‘‘हाथ में आईना दे गये’’

 पुस्तक समीक्षा


‘विद्या ददाति विनयम’ की अन्तर्लीन अनुगूँज से आपूरित वैश्विक काव्य-कृति

डाॅ. मधुर नज्मी, समी. मधुर नज्मी, ‘काव्यमुखी’ साहित्य-अकादमी गोहना


‘निवेदन हैं’ हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी, गुजराती, पंजाबी अनेकशः भाषाओं, उपभाषाओं की सारस्वत साधिका, साहित्य-सागर की कुशल तैराक (मैरिनर) कविता-साहित्य और अनुवाद के अदबी हल्कें में, वैश्विक पहचान (शिनाख्त) रचने वाली, राष्टबोधी चिन्तन धारा की असमान्तर शीर्षक डाॅ. अंजना संधीर गीत, ग़ज़ल और साहित्य नियमन की ‘श्रेष्ठ’ कवयित्री हैं ‘स्वराज प्रकाशन 4648/1, 21 अन्सारी रोड, दरिया गंज, नयी दिल्ली-110002 से सु-मुद्रित, सु-कलेवरित काव्य-कृति ‘निवेदन है’ प्रकाशित होकर, मंज़रे-आम पर आई है। समर्पण-शीर्षक ‘अमरीका से भारत वापसी के एक दशक के नाम! कवयित्री के अमरीका प्रवास की कथात्मकता को रेखांकित-रूपांकित और अक्षरायित करता है। पुस्तक में 62 लम्बी समकालीन कविताएँ हैं जो कवयित्री के परिचय की पारदर्शियों को लेकर, 144 पृष्ठों के ‘काग़ज़’ के कैनवस’ तक यात्रित होती है:-

डाॅ. अंजना संधीर की रचना-प्रक्रिया, सृजनशीलता को बुनते हुए प्रो. वसीम बरेलवी का एक शे’र जे़हन में गुलकारियाँ करने लगा है-

‘‘जहाँ रहेगा वहीं रोशनी कुटाएगा-

चराग़ का कोई अपना मकाँ नहीं होता’

अंजना जी, मूलतः रूड़की उत्तर प्रदेश (अब उत्तरांचल) की निवासिनी हैं, काव्य-समारोहों के माध्यम से, अपनी दमगर, रसगर-रचनाओं के बूते पर उन्होंने अपनी पहचान बना ली थी और शादी के बाद, पति के साथ अमेरिका की निवासिनी हुईं। वहाँ कोलम्बिया विश्व विद्यालय, न्यूयार्क, प्रिंस्टन विश्व विद्यालय, न्यूजर्सी तथा स्टोनी बु्रक विश्व विद्यालयों में कई वर्षों तक हिन्दी में प्राध्यापन किया। ‘निवेदन है’ कविता-कृति में ‘अपनी बात’ में डाॅ. अंजना संधीर भारत वापसी संदर्भ के कारण को इस प्रकार स्वरित करती लिखती हैं, ‘‘अपनी बेटियों को भारतीय संस्कृति से रू-ब-रू कराने, अपनी मूल जड़ों से जोड़ने की जो बलवती इच्छा थी, उसमें बहुत कुछ इच्छा से छोड़ लेकिन व्यक्ति जब निश्चय कर लेता है तो फिर जो छोड़ा उसका दंश उसे सताता नहीं है। जब अमेरिका 1995 में गयी थीं तब मेरे पति के अलावा मुझे कोई जानता नहीं था वहाँ, हाँ मेरी कविताएँ वहाँ की कुछ पत्रिकापओं में छप चुकी थीं:

मैंने अपने प्रयासों से दो वर्ष में ही 22 कवियों को ढूँढ निकाला और अमेरिका का प्रथम कविता-संग्रह ‘प्रवासी-हस्ताक्षर’ प्रकाशित और संपादित किया- विश्व हिन्दी-समिति न्यूयाॅर्क की पत्रिका ‘सौरभ’ की प्रुफरीडिंग शुरु की और संपादक मंडल में रहीं.....’’

हिन्दी अस्मिता को वैश्विक धरातल से जोड़ने की सारस्वत दिशा में जिन लोगों ने महत्तम कार्य किया है उनमें डाॅ. अंजना संधीर प्रथम पंक्ति की साहित्यकार हैं: इस पंक्तिकार की एक ‘प्रश्नवार्ता’ के उत्तर में डाॅ. अंजना संधीर ने कहा, ‘‘हिन्दी भाषा की भाषीयता सभी भाषाओं की तुलना में ‘श्रेष्ठ’ इसलिये है कि इसमें अनेकशः भाषाओं की दमगर समन्विती है। वैसे हिन्दी एक रसीकी ज़शन है जिसमें बोलियों की कचरसी मिठास हैं। हिन्दी की शब्दिता सहज, सुबोध और ग्राम्यबोधी, विचारबोधी और रसबोधी है’’ इस पंक्तिकार द्वारा यह पूछे जाने पर की आप की गति समीक्षा, अनुवाद, संस्मरण, निबंध आदि के सृजन में,एक साथ कैसे संभव हो जाती है? आपकी अनेकशः कृतियाँ आपके सृजन की साक्षी हैं, उन्होंने कहा, ‘‘भाई मधुर नज्मी जी पहले मैं गीतकार, ग़ज़लकार हूँ। मेरी कविताओं के रचाव’ से आप द्वारा संकेतित विधा में गीतशीलता आई है। कविता में अनेकशः विधाओं की समन्विति है। कविता के नाते ही यह ‘सब कुछ’ संभव हो सका है। भारतीय संस्कृति, संस्कार (सेक्रामेण्ट) और मनीषा से जोड़ने, जोड़े रहने के लिये, डाॅ. अंजना संधीर अपनी दो बेटियों को लेकर भारत आ गयीं: ‘निवेदन है’ में डाॅ. अंजना संधीर लिखती हैं, ‘‘वर्ष 2007 को भारत वापसी का निर्णय किया और चली आई वहाँ किसी से इस बारे में बात नहीं की। सबको लगा हर दो साल में मैं छुट्टियाँ मनाने भारत जाती हूँ। इस बारे में अपना निर्णय किसी को नहीं बताया-क्योंकि अगर अमरीका साथियों से चर्चा करती तो वे अपने-अपने विचार से मन खराब करते और मुझे जाने नहीं देते.... मैं अपने निर्णय अडिग थी....ख़ैर मुझे खुशी है जो निर्णय लिया उस पर क़ायम हूँ। मेरी बेटियों जान गयी है कि वे भारतीय हैं, पंजाबी है, हिन्दी है, उनकी सभ्यता संस्कृति क्या है?

साहित्यकार, समीक्षक प्रो. हरीश नवल का अभिमत ‘‘साहित्य केवल शब्द और अर्थ का विस्फोट नहीं, शाश्वत प्रक्रिया है। साहित्यकार सामाजिक न्यायधीश है, उसका चिन्तन-व्यक्ति जिज्ञासा से प्रारंभ होता है..... साहित्यकार का आचरण ऋषि के समकक्ष माना जाता है वह उन अर्थों में 

वैष्णव है जिसमें कहा जाता है, ‘वैष्णव जन तो तेणे कहिये जे पीर पराई जाणे रे!’ वही सत् साहित्यकार है जो दूसरे के दर्द का स्वानुभव कर पाता है, इसलिये वह वैयक्तिक नहीं सामाजिक होता है। समाज की चिन्ता ही उसकी व्यक्तिगत चिन्ता बन जाती है’’ साहित्यकार की मनीषा को विराट् शीर्षता प्रदायित करता है।

डाॅ. अंजना संधीर अपनी पारमिता प्रज्ञामें ऋषिता की संपोषिका हैं, उनकी दरवेशी दृष्टि में ‘वैसुधैव कुटुम्बकम्’ (फमिली द वल्र्ड) की अर्थानुभूति है। भारतीय संस्कृति की ‘रंगिमा’ ‘मधुरिमा’ और ‘अग्निमा’ उनकी प्रत्येक कार्यदर्शिता से झाँकती-बोलती है। ‘निवेदन है’ की पहली कविता ‘जागो अभी भी समय है’ के माध्यम से हिन्दी की अस्मिता को विविध तरीके़-स्त्री के से व्याख्यायित-रूपाति किया गया है, ‘‘हिन्दी मदरबोर्ड हैं/बचाओ इसे /बचेगी हिन्दी / तो अन्य भाषाएँ भी / अपने-अपने स्थान पर विकास करेंगी / ज़िन्दा रहेंगी..... और तुम अपने ही देश में / कुतराते हो बोलने से हिन्दी / क्या कर रहे हो तुम / जागो अभी भी समय है...’’ हिन्दी आत्मदानियों की ज़बान (भाषा) है। यह काल हिन्दी का जागरण-पर्व है। यह कृति शीर्षक ‘निवेदन है’ की सूत्रवत्ता को निरूपित, स-रूपित करता है। निवेदन है तुम से संज्ञक कविता में डाॅ. संधीर कहती हैं,.... ‘‘निवेदन है, समझाओ अपने बेटों को/ हांड़ी में प्रेम को पकाओ / स्त्री को सामान नहीं / इन्सान समझो तभी इन्सानियत पलेगी / वर्ना धरती की सहज-शक्ति हद से बाहर होते ही / सब नष्ट कर देगी /बचाओ अपनी सृष्टि को / अगर पीढियाँ चलाना चाहते हो / ख़ुशियाँ पाना चाहते हो / खुशियाँ देना सिखाओ अपने बेटों को /निवेदन है बस निवेदन है...’’ इस निवेदन में क्षणिक दर्द की गहराइयों और मनुष्यतम व्यथा को उजागर करके उससे निजात पाने की तरकीब मूल्यांकित की गयी है। इस निवेदन का परिदृश्य मानवता बोधी है, एक ऋषि-भवन की व्यावहारिक ज़मीन की सदाशयी निर्मिति है ‘निवेदन है’ की रचनाओं में जफ़्फ़ी देने वाला शिक्षक ‘एक ऐसी विचार-बोधी कविता है जिसमें शिक्षक के मर्तबा (महत्त्व) को आरेखित कियागयाहै कवित की आरंभिका इस प्रकार है। ‘‘मैम! आप अंग्रेज़ी बोलना सिखाने वाली एक मैम नहीं हैं / बल्कि एक प्यार की जफ़्फ़ी देकर / आत्म विश्वास पैदा करने वाली माँ हैं..... वह (शिक्षक) खुद सामान्य व्यक्ति नहीं होता / ऐसे शिक्षक से सीखा हुआ शिष्य भी / सामान्य नहीं होता दिखता है अलग। सच! ज्ञान की जफ़्फ़ी पाने वाला छात्र / जफ़्फ़ी देने वाले शिक्षक को / पीढ़ियों तक ले जाता है / अपने ज्ञान के बल पर। सचमुच! शिक्षक को जिंदा रखते हैं छात्र।’’ एक आदर्श छात्र, अध्यापक, शिक्षक की आबरु होता है। 

डाॅ. अंजना संधीर एक आदर्श शिक्षक और ममता की प्रतिमूर्ति हैं। माँ की संवेदना का एक उदाहरण अपने छात्रों के हवाले से, डाॅ. अंजना संधीर बयान करती हैं, ‘‘मुझे याद है, प्रोफेसर होने के बावजूद, घर से आलू के पराठे बनाकर, कई भारतीय छात्रों के लिये ले जाया करती थी जिसके कारण पति से भी तनातनी हो जाया करती थी पति कहते, ‘‘तुम प्रोफेसर हो या बावर्ची ? ये क्या है ? मैं प्रेम से कहती, ‘‘हमारे देश के छात्र हैं, मैस का खाना तकलीफ देता है, माओं से बिछुड़े हुए हैं, हमारे बच्चे हैं, प्लीज कुछ मत कहिये’’ शिक्षक डाॅ. अंजना संधीर इस मायने में एक वैश्विक नज़ीर हैं।

‘निवेदन है’ कि हर कविता में ‘कथात्मक अभिव्यक्ति’ है। ‘मानसिक विकास कहाँ हुआ ? ‘समकालीन कविता’ में ऐसी बुनकरी ‘रेयर’ है। हक़ीक़त है बगै़र ‘कथात्मक अभिव्यक्ति’ के कोई भी रचना, रचना तो हो सकती है ‘बड़ी रचना’ नहीं हो सकती। एक ‘कथा-रस’ की मनोरम, सार-पूरित अभिव्यक्ति हैं, डाॅ. अंजना संधीर की कविताएँ। उर्दू-शा’यरी की श्विात्मा स्वर्गीया परवीन शाकिर की एक मिनी कविता, ‘फ्री वर्स’ याद आती है, ‘‘दाने तक जब पहुँची चिड़िया जाल में थी। ज़िदा रहने की कोशिश ने मार दिया...’’

परवीन शाकिर की रचनाभिव्यक्ति डाॅ. अंजना संधीर एक भाव-पूरित मंजर निगारी से आपूरितके वैचारिक कैनवस में एक रसगर-दमगर ढलाव, कसाव और साम्पाती है यह पंक्तिकार डाॅ. संधीर के लिये अदब से कहना चाहेगा कि डाॅ. संधीर एक अदबी भारती विश्वात्मा की खूबियों से समन्वित काव्य-परिवेश की ‘लीजेण्ड शिनाख़्त’ हैं। उनकी ग़ज़लें, उनके गीत, उनकी नज़्में उनकी समीक्षाएँ, उनके अनुवाद, उनकी भारतीय भाषीयता उनका गीतिम परिवेश, हिन्दुस्तानी संस्कार सारा कुछ उनकी सृजनधर्मिता में विराट्ता लिये हैं, ‘निवेदन हैं’ की वैश्विक परिधि ने निबद्ध अनेकशः कविताएँ है ‘अब क्या कहें इन्हें’, ‘क्या फ़र्क पड़ता है’, ‘तुम्हें शत-शत प्रणाम। ‘यही प्रार्थना है’, ‘चुप्पी एक दिया तुम्हारे लिये’, प्रकाश पर्व ‘शादी के बाद’। ‘रहने दो यूँही’ ‘नन्हा तारा’ ‘निवेदन है शिक्षकों से’ / ‘निवेदन है सबसे’ ‘हम भारत से निकल गये पर...’ ‘यही तो भारत है’ ‘बसों ज़रा आँगन में’, ‘आखिर कब तक ?’ ‘पवित्र रिश्ते ही ज़िन्दा रहते हैं’, ‘पीढ़ियों को जीने दो’, सितारों की चादर’, ‘पंख फैलाती तितली’ ‘माँ ऐसी ही होती है’, ‘साइबर कुली ना बनो’, ‘बचा लो इसे’, ‘रोको इन विदेशी छावनियों को’, ‘माँ होना आशीर्वाद है’, ‘आओ मन से जीना सीखें’, ‘लड़कियाँ पत्थर नहीं होती’, ‘बदलो अब तो बदलो’, ‘प्रेम में अन्धी लड़की’, ‘स्वाभिमानिवी’, ‘मज़बूत पुल मजबूर हो गया’। ‘चलो चलें फिर उस आँगन में’, ‘याद के दीपक जरूरी है’, ‘यह भी सच है’, ‘करती हूँ यही प्रार्थना’, ‘कैसे चलेगी ये दुनिया’, ‘स्वागत है तुम्हारा ओ नये साल!! ‘ये याद रखना’, ‘प्रेम को जानो तो सही’, ‘यही तो सृष्टि का सर्जक है, ‘पुलबामा आक्रमण पर’, ‘तुम्हारा अंश’, ‘यहाँ सब अमरीकी हैं। सच क्या है ये या वो’। ‘बाहर से आने वाले से पूछो’, ‘कुछ तो करना होगा’, ‘मानसिक गुलामी’, ‘माँ होने का गौरव’, अपनी-अपनी सृजनात्मक अभिव्यक्ति में नायाब है: कविता की टेकनीक को अच्छी कविता रचकर ही समझा जा सकता है। डाॅ. अंजना संधीर की रचना की प्रायोगिक ज़मीन बहु-आयामी है तकनीकी धरातल पर एक नवता (नुदरत) कथन-भंगिमा का अदाज़ नव्य से नव्यतर होता गया है। उनकी तक़रीबन सभी कृतियों को पढ़कर ऐसी निवेदित करने की जसारत (साहस) कर रहा हूँ। स्वर्गीया परवीन शाकिर का निम्नस्थ शे’र डाॅ. अंजना संधीर की रचना-प्रक्रिया (क्रियेटिव प्राॅसेस) के मद्दे-नज़र संदर्भ गढ़ने लगा है:-

‘‘तस्वीर जब नयी है नया ‘कैनवस’ भी है-

फिर तश्तरी में रंग पुराने न घोलिये....’’

भारत के प्रधानमंत्री मोदी जी गुजराती के अच्छे कवि हैं। उनकी गुजराती कृति ‘आँख ये धन्य छे’ का हिन्दी अनुवाद ‘आँख ये धन्य हैं’ शीर्षक से डाॅ. अंजना संधीर ने कृति में काया-प्रवेश करके किया है ‘प्रणाम! तुम्हें शत-शत प्रणाम’ ‘निवेदन है’ में मोदी जी के व्यक्तित्व को उकेरती हुई, डाॅ. अंजना संधीर की दो समकालीन कविताएँ हैं और एक ग़ज़ल है-पहली रचना मोदी जी की शख़्सियत को रूपांकित करती है-

‘‘मोदी जी तुम्हें प्रणाम / प्रणाम इस लिये नहीं कि तुम भारत के प्रधान मंत्री हो / सारा देश तुम्हारी मुट्ठी में है /प्रणाम इसलिये कि तुम युग-द्रष्टा हो / नये भारत के निर्माण का सपना तुम्हारो आँखों में पलता है..... भारत की धरती को सुन्दर बनाये रखने वाले / स्वप्न दृष्टा को प्रणाम / जिसने अपनी कविता में कहा- ‘पृथ्वी ये सुन्दर है आँख ये धन्य है.’’ बँधी रहे ये विजय की पगड़ी / तुम्हारे सर पर और बढ़ता रहे यूँ ही /हमारे देश का कारवाँ / प्रणाम! तुम्हें शत शत प्रणाम.....’’

नरेन्द्र मोदी जी की माँ निन्यानबे वर्ष की है। ‘माँ होने का गौरव’, शीर्षक कविता में डाॅ. अंजना जी लिखती हैं- ‘‘निन्यानबे वर्ष की बूढ़ी माँ ने / काँपते हाथों से / सबसे ऊँचे तख़्त पर बैठने से पहले / आशीर्वाद लेने आये / पाँव छूने अपने अड़सठ वर्ष के बेटे को निहारा / तो भरभरा गयीं दोनों आँखें / दुनिया की सबसे अमीर माँ बन गयी / और ..... ग़रीब माँ का बेटा / बन गया दुनिया का सबसे अमीर आदमी.... नये भारत का निर्माता आया है / नयी रोशनी का पैग़ाम लाया है / आओ! मिलकर राज तिलक करें / अपने मुल्क की तक़दीर बदलें / और बदल डालें नक़्शा / करें ग़ज़लिया शा-इरी का फ़न (मोदी जी की माँ) संशक ग़ज़ल में ग़ौर तलब है / ‘‘ऐसा पहली बार हुआ है / रोम-रोम में प्यार छुपा है / इतनी ऊँची भरी उड़ान में / माँ के मन की भरी दुआ है / माँ के आगे झुक नरेन्द्र ने / हाथ जोड़ कर पाँव छुआ है’’ ‘‘निवेदन है’ की भाव-प्रवणता पर यह पंक्तिकार सिर्फ़ और सिर्फ़ इतना ही कह पा रहाहै: ‘‘सोचने की सज़ा दे गये- हाथ में आईना दे गये’’

लेखक: डाॅ. अंजना संधीर, एल-104, शिलालेख, सोसाइटी शाहीबाग़, अहमदाबाद 330004 

मो. 9099024995

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