प्रीतिपूर्वक नीति का आलोक - रामराज्य


 आशुतोष गुलेरी


आशुतोष राणा

समाज की दशा और दिशा निर्धारित करने में साहित्य की उपादेयता निर्विवाद है, बशर्ते कि लेखन सार्थक एवं शिक्षाप्रद सन्देश देने को उद्यत हो। संदर्भनीय लेखन के लिए सृजन का विषय तथा वैचारिक-बिंदु सशक्त होना अत्यंत आवश्यक है, और इस कसौटी पर यह सद्यप्रकाशित पुस्तक ‘रामराज्य’ खरी उतरती है।  

राम की दिव्यता, अलौकिकता, चरित्र-संपन्नता तथा मर्यादा पर अनेक ग्रन्थ कहे गए, सबकी अपनी विशेषता है, परन्तु इन सबसे अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत करने की आतुरता ‘रामराज्य’ में स्पष्ट परिलक्षित होती है। कुल ग्यारह खण्डों में लिखे उपन्यास का प्रारम्भ ‘कैकेयी’ शीर्षक से किया गया है। रामकथा में बालकाण्ड को महत्व न देकर, कैकेयी को महत्व देना, जिज्ञासा उत्पन्न करता है। रामायण के इस चरित्र के प्रति समाज में व्याप्त आदर विपन्नता के ऐतिहासिक विषकण्टकों के समूल विनाश की यह साहसिक पहल है। सुर-असुरों के पौराणिक भेद को परिवर्तित करने का साहस जुटाते हुए, उपभोक्ता और उपयोगितावाद का अवगुंठन खोलने का भी लेखक ने भरसक प्रयास किया है।

अतीत कभी वर्तमान से संघर्ष नहीं करता, बल्कि सांस्कृतिक दूरदृष्टि वर्तमान को प्रगतिशील बनाने में कैसे सहायक हो सकती है, इस बिंदु पर लेखक ने विशेष ध्यान केंद्रित किया है। “माँ, इस सृष्टि का प्रत्येक कण सत, रज और तम इन तीन गुणों का योग है। इनका स्वरुप परिवर्तित किए बिना इन तीनों के बीच सुन्दर संतुलन स्थापित करने की कला ही संस्कृति कहलाती है”, ऐसे अनेकों संवाद उपन्यास को संदर्भनीय बनाते हैं। 

प्रगतिवाद के वस्तुतः स्वरुप पर राम-कैकेयी संवाद की प्रतिछाया में “साधन सम्पन्न होने से अधिक साधना संपन्न नागरिकों की आवश्यकता”, जैसे तर्क, और युवावस्था में ‘अनुशासन’ को ‘उपलब्धि का साधन’ बताकर समाज को सार्थक सन्देश देने में लेखक सफल प्रतीत होता है। बालकों के चरित्र निर्माण की महत्वपूर्ण भूमिका में माँ के अकथ्य दायित्वों को भी प्रकाशित किया गया है। 

रामायण की घटनाओं तथा परिस्थितियों के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के आधार पर लेखक इतिहास के झरोखे से अनेक शिक्षाएँ संजोकर वर्तमान का पथ प्रदर्शित करने का प्रयास करता है। चरित्रों की तत्कालीन परिस्थितियों पर उनकी मनोस्थिति के प्रभाव को प्रदर्शित करते हुए लेखक ने अनेक जोखिम उठाए हैं। ‘सुपर्णा-शूर्पणखा’ के असमंजस और उसके चरित्र के अंदर प्रतिचरित्र को एक अनुभवी कुम्भकार की तरह रचा ही नहीं  है,बल्कि जीवंत भी कर दिया है। सुपर्णा का शूर्पणखा हो जाने के पीछे अपने ही नकारात्मक पक्ष के साथ अंतर्द्वंद्व, वस्तुतः यह हम सबकी मानसिक स्थिति का प्रतिबिम्ब प्रतीत होता है। उसके अंतस में विश्रवा का वास और उनके बीच संवाद - “... रावण ने तपस्या शिव को प्राप्त करने के लिए नहीं, शिव से प्राप्त करने के लिए की थी। उसे शिव नहीं, उनकी शक्ति चाहिए थी”, चित्ताकर्षक बन पड़े हैं। शूर्पणखा के नाक और कान कटने के सन्दर्भ को तार्किक दृष्टि से खंडित करते हुए नवीन दृष्टिकोण स्थापित करने का बड़ा भारी जोखिम उठाया गया है, अंत में आपकी धार्मिक बुद्धि उसे अस्वीकार भी करना चाहे, लेकिन लेखकीय आत्मावलोकन को खारिज नहीं कर पाएगी।

कुम्भकर्ण और उसके यांत्रिकी-शोध के पक्ष का उद्घाटन त्रेतायुग में ज्ञान की पराकाष्ठा को रेखांकित करने का प्रयास करता है, परन्तु लेखक दोनों पक्षों को संतुलित भाव से अभिव्यक्त करते हुए राम की गवेषणात्मक बुद्धि को भी परिलक्षित करने से नहीं चूकता। 

इस सब के बीच, लक्ष्मण के अहंकार मर्दन का प्रसंग रामराज्य को रोचक बनाता है। उत्तर-मध्य भारतीय लेखन में रामायण के इस प्रसंग पर अधिक नहीं लिखा गया है। हालाँकि इसे नया प्रयोग तो  नहीं कहा जा सकता, किन्तु पहले लक्ष्मण और रावण... तदोपरांत रावण-हनुमान का वार्तालाप परस्पर संवाद-कौशल महत्ता की दृष्टि से पठनीय, मननीय और अनुकरणीय बन पड़ा है। राम की दृष्टि, उनका विचार, प्रीतिपूर्वक नीति और उनकी सामरिक-रणनीतिक-कूटनीतिक सूझबूझ, सही मायनों में रामराज्य को परिभाषित करती है। इन्द्रजित का यज्ञ ध्वंस करने हेतु अभियान का नेतृत्व विभीषण को सौंपते हुए, श्रीराम द्वारा हनुमान को सांकेतिक रूप में विभीषण की रक्षा के दायित्व के नेपथ्य में राम की प्रीती-नीति का प्रसंग विचारणीय है। ‘रावण की प्रखर बुद्धि पर छाए मोह-मेघों के अनावृत्त होते ही उसके अंतिम प्रस्थान का प्रसंग बेहद मार्मिक है।’     

‘सीता परित्याग’ खंड में राम के एक निर्णय ने सीता के चरित्र पर छोड़े गए दुर्मुख के वाग्बाणों का मुख किस प्रकार निज-भर्स्तना में परिवर्तित करके अपनी ओर मोड़ लिया, अवश्य पठनीय एवं मननीय है। 

रामराज्य अनेक मायनों में महत्वपूर्ण दस्तावेज है। आस्था की यात्रा को ज्ञानगम्य तर्क की बोतल में उतारना और फिर उस पर तर्क की खुली बोतल को भवसागर में तैरा देना, यह जोखिम भरा काम लेखक ने कर दिखाया है। 

आशुतोष राना की यह दूसरी पुस्तक है, परन्तु उनके शब्दों की लय में एक मंझे हुए सुघड़ साहित्यकार का परिचय मिलता है। मध्य प्रदेश की धरती साहित्य का प्रत्यक्ष शाद्वल है। हिंदी साहित्य की केंद्रभूमि में अवतरित इस अभिनेता-लेखक की हिंदी पर सहज पकड़ को समझा जा सकता है, परन्तु शब्दों का गद्यात्मक संयोजन इनका विशेष हुनर बनकर उभरा है। अपेक्षाकृत नवल लेखनी में साहित्यिक रस उत्पन्न कर देने के नेपथ्य में, लेखक के गहन-अध्ययन, मनन, मंथन और अभिव्यक्ति की उत्सुकता स्पष्ट परिलक्षित होती है।     

पुस्तक में इक्का-दुक्का टंकण की त्रुटियों को छोड़कर आलोचनात्मक कुछ नहीं मिलेगा। दिनेश शर्मा ने पुस्तक के आवरण में प्राण डाल दिए हैं। हार्डकवर में पुस्तक का प्रिंट आनंददायक है, पेपर और प्रिंटिंग की गुणवत्ता उत्कृष्ट है। बाल, युवा, प्रौढ़, वृद्धों, शिक्षकों, विचारकों, या फिर यूँ कहें कि समाज के प्रत्येक ज्ञानार्थी को यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए। 

पुस्तकः रामराज्य / लेखकः आशुतोष राना / प्रकाशकः कौटिल्य बुक्स, 309, हरि सदन, 20 अंसारी रोड, दरियागंज, दिल्ली / मूल्यः रुपये 500/-    

आशुतोष गुलेरी, सत्कीर्ति-निकेतन, गुलेर, कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश - 176033

सम्पर्क - guleri.ashutosh@gmail



Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य