डॉ. अहिल्या मिश्र का रचना संसार (प्रकाशित पुस्तकों में से चुनीं कविताएँ, निबंध, लेख, कहानियाँ एवं समीक्षाएँ)
आखर अंतःदीप के (2001)
गीत यात्रा के क्षणों में...
मानव संवेदनशील प्राणी है। छोटी-छोटी सी बातें भी हंसाने रुलाने की क्षमता रखती है। हास्य एक बिन्दु पर उसके रुदन में परिवर्तित हो जाता है यानी रुदन हास्य से बड़ा हो जाता है। मिलान एक बिन्दु पर ऊबन बन जाती है। अपना अर्थ बदलना ही नियति है। परिवर्तन मानव का स्वभाव है। इससे जो ऊपर उठते हैं वे गीता स्थितप्रज्ञ होते हैं। यह स्थित प्रज्ञता क्या व्यावहारिक जीवन में सिद्धि पा सके हैं। शायद विरले किवां - नकारात्मक। संसार परिवर्तन का एक स्थल है। इसकी निःसारता जीया भोगा जा सकता है। किन्तु क्या इससे कट जाना भी आसान होगा? क्या कट जाना कर्म होगा? मृत्यु ही तो अमरता की जननी होती है। अमरत्व नाक विलीन है। सिद्धि त्याग में संलग्न है। मोह में ?
काल चक्र हमेशा घूमता रहता है। इसके पहिये और बीच का चक्र सब कल ज्यो का त्यों गतिशील रहता है। बदलता है तो केवल क्षण। क्षण की परिणिति निश्चित है। साथ ही खोया क्षण पुनः प्राप्त नहीं किया जा सकता। यहीं अमरता का बोधिस्व है। किन्तु अमरता नहीं, ठहराव नहीं, बदलाव है। यही परिवर्तन जहाँ जीवन देता है वहीं कभी-कभी सब कुछ छीनता भी है। निःसारता का अर्थ समझता है। प्राप्ति में भी क्या कोई सिद्धि होती है ? गीत इन सत्यों का मार्ग प्रकाशित कर अमरत्वता का मार्ग रोहण करने का साधन है। गगन के शून्य में गूंजती आवाज उस अखिलेश को, जिसे निराकार चिरंतर, दीन बन्धू, दयाकार, महादानी और परम ब्रह्म के नाम से पुकारते हैं को बुलाने का माध्यम है। आत्मा रूपी प्रेमी का परमात्मा से विलन का उद्दीपन है। इस चोले का इसके पंचतत्व में विलीन होने की प्रक्रिया तथा आत्मा के विरह से मुक्ति दिलवाने की गुहार है, मनुहार है जिसे स्वरित और ध्वनित किया गया है। शब्द इसके माध्यम हैं। आज के परिवेश में गीत के अर्थ और आयाम दोनों बदल चुके हैं। मैंने अपने तेवर में अन्तः मन की भावनाओं को उद्वेलनों को शब्दांकित किया गया है। गीत लिखने का क्रम तो साहित्यिक जीवन के प्रारंभिक दिनों से ही आरंभ कर चुकी थी। पुस्तकाकार करने की इच्छा अब जागृत हुई। इस संदर्भ में सोच पनपा कि छंद विधान का भी पूर्ण निर्वाह हो। किन्तु कहां तक संभव हुआ है तो सुधिजन नहीं बतायेंगे। छंदशास्त्र का विपद ज्ञान नहीं है किन्तु शिक्षण की सीमा तक इसे जानी हूँ। पारंगत होने पर समग्रता होती है। किन्तु यथा शक्ति निर्वाचन में कभी भी संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। पाठक इसे समझ पायेंगे। उनका मन वर्णय होगा।
कविता की भाव भूमि पर कई तरह के विचार बीज पनपे। अन्तः मन की श्रृंगारिक यात्रा से लेकर सामाजिक समस्याओं ने भी अपने वर्चस्व बनाये। भावों का यह गुलदस्ता समस्या गीत, भाव गीत, देश गीत तथा श्रृंगार गीतों का फूल सजाये आपका प्यार दुलार पाना चाहता है। अपनत्व का यह गान आपका स्वर चाहता है। एक भी स्वर मिला तो यह संग्रह धन्य होगा। मेरी सतत् साधना अभी घुटनों के बल चल रही है। वह उत्साहित होकर पांव के बल चलने का प्रयास करेगी।
इस संग्रह में सुश्री जयश्री गुप्ता का एक मित्रवत सहयोग प्राप्त हुआ है। कई स्थलों पर विचारों के आदान-प्रदान के माध्यम से गीतों को संवारने में सात्विक योगदान प्राप्त हुआ। उनके प्रति आभारी हूँ। आज के भौतिक एवं स्वार्थी युग में कोई किसी को अपने सात्विक क्षण दें यह कम ही संभव है। अन्य किसी रचनाकारों से भी जाने अनजाने अगर प्रभावित हो पाई हूँ तो उनके प्रति भी आभार व्यक्त करती हूँ।
नारी अपने दायित्व से बंधी होती है। अपने सम्पूर्ण परिवेश का पालन करते हुए अगर लीक से हटकर कुछ कर पाती है तो निश्चित ही प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उसके पारिवारिक सदस्यों के क्षणों में से कुछ क्षण विशेष एक खाने में रखना होता है। आज के अर्थ युग में नारी पहले ही दो पार्टों में बंट कर रह गई है। घर और बाहर जीवन आज एक अर्थार्जन से सुखी व संतुष्ट नहीं हो पाता है। अतः नारी को भी अयर्जिन में सहयोग देना आवश्यक हो गया है । इस प्रकार नारी अपने पारिवारिक दायित्वों के साथ अर्थार्जन कर पारिवारिक समृद्धि व सुखों के उपादेव का कार्य भी करने में व्यस्त हैं। मैं भी जीवन के इन दोनों रूपों का पालन करने के मार्ग की अनुगामिनी हूँ। साथ ही लेखन मेरा शौक है। यह मेरे लिये एक नशा है। यह मेरा स्वप्न है जो कलम के माध्यम से सत्योन्मुखी होता है। इस कार्य के लिये विशेष रूप से सम्पूर्ण परिवार का सहयोग नितांत आवश्यक है। विशेष रूप से एक नारी तो सृजन करती है किन्तु शब्द सृजन से सम्बद्ध होने पर उसे अपनों से सहयोग की अपेक्षा होती है। मेरा यह सौभाग्य है कि मेरे पति श्री आर.डी. मिश्र जी ने मेरे व्यक्तित्व के निर्माण में तन-मन-धन तीनों का पूर्ण योग दिया है। उन्होंने कभी पुरुष अहम् को वरेधय नहीं माना बल्कि मेरे अन्दर की शक्ति को प्रोत्साहित किया मुझे लिखने की प्रेरणा देते रहे। आगे बढ़ने की दिशा में आने वाले बाधाओं से लड़ने का साहस संजोते रहे। आज अगर कुछ भी कर पा रही हूँ तो उनकी महानता के कारण ही। अतः आभार जैसे शब्द उनके लिए बहुत छोटे हैं। वास्तव में मैं तो उनकी उपादेय हूँ।
मेरे पुत्र चि. मानवेन्द्र मिश्र शिक्षा से चार्टर आकउन्टेन्ट हैं किन्तु साहित्यिक अभिरूचि रखने के कारण उनकी सम्मतियां भी मिलती रही हैं। पुत्रवधु श्रीमती मुक्ता मिश्र तो बेटी बनकर सहयोगी रही है। सबों के समग्र सहयोग ने मुझे आत्मबल प्रदान किया है। सबों को शब्दाभार देती हूँ। इस यात्रा के एक अन्तराल में ....
-डॉ. अहिल्या मिश्र
गीत
एक गीत लाई हूँ,
तुम्हें जगाने आई हूँ।
हिमसी उमरिया पिघलाकर
शिखर पर भारत लिखने आई हूँ।
भावना के गगन भेरी तीस से।
आकाश में सुराख करने आई हूँ।
पीपल सी फैली-यादों में
संबंध सुत्र बांधने आई हूँ
शब्दों के अनहदनाद से
चेतन प्राण संचार करने आई हूँ।
एक गीत लाई हूँ
तुम्हें जगाने आई हूँ।
पत्थरों के शहर में
पत्थरों के शहर में खड़ी फूलों का सपना देखती रही
रेगिस्तान के निर्जन में झरने तलाशती रही
झूठ के इस बाजार में एक सत्य को खोजती रही।
अनाथों के इस नगर में उम्र भर नाथ ही ढूंढती रही
सभ्यता के तार-तार वस्त्रों में प्रेम धागा रचती रही
धर्म के दीवारों पर मैं खुदा का नाम खोदती रही
मुल्ला, पंडित, पादरी, गुरु के रास्ता रोकती रही
मंदिर, मस्जिद, गिरजा, गुरुद्वारे के बाहर खड़ी रही
द्वार कर उस चैरस्ते के मूक बुत में जड़ दी गई
वहाँ खड़ी होकर भी मैं तेरा ही रास्ता देखती रही।
श्री विनोद अग्रवाल IAS के साथ डॉ. अहिल्या मिश्र