शन है। (जय भीम कॉमरेड, पेज 41)

आर. डी. आनंद सर की कविताओं में पूँजीवाद को असली शत्रु मानने वाले भारतीय कम्युनिस्ट और ब्राह्मणवाद का विरोध करने वाले आम्बेडकरवादी दलितों के मध्य उभरते तीक्ष्ण द्वंद्व को देखा जा सकता है। भारतीय कम्युनिस्ट जब दलितों से विमर्श करता है और यह समझाने की कोशिश करता है कि वर्ग-संघर्ष जरूरी है, वर्ग-संघर्ष ही भारतीय सामाजिक भेदभाव व मालिक-मजदूर के रिश्तों को खत्म करेगा। कम्युनिस्ट यह समझाने की कोशिश करता है कि कम्युनिस्ट क्रान्ति ही ब्राह्मणवाद और पूँजीवाद खत्म कर सकता है। उस समय दलित क्रोधित हो उठता है। वह कहता है कि कम्युनिस्ट हरी घास का हरा साँप है। वह छद्म प्रगतिशील है। वह ब्राह्मणवाद को अक्षुण बनाए रखने के लिए दलितों व आम्बेडकरवादियों को गुमराह करने के माक्र्सवाद का पाठ पढ़ाता है तथा दलित मेधाओं को अपने साथ मिलाकर ब्राह्मणवाद विरोधी आम्बेडकरवादी आंदोलन को कमजोर करता है, रोकता है और गुमराह करता है। दलित आंदोलन कर्ताओं का मानना है कि कम्युनिस्ट लाल सलाम व क्रान्ति की बात करके जय भीम कारवाँ के विरुद्ध जनमत तैयार करता है। माक्र्सवाद एक विदेशी सिद्धांत है। माक्र्सवाद वर्ग-संघर्ष की वकालत करता है जबकि भारत में जातिप्रथा है, वर्ग बना ही नहीं है। कम्युनिस्ट दलितों को सर्वहारा कहलाना चाहता है लेकिन सर्वहारा को दलित नहीं कहता है। यह सच है कि दलित सचमुच सर्वहारा है लेकिन क्या सवर्ण सर्वहारा और कम्युनिस्ट पार्टियों के नेता अपनी जाति, अपना धर्म, अपनी संस्कृति को त्यागकर, जनेऊ तोड़कर राम, कृष्ण, गौरी, गणपति, शंकर, हनुमान, दुर्गा, काली को इनकार कर सर्वहारा संस्कृति को अपना कर दलित जातियों के साथ जुड़ पाए? क्रान्ति कौन करता है, यही कमेरा वर्ग ही तो। भारतीय जनेऊधारी, तिलकधारी, कथा-भागवत सुनने वाले, गीता का पाठ करने वाले, तुलसी को महाकवि मानने वाले, वेदों में साम्यवाद खोजने वाले कॉमरेड क्या सचमुच क्रान्ति करेंगे? दलित पूँछता है कि क्या कभी सवर्ण जातियों के कम्युनिस्टों ने यह जानने-समझने की कोशिश किया कि दलित सवर्ण कम्युनिस्टों पर विश्वास क्यों नहीं करता है, दलित उन्हें प्यार क्यों नहीं करता है, दलित माक्र्सवाद को क्यों नहीं पढ़ता है और क्यों नहीं फॉलो करता है? कम्युनिस्टों की नजरों में यदि आम्बेडकरवाद कम्पलीट दर्शन नहीं है अथवा क्रान्तिकारी दर्शन नहीं है, तो फिर दलित आम्बेडकरवाद को क्यों नहीं छोड़ता है? दलित कहता है कि संविधान बाबा साहब ने बनाया है, हमें इसको बचाए रखना चाहिए लेकिन माक्र्सवादियों का कहना है कि भारतीय संविधान एक बुर्जुआ संविधान है, औपनिवेशिक संविधान है, पूँजीवादी संविधान है तथा इस संविधान को आम्बेडकर ने नहीं बनाया है बल्कि भारतीय संविधान को बनाने के लिए 389 सदस्य शामिल थे। इतना ही नहीं, 93 सदस्य सामंत थे तथा 210 कांग्रेसों में से 90 प्रतिशत सदस्य या तो सामंत थे या जमींदार थे या तो फिर धन्नासेठ और पूँजीपति थे। संविधान सभा में लगभग 20/21 समितियाँ थी। सबके अलग-अलग कार्य थे। हर समितियों पर निश्चित नियमों/कानूनों/विधियों को तैयार करने की जिम्मेदारी थी। एक समिति दूसरे समिति के कार्य में न हस्तक्षेप कर सकती थी और न उसके कार्य को पूरा करने की कोई जिम्मेदारी ही वहन कर सकती थी। डॉ. आम्बेडकर ड्राफ्टिंग कमीटी के चेयरमैन थे। उनके द्वारा तैयार किया गया ड्राफ्ट उनके वाङ्गमय में उल्लिखित ‘‘राज्य और अल्पसंख्यक‘‘ है जिसे गाँधी, नेहरू और राजेंद्र प्रसाद सहित ब्राह्मण और सामंत मंडली ने स्वीकार ही नहीं किया था। उन्हें बी.एन. राव और एसएन मुखर्जी द्वारा तैयार किए गए ड्राफ्ट पर कार्य करना पड़ा था। आप समझ सकते हैं कि विभिन्न समितियों के होते हुए डॉ. आम्बेडकर को अकेले क्यों और कैसे संविधान बनाने दिया गया होगा? कम्युनिस्ट मानता है कि जब तक यह संविधान है तब तक न जातिप्रथा खत्म होगी और न दलित व्यवस्था परिवर्तन ही कर पाएगा। व्यवस्था परिवर्तन के लिए दलित साथियों को इस संविधान का मोह त्यागना पड़ेगा। एक बात कम्युनिस्ट और कहता है कि डॉ. आम्बेडकर व्यक्तिगत संपत्ति का उन्मूलन तथा उत्पादन के संसाधनों का राष्ट्रीकरण चाहते थे। दलित चिन्तक यदि ईमानदारी से चिंतन करें, तो उसको यह समझना बिल्कुल आसान है कि इस संविधान के रहते हुए न व्यक्तिगत संपत्ति का उन्मूलन होगा और न उत्पादन के सभी संसाधनों का राष्ट्रीकरण ही संभव है। इस तरह डॉ. आम्बेडकर के मूल सिद्धांतों को यदि व्यवस्था, सत्ता और संविधान में शामिल करना है, तो निश्चित इस संविधान की जगह दलितों को दूसरा संविधान लिखना और लागू करना पड़ेगा। कम्युनिस्ट कहता है कि डॉ. आम्बेडकर और माक्र्स के सिद्धांतों और विचारों पर अभी तक के विमर्श से यह परिणाम निकलता है कि यह कार्य राज्य के द्वारा कभी नहीं सम्पन्न किया जा सकेगा। हम बार-बार डॉ. आम्बेडकर के निष्कर्षों के साथ ही सहमत हो पाते हैं कि अच्छे से अच्छे नियमों को भी दूसरा संसदीय दल जो सत्ता में आएगा अपने बहुमत की वजह से बदल सकता है इसलिए क्रान्ति के अतिरिक्त और कोई भी उपाय नहीं है कि ब्राह्मणवाद और पूँजीवाद को उखाड़ फेंका जाय। इन विमर्शों से निकले परिणाम के बाद भी दलित मात्र जानकारी के लिए भी माक्र्सवाद को नहीं पढ़ता है बल्कि इन विमर्शों के उपरान्त दलित का आरोप सवर्ण कम्युनिस्टों पर यथावत रहता है बल्कि दलित वर्ग से उभरे माक्र्सवादियों व कम्युनिस्टों को गुमराह व्यक्ति घोषित करने में तनिक भी नहीं हिचकता है, और तो और कई बार दलित वर्गों के माक्र्सवादियों से चिढ़ता हुआ आम्बेडकरवादी दलित उसे ब्राह्मणों का दलाल, सवर्णों का चाटुकार और मूर्ख इत्यादि न जाने क्या-क्या कहता है। आनंद सर की कविता ‘‘हम दक्षिणपंथी ही सही हैं‘‘ में कुछ इसी तरह का दलित विचार मिलता हैः-

जब तुम मुझे / कॉमरेड कहते हो / मैं सुलग जाता हूँ / जब वर्ग-संघर्ष की बात करते हो / तो मेरा खून खौल उठता है / जानते हो क्यों / मुझे लगता है / तुम जानबूझकर / ब्राह्मणवाद की लड़ाई कमजोर करते हो / तुम मुझे गेहुंवन लगते हो / तुम चाहे जितना वर्ग की बात समझाओ / उत्पादन का उद्देश्य / और संसाधनों के मालिकाने की बात करो / मेरे गले नहीं उतरता है। (जय भीम कॉमरेड, पेज 21)

आर. डी. आनंद सर की कविताओं को पढ़ते हुए मैं उनसे कविताओं के एक-एक बिंदुओं पर चर्चा करते हुए एक नोट्स तैयार करती रहती हूँ, फिर बाद में उसे शान्त चित्त से फाइनल लेख तैयार करती हूँ। इतने विस्तृत ढंग से सामाजिक द्वंद्व के विषय में सर्वहारा और दलित की मानसिक स्थिति को नोट कर पाना मेरे व्यक्तिगत समझ से कम ही मुमकिन था लेकिन आनंद सर की सहज प्रकृति और उदार व्यक्तित्व के अपनेपन ने उनके पुस्तक की समीक्षा सरल बना दिया। यह एक बड़ा सौभाग्य है कि किसी कवि/चिंतक से उसके कविताओं पर ही चर्चा कर कविता के गूढ़ अर्थों तक पहुँचा जाय। मैं आनंद सर की शुक्रगुजार हूँ कि उन्होंने कविता के संदर्भ और प्रसंग सहित उसके सामाजिक और राजनीतिक निहितार्थ को भी विस्तृत समझाने की कोशिश की है। कविता समझने-समझाने के दौरान मैंने माक्र्सवाद और आम्बेडकरवाद के विभिन्न पहलुओं पर भी विमर्श किया जिससे मुझे उसकी बारीकियों को समझने का अवसर मिला। यही नहीं, आम्बेडकरवादियों और माक्र्सवादियों के एक दूसरे के प्रति मन्तव्य और व्यवहार को भी समझने का प्रयास किया और यह समझने में सफल रही हूँ कि पूँजीवाद और ब्राह्मणवाद विरोधी समाजवादी क्रान्ति के लिए भारतीय पृष्ठिभूमि में कम्युनिस्टों को सांस्कृतिक क्रान्ति अनिवार्य रूप से स्थापित करना चाहिए। चूँकि, भारत जातियों का देश है। भारत का मजदूर वर्ग जातियों में विभाजित है। जाति के इस विभाजन को नजरअदांज नहीं किया जा सकता है। किसी भी तरह की क्रान्ति के लिए विभिन्न जातियों के श्रमिकों में वर्गीय एकता जरूरी है। यह सच है कि अधिकतर भारतीय कम्युनिस्ट सवर्ण जातियों से ही आया है लेकिन यह भी उतना ही सच है कि सवर्ण जातियों के कम्युनिस्ट अपने को डिकास्ट नहीं कर पाए। कम्युनिस्टों में सर्वहारा संस्कृति नहीं विकसित हुई। भारतीय सवर्ण कम्युनिस्ट चूँकि अगुआ रहे, नेता रहे और हमेशा नेतृत्व किया इसलिए उनकी जिम्मेदारी थी कि वे निम्न जातियों में यह विश्वास पैदा करते कि सचमुच एक कम्युनिस्ट की कोई जाति नहीं होती है। सवर्ण कम्युनिस्टों को बहुत गंभीर होकर ब्राह्मण और क्षत्रिय के श्रेष्ठताबोध के अहम से निजात पा लेनी चाहिए थी लेकिन दुर्भाग्य से, सवर्ण कम्युनिस्ट बहुत व्यक्तिगत स्तर पर भी अपने को सांस्कृतिक रुप से बदल नहीं पाए, जबकि जिम्मेदारी यह थी वे अपने बीवी-बच्चों, रिश्तेदारों, दोस्तों, यारों को भी परिवर्तित करते। कल भी सवर्ण स्त्रियाँ कम्युनिस्ट पार्टियों में न के बराबर थीं और आज भी वे न के बराबर हैं। शीर्ष नेतृत्व में सवर्ण स्त्रियाँ तो दिखाई पड़ती हैं लेकिन झंडा, बैनर उठाने वाली, नारा लगाने वाली, पार्कों को भीड़ से भरने वाली स्त्रियाँ निम्न घरानों की होती हैं। लगभग हर शहरों में कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं की अमूमन यही स्थिति है कि पार्टी कॉमरेड्स के नाम पर रमावती, सीता, दुलारी, रजिया ही दिखती हैं। सीता सिंह, रीता पाण्डेय, अर्पणा मिश्रा, नम्रता तिवारी, राधा दूवे, विनीता श्रीवास्तव, उर्मिला वर्मा, कंचन यादव जैसी स्त्रियाँ बिल्कुल नहीं दिखती हैं। किसी सवर्ण कम्युनिस्ट के घर की स्त्रियाँ अपने घरों में किसी दलित स्त्री-पुरुष कॉमरेड से नहीं मिक्सअप होती हैं। यहाँ तक कि सवर्ण कॉमरेड के घर में रखे हुए झंडे, बैनर, बुकलेट, पंफलेट और किताबों की जिम्मेदारी बाहर से आए हुए निम्न जातियों के कॉमरेड्स की ही होती है। आखिर सवर्ण घर की स्त्रियाँ माक्र्सवाद जैसे गंभीर दर्शन की पाठक और हिमायती क्यों नहीं होती हैं? सवर्ण घर की स्त्रियाँ क्यों नहीं कम्युनिस्ट पार्टियों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती हैं? सवर्ण कम्युनिस्टों के घरों की स्त्रियाँ उतनी ही सामंती और छुआछूत करती हैं जितनी कट्टर सवर्ण घरों की स्त्रियाँ। आखिर क्यों नहीं सवर्ण पुरुष अपनी स्त्रियों को अन्य स्त्रियों की तरह कम्युनिस्ट पार्टियों में लाते हैं? इसी तरह ढ़ेर सारे प्रश्न हैं। आनंद सर ने अपनी कविता ‘‘सांस्कृतिक क्रान्ति‘‘ के माध्यम से दलितों के साथ-साथ अन्य कॉमरेड्स के प्रश्नों को भी रखा है क्योंकि यह भारतीय कम्युनिस्टों का सच है।

कॉमरेड्स! / हवनकुण्ड अभी तक पाटा नहीं गया /कालिख से लगता है / कोई इसका बराबर प्रयोग कर रहा है / बुरा न मानों तो एक बात कहें / बनियान पहन कर मत टहला करो / जनेऊ दिखाई पड़ती है / भाभी कॉमरेड तो / अभी तक घूँघट काढ़ती हैं /क्या बात है / सांस्कृतिक क्रान्ति / गाँधी मैदान में निवास करता है / क्या वह कभी घर नहीं आता।   (जय भीम कॉमरेड, पेज 22)

आर. डी. आनंद सर की कविता ‘‘उसका नाम क्या है‘‘ दलितों की आँखें खोलने का पूरा यत्न करती है। यह कविता दलितों के मध्य जातिभेद को स्पष्ट करती है। दलित चिंतकों को ब्राह्मणवाद उन्मूलन के लिए अपने मध्य के ब्राह्मणवाद को दूर करने का प्रयत्न सर्वप्रथम करना होगा क्योंकि दलितों के मध्य कोई भी जाति अपने जातीय सभ्यता/संस्कार को तोड़ना ही नहीं चाहती है, शादी/ब्याह तो बहुत दूर की बात है। दलितों के मध्य की कुछ जातियों में तो इतना भाव है कि वे भी कुछ दलित जातियों से उतना ही नफरत और दुराव रखते हैं जितना कोई सवर्ण उनसे रखता है। हो सकता है कि आनंद सर की यह कविता बहुत सारे दलित और आम्बेडकरवादी चिंतकों/साहित्यकारों/बुद्धिजीविया/सामाजिक कार्यकर्ताओं/राजनीतिक नेताओं को भले ही न अच्छा लगे लेकिन यह कविता दलित द्वंद्व की बिल्कुल वास्तविक कविता है। दलित जातियों के मध्य से उभरते हुए विद्वान चिन्तक/लेखक/सामाजिक कर्ता/क्रान्तिकारी इस बात पर चिंता बहुत जताते हैं कि दलितों को अपने मध्य उपजातियों में शादी-ब्याह प्रायोजित करना चाहिए लेकिन वास्तविकता यह है कि कोई भी अपनी दूसरी उपजातियों से शादी-ब्याह नहीं करता है बल्कि दलितों की कई उपजातियाँ अपने को श्रेष्ठ और शुद्ध मानते हुए उनसे छूत-विचार भी करती हैं। दलितों की कोई भी उपजाति भंगी जातियों के घर का न खाना खाते हैं और न अपने घर में ही खिलाते हैं बल्कि निम्न कही जाने वाली दलित जातियाँ भंगी को अपने से उतना ही नीच और अछूत मानती हैं जितना कट्टर सवर्ण दलितों से छूत-विचार करता है। इस कविता के माध्यम से आनंद सर यह भी स्पष्ट करते हैं कि बहुत से पासी, बहुत से कोरी, बहुत से भंगी, अधिकतर खटिक, अधिकतर धोबी डॉ. आम्बेडकर साहब को न अपना नेता मानते हैं और न ही मसीहा बल्कि इन सभी उपजातियों के अपने मसीहा हैं और ये अपना अलग से नेता पैदा करना जरूरी समझते हैं। इस कविता से यह भी स्पष्ट होता है कि दलितों की विभिन्न उपजातियाँ न बसपा को अपना पार्टी मानती हैं और न सुश्री मायावती को अपना नेता। इस आरोप को तय करते हुए आनंद सर एक और बात को बेबाकी से स्पष्ट करते हैं। वे लिखते हैं कि यदि अनेक उपजातियों की अधिकांश संख्या बाबा साहब को फॉलो नहीं करती है, तो कौन सा चमार ही कम्पलीट मायावतीवादी है। इसमें से कुछ आम्बेडकरवादी हैं, कुछ कांशीरामवादी हैं, कुछ मायावती वादी हैं, कुछ मेश्रामवादी हैं। सभी अपनी उपजाति जो मसीहा ढूंढ रहे हैं, सभी अपनी उपजाति का नेता ढूढ़ रहे हैं, सभी अपनी उपजाति को मजबूत करने में लगे हैं। दलितों की उपजाति पासी मसूरियादीन पासी, बिजली पासी, मदारी पासी को अपना नेता मानती है। धोबी समाज गाडगे महाराज को अपना मसीहा मानते हैं। वाल्मीकि जातियाँ महर्षि वाल्मीकि को अपना मसीहा मानती हैं। चमारों और महारों के मसीहा डॉ. आम्बेडकर हैं। कोरी आजकल श्री रामनाथ कोबिन्द को अपना भगवान मानने लगा है। खटिको में कुछ कांग्रेसी हैं, कुछ बीजेपी भक्त हैं, थोड़े से डॉ. आम्बेडकर में विश्वास रखते हैं। आखिर दलित किस तरह ब्राह्मणवाद विरोधी है? आखिर दलित कैसे ब्राह्मणवाद का विरोध करेगा? कुछ भी हो, आनंद सर की कविताओं में निहित अर्थ एक बहुत बड़ा विमर्श आमंत्रित करता है। यह सच है कि जब तक दलित समाज अपने आंतरिक द्वंद्व से नहीं उबरता है, तब तक वह ब्राह्मणवाद का कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा। वैसे डॉ. आम्बेडकर साहब ने जतिप्रथा को न खत्म होने वाली प्रथा के रूप में चिन्हित करते हुए अपनी पुस्तक ‘‘जातिप्रथा उन्मूलन‘‘ में जातिप्रथा को अभेद्य दीवार कहा था। कुछ भी हो जातिप्रथा और पूँजीवाद को उखाड़ फेंकने के लिए दलित समाज को अपनी उपजातियों को तोड़ना पड़ेगा और एक उत्पीड़ित वर्ग के रूप में संघर्ष के लिए इकट्ठा होना पड़ेगा। आनंद सर की इसी कविता के कुछ शब्द देखिएः

अरे हाँ, रामू कोरी, / नहीं भी साहब! / वह कोरी नहीं, पासी है, / मैं तो उसे कोरी समझता था! / गौतम मायावती का पक्ष लेता है, /लेगा क्यों नहीं, /वह भी तो चमार है, / अब देखो भाई! / सारे कोरी कोबिन्द साहब के चक्कर में / बीजेपी को वोट देते है है कि नहीं? / एक बात बताओ / क्या वाल्मीकि जातियाँ / आम्बेडकर के विचारों को फॉलो करती हैं?

आर. डी. आनंद सर ने इस कविता में एक और द्वंद्व को रखा है जिस पर दलित जातियाँ उतना जोर नहीं देती हैं जितना देना चाहिए। सवाल पौराणिक काल में शूद्रों के शिक्षा का है। अधिकतर दलित कहता है कि शूद्रों को पढ़ने का अधिकार नहीं था। दलित मनुस्मृति को उद्धृत करते हुए कहता है कि मनु महाराज ने बहुत कड़ाई से लिखा गया कि शूद्रों और स्त्रियों को किसी भी तरह शिक्षा नहीं दिया जाना चाहिए। एक श्लोक प्रसिद्ध है कि-‘नारीशूद्रोनधीयतामि‘ अर्थात नारी और शूद्र को शिक्षा नहीं दिया जाना चाहिए। यह भी प्रसिद्ध है कि ब्राह्मणों को श्लोक पढ़ते हुए यदि शूद्र सुन ले, तो शूद्रों के कान में शीशा पिघलाकर डाल दिया जाना चाहिए। शूद्र श्लोक पढ़ ले तो जीभ काट दिया जाना चाहिए। शूद्र को श्लोक याद हो जाय, तो गला काट दिया जाना चाहिए। यह सच भी है कि ब्राह्मणों ने हर तरह से शूद्रों पर पाबंदी लगा रखी थी जिससे वे न पढ़ सकें, न धन रख सकें, न उनके पास जमीन हो और न ठीक से जीवन-यापन कर सकें, जिससे शूद्र सदैव सवर्णों की सेवा करता रहे। इस तरह सचमुच लगता गया कि शूद्र सदियों-सदियों अशिक्षित/निरक्षर रहकर दासों की भाँति सवर्णों की सेवा करता रहा है। यह सामान्य सी बात है कि शासक वर्ग शोषित वर्ग को हमेशा अशिक्षित और मजबूर बनाए रखने का पूरा प्रयास करता है। यह आज भी सत्ता प्रतिष्ठान का यथार्थ है। इस बात को बहुत सी दलित उपजातियाँ नहीं मानती हैं। लोग तर्क करते हैं कि महर्षि वाल्मीकि यदि पढ़े-लिखे नहीं थे, तो उन्होंने संस्कृति में रामायण जैसा ग्रंथ कैसे लिखा? कुछ लोग कहते हैं कि शम्बूक यदि पढ़े-लिखे नहीं थे, तो वह इतने बड़े विद्वान कैसे हो गए कि उनका वध करने के लिए वर्चस्ववादियों के प्रभु राम को ही वन जाना पड़ा? ऐसे मतानुयायियों का मानना है कि यदि शूद्रों के लिए शिक्षा वर्जित होती, तो कबीर और रैदास इतने बड़े विद्वान और कवि कैसे बन पाते? वे कहते हैं कि रामजी सकपाल, बाबू जगजीवन राम और डॉ. आम्बेडकर जैसे लोगों की शिक्षा में भी ब्राह्मणों ने सहयोग किया था। लोग यहाँ तक कहते हैं कि डॉ. आम्बेडकर का नाम भी एक ब्राह्मण का दिया हुआ है। हालाँकि, उनका यह तर्क यह सिद्ध करने के लिए उपयुक्त नहीं है। जिस वाल्मीकि ने रामायण लिखा, वह जरूर प्रकाण्ड विद्वान ब्राह्मण ही रहा होगा। यदि यह प्रमाणित नहीं है कि वाल्मीकि ब्राह्मण थे, तो यह भी प्रमाणित नहीं है कि वाल्मीकि भंगी जाति के थे। वाल्मीकि जातियाँ दलितों के ऐसा कहने से नाराज हो जाती हैं। उन्हें लगता है कि उनके भगवान वाल्मीकि की निंदा हो रही है। वे वाल्मीकि को अपने जाति का विद्वान और भगवान मानकर पूजा-अर्चना करते हैं। दरअसल, यह भी ब्राह्मणों की चाल थी। ब्राह्मण वाल्मीकि को भंगी वाल्मीकि कहकर एक कौम को भ्रम और मोह में फँसा कर अपने विरुद्ध होने वाले हमले को अवरुद्ध कर दिया। आनंद सर की कविता ‘‘उसका नाम क्या था‘‘ का वह अंश प्रस्तुत करती हूँ जिसमें कुछ कौमें यह नहीं मानती हैं कि शूद्रों को शिक्षा वर्जित थीः

अगर शूद्रों को शिक्षा का अधिकार न होता / तो वाल्मीकि इतना बड़ा ग्रंथ कैसे लिखते / तो शम्बूक इतने बड़े ज्ञानी और तपस्वी कैसे होते / तो कबीर और रैदास इतना कुछ कैसे लिख डालते / तो रामजी सकपाल कैसे पढ़ते /तो बाबू जगजीवन राम कैसे पढ़ते / तो डॉ. आम्बेडकर कैसे पढ़ते? (जय भीम कॉमरेड, पेज 25-26)

आर. डी. आनंद सर ने अपनी एक अन्य कविता ‘‘मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ‘‘ में दलितों की इस मान्यता कि वैदिक और उत्तर वैदिक युग में भी शूद्रों को शिक्षा से वंचित नहीं किया गया था जिससे व्यास, वाल्मीकि, शम्बूक, कबीर, रैदास जैसे विद्वान पैदा हुए। ‘‘उसका नाम क्या था‘‘ कविता में आनंद सर ने कुछ जातियों की दृढ़ मान्यताओं को ‘‘मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ‘‘ के माध्यम से खारिज करने और उसके कारणों को समझाने की पूरी कोशिश की है। इस कविता का कर्ता ‘‘मैं‘‘ ब्राह्मण है। आनंद सर ने कविता में ब्राह्मणों के मन/विवेक का मनोवैज्ञानिक अध्ययन प्रस्तुत करने की एक अच्छी कोशिश की है। यह सच है ब्राह्मण जाति ने जिस जाल को सदियों पहले बुना था, उसको संचालित करने और अभेद्य बनाए रखने के लिए निरंतर एक सुनियोजित प्रयास तो करते ही होंगे, ब्राह्मणों के उसी मति, मसौदा और प्रयोग का स्पष्ट रेखाचित्र उन्हीं को कर्ता बनाकर इस कविता में उन्हीं के मुखारबिंद से कहलवाया गया है। यह कविता एक प्रयोगवादी कविता की श्रेणी में आती है। इस कविता से हमें यह भी सीखने को मिलता है कि वर्चस्ववादी ब्राह्मणों को डॉ. आम्बेडकर जैसे विद्वान मसीहा ने बुद्धिजीवी क्यों कहा था, यह कौम अपने वर्चस्व के लिए कैसे-कैसे त्याग करती है, कितना सहनशील है, कैसे अपने किए का नाम दूसरों पर लगाती है, कैसे अन्य जातियों के मेधाओं को अपनाकर उन्हें प्रसिद्धि प्रदान कर उनके क्रान्तिकारी प्रभाव को निष्क्रिय करते हुए सदियों तक के लिए उसकी क्रान्तिकारी कौम को नपुंसक बना देते हैं। इस कविता के माध्यम से आनंद सर ने ब्राह्मणों के बहुत सारे कारनामें, उनके प्रयास, विधि, विधान, मन, मस्तिष्क, घुसपैठ, छल, छद्म को बताने का प्रयास किया है। इस कविता के एक-एक शब्द एक-एक वाक्य के निहितार्थ और संकेत को ब्राह्मणों के क्रान्तिकारी रणनीति की तरह समझने का प्रयास करना चाहिए। ये कविताएँ सिर्फ कविताएँ नहीं हैं बल्कि एक सिद्धांत का प्रतिपादन है। आनंद सर की कविता के मूल अर्थ में दलितों का विचलन है जिसे वह अपने छोटे-छोटे स्वार्थ और अहम के चलते नहीं समझना चाहता है। दलित जिसे अपनी प्रज्ञा समझता है, दरअसल वहीं उसकी असफलता के मनोविज्ञान को मोनोऑक्साइड की तरह इंजेक्ट कर दिया गया है। दलितों का वही मनोविज्ञान ब्राह्मणों के एक्टिव सेल्स हैं। अनजाने में दलित ब्राह्मणों के उन सेल्स को पाल भी रहा है, रक्षा भी कर रहा है और अपना मानने की बहुत बड़ी भूल भी कर रहा है। ब्राह्मण दलितों के हर विकासवादी रास्ते में विष से भरे चमकीले नीले हीरे को लेकर छद्म रूप से अदृश्य खड़ा रहता है। ब्राह्मण दलित मेधाओं को संरक्षित करते हुए अपनी नीतियाँ उनमें आत्मसात करा देता है। दलित मेधा क्रान्तिकारी मसौदे पर फोकस न कर उनके द्वारा प्रदत्त छद्म विचारधाराओं पर एक्टिव होकर ब्राह्मणों के विरुद्ध गाली देने, प्रतिक्रिया करने, कोसने, सरापने, विदेशी कहने, श्रेष्ठ कहने, सवर्ण कहने, नफरत करने, ब्राह्मण-धर्म और संस्कृति के विरुद्ध प्रगतिशील लगने वाले धर्म, आचरण, संस्कृति और पूजापाठ की विधियों में फँसा देता है। इस तरह हर तरह से दलित ब्राह्मण प्रतिक्रिया में फँसकर दलित कौम की मेधाओं को निष्क्रिय करता हुआ ब्राह्मणों को संगठित और मजबूत होने में मदद करता है। दलित ब्राह्मणों के जाल में फँसा हुआ ब्राह्मणवाद को समूल नाश करने के लिए व्यवस्था परिवर्तन का क्रान्तिकारी रास्ता छोड़ देता है। खूबसूरत मनोवैज्ञानिक कविता के कुछ अंशों को देखा जाना उचित हैः

मेरी कौम नाम की दीवानी नहीं है / मेरी कौम त्याग करना जानती है / मैंने संविधान निर्माता का नाम आम्बेडकर चुना / पूरी एक कौम संविधान के विरुद्ध नहीं जा सकती है / रामायण मैंने लिखा, जग प्रमाण है / लेकिन नाम लगा दिया वाल्मीकि का / आज एक पूरी कौम मेरी गुलाम है / मनुस्मृति मैंने लिखा / नाम लगा दिया किसी क्षत्रिय का / और नाम रख दिया मनु / पूना पैक्ट कर पृथक निर्वाचन रोका / आरक्षण जानबूझकर  दिया / जानते हो क्यों / तुम्हारी सारी हेकड़ी तोड़ दिया / जानते हो / आम्बेडकर जातिप्रथा के विरुद्ध थे / तुम्हें स्वेक्षा से जाति प्रमाण-पत्र बनवाकर / प्रस्तुत करने के लिए मजबूर कर दिया / तुम विकल्पहीन हो गए / यही नहीं, मैंने तुम्हें माक्र्सवादी नहीं बनने दिया / और कुछ अपने सेल्स को कम्युनिस्ट पार्टियों में / मोनोऑक्साइड की तरह घुसेड़ दिया / जिससे तुम्हें कम्युनिस्टों से नफरत हो जाय। (जय भीम कॉमरेड, पेज 43-44)

इसी कविता में आगे आर डी आनंद सर ने ब्राह्मणों के मुख से अपने मत और अपने ही समतुल्य दलितों के विचलन-मत को स्पष्ट किया है। ब्राह्मणों ने दलितों को अपना विरोध करते हुए भी अपने समतुल्य बताया है। दलित बुद्धिजीवियों और क्रान्तिकारी साथियों को आनंद सर द्वारा उठाए गए दलित द्वंद्व पर निश्चित गौर करना चाहिए। मैं जब भी आनंद सर से दलित वैचारिकी और व्यवस्था परिवर्तन को लेकर वार्तालाप करती हूँ, तब भी आनंद सर यही बताते हैं कि दलित दक्षिणपंथी है, लोकतंत्रवादी है, संसदीय लोकतंत्र को मानता है, इसी संविधान को आखिरी हथियार समझता है, आम्बेडकर साहब के अतिरिक्त किसी अन्य क्रान्तिकारी को पढ़ना ही नहीं चाहता है, आम्बेडकर साहब को पर्याप्त विद्वान और परिवर्तन के लिए उपयुक्त नेता मानता है बल्कि मसीहा मानता है, माक्र्सवाद से घृणा करता है, माक्र्सवाद का विरोध करता है, कम्युनिस्ट से नफरत है, क्रान्ति के पक्ष में बिल्कुल नहीं है। ऐसे कथनों को आम्बेडकरवादी साथी नकारात्मक विचार मानता है और आनंद सर के विचारों को भी माक्र्सवादी मानता हुआ ध्यान नहीं देता है। आनंद सर के वैचारिकी का दूसरा पक्ष भी है जिसे आम्बेडकरवादी साथियों को ध्यान देना चाहिए, वह यह है कि जब वे कहते हैं कि दलित दक्षिणपंथी है तो दलितों को आनंद सर की बात को मानने के लिए नहीं बल्कि दक्षिणपंथ के सद्गुणों और दुर्गुणों को जानने के लिए विमर्श करना चाहिए। जब वे दलितों को संसदीय लोकतंत्र का हिमायती कहते हैं तथा संदर्भ के रूप में बाबा साहब के वाङ्गमय 18 के पेज न. 95 से 106 तक उल्लिखित ‘‘श्रमिक वर्ग और संसदीय लोकतंत्र‘‘ पढ़ने को कहते हैं तो निश्चित को दलित विद्वानों को पढ़कर आनंद सर के मंतव्यों से गुजरना चाहिए क्योंकि उनके निवेदन पर जब मैंने पढ़ा तो लगा कि वाकई हमें सिर्फ संसदीय लोकतंत्रवादी नहीं होना चाहिए क्योंकि संसदीय लोकतंत्र में सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक लोकतंत्र ही हासिल किया जा सकता है, सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र कदापि नहीं प्राप्त होता है। डॉ. आम्बेडकर साहब ने ‘‘राज्य और अल्पसंख्यक‘‘ में स्पष्ट किया है कि संसदीय लोकतंत्र के साथ राजकीय समाजवाद को जोड़ देने से ही लोकतंत्र का सपना पूर्ण होता है। ऐसा डॉ. आम्बेडकर साहब ने इसलिए कहा है क्योंकि राजकीय समाजवाद व्यक्तिगत संपत्ति का अधिकार खत्म करने और हर तरह के उत्पादन के संसाधनों का राष्ट्रीकरण करने का संविधान है। ऐसा करने से राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र प्राप्त हो जाता है लेकिन दुर्भाग्य है कि हमारे दलित बुद्धिजीवी अपने ही हित का विचारों पर ही ध्यान नहीं देना चाहते हैं क्योंकि उनकी सलाह देने वाला व्यक्ति माक्र्सवादी है। दलित साथियों को उपनिवेशवाद समझने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए क्योंकि उपनिवेशवाद सीधे किसी दूसरे राष्ट्र की गुलामी और वर्चस्व को संकेत करता है। वर्तमान भारतीय व्यवस्था, संविधान, सत्ता और सरकार में सुधार की मान्यता रखना खुद को धोखे में रखना है क्योंकि उल्लिखित सभी अवयव पूँजीवादी/उपनिवेशवादी हैं, साथ ही साथ यह संविधान दलितों से अधिक सामंतवादियों/पूँजीपतियों/धन्नासेठों/आम्बेडकर विरोधियों की सेवा करता है। दलितों को डॉ. आम्बेडकर द्वारा लिखित संविधान के मूल ड्राफ्ट ‘‘राज्य और अल्पसंख्यक‘‘ पर कार्य करते हुए बाबा साहब का वास्तविक संविधान लागू करने के लिए संघर्ष और आंदोलन खड़ा करना चाहिए। आनंद सर जब यह कहते है कि दलित वामपंथी नहीं है तो उनका अर्थ यह नहीं होता है कि सभी दलित कम्युनिस्ट हो जायें बल्कि उनका उद्देश्य यह होता है कि जब ब्राह्मणवादी पार्टियाँ दक्षिणपंथी हैं तो इसका अर्थ होता है कि वे विसंगतियों का पालन करते हैं क्योंकि उन विसंगतियों के बने रहने से उनका वर्चस्व बना रहता है लेकिन दलित भी दक्षिणपंथी बना रहता है, आखिर वह किस लालच में दक्षिणपंथी बना रहता है? दलित तो दूसरी तरह से ऐसा करके ब्राह्मणवादियों की अनजाने सहायता करता है। सच तो यह है दलितों को प्राकृतिक तौर पर भी वामपंथी ही होना चाहिए क्योंकि वामपंथी रहकर दलित जातियाँ हमेशा वर्चस्वदियों के विरुद्ध तो रहतीं, किसी तरह से दलितों के क्रियाओं का फायदा ब्राह्मणों को तो न जाता। आनंद सर ने अपने विमर्श में बताया था कि माक्र्सवाद किस तरह से विज्ञानों का विज्ञान है। वे कहते हैं कि माक्र्सवाद पदार्थ के साथ-साथ समाज का भी वैज्ञानिक अध्ययन करने वाला विज्ञान हैं। माक्र्सवाद क्रान्ति का विज्ञान है। माक्र्सवाद प्रकृति, प्रक्रिया, पदार्थ, समाज, व्यक्ति का वैज्ञानिक अध्ययन करने का वैज्ञानिक प्रक्रिया प्रदान करता है। ऐसे क्रान्तिकारी विज्ञान के अध्ययन से दलित मस्तिष्क का विकास ही तो होगा लेकिन दलित कहता है यह विदेशी दर्शन है इसलिए दलितों को इसे पढ़ने की जरूरत नहीं है। अजीब विडंबना है। हास्यास्पद लगता है कि दलित किसी क्रान्तिकारी विज्ञान को विदेशी कहकर पढ़ने के लिए नकार देता है। दुर्भाग्य है जिसको नकार देना चाहिए उस महाभारत, रामायण, मनुस्मृति, वेद, पुराण की आलोचना के लिए ही सही, निरंतर पढ़ता है। मैं तो कहती हूँ कि आनंद सर की बात इसलिए भी मानकर माक्र्सवाद पढ़ डालना चाहिए कि हमें माक्र्सवाद पर विधिवत आलोचना करना व लिखना है। आनंद सर की कविताओं को पढ़ने और उस पर विमर्श करने के लिए उनसे बात करने पर नई-नई जानकरियों से रूबरू होना तथा दलित द्वंद्व तथा भारतीय क्रान्ति के फाँस को जानने का अवसर प्राप्त हुआ है। अब अधिक न कहते हुए मैं उनकी कविता ‘‘मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ‘‘ के आगे का अंग प्रस्तुत करती हूँः-

मैं दक्षिणपंथी हूँ / मैं औपनिवेशिक हूँ / मैं सुधारवादी हूँ / मैं अहिंसा की बात करता हूँ / मैं करुणा की बात करता हूँ / और यह सारे गुण / धीरे-धीरे तुम्हारे अंदर प्रविष्ट कर दिया / तुम वामपंथी नहीं हो / मैं भी नहीं हूँ/ तुम माक्र्सवादी नहीं हो / मैं भी नहीं हूँ / तुम कम्युनिस्ट नहीं हो / मैं भी नहीं हूँ / तुम क्रान्ति के पक्षधर नहीं हो / मैं भी क्रान्ति के पक्ष में नहीं हूँ। (जय भीम कॉमरेड, पेज 44)

आर. डी. आनंद सर ने अपनी कविता ‘‘तू मेरा अंश है‘‘ में दलितों और ब्राह्मणों की संस्कृति की समानता को व्यक्त करने की कोशिश की है। ब्राह्मण कर्ता ‘‘मैं‘‘ और ‘‘मेरा‘‘ के माध्यम से इस कविता में दलितों के सांस्कृतिक बदलाव को रेखांकित करते हुए बताया है कि ब्राह्मण सभ्यता-संस्कृतियों के विरुद्ध दलितों ने उन्हीं संस्कृतियों को आत्मसात कर लिया है। दलित संस्कृतियों में बदलाव के नाम पर सिर्फ ब्राह्मण के स्थान पर दलित स्थापित हुआ है, पल्लव के स्थान पर बोधि-पत्र बदला है, फोटो में राम-कृष्ण की जगह बुद्ध-आम्बेडकर आरोपित हुए हैं, पंडित के स्थान पर भिक्षु व भन्ते बदले हैं, संस्कृति के स्थान पर प्राकृत भाषा का स्थानापन्न हुआ है लेकिन श्लोकों के अधिभौतिक-भाववादी अर्थ बुद्ध वंदना, त्रिशरण, पंचशील और मंगल गाथाओं में भी ध्वनित होता है। दलित संस्कृतियों के बदलाव में पल्लव जितना या उससे भी अधिक बोधि-पत्र की पवित्रता दिखाई पड़ती है। ब्राह्मण पुरोहित यदि श्रम नहीं करता है और मुफ्तखोर है, तो दलित भिक्षु और भन्ते क्या श्रमिक है, यह भी मुफ्तखोर है। ब्राह्मणों के संतों और महात्माओं की तरह दलितों के भिक्षु और भन्ते भी वस्त्र धारण करते हैं। मन न रंगाओं रंगाओं जोगी कपड़ा। ब्राह्मण अपनी व्याख्या में दलितों की आधुनिक संस्कृतियों को, जिसे वह दलित संस्कृति अथवा बौद्ध संस्कृति कहता है, को अपनी संस्कृति का ही एक नया रूप मानता, पुकारता और घोषित करता है। भले ही दलित संस्कृति का आधुनिक रूप ब्राह्मण संस्कृति न हो लेकिन ब्राह्मण संस्कृति से भिन्न भी नहीं है। इस बात को दलित नोटिस नहीं कर रहा है। दलित की इस संस्कृति से ब्राह्मणों को कोई आपत्ति इस नाते नहीं होता है क्योंकि वे इसे अपना ही परिवर्तित रूप समझते हैं। इसे किसी भी तरह ब्राह्मण विरोधी नहीं मानते हैं और न ही किसी भी तरह क्रान्तिकारी व ब्राह्मणवाद विरोधी। दलितों के लिए यह बहुत ही अहम है कि ब्राह्मण क्या मानता है। ब्राह्मण दलितों को नीच मानता है इसलिए दलित अपने को नीच मानते हैं। ब्राह्मण दलितों को शूद्र, चमार, भंगी और अछूत मानता है इसलिए दलित अपने को शूद्र, चमार, भंगी और दलित मानता है। ब्राह्मण स्वयं को सवर्ण और श्रेष्ठ मानता है इसलिए दलित उसे सवर्ण और श्रेष्ठ मानता है। दलित सवर्णों की मान्यताओं से हमेशा प्रवाहित रहता है इसलिए दलितों को उनके सोच-विचार पर गौर फरमाते हुए उनकी शक्ति को कमजोर और अपनी कमियों को शक्तियों में बदलने का चिंतन और प्रयास जरूरी है और यह तब संभव है जब दलित क्रान्तिकारी विज्ञान को आधार बनाता हुआ पूरे सिस्टम को परिवर्तित करने का संकल्प करे। मैं ‘‘तू मेरा अंश है‘‘ की जरूरी पंक्तियाँ आप के मनोविज्ञान के लिए प्रस्तुत करती हूँः

तू मेरा अंश है / तू मेरी भजन करता है / तू स्वतंत्र नहीं रह सकता, / मैं विष्णु की पूजा करता हूँ / तू बुद्ध और आम्बेडकर की, / हम दोनों हाथ जोड़कर बैठते हैं / हम दोनों सिर झुकाते हैं / हमारी अगरबत्ती, धूपबत्ती, मोमबत्ती और पुष्प सेम है / पल्लव की जगह बोधिपत्र है / हमारा पुरोहित तो तुम्हारा भिक्षु / दोनों चीवरधारी / दोनों आश्रमेण / दोनों मुफ्तखोर / दोनों परजीवी। (जय भीम कॉमरेड, पेज 46)

दलित चिंतक और बुद्धिजीवी कहता है कि मैं हिन्दू नहीं हूँ लेकिन ब्राह्मण जातियाँ दलितों को आज भी हिन्दू मानती हैं। अनेक तर्कों के आधार पर दलित जातियाँ/उपजातियाँ अपने को हिन्दू भले ही न मानें लेकिन आरक्षण की मजबूरी सभी दलितों को हिन्दू लिखवा ही लेती है। सरकारी अभिलेखों में और व्यवहारिक दुनिया में सभी दलित हिन्दू हैं। यही नहीं, सभी दलित लिखित रूप से अपनी उपजातियों के नाम के साथ ब्राह्मणों के सम्मुख लाचार खड़े हैं। कुछ दलित छिटक कर बौद्ध और जैन बन जाते हैं, उन्हें भी ब्राह्मण हिन्दू ही मानता है। ब्राह्मण कहता है कि भगवान बुद्ध श्रीविष्णु के नवें अवतार हैं तथा महाबीर भी हिन्दू शाखा के एक प्रवर्तक हैं। जो दलित मुसलमान हो गए हैं, उनको ब्राह्मण हिन्दू नहीं कह पाता है क्योंकि इस्लाम धर्म की एक स्वतंत्र शाखा है। इस लिहाज से देखिए तो बुद्ध और महाबीर हिन्दू धर्म से निकले एक अलग किस्म के विचारक हैं लेकिन धर्म के संदर्भ में वे हिन्दू धर्म के विरोधी नहीं रहे हैं इसलिए ब्राह्मणों को यह कहने का आधार मिल गया कि दलित जातियाँ हिन्दू हैं। कविता की निम्न पंक्तियाँ उदाहरणार्थ प्रस्तुत हैः

मैं तुम्हें हिन्दू पुकारता हूँ / मैं प्रचार करता हूँ / जैन, बौद्ध और सिख हिंदुओं का सम्प्रदाय है / और अल्पसंख्यक तुम्हें हिन्दू मानता है / हमसे दुश्मनी लेकर / तुम घर में भी पीटे जाते हो / और बाहर तो इसलिए काट दिए जाते हो / कि तुम हिन्दू हो / न हम तुम्हें बख्शते हैं /न तुम्हें बचाते हैं। /                (जय भीम कॉमरेड, पेज 47)

भारतीय सामाजिक व्यवस्था बहुत ही घृणित व्यवस्था है। इसके लिए ब्राह्मण जातियाँ ही मूल रूप से जिम्मेदार हैं क्योंकि ये जातियाँ ही सर्वप्रथम विवेकशील होकर अग्रसर हुईं। इनके अग्रसर होने का नतीजा यह रहा कि ये अपना वर्चस्व कायम करने के लिए विकासशील मानव के लिए छद्म/झूठ/धोखा रच डाला। अधिसंख्य भारतीय लोग इनके फरेब से परेशान हो गए। सदियों-सदियों इनके अधिनायकवादी सोच के कारण जुल्मों-सितम को झेलते रहे। न जाने कितने लोग इनके क्रूर यातनाओं के शारीरिक प्रताड़नाओं/यातनाओं के शिकार हुए। इन्होंने जातियों को स्थाई बनाकर निम्न कही जाने वाली जातियों को हीन मानसिकता का अमानुष बना दिया। 20वीं सताब्दी में अंग्रेजों के आने के बाद परिवर्तन के अवसर दिखे। कुछ परिवर्तन हुए। परिवर्तन के लिए कुछ सवर्ण कुछ दलित जातियों के बुद्धिजीवियों/क्रांतिकारियों ने दलितों के जातीय हीनता के कारणों पर चिंतन किया और उनको उसकी दलितीय स्थिति से उबारने का प्रयास किया। भारत आजाद होने तक डॉ. आम्बेडकर जैसा चिंतक भी पैदा हुआ। संघर्ष का स्पेस तैयार हुआ। संविधान निर्माण में एक अवसर भी प्राप्त हुआ। आश्चर्यजनक बदलाव यह आया कि भारतीय सवर्ण जातियाँ दलितों के बदलाव के लिए मानसिक रूप से तैयार हुई और डॉ. आम्बेडकर को अपने साथ लेने को तैयार हुए जिससे संविधान में दलितों के लिए समान अवसर का प्रावधान लिखा गया। अब यह अलग बात है कि सवर्ण जातियाँ एक बार पुनः अपने वर्चस्व  और दलितों को अधीनस्थ बनाए जाने के लिए पुरजोर कोशिश करने लगी हैं। निश्चित भारत आजाद होने के बाद दलितों को अवसर मिला और दलितों ने पढ़ा/लिखा/नौकरियाँ प्राप्त की। आज राजनीति में भी बराबर की हिस्सेदारी कर रहे हैं। दोनों तरफ से प्रतिक्रिया बढ़ा है। उस प्रतिक्रिया में सवर्ण दलितों को नीच बनाए रखने की साजिश करता हुआ दिख रहा है, तो दलित चिंतक/बुद्धिजीवी/सामाजिक कार्यकर्ता/राजनीतिक कार्यकर्ता और नेता डॉ. आम्बेडकर के जातिप्रथा उन्मूलन को अपने मसौदे से निकाल कर ब्राह्मणों से घृणा करने/उन्हें गुलाम बनाने/उनसे बदला लेने की सोचने लगे हैं। एक तरह से जैसे को तैसा का व्यवहार करने की मंशा बना लिया है। वैसे यह विचार कहीं न कहीं दलित उद्देश्य में भटकाव है। जो भी हो, आनंद सर की कविता से कुछ प्रेरणा जरूर मिल सकती हैः

तू मेरे बारे में नहीं सोचता है / मैं तेरे बारे में नहीं सोचूँगा / तू मुझसे घृणा करता है / मैं तुझसे घृणा करूँगा / तू मुझे गुलाम बनाने का कुचक्र करता है / मैं तुमझे गुलाम बनाउँगा / तू मुझे नीच समझता है / मैं तुझे नीच बनाकर रखूँगा। (जय भीम कॉमरेड, पेज 93)

आर. डी. आनंद सर से विमर्श के पूर्व मैं भी यही मानती थी कि बाबा साहब ने कहा होगा कि आर्य उत्तरी ध्रुव से आए हैं और ये विदेशी मूल के हैं और दलित कही जाने वाली जातियाँ भारत के मूल निवासी हैं लेकिन जब आनंद सर ने मुझे बाबा साहब का वाङ्गमय खंड-13 ‘‘शूद्र कौन थे‘‘ पढ़ने को दिया, तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। दरअसल, उस पुस्तक में बाबा साहब ने लिखा है कि आर्य कोई प्रजाति नहीं है, आर्य एक भाषा है। आर्य भाषा को बोलने वाले सभी लोग आर्य कहलाए। ब्राह्मण हो या दलित सभी भारतीय मूल के आर्य हैं। बाबा साहब ने लिखा है कि ‘‘आर्य सिद्धांत‘‘ तिलक द्वारा गढ़ा गया सिद्धांत है जिसके समर्थन में अनेक ब्राह्मण विद्वानों ने भी लिखा है कि आर्य श्रेष्ठ है और उत्तरी ध्रुव से भारत में आए हैं लेकिन यह बात सत्य नहीं है। ब्राह्मण मात्र अपने को श्रेष्ठ और अलग प्रजाति सिद्ध करने के लिए यह झूठ गढ़ा है। दुर्भाग्य यह है कि दलित भी अपने प्रिय मसीहा बाबा साहब डॉ. आम्बेडकर साहब की बात नहीं मानता है और न जाने किसके बहकावे में अपना ही विरोध और ब्राह्मणवाद के समर्थन वाले सिद्धांत का समर्थन करने लगा। आनंद सर की कविता ‘‘आम्बेडकर ने कहा था‘‘ का अंशः

आम्बेडकर ने कहा, / आर्य कोई प्रजाति नहीं भाषा है/ब्राह्मण भी भारत का मूलनिवासी है / लेकिन तुम आम्बेडकर की नहीं मानते / ब्राह्मणों को यूरेशियन सिद्ध करने में लगे हो / एक गलती और करते हो / तुम उन्हें श्रेष्ठ मानते हो / आम्बेडकर ने जातिप्रथा उन्मूलन का आह्वान किया है/तुम जाति प्रमाण-पत्र बनवाते हो / जाति को मजबूत करते हो। (जय भीम कॉमरेड, पेज 71)

आर. डी. आनंद सर लिखते-लिखते इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि यदि कोई भी दलित माक्र्सवादी हो जाय, प्रगतिशील हो जाय या फिर क्रान्ति के लिए सवर्ण जातियों के क्रांतिकारियों/प्रगतिशीलों/माक्र्सवादियों को साथ में लेना चाहें, तो आम्बेडकरवादी दलित ऐसे दलित साथी पर हमलावर हो जाता है। इसके विपरीत, कट्टर सवर्ण जो ब्राह्मणवादी है, सवर्णों के क्रान्तिकारी होने/कम्युनिस्ट होन/माक्र्सवादी होने/दलितों को साथ लेकर चलने का विरोध करता है और ऐसे प्रगतिशील सवर्णों को कहता है कि अमुक चमार हो गया है और वे उस पर हमलावर हो जाते हैं। उदाहरण के लिए डाभोलकर, कलबुर्गी, गौरी लंकेश इत्यादि सवर्ण चिंतकों/क्रान्तिकारियाँ का नाम लिया जा सकता है। अभी भी अनेक सवर्ण बुद्धिजीवियों/क्रांतिकारी चिंतकों-लेखकों को अर्बन नक्सल के नाम पर जेल में डाला जा रहा है। आज ईमानदार/मानवतावादी/गैर-जातिवादी/बन्धुत्व की बात करने वालों/क्रान्तिकारियों के सम्मुख गहरा संकट है। आज उन्हीं के जाति के कट्टर जातिवादी उनकी हत्या कर सकते हैं। आनंद सर की कविता ‘‘बनैले सुधरने नहीं देंगे‘‘ में देखा जा सकता हैः

यदि तुम्हारे अंदर इंसानियत जागी / तुम्हारी जातियाँ तुम्हारी हत्या कर देंगी / सवर्ण हो तो अवर्ण की तरफदारी कर के देखो / अवर्ण हो तो किसी सवर्ण की प्रसंशा कर के देखो / चारों तरफ से हुआँ-हुआँ की आवाज आने लगेगी। (जय भीम कॉमरेड, पेज 62)

वर्चस्ववादी वर्ण हमेशा झूठ गढ़ता है। जातिवादी हमेशा झूठ गढ़ता है। सामंतवादी हमेशा झूठ गढ़ता है। ब्राह्मणवाद हमेशा झूठ गढ़ता है। सत्ता वर्ग हमेशा झूठ गढ़ता है। पूँजीवाद हमेशा झूठ गढ़ता है। प्रतिक्रियावादी हमेशा झूठ गढ़ता है। आज सरकार भी खूब झूठ गढ़ती है। आज सरकार के पक्ष में पार्टी के आधार पर उनकी जातियाँ झूठ गढ़ती हैं। दलित भी सवर्णों की प्रतिक्रिया में झूठ गढ़ने लगा है। यह अपडेट बहुत बुरा है क्योंकि झूठ गढ़ने वालों की नई पीढ़ी के चरित्र में झूठ उनके डीएनए की तरह फिक्स हो जा रहा है। यह हमारी भौतिक परिस्थितियों को बदलने की दिशा में बहुत बुरा परिवर्तन है। यह आदेश आनंद सर की एक कविता ‘‘नई अपडेट का विषय झूठ है‘‘ में परिलक्षित होती है। जैसेः

नई अपडेट का विषय झूठ है, / सब जानते हैं / वह झूठ बोलता है / जनता विरोध नहीं करती है / उसे सत्य से नहीं / वर्चस्व से मतलब है / कोई बात नहीं, / यह सब उतना बुरा नहीं है / सबसे बुरा तो यह है / उसके झूठ के जवाब में / हमारी रीड झुक रही है / जिससे उम्मीद थी / उसका भौतिक विज्ञान बदल रहा है। (जय भीम कॉमरेड, पेज 64)

जब समाज के सभी वर्गों/वर्णों/जातियों/संप्रदायों में झूठ गढ़ने और बोलने की आदत हो जाएगी, तो निश्चित ही गृह-युद्ध होगा। भारत में यदि गृह-युद्ध हुआ, तो निश्चित ही यह गृह-युद्ध जातियों के मध्य होगा। जब यह गृह-युद्ध जातियों के मध्य होगा, तो निश्चित ‘‘सुर-असुर‘‘ के मध्य होगा। ‘‘सुर-असुर‘‘ के मायने रामायण के ‘‘मनुष्य और राक्षस‘‘ तथा महाभारत के ‘‘कौरव और पाण्डव‘‘ से है। आधुनिक परिप्रेक्ष्य में यह महाभारत ‘‘दलित और सवर्ण‘‘ के मध्य होगा। ऐसा इसलिए कह रही हूँ कि भारतीय जातिवाद की दशा और दिशा सुधारवाद की तरह नहीं है बल्कि हम घोर प्रतिक्रिया और वैमनस्य की तरफ बढ़ रहे हैं। यदि मनुष्य मनुष्य को मनुष्य नहीं समझेगा, उसे एक जाति समझेगा तथा जाति की वजह से ऊँच-नीच, छुआ-छूत का कॉन्सेप्ट रहेगा, तो उस कल्पित महाभारत की वास्तविक पुनरावृत्ति जरूर होगी। आनंद सर का तो मानना है कि इस बार ब्राह्मणों (पांडव) का सारथी कोई श्रीकृष्ण नहीं मिलेगा। इस बार ब्राह्मणों का झूठ/छल/छद्म/साम/दाम/दण्ड/भेद/रणनीति/रणकौशल/चक्रव्यूह/कसमें/वादे एक नहीं चलेंगे। इस बार युद्ध हुआ तो परमाणु बम, न्यूक्लियर बम, रसायन बम, जैविक बम और मिसाइल से होगा। यह युद्ध जैविक युद्ध होगा। इस बार का युद्ध चाहे जैसा युद्ध हो लेकिन ऐसा युद्ध होगा जिसका मूल कॉन्सेप्ट होगा-‘‘हम तो मरेंगे सनम, तुम को भी ले मरेंगे‘‘।

तेरा कॉन्सेप्ट अब जीवित हो उठा है / कल महाभारत किताबों में था / लेकिन अब महाभारत सचमुच होगा / राज कौन करेगा / निश्चित नहीं / लेकिन विनाश तो तेरा भी निश्चित है / चल मैं कौरव सही / चल तू पाण्डव सही / लेकिन इस मुगालते में अब मत रह / कि श्रीकृष्ण परब्रह्म हैं / दरअसल, श्रीकृष्ण तेरी मति है / और मूर्त मान लूँ /तो श्रीकृष्ण तू ही है। (जय भीम कॉमरेड, पेज 94)

सचमुच, मार्क्स पूँजीवादी व्यवस्था को क्रान्ति के द्वारा उलट कर समाजवादी व्यवस्था स्थापित करना चाहते हैं, वह भी क्रान्ति के द्वारा, जिसमें खून अनिवार्य रूप से बहेगा ही तथा समाजवादी व्यवस्था को सर्वहारा की तानाशाही द्वारा टिकाए रखना चाहते हैं। माक्र्स ने एक विशेष बात कहीं है कि क्रान्ति का कोई सेट फार्मूला नहीं है। क्रान्ति आयातित-निर्यातित नहीं किया जा सकता है। कोई भी किसी दूसरे देश में क्रान्ति का तरीका नहीं बता सकता है। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और ऐतिहासिक भौतिवाद के आधार पर उस देश की भौतिक परिस्थिति, देश और काल का अध्ययन उसी देश के क्रांतिकारियों को करना पड़ेगा और उन्हीं को अपने वस्तुपरिस्थिति के अनुसार निर्णय लेना पड़ेगा कि क्रान्ति कैसे की जा सकती है। इतना ही है माक्र्सवाद है, यही है माक्र्सवाद। माक्र्सवाद एक विज्ञान है। 

हमने माक्र्सवादी विज्ञान के द्वारा यह सीखा है कि वर्ग-संघर्ष में वर्गीय एकता नितांत आवश्यक है लेकिन भारत में श्रमिक वर्ग जातियों में विभक्त है। जाति भारत की गंभीर समस्या है लेकिन एकमात्र समस्या नहीं है। किसी भी क्रान्ति से पूर्व उस देश में एक क्रान्तिकारी पार्टी की जरूरत है, एक ऐसी पार्टी जिसमें व्यक्ति अपनी जातीय अस्मिता को त्याग कर शामिल हो और क्रान्ति के लिए बलिदानी संकल्प के साथ कार्य करे। भारत में ऐसा क्रान्तिकारी संगठन बनाना और चलाना अत्यंत कठिन लेकिन अनिवार्य है। बिना ऐसा संगठन विकसित हुए क्रान्ति नहीं हो सकती है। उसी तरह, डॉ. आम्बेडकर साहब भी कहते हैं कि जाति के भूत को मारे बिना भारत में कम्युनिस्ट क्रान्ति नहीं कर सकता है। 

बाबा साहब के जाति के भूत को मारने वाली बात को जड़सूत्र की तरह समझना यह होता है कि भारत से पहले जाति खत्म कर लो तब वर्ग बनेगा और तब वर्ग-संघर्ष होगा यानी तब समाजवादी क्रान्ति होगी लेकिन नहीं, यहीं पर बाबा साहब की बात को विज्ञान के रूप में समझने की जरूरत है। वह यह कि कभी भी कोई भी परिवर्तन सम्पूर्ण नहीं हुआ करता है। जातिप्रथा सम्पूर्ण एकाएक कभी नहीं खत्म होगी। जातिप्रथा पहले उन लोगों में खत्म होगी जो जातिप्रथा को खत्म करना चाहते हैं अर्थात यह सांगठनिक प्रारम्भ है। फिर उन लोगों की जातियाँ खत्म होंगी जिन्हें प्रथम लोग समझाकर क्रान्ति के लिए संगठन में भर्ती करेंगे। इसके बाद, कुछ जागरूक और कुछ प्रगतिशील लोग अपनी जातियों को छोड़कर क्रान्ति के लिए हमारा साथ देंगे। तदोपरान्त, क्रान्ति के दौरान बहुत से सर्वहारा, उत्पीड़ित, मजदूर, मजलूम, गरीब, भूमिहीन, दलित, आदिवादी अपनी जाति को नजरअंदाज करते हुए क्रान्ति में कूदेंगे। क्रान्ति सम्पन्न होने के बाद भी बहुसंख्यक अपनी जाति अपना धर्म ढोते रहेंगे। क्रान्ति के दौरान और क्रान्ति के बाद भी सांस्कृतिक क्रान्ति जारी रहेगी। हम सरकारी नियम और संविधान के द्वारा जाति/धर्म को बहुत व्यक्तिगत स्तर पर केंद्रित कर उसे हतोत्साहित करते रहेंगे। मीडिया के द्वारा तथा मीडिया के अतिरिक्त भी हम सांस्कृतिक क्रान्ति के द्वारा ही जातिप्रथा को खत्म कर पाने में सफल हो पाएँगे। यह न कोई जादूगरी का काम है और न एक क्षण में सम्पन्न होने वाला काम है। जाति से निजात पाने के लिए क्रान्ति के अतिरिक्त कोई चारा नहीं है।   

Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य