डॉ. अहिल्या मिश्र का रचना संसार (प्रकाशित पुस्तकों में से चुनीं कविताएँ, निबंध, लेख, कहानियाँ एवं समीक्षाएँ)
प्रकृति को अगर कोई आक्रांत करता है तो वह मनुष्य है। मनुष्य बुद्धिजीवी है। अन्य प्राणियों से हटकर उसके पास दिमाग है, जो उसे सोचने की शक्ति प्रदान करता है। वस्तुओं की समझ एवं परख की शक्ति प्रदान करता है। मनुष्य अपनी जीवन यात्रा पूरी करता है। इस यात्रा में हर कदम पर प्रकृति का संग उसे प्राप्त होता है। प्रकृति की सीमाओं से उठाना ही संस्कृति का मूल बिन्दू है और ढलान विकृति का बीज। इस बीच यात्री के रूप में पथिक या मनुष्य को ऋषियों ने उत्तरयात्री कहा है। ऊपर की ओर या उध्र्वगामी मनुष्य को वैदिक भाषा में उध्र्वरता कहा गया है। प्रकृति प्रदत्त सामग्री को मनुष्य परिमार्जित कर श्रेष्ठ बनाए, इसे सुसंस्कृत बनाए, यही मनुष्य के भौतिक निर्माण बिन्दु में निहित है। भारतवर्ष के लोक साहित्य में उसके कई संकेत मिलते हैं। मनुष्य के रीढ़ की हड्डी लंबवत है। यह पृथ्वी पर लंबवत है और उपर का भाग मस्तिष्क है, लोक कथाओं में हमें दक्षिण दिशा की निषिद्धता का सिद्धांत भी मिलता है। वास्तव में दक्षिण को आग्नेय दिशा माना गया है। इस ओर ध्यान दें तो पाते हैं उत्तर उध्र्व है एवं दक्षिण नीचे।
मानव, देव और दानव के बीच का प्राणी है। उपर उठना, त्याग करना, दूसरों के हित की बात सोचना, अपने भूख को दबाकर दूसरों को भोजन परोसना देवत्व है। किन्तु अपने निर्धारित मानदण्डों से हटकर स्वार्थ की पूर्ति हेतु छीनना, प्राप्ति का लक्ष्य सर्वोपरि मानकर इस हेतु कार्य करना इसमें भले ही किसी की बलि चढ़ाना पड़े। इसी स्वार्थपूर्ति हेतु किए गए कार्य दानवत्व है। इसी देवत्व-दानवत्व के बीच मानव का जीवन ईश्वर को भी वरण करना पड़ता है। भारतीय मिथक में इसके अनेकानेक उदाहरण प्रस्तुत हैं। देवता संस्कृति के प्रचारक है। राक्षस विकृति के विधायक हैं। सत्य की रक्षा कष्टदायी होती है। सत्य संस्कृति की दृढ़ता है। परमार्जन की क्रिया ही सत्यता का द्योतक है। सदाचार एवं कदाचार के बीच का अंतर समझना-समझाना आवश्यक है। यह मनुष्य के हिस्से में सदा से रखा गया है। देने वाला यानी देवता है। अतः मनुष्य उन्हें विभिन्न रूपों में पूज्यनीय बनाकर रखता है। राक्षस जो छीनना जानते थे, ऐसे लोग मनुष्य के घृणा के पात्र बने हैं। मनुष्य का लक्ष्य इन दोनों के बीच निर्धारित होता है। प्रकृति से प्राप्त उत्तर यात्रा को परिमार्जित और सुसंस्कृत करना। परिणार्जन एवं संस्करण की क्रिया संस्कृति है। संस्कृति के संवाहक तत्व अनेक हैं। सांस्कृतिक क्रिया प्रक्रिया एवं रक्षा हेतु भारतीय वाङ्मय एवं इसके चिंतक साहित्यकारों को पूरी छूट प्रदान करता है। कवि को प्रजापति का संबोधन दिया गया है। वास्तव में साहित्य संस्कृति का एक प्रबल संवाहक तत्व है।
वेदों के अनुसार विश्व के स्रष्टा ही कवि हैं एवं सृष्टि उनका काव्य। कवि की सृष्टि भले ही स्रष्टा की सृष्टि से भिन्न है क्योंकि संसार में अंवाछनीय. गर्हित और घृणास्पद का समावेश है, किन्तु साहित्यकार इसे रचना में अब घटित नहीं कर सकता। साहित्यकार अपनी अलग सृष्टि की रचना करता है जिसमें संसार के अवांछनीय तत्वों को स्थान नहीं देता है। वह शुभाशुभ के द्वैत से परे होता है। साहित्यकार वास्तव में कलुष परिहारी होता है।
इस संदर्भ में थोड़ी सी बातें पाश्चात्य साहित्यिक अवधारणाओं की भी करना उचित होगा। पाश्चात्य काव्यशास्त्र काव्य को अनुकरण या पुनः प्रस्तुतिकरण की संज्ञा देता है। अर्थात साहित्यकार की सृष्टि प्रकृति के समानान्तर चलती है। उसे अतिक्रांत नहीं करती। प्रकृति को यथावत चित्रित करना ही पाश्चात्य साहित्यकार उचित मानते हैं। उनके पास कल्पना सत्-असत् के द्वंद तक जाती है। सत् पक्ष का विजयघोष भी होता है। किन्तु सत-असत् दोनों में एकात्मता नहीं दिखाई जाती है। वहाँ युद्ध है, द्वंद्व है, अतः तनाव भी है। वहीं भारतीय विचारधारा में काव्य का उद्देश्य शम् और आनंद है। आनंद अपना सब कुछ लुटा देने में होता है तथा सभी को साथ लेकर चलने में है। सबके साथ मिलकर आनंद का उपभोग ही वह सही बिन्दु है जहाँ पाश्चात्य काव्य भारतीय काव्य की विचारधारा से काफी पीछे छूट जाती है।
साहित्य में या भारतीय वाङ्मय में प्रकृति की छटा के कुछ दृश्य दृष्टान्त के रूप में आपके सामने रखती हूँ। इसकी विलक्षणता मन मोहक है। बादल दल गगन में मगन, मादल बजाते घूम रहे है। कभी रिम-झिम कभी टप-टप तो कभी टापुर-टपुर तरंगों में जल तरंग बजाते कभी धाराओं की मादक अंगुलियों को सहलाते चलते रहते हैं। बलखाती नदियों में ज्वार उठा, लहरें-उत्ताल उच्छलित छली गई। काले छलिए ने जल-तल पर उतर उसे तर कर उसका चंचल आँचल मैलाकर डाला। सुधा समनीर कलुषित हो विष रूपा हो गयी। सहसा आकाश मुस्काया। रश्मियों के रजत रथ पर नभपथ से शरद शूर आया और गरजते लरजते बादल गज के रतिरत पनीले रद उखाड़ कर शर संघान किए। कबॅल में बंद हुआ रति का सुहाग (किसी कवि की पंक्तियाँ) देखते-देखते दरख्त चमकीले फूलों से दरख्शां हुए। धरा पर कामिनी की कमनीयता लिए अनेक फूल मुस्करा उठे। इस तरह प्रकृति और साहित्य का उत्तम समागम दृष्टव्य है। भारतीय वाङ्मय में कविता का सदा से वर्चस्व रहा है। सारे मंत्र ही कविता है। गद्य का आगमन बहुत बाद में हुआ है।
कविता अपने समय की भी संवाहिका होती है। कविता में देश काल और परिस्थितियाँ मुखर रहती हैं। कवि समय की सारी विद्रुपताओं को उकेरता है। कैक्टस की चुभन के साथ फूलों की गमक का सुन्दर मिश्रण कवि की अपनी थाथी शब्दों का जामा पहनती है। कवि श्वास लेता है। जीवित रहने का सक्षम प्रमाण देता है। संघर्षरत हो जीवन का सत्य पीता है। पुनः उसे शब्द के माध्यम से अक्षरित कर औरों के समक्ष प्रस्तुत करता है। बिन्दु से सिन्धु तक की प्रक्रिया घटित होती है और तब शब्दों का महासागर अर्थ की दुनियाँ में अपना आधिपत्य जमाता है। कवि दूर खड़ा होकर उस परिमार्जन का आनंद उठाता है।
कविता एक सतत् प्रक्रिया है जो समय के पहिए पर चलती हुई मनुष्य को छूती है, सहलाती है, बहलाती है। कुछ सुनती है, सुनाती है। देखती है दिखाती है। आगे बढ़ती जाती है। कविता बस कविता होती है। वह अच्छी बुरी नहीं होती। वह अपना पराया नहीं होती। वह होती है तो अपने होने का आभास दिलाती है। कविताकामिनी के याचक बहुत है, किन्तु यह तो समय का सच बन कर लुभाती है। दर्द का दियाद बनकर मन में उतरती है। जीने और भोगने की ओर आज को भगाती है। देश को जगाती है। काल को सजाती है। परिस्थिति को बनाती है और कवि को डूब जाने को कहती है। जो कहना मान कर डूब जाता है। वह अनुभव के मोती लेकर शब्द की सेवा में लग जाता है। सहे हुए दर्द की दीवार पर शब्द की चित्रकारिता सधे हुए शिल्पी की तरह अमर हो आता है। अतः आम लोग कवि को विशेष अर्थों में देखते भालते और जानते हैं।
सृजन सहज नहीं होता। यह मशरूम की खेती नहीं है। ढेर सारे दर्द, छटपटाहट, व्याकुलता एवं बेचैनी के बाद भी कभी-कभी दो पंक्तियाँ नहीं रची जाती है। कई-कई दिनों अस्त-व्यस्त सी मानसिक स्थिति, वातावरण में घुलते-मिलते जीते जाने पर भी एक शब्द का सलीका नहीं पैदा कर पाती। कभी अनायास ही शब्द के मोती झरने लगते हैं और सुख-दुख के अनुभव का शाब्दिक गुलदस्ता तैयार हो जाता है। ऐसी ही प्रक्रिया एवं क्षणों का प्रमाण हैं, मेरी ये रचनाएँ। अतः इनमें कई बार असंगितयाँ भी उभर आई हैं। मेरे अनुभवों के खार एवं खुशियों के हार को हर श्वास की धमक के साथ शब्दों में पिरो कर मैंने अपनी कविताओं का सृजन किया है। ये खट्टे-मीठे शब्दों के गुम्फ आपको सबरी के बेर की तरह चुन-चुन कर अर्पित हैं। हाँ उनके संबंध में कुछ ऐसी बाते हैं जिनका उल्लेख आवश्यक है।
इन कविताओं के चयन एवं उसको अनुदित करने का कार्य 2005 में मेरी प्रिय सखी एलिजाबेथ करियन ‘मोना‘ के सौहार्द्र के कारण एक विशेष आमंत्रण से आरंभ हुआ। वास्तव में यह विचार ‘म्यूज इंडिया‘ हैदराबाद के द्वारा आयोजित प्रथम कार्यक्रम वार्षिक सम्मेलन के अवसर पर अंग्रेजी में काव्यपाठ करने के निमंत्रण से उभर कर सामने आया। मुझे इसके संस्थापक जी.एस.पी.राव का फोन आया कि हिन्दी की वरिष्ठ कवयित्री के रूप में मुझे अपनी रचना हिन्दी व अंग्रेजी दोनों भाषाओं में प्रस्तुत करनी होगी एवं ‘म्यूज इंडिया‘ संस्था का एक दिवसीय प्रथम सम्मेलन में विभिन्न भारतीय भाषाओं के साथ हिन्दी का प्रतिनिधित्व भी करना होगा। इसकी तैयारी हेतु मोना को विशेष कार्यभार सौंपा गया है। इसकी जानकारी भी मुझे दी गई। मोना से मैं पूर्व परिचित थी। हम दोनों में अच्छी बनती है। उनसे संपर्क कर मैंने अपनी कुछ रचनाएँ उनके हवाले कर दी। वे अनुवाद संबंधी कार्य सम्पन्न करने लगी। वैसे थोड़ी बहुत अंग्रेजी की जानकारी होते हुए भी मैं हमेशा अंग्रेजी के प्रयोग से बचती रही थी क्योंकि मैंने हैदराबाद में अपना कर्मक्षेत्र हिन्दी को बना लिया था।
इसी संदर्भ में एक बात याद आ गई। मैं सन् 1990 ई. के मार्च माह में काव्य पाठ हेतु लगभग 10 दिनों की माॅरिशस यात्रा पर 120 लोगों के समूह के साथ गई थी। मेरे साथ आदरणीय राजेन्द्र अवस्थी, सुरेश नीरव, प्रकाश प्रलय, मनोहर, मनोज, प्रभा भारद्वाज, शिवशंकर अवस्थी, डॉ. रमा सिंह, कुँवर बेचैन, वेद प्रकाश सुमन एवं वालेश्वर अग्रवाल मंत्री अंतराष्ट्रीय सहयोग परिषद तथा पंडित वेद प्रकाश जी के आलावे इस यात्रा पर कई अन्य नामवर भी थे। प्रतिदिन कहीं न कहीं संगोष्ठी एवं काव्य-संध्या का आयोजन किया जाता। माॅरीशस सरकार के स्वास्थ्य मंत्री, विदेश मंत्री, प्रधान मंत्री, राष्ट्रपति के सचिव एवं स्वास्थ्य मंत्री आदि भी आयोजन में सम्मिलित होते थे। मारीशस के राष्ट्रपति के सचिवालय की ओर से विदाई कार्यक्रम एवं रात्रिभोज का आयोजन रखा गया था। इसमें तात्कालीन राष्ट्रपति श्री अनिरुद्ध जगन्नाथ एवं उनकी फ्रांसीसी धर्मपत्नी भी पधारे थे। उनके भाषण के पश्चात् कवि सम्मेलन का आयोजन था। माॅरीशस के सभी उच्चाधिकारी एवं गणमान्य लोग उपस्थित थे। अन्य कवियों के साथ मैंने भी काव्यपाठ किया। मैं अपनी ज़मीन का ज़मीर शीर्षक रचना पढ़ रही थी कि श्रीमती राष्ट्रपति यानी माॅरीशस की प्रथम महिला ने फरमाईश कि मैं इसे अंग्रेजी में अनुदित करूँ। मेरे चेहरे पर माॅरीशस दूरदर्शन का कैमरा अपना फोकस डाल रहा था। दूसरी ओर अन्य कैमरे का फ्लैश चमक रहा था। स्वागत हेतु चयनित विशाल लॉन लोगों से खचाखच भरी थी। अपनी बात कहूँ तो कैसे? एक तरह का डर समा गया कि अपनी ही रचना का अंग्रेजीकरण अकस्मात् कैसे करूँ? पसीने में डूब गई। चेहरे पर चमकती बिन्दुओं को पोछ कर अपनी क्षमतानुसार रचना को अनुदित कर मैंने प्रस्तुत किया। श्रीमती राष्ट्रपति ने महिला की मजबूती से संबंधित इस रचना को बेहद सराहा। वह क्षण मैं जीवन में कभी नहीं भूल सकती, जब उन्होंने रचना पाठ के बाद मुझे बुलाकर मेरी पीठ थपथपाया। मैं कई दिनों तक खुशी में डूबी रही। वैसे भी बिहार प्रदेश की होने एवं भोजपुरी बोली जानने के कारण वहाँ मुझे अन्य साथियों से अधिक मान-सम्मान मिलता रहा। मेरी कई कविताएँ आग्रह के साथ सुनी गईं।
काश! मेरा अपना कैमरा रहा होता और मैं उस अविस्मरणीय क्षण को कैद कर अपनी फोटो एलबम में लगा पाती। एक तो उन दिनों मुझे इन सब बातों की इतनी समझ नहीं थी। माॅरीशस यात्रा को मैं इतनी गहनता से ले भी नहीं पायी थी। वहाँ जाने के बाद मुझे अपनी यात्रा के संबंध में थोड़ी गंभीरता का भान हुआ। अपने विरोधी तेवर के कारण पहले ही पारिवारिक सहयोग की कमी थी। फिर विदेश यात्रा तो हमारे पास स्त्रियों के लिए उचित माना ही नहीं गया है। इन सभी विरोधभासों से जूझते हुए किसी याद को संचित रखने की सोच पनपती भी कैसे? खैर मन में आज भी वह सब कुछ संचित है। देखिए आज भूमिका लिखते हुए बह गयी न इन यादों की धार में।
स्वाभाविक है निरंतर हिन्दी क्षेत्र से जुड़े रहने के कारण अंग्रेजी भाषा का प्रवाह अवरुद्ध होता रहा। क्योंकि अपने कार्यक्षेत्र में भी मैंने अपने विषय में परिवर्तन कर मानद प्रशासक की जिम्मेदारी ओढ़ ली। जिस संस्था से मैं जुड़ी हूँ वहाँ आज भी सारा काम-धाम हिन्दी में ही होता है। मेरी हिन्दी तो बहुत सुधर गयी, किन्तु अंग्रेजी का ज्ञान रुक सा गया। फिर मोना द्वारा अनुदित मेरी रचनाओं एवं इसके अनुवाद को म्यूज इंडिया के प्रथम अधिवेशन में प्रस्तुत करते हुए मैंने द्विभाषिक काव्य पाठ किया। इसकी मूल प्रतियों का वाचन भी मैंने किया। कार्यक्रम पूरी सफलता से सम्पन्न हुआ। मैं और मोना साथ-साथ घर के लिए निकल पड़े। रास्ते में बातचीत करते हुए मोना द्वारा अनुदित रचनाओं की मैंने हृदय से प्रशंसा की। इस पर मोना ने कहा कि क्यों न मेरी रचनाओं को अंग्रेजी में अनुदित किया जाए। मैंने कहा मेरी तीन काव्य-संग्रह प्रकाशित हैं और दो संग्रह की सामग्री प्रकाशनार्थ तैयार है। अरे! इसमें क्या है? इनमें से कुछ रचनाएँ छाँट कर उनका अनुवाद किया जाएगा। उसके इस कथन के बाद मैं सोच में पड़ गयी और कई बार उसकी प्ररेक बातचीत के बाद मैंने हामी भर दी। मेरी तीनों पुस्तकें क्रमशः पत्थर-पत्थर-पत्थर, कैक्टस पर गुलाब और आखर अन्तः दीप के कुछ समय बाद मैंने उसके हवाले कर दिया। वर्ष बीतता गया। मैं अपनी व्यस्तताओं में उलझी रही। एक दिन मोना का फोन आया कि पुनः म्यूज इंडिया के वार्षिक कार्यक्रम में मुझे भाग लेनी है। पहले से हटकर कुछ अलग रचनाओं का वाचन करना है। मैंने कई रचनाओं का अनुवाद कर दिया है। देख लेना। खैर यह कार्य पूर्ववत् सफलता से संपन्न हो गया। मैंने हृदय से मोना को
धन्यवाद दिया। उसने मुझे याद दिलाया कि बहुत दिन बीत गए तुमने पुस्तक के संबंध में क्या निर्णय लिया है? क्या कविताओं के अनुवाद का मूल सहित पुस्तकाकार करना है या नहीं। मैंने उससे कहा कि ठीक है जल्द ही यह काम पूरा किया जाएगा।
कालचक्र को कोई नहीं जानता। शायद इस पुस्तक को स्वरूप पाने का समय अभी नहीं आया था। मुझे प्राचार्यापद से अवकाश प्राप्त हुआ। मोना भी इस बीच यात्राओं के लिए बाहर जाती रही। बीच-बीच में वह आती-जाती रही और पुस्तक की ओर मुझे आकर्षित करती रही। किन्तु अवकाश प्राप्ति के छः माह बाद ही मेरे पतिदेव ब्रेन हेमरेज के शिकार हो गए। उन्हें बिस्तर एवं सहारे का जीवन मिला। मेरी दिनचर्या बदल गई। घर में अधिकाधिक समय देना अनिवार्य हो गया। इसी बीच इन्हीं चिन्ता एवं तनावों के कारण मैं कैंसर से पीड़ित हुई। स्वास्थ्यलाभ में लगभग दो से तीन वर्ष का समय लगा। इधर समय का क्रूर पहिया घूमा। पति काल के गाल में समा गए। एक और बज्रपात हुआ। मैं पत्थर सी जड़ हो गई। दिशाहीनता और अकर्मण्यता ने अप्रत्यक्ष रूप से मुझे घेर लिया। कुछ भी करने का मन नहीं होता था। अंतर में एक अनिश्चय के वातावरण ने मेरे चहूँ ओर घटाटोप कर रखा था। किन्तु मोना ने अपना प्रयास नहीं छोड़ा और अब जब मैं स्वस्थ्य हूँ एवं ऊहापोह की मानसिकता से बाहर निकल चुकी हूँ। पुनः अपने कत्र्तव्य पथ पर पूर्ण जागरूकता से बढ़ने लगी हूँ। इस पुस्तक के बारे में मोना की बात या उसके द्वारा दिए गए विचार, मन के कोने में संचित भाव से निकालकर वास्तविकता का स्वरूप देने का भाव उभर कर सामने आया। इसमें छिपा डर कि कहीं अंग्रेजी अनुवाद मेरी कविता का स्वरूप न बिगाड़ दे। इसमें मोना की जागरुता पूर्ण श्रम एवं शब्दों के चयन ने आश्वास्ति प्रदान की। विश्वास का कारवाँ भी साथ चलने लगा। खैर, पुस्तक पूर्ण रूप से आकार लेने लगी। श्वास से शब्द तक की इस यात्रा में मोना का योगदान अविस्मरणीय रहेगा। एक अच्छी इंसान, बिना किसी लोभ मोह के कत्र्तव्य और काम का जूनून लिए आगे बढ़ने वाली दोस्ती को अर्थ देने वाली मोना की प्रशंसा में मेरे पास शब्द कम पड़ेंगे। एक अच्छी शायरा होना और बात है किन्तु अच्छी इंसान बनना अहम् बात है। मोना में यह भावना कूट-कूट कर भरी है। अब इस पुस्तक को प्रकाशित कर पाठक को अर्पित करते हुए सोच रही हूँ कि इसे आपका स्नेह मिलेगा।
मेरी काव्य यात्रा के कई पड़ाव इन रचनाओं में चित्रित हैं। अपनी बातें कम हैं। अपने आस पास के यथार्थ एवं इसका सच्चा सटीक विवरण आपको आन्दोलित करेगा। कई रचनाएँ आपको अपने साथ बहा ले जाएँगी।
अधिकतर बातें आपके और हमारे बीच घटित होती है। उन्हीं संत्रासों को सामने रख कर उससे उबरने की तलाश भी है। अब शिव और सत्य का मिश्रण आनंद और कल्याण दें यही कामना एवं भावना है। मैं स्वयं कुछ अधिक न कहते हुए अपनी ही रचना की एक-एक पंक्ति दे रही हूँ, आपके आस्वादन के लिए-
शब्द ब्रह्मबिन लूँ मैं कोई श्वास नहीं
या
कविते तू गंगा बन बह मेरे मन में
इस काव्य यात्रा में आने वाली हर छाया को आभार, सभी अपने एवं सहयोगियों को सप्रेम स्नेहयुक्त आभार। सर्वप्रथम मैं सतीश चतुर्वेदी, राजेश जैन, प्रो. ऋषभदेव शर्मा, जी.एस.पी. राव की तथा आवरण पृष्ठ की चित्रकारिता हेतु श्री सुशील थापा (नेपाल से) को कोटिशः आभार अर्पित कर रही हूँ। इस यात्रा में इसके अंग्रेजी अनुवाद के विचार-विमर्श करने में श्री लक्ष्मी नारायण अग्रवाल एवं मानवेन्द्र मिश्र का सहयोग अविस्मरणीय रहेगा। सार्थक एवं सकारात्मक योगदान हेतु उन्हें हार्दिक आभार। इन सभी के उत्तम शाब्दिक एवं कलात्मक सहयोग हेतु पुनि....पुनि....
धन्यवाद। -डॉ. अहिल्या मिश्र
गति /क्षति /अवनति
संस्कारों का चेहरा
बिगाड़ना आसान है
लेकिन क्या बनाना भी
इतना ही सहज है?
हम सभ्य-बनने की
नकल मात्र करते हैं ?
और इस हास्यास्पद कोशिश में अपनी
अकल /समझदारी /ईमानदारी
सभी ध्वंस कर बैठते हैं।
बाँकी बच जाता है
केवल पाश्चात्य के नकल
का घिनौना स्वरूप
और रुदन करती
अपनी ही सहचरी
कोंचती है /ढ़हाती है /लड़खड़ाती है
अपने संस्कारों के स्वरूप को
अपने ही मन का विद्रूप
और बेनकाब होता है।
वीभत्स स्वार्थ
कितना घिनौना है
यह नंगापन।
क्या ?
हम इसके हकदार हैं?
इस अपने निर्माण के अधिकार
को बेचकर
केवल तोड़ने
टुकड़े करने
का यह सर्वाधिकार
सुरक्षित क्यों करना चाहते हैं ?
यह प्राप्ति संतृप्ति है
अथवा /या...
वह संस्कारों पर
मर मिटना एक
अजन्मा सुख देकर
स्वविलीन हो
सारे समुदाय का
कल्याणी कहलाना।
करो कुछ करो
किन्तु
फैसले से पूर्व
मृत्यु दण्ड का
विचार
अवश्य करो कि
जिसमें
एक छूट तो देना ही होगा
आगे
नियति
जो चाहे गति /क्षति /अवनति।
व्यापार
जीवन के खुरदरे रास्ते पर
चलते जाना आसाँ नहीं दोस्त!
कहीं सांस बिकती है कहीं लाश
व्यापारी हैं जो जग में
खरीदते हैं हर पल पैसों के बल
जमीर क्या चीज है?
आत्मा भी बेची-खरीदी जाती है।
ईश्वर का लगता है मोल यहाँ
कीमती भोग व रत्न-हारों से
बिकते इन्सान चापलूस के बाजारों से
नोट के बदलते इशारों से।
अरे! तुम निरे मूर्ख हो
अहम् के कोरे भाव
भला क्या दूँ मैं इसका दाम ?
मेरे पास नहीं ये कौड़ी काम की
बेचो जाकर अपने समाज को
जिसकी हस्ती नंगी-भूखी
खरीदे वह भूख के इस माल को।
आज इस बाजार में
बेच रही हूँ -झूठ
मक्कारी /लालच /धोखीधड़ी /अस्मत
मस्काबाजी और बड़े नामों को।
इस रूपहली चमक से जिन्दगी में
बनाऊँगी सुनहरे मकानों को।
घर बसाऊँगी धूर्तता /गद्दारी /ठगी
डाकाजनी के सुन्दर कामों को।
बीच बिठाकर मणि-मुक्ता
रत्न जड़ित हीरे-जवाहरात
ऊंचे सिंहासन के पैमानों को।
स्वर्ण कलश पर
गज-मुक्ता के दीप जलाकर
बनाए रखूंगी लक्ष्मी के आनों को।
भोग विविध व्यवहार का
आरती इज्जत की धार का
पुष्पांजली नम्र मुख अभिसार का
माल्यार्पण फरेब’ के पुष्पहार का
चंदन झूठ पगे अत्याचार का
आचमन मानवता के पीर का
उपहार, दया, धर्म अपमान का
दक्षिणा दूंगी सत्य, अहिंसा के मान
का पूजा हुई संपन्न मेरे हमदम
मुझसे अब न पूछो कोई प्रश्न
यही है जीवन का व्यापार दोस्तों।
फरेब-झूठ, धोखा।
कर्म
सुबह तड़के ही खुली खिड़की से
झांकता सूर्य अपनी मृदुल किरणों संग
मलय अपनी बचकानेपन से भरी नर्म
व नाजुक अंगुलियों से सहलाकर
मेरे गालों का स्पर्श कर
थपथपाते हुए
मेरे कानों में कह गया
उठ जाग, चल पड़, आगे बढ़
लंबे रास्ते पर दूर जाना है
आराम के क्षण कब के
समाप्त हो चुके
काल-चक्र सिरहाने से तेज धावक-सा
चुपके चुपके गुजर गया
योद्धा क्या ऐसे सोते हैं?
पाँव ही तो पंगु हुए हैं
कोई अनर्थ नहीं हुआ
चलने की क्षमता तो
मन की प्रभुता पर आश्रित है।
इसे शरीर से तौल कर
क्यों अब सब्र कर रहा है?
समय क्या कभी किसी के
लिए रूक कर इंतजार करता है?
नहीं, कभी नहीं
फिर अवसर की प्रतीक्षा
में तू क्यों
बगुले की तरह ध्यान
धारे बैठी है?
हाथ बढ़ा और पकड़ ले
भविष्य की वह डोर
लिख दे आसमान पर नाम
बस यही है तेरा कर्म
सतरंगी किरणों का यह संदेश
जीवन का अर्थ
केवल
स्व ही नहीं पर
के लिए भी है
संबंधों की धरा पर बने
मानवता का धर्म
जीवन का अर्थ हो जहाँ केवल कर्म
सभी याद रखे अपना धर्म एवं कर्म
कर्म व धर्म
धर्म व कर्म
महिमा मेहता (श्री नरेश मेहता की पत्नी) के साथ डाॅ. अहिल्या मिश्र