डॉ. अहिल्या मिश्र का रचना संसार (प्रकाशित पुस्तकों में से चुनीं कविताएँ, निबंध, लेख, कहानियाँ एवं समीक्षाएँ)

 बिहार साहित्यिक - सांस्कृतिक विरासत (2020)

सामा चकेवा
(भाई-बहन के स्नेह का पर्व)


संपूर्ण भारत वर्ष में पवित्र कार्तिक मास पुण्य का महीना माना जाता है। कार्तिक महात्म का अद्वितीय वर्णन शास्त्रों में मिलता है। इस माह से पूर्व दुर्गापूजा (शक्ति की आराधना) संपन्न होता है। इस अवसर पर कुमारी पूजा, शक्ति पूजा, मूर्ति पूजा एवं सप्तशती का पाठ हमें शक्ति संरक्षक बनाता है। पुनः शरद पूर्णिमा के अमृतपान का सुखद समय होता है तत्पश्चात कार्तिक स्नान, ध्यान, एवं पूजा की शुरुआत होती है। बिहार एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश में 5 दिनों तक विभिन्न धार्मिक एवं लौकिक अनुष्ठान के साथ दीपावली का त्यौहार सम्पन्न होता है। इसके छः दिनों बाद छठ व्रत एवं त्यौहार का आयोजन होता है। यह सूर्योपासना बिहार का जाना माना पर्व है।

यह उत्तर प्रदेश के पूर्वी हिस्से में भी मनाया जाता है। अब तो यह संपूर्ण हिंदुस्तान में मनाया जाने लगा है। क्योंकि बिहार एवं पूर्वी यू.पी. के निवासी रोजी-रोटी की खोज में अपने प्रदेश से निकल कर अखिल भारत में बस गए हैं। वैदिक युग से ही विविध रूपों में सूर्योपासना भारतीय संस्कृति में व्याप्त है। परमात्मा के सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी स्वरुप को हम अंगीकृत करते आए हैं। तेजस्वी, स्रष्टा सविता देव के महान तेज का ध्यान अपनी अंतरात्मा में धारण करते हैं। रामायण काल में राम ने रावण का वध करने हेतु विशेष सूर्योपासना किया था। मनुष्य की चेतना प्राप्ति के समय से उसके सामने सूर्य से बड़े कोई देवता अधिष्ठाता नहीं बने हैं। ऋषि-मुनियों ने भी कई वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर सूर्य को साक्षात देवता स्वीकार किया है। इस संदर्भ में देखें तो पाते हैं कि अन्य देवताओं की हम प्राण प्रतिष्ठा करते हैं, किन्तु सूर्य तो स्वयं प्राणवान है, तेजोमय है, ऊर्जावान है, प्रकृति के विस्तारक हैं, जागृत देव है, प्रत्यक्ष उपलब्ध है, सृष्टि संचालक हैं।

सूर्यदेव हमारे देश के अनेक प्रांतों में अनेकों रुपों में पूजित हैं। किंतु यहाँ यह विशेष है कि केवल बिहारवासी ही डूबते सूर्य को अघ्र्य देते हैं। पूजा करते हैं। समरसता की ओर दृष्टिपात करें तो बिहार की छठ पूजा सर्वाधिक लोकतांत्रिक आराधना है। इस हेतु न तो पंडित, न ही पोथी, न पंथ, न मंत्र, न श्लोक न ही किसी शास्त्र की आवश्यकता होती है। यह लोक जीवन के कर्मकाण्डों से संचालित होने वाला पर्व लोकरीति एवं लोकपरंपरा से पूरित है। इसमें जातिगत, वर्णगत, वर्गगत, शिक्षागत, अर्थगत भेदभाव न होकर सूर्य के सभी सेवकों एवं साधकों का सम्यक भाव पूरित पर्व है। सूर्य आदिदेव है एवं हम मनुष्य मात्र उनकी संतानें हैं इनकी पूजा में अन्य देवों की तरह स्वर्गारोहण की इच्छा नहीं होती तथा परलोक की कामना के स्थान पर लौकिक वस्तुओं की मांग की जाती है। कई मधुर एवं मर्मस्पर्शी गीतों से इसके प्रमाण हमें मिलते हैं।

वैसे तो बिहार के मिथिलांचल में भी देश भर में मनाए जाने वाले सभी त्यौहार मनाए जाते हैं। अलग-अलग स्थानों में त्यौहार का अपना अलग महत्व है। कुछ ऐसे त्यौहार हैं जो विशेष रूप से बिहार के विभिन्न आंचलिकता के परिचायक होते हैं। भाई-बहन का सबसे प्रसिद्ध त्यौहार रक्षाबंधन या राखी है। यह विश्व प्रसिद्ध है। कच्चे धागों के बंधन में बंधकर भाई अपनी बहन को रक्षा का वचन देता है। कई आख्यानों में एक आख्यान कर्मवती और हुमायूँ का है। राणा सांगा की पत्नी कर्मवती ने हुमांयू को राखी भेजकर अपने राज्य की रक्षा के लिए प्रेरित किया था। यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है। इसी क्रम में दूसरे भाई बहन का त्यौहार भाई दूज है। बहन बजरी खिलाकर भाई के स्वास्थ्य की मंगल कामना करती है और भाई बहन को उसकी सुरक्षा का वचन देता है। छठ व्रत के संदर्भ से सूर्य की उपासना संपन्न करने एवं इसकी मधुरता से उत्साहित जन सामान्य का यह समय फुर्सत का समय होता है फलतः सूर्योपासना के साथ पूरा कार्तिक मास लोक जीवन के आनन्द गाथा का समय होता है। लोक मंगल एवं लोक मनोरंजन भाव के कई अनुष्ठान लोक अर्जित हैं जो इस माह में सम्पन्न होते हैं।

छठ व्रत की शुरुआत के दिन यानि खड़ना के साथ ही बहनों एवं बेटियों के लिए एक आनन्द दायक लोक संस्कृति आधृत त्यौहार का आयोजन आरंभ होता है। छठ के खरना पूजा में व्रती सारे दिन उपवास रखकर शाम में शुद्ध गुड़ और चावल से बने खीर तथा सोहारी (फुलके) से नैवेद्य चढ़ाता है और इसी से व्रत खोलती हैं। संपूर्ण परिवार यह प्रसाद ग्रहण करते हैं। बिहार में विशेष रुप से मिथिलांचल में खरना के दिन से ही एक और लोकात्मक एवं लोकरंजक त्यौहार मनाया जाता है, वह है सामा चकेवा का आह्लाद भरा त्यौहार। साम चक्कों, साम चक्कों अहिह हे, जोतला खेत में बैठिह है। यह जन गीत और इसके बोल गाँव के बच्चे, बड़े, स्त्री सभी लोगों यानी संपूर्ण समाज के मुख से आलोड़ित होने लगता है। यह खरवा पूजा से जुड़ा है। 

आज छठ के खरना यानी पंचमी की साँझ तो बहनों के लिए विशेष खुशियों का उपहार लेकर आती है। सभी बहनें एक जुट हो जाती है। वे सामा और चकेवा के निर्माण में तत्परता से लग जाती है। यह बिहार के मिथिलांचल में बहन भाई का विशेष प्रकार के खेल एवं मान्यता से संबंधित रोमांचक त्यौहार है। इसमें लड़कियाँ मिट्टी की कई मूर्तियों का निर्माण करती हैं, सामा, चकेवा, सत भैय्या, वृंदावन, जंगल, पेटी पिटारी, कजरौटा, दीपक, दोगला-चुगला आदि बनाया जाता है। उसे धूप में सुखा कर प्राकृतिक एवं रासायनिक रंगों में रंगा जाता है। इसे पहले पिठार से झोड़ा या रंगा जाता है। पुनः कई प्राकृतिक रंगों एवं आलता से इन्हें कलात्मक ढंग से सजाया सँवारा जाता है। प्रतिदिन शाम में सभी बेटियां एवं बहने इसे बाँस की कमची (तार) से बने सुंदर एवं कई रंगों से सजे हुए चंगेरी में रंगीन कपड़ा बिछा कर सजाते हुए रखती है। अपने अगल बगल के कई परिवारों की बेटियाँ बहनों के साथ तथा पास-पडोस की बेटियां एवं बहनें अपने-अपने चगेड़ी के साथ शुक्ल षष्टी की छिटकी चांदनी रात में गाँव के एक छोर पर जाने हेतु एक स्थान पर जमा होती है। गीत गाते हुए झुंड बना कर गाँव के सीमान्त क्षेत्र या दरवाजे के सामने फैले मैदान में या तालाब के भीर (किनारे) पर जाती है एवं सभी स्त्रियाँ गोलाकर घेरा बनाते हुए वहाँ बैठकर आपस में डाला फेरती हुए गीत गाने का कार्य संपन्न करती हैं। यह निरंतर 10 दिनों तक चलता है। हाँ छठ के दिन घर में बैठकर मूर्तियाँ सुखाने एवं रंगने का कार्य किया जाता है। क्योंकि इस दिन छठमाता के अरग की रखवाली भी करनी होती है। सप्तमी के दिन से यानी छठपारणा के लिए उगते सूर्य को अर्घ्य (अरग) अर्पण के साथ छठ पर्व सोल्लास संपन्न होता है। आपस में प्रसाद वितरण एवं हर्षमय वातावरण छाया रहता है। इसी दिन से मंगलगान के साथ यह कार्यक्रम आरंभ होता है।

घर से निकलते समय पहला गीत गाया जाता है- डाला लय बहार भेली बहिनी से सुभद्रा बहिनी कन्हैया भैय्या लेल डाला छिन् सुनु राम सजनी। वहाँ डाला घाट में या मैदान में फिराने के बाद फिर माता जी एवं बहनों का आशीषपूर्ण गीत का गायन होता है यथा झिरी-झिरी बहे रे बरसात। पुनः वृंदावन में आग लगती है भाई को गीतों के माध्यम से बुझाने हेतु बुलाने का वर्णन होता है। गीतों में चुगला जो बुराई का प्रतीक है उसे फटकारते हुए उसके सन से बने लटकते बालों को आग में जलाया जाता है। यह कहावत सस्वर गाया जाता है- हे चुगला तोहर कोन बाइन अक बाइन बक बाइन। इसके बाद काजल सिकाई होता है इसके पश्चात सामा चकेवा को हरी दूब का भोजन कराया जाता है। बहनोई के रिश्ते के साथ ही चुगले को खूब मजेदार गाली दी जाती है। इसे सुनने एवं गाने में बहुत मजा आता है। देव उठाऊन एकादशी के दिन सामा की विदाई का दिन निश्चित किया जाता है। इस दिन से कार्तिक पूर्णमासी के दिन तक समदाउन का गायन भी होता है। मिथिला के क्षेत्र में पूर्व में सभागाछी पद्धति से विवाह सम्पन्न होता था। विवाह संपन्न होने के पश्चात् भी तुरंत बेटी को विदाई नहीं होती बल्कि बेटी की विदाई का दिन तय कर उसे विदा किया जाता है। यह अति प्राचीन प्रथा है। विदाई हेतु 15 दिन ले रम का दिन पूर्व ही निर्धारित किया जाता है, दिन तय होने के बाद संध्यागान एवं समदाउन (बिछुड़न गीत) गाने का प्रचलन है। यही प्रथा सामा के लिए भी अपनाया जाता है। सामा से बिछुड़ने का दर्द इन समदाउन गीतों में निहित रहता है। 

कार्तिक पूर्णिमा एक धार्मिक अनुष्ठान का दिन है, सामा का अवसान भी इसी दिन होता है। सामा कार्तिक मास के अवकाश के समय मनोरंजन हेतु अपने नैहर आती है। अपने स्वजनों से मिलती है। भाई के संग हर्ष से समय बिताती है। उसकी वापसी अपने निर्धारित जीवन की ओर इसी दिन मनाया जाता है। यानी सामा इस दिन अपने मैके से ससुराल चली जाती है। इस अवसर पर सखी सहेलियाँ उसे रो-रोकर विदा करती हैं, करुण भाव के कई गीत गाए जाते हैं।  

पूर्णमासी यानी कार्तिक पूर्णिमा के दिन सामा चकेवा को वहाँ यानी मिथिला का सर्व प्रिय भोजन दही-चूड़ा, मिठाई (गूड़) करवा कर उसे विदा दी जाती है। सामा चकेवा का चगेड़ी लेकर समूचे गाँव का या धार्मिक स्थलों का यथा मंदिर, ब्रह्म स्थान, महावीर स्थान आदि का भ्रमण करवाया जाता है। तब इसका अवसान (निम्मजन/भसान) कूर खेतों में किया जाता है। इस अवसर पर बहनें अपने भाइयों का फाँडा (धोती के कोंचे में थैला बनाकर) चूड़ा एवं मिठाई (गुड़ या बताशा) से भरती है। इसके बाद भाई अपने घुटनों से सामा चकेवा की मूर्ति खंडित करता है। तत्पश्चात् इसे खेत में विसर्जित या निम्मजित या भसाने का कार्यपूर्ण करते हैं। प्रायः जहाँ अन्य सभी मूर्तियों का विसर्जन या भसान पानी में किया जाता है वहीं यह एक अलौकिक पद्धति है कि सामा चकेवा का विसर्जन या इसे भसाने हेतु जमीन का चुनाव किया गया है। वह भी परती और जोते हुए जमीन जिसे कूर खेत कहते हैं, में ही यह भसान किया जाता है। लोक संस्कृति के रक्षक भाई-बहन के स्नेह का संरक्षक यह त्यौहार हमारी विरासत में आज भी जीवित एवं संरक्षित है।

एक बात और जो आंध्र-प्रदेश एवं तेलंगाना के प्रवास में मैंने देखी है कि यहाँ कुछ स्त्रियाँ दीपावली के पश्चात् पूर्णमासी तक अपने घरों को कई प्रकार की बोमलू (मूर्तियों) से सजाती हैं। सुहागिनों को बुलाकर इसका अवलोकन करवाते हुए उनका आदर सत्कार किया जाता है। हाँ, इन में कई स्त्रियों के सुघड़ता एवं उनकी सदरूचि का प्रतीक वहाँ स्वयं प्रकट होता है। अतः मूर्तियों के प्रतीकात्मक स्वरूप हमारे देश में पुरातनकाल से चले आ रहे हैं। यह देश के विभिन्न भू भागों में विविध रूपों में विद्यमान है। हमारे देश में मूर्ति से संबंधित कई-कई मनोरंजक आख्यान भी प्रचलित है। किन्तु मिथिला की बात ही निराली है। वहाँ तो मूर्ति पूजा का महत्व हर त्यौहार पर देखा जा सकता है।


भोपाल में हिंदी लेखिका संघ के कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रुप में दीप प्रज्वलन करते हुए

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