डॉ. अहिल्या मिश्रा के साथ के सुनहरे पल

मंतव्य


सादिका नवाब सहर

मैं इस बात को अपनी खुशकिस्मती मानती हूँ कि देर से सही एक शानदार शख़्सियत के संपर्क में आने का मौका मिला। यह मुझे कभी न मिलती तो यकीनन जिंदगी में कुछ न कुछ अधूरा रह गया होता। इतनी ममता-भरी मुस्कुराहट और प्यार भरा स्पर्श इतना स्नेहा!

प्रिंसिपल डॉ. शहाबुद्दीन ने व्हाट्सएप पर मुझे फॉर्म भेजा था। उन्होंने ख़ासतौर पर मुझे इस संस्था को अपना उपन्यास ‘‘जिस दिन से...!‘‘ भेजने की ताकीद की। मैंने उपन्यास भेजा और डॉ. अहिल्या मिश्र से पहचान का सिलसिला शुरू हुआ।

एक लंबे समय तक ख़ामोशी रही। एक दिन अचानक अहिल्या मिश्र जी की ओर से ख़बर मिली कि ‘साहित्य गरिमा पुरस्कार समिति संस्था ने ‘‘दशम साहित्य गरिमा पुरस्कार‘ के लिये मेरे इस उपन्यास को पुरस्कृत किया है और यह कि कार्यक्रम मार्च 2018 हैदराबाद में संपन्न होगा। मेरे लिए यह बड़ी खुशी की खबर थी।

ये वह जमाना था जब कोविड-19 ने सारे जमाने में अपने पैर फैलाने शुरू कर दिए थे। भारत में भी कुछ केस सामने आ चुके थे और अफसोसनाक बात यह है कि हर समस्या की तरह इतनी गंभीर समस्या पर भी सियासत खेली जानी भी शुरू हो चुकी थी। हमें अंदाजा हो गया था कि किसी समय भी लॉकडाउन का ऐलान हो सकता है, लेकिन डॉ. अहिल्या मिश्र उनकी संस्था का दृढ़ निश्चय देखकर हमने भी अपने यात्रा के फैसले को अडिग बना लिया।

संस्था वालों को ही नहीं हमें भी अंदाजा था कि हॉल खाली पड़ा होगा। हॉल पर पहुँचकर हमारे आश्चर्य का कोई ठिकाना नहीं था। हैदराबाद एक cosmopolitan उदार दृष्टि रखने वाला शहर है। जानते थे लेकिन ऐसी माहमारी की हालात में! कमाल तो यह था कि यह कार्यक्रम ख़ासतौर पर मेरे पुरस्कृत उपन्यास के लिए आयोजित किया गया था और विभिन्न प्रांतों से और हैदराबाद के अलग-अलग क्षेत्रों, अलग-अलग भाषा से संबंधित प्रबुद्ध लोगों से घिरी मैं जज़्बात से भर गई थी।

डॉ. अहिल्या मिश्र को दूर से ही पहचान लिया था। उनका गरिमा व्यक्तित्व सादगी आंखों में हिंदी भाषा भाषियों के साथ सभी को साथ लेकर चलने का नेतृत्व करने का दृढ़ संकल्प किसी और का नहीं हो सकता था। उन्होंने पलटकर मुझे देखा था और पता नहीं कैसे मुझे भी पहचान लिया। कार्यक्रम ने मुझे ऐसा चैंकाया कि कई दिनों तक उसका नशा मुझ पर तारी रहा। किस खूबसूरती से कार्यक्रम में मुझे संचालित किया गया था।

खुदा का शुक्र है कि मैंने साहित्य अकादमियों के एक दर्जन से ज्यादा अवार्ड प्राप्त किए हैं। कभी-कभी फंक्शनों में नहीं जा पाई हूँ लेकिन जहाँ कहीं गई हूँ वहाँ ताम-झाम के साथ बड़े-बड़े फंक्शनल हॉलों में सम्मानित किया गया लेकिन यहाँ तो कुछ और ही मामला था।

हॉल में हिंदी, उर्दू, तेलुगु, गुजराती, अंग्रेजी आदि का लेखक समूह मौजूद था। श्रीमती. प्रोफेसर ‘बेग एहसास‘ मिलाप के पत्रकार ‘डॉ. एफ.एम.सलीम‘ खास तौर पर बधाई देने पहुंचे थे।

स्टेज पर प्रोग्राम शुरू हुआ। कुछ जज भी वहाँ मौजूद थे। सम्मानित उपन्यास ‘‘जिस दिन से....!‘‘ पर जजों ने और डॉ. अहिल्या मिश्रा की बहू आशा मिश्रा ने अपने विचार व्यक्त किए, लेख प्रस्तुत किए और कितने और किन उपन्यासों के सामने “जिस दिन से...!‘‘ उपन्यास को पुरस्कृत किया गया, का खुलासा किया गया। इस औपचारिकता के बाद स्टेज के सामने एक कुर्सी लगाई हुई थी। उस पर मुझ सम्मानिता को बिठाया गया। प्रबुद्ध मेहमानों के बीच घीरी हुई मैं भावभोर हो रही थी।

प्यारा-सा मोतियों का हार, शॉल, सुंदर फ्रेम में जड़ा हुआ सर्टिफिकेट, हैदराबाद की यादगार चारमीनार का मोमेन्टो, 21000 रुपये का चेक और ढेर सारे फूलों के साथ कुछ-कुछ पुरस्कृत पुस्तकों और डॉक्टर अहिल्या मिश्र की ढेर सारी किताबों में से नुमाइंदा किताबें। किताबों में से लदी-फंदी मैं घर लौटी तो भीगा भीगा-सा बल्कि सराबोर-सा महसूस कर रही थी, जबकि उस दिन बारिश भी नहीं हो रही थी।

यकीनन् डॉ. अहिल्य मिश्रा और उनके बेटे मानवेन्द्र मिश्रा, बहू आशा मिश्रा के मुलाकात ने एक अच्छे दिल के रिश्ते जोड़ने का अनुभव करवाया।

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