बिहार साहित्यिक सांस्कृतिक विरासत: डाॅ. अहिल्या मिश्र

 मंतव्य


डाॅ. अर्चना झा, -विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग, सेंट एन्स काॅलेज फाॅर वुमन, मेंहदीपटनम, हैदराबाद

मिट्टी से जुड़ाव ही एक  पौधे को सिंचित करता है। उसकी संपूर्ण सत्ता को हरा भरा रखता है। यह उक्ति अक्षरशः सत्य है  डाॅ. अहिल्या मिश्र के संबंध में जब अक्षर-अक्षर गुजरते हैं इस पुस्तक से।

बिहार के वैभवशाली अतीत को उन्होंने अपनी लेखनी के द्वारा उस युवा पीढ़ी के सामने रखा है, जो आज रोटी की तलाश में अपनी ही उर्वरा भूमि को छोड़ पलायन कर चुके हैं। अपनी संस्कृति और समाज से उदासीन। डाॅ. मिश्र ने बिहार को एक प्राचीन सभ्यता के वाहक-संवाहक के रूप में चित्रित किया है। बिहार केवल एक प्रांत नहीं वरन्, समृद्ध ऐतिहासिक धरोहर है। यहाँ हम डाॅ. मिश्र की अपनी संस्कृति सभ्यता के प्रति एक विशेष अनुराग देखते हैं जो उन्हें उद्वेलित करता है, यह पुस्तक लिखने के लिए।

इस पुस्तक में बिहार की अक्षुण्ण सामाजिक, सांस्कृति, साहित्यिक वातायन से झाँकते हुए प्रत्येक निधि को समेट उसके अपने भावों, विचारों में लिपिबद्ध कर दिया है।

लेखिका ने तक्षशिला और विक्रम शिला के सुदृढ़ हस्ताक्षर के साथ-साथ मंडन मिश्र का शंकराचार्य से शास्त्रार्थ और उस शास्त्रार्थ में मंडन मिश्र की पत्नी का साथ देना एवं शंकराचार्य को हरा देना। यह उल्लेख इंगित करता है कि, मिथिला की स्त्रियाँ सक्षमता, सबलता की झंडे उस समय गाड़ चुकी थी, जब दुनिया में स्त्रियों के अस्तित्व या पहचान का कोई विमर्श या बहस नहीं था। डाॅ. मिश्र ने अथक परिश्रम के बाद बिहार के सामाजिक, सांस्कृतिक संदर्भों को परत दर परत खोला है। जानकी को जगत जननी जानकी के रूप में प्रतिष्ठित कर सीता को ‘माता’ के रूप में चित्रित कर जो एक विस्तृत आयाम दिया है, यह डाॅ. अहिल्या मिश्रा के परिपक्व लेखनी को दिखाती है। यह परिपक्व लेखनी ही है, जो कपिल, गौतम, कश्यम याज्ञवल्क्य की चिंतन, आदर्श को, वाचस्पति विद्यापति के बौद्धिक परंपरा को सहज रूप से पाठकों के सक्षक रखती हैं।

लेखक हमेशा सामाजिक सरोकारों से जुड़ा रहता है। डाॅ. अहिल्या मिश्र भी इस पुस्तक में केवल वर्णन नहीं करती है। वह चिंतित है बिहार की तत्कालीन नियति से जहाँ निराशा और अवसाद है, एक संशय और भ्रम की दुनिया है, जहाँ समस्या का समाधान नहीं है। लेखिका प्रश्न करती हैं कि, क्या बिहार की समृद्ध और गौरवशाली परंपरा केवल एक गाथा बन कर रह जाएगी। वह आवाह्न करती हैं बिहार के नवयुवकों का ‘‘वे सचेत हो और अपनी शक्ति का सकारात्मक प्रयोग करें ताकि नकारात्मकता खत्म हो और एक सार्थक समृद्ध समाज पुनः निर्मित किया जा सके। लेखिका की लेखनी और सोच की सूक्ष्मता वहाँ दिखती है, जहाँ वह ‘बिहार’ को ‘वि हार’ विशेष हार बनाने की आवश्यकता बताती हैं। इसके लिए लेखिका ने उद्बोधित किया है नई पीढ़ी को, जो बिहार को प्रतिष्ठित करने का उसे पुनरूज्जीवित करने का भार उठाए।

लेखिका की कलम बिहार की समृद्धि के सोपानों से हमें परिचित करवाती चलती है। यहाँ लेखिका की सूक्ष्म दृष्टि, विभिन्न आयामों को विवेचित विश्लेषित करती हैं। आर्थिक धार्मिक, सामाजिक आयामों के परिप्रेक्ष्य में। बुद्ध एवं महावीर की कर्मभूमि, ज्ञान स्थली को जन-जन के सामने रखना चाहती हैं ताकि, लोग समझ सके कि, बिहार चिंतकों का स्रोत है, जहाँ से जैन एवं बौद्ध धर्म की बेल सारी दुनिया में फैलती है। आज जिस बिहार के लिए लोगों की दकियानुसी मानसिकता पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं। लेखिका उससे निकलना चाहती हैं और अपनी इस पुस्तक के द्वारा एकबार फिर से उन सभी धरोहर और विरासत को नई पीढ़ी के सामने पुनरुज्जीवित करना चाहती हैं। अन्न का भंडारण जैसी आवश्यक आवश्यकता के साथ-साथ उद्योग एवं व्यापार से गुजरती हुई बौद्ध धर्म एवं दर्शन के साथ पौराणिक चरित्रों, आख्यान को सहज श्रद्धा विश्वास के साथ उसे प्रतिस्थापित करना चाहती हैं। तभी तो डाॅ. मिश्र लिखती हैं- ‘‘बिहार को न केवल जैन तीर्थकरों का जन्म देने का श्रेय है बल्कि अनेक जैनाचार्यों को और जैन विद्वानों को भी जन्म देने और उनकी ख्याति बढ़ाने का गौरव प्राप्त हैं। इसी तरह बौद्ध धर्म का इतिहास आज भी बिहार का धरोहर है। यह सामाजिक सांस्कृतिक धरोहर दुनिया भर के लोगों को किस तरह खींचती है और तत्कालीन बिहार में यह स्रोत एक बार पल्लवित हो, लेखिका की यह सोच एक समग्रता को अनुसंधनात्मक परिप्रेक्ष्य में हमारे सामने रखती है।

डाॅ. मिश्र ने इस पुस्तक में यह स्थापित किया है कि, ‘‘संस्कृतिक समाज का प्राण तत्त्व ही नहीं उसकी पथप्रदर्शिका है। बिहार की संस्कृति भी उसकी आत्मा है, जो युगानुरूप क्षीण हुई परंतु, मरी नहीं। आज भी वह अक्षुण्ण है।

वेद-वेदांत, लोक आख्यान, संगीत-नृत्य आचार-विचार के रूप में आज भी गतिशील है। इसी गतिशीलता को मुख्य धारा में लाने के लिए लेखिका ने इस पुस्तक को पाठक तक लाने का प्रयास किया है। मैथिल मिथिला, मैथिली इन सबके ताने-बाने लेखिका के प्राणों में रचे-बसे हैं, जिसका प्रभाव उनकी लेखनी की आंचलिकता में देखने को मिलती हैं। डाॅ. मिश्र लिखती हैं- ‘‘हमारी नई पीढ़ी जो शिक्षित होकर एक नये जोश से हमारे समक्ष प्रस्तुत हो रही है। उसे निज गौरव का भान हो और प्रतिष्ठित करने का भार अपने कंधे पर उठाये। तभी इतिहास एवं वत्र्तमान का सम्मिलित रूप धरोहर रक्षण के साथ गौरव गरिमा बढ़ा पाएगी।’’

बिहार की संस्कृति एकाकी नहीं है वरन् यह भोजपुरी, मैथिली, मगही तिरहुत, अंग संस्कृति का मिश्रण है। जिसके विविध पक्षों को लेखिका ने बखुबी उकेरा है। अपनी इस पुस्तक में।

मिथिला की पहचान माछ मखान और पान की लोक संस्कृति की खुशबू को देश के प्रत्येक जन-जन तक पहुँचाना ही इस पुस्तक के लेखन का एक उद्देश्य रहा है। सदियों प्राचीन इस संस्कृति से वे युगीन नई पीढ़ी को केवल परिचित ही नहीं कराना चाहती है बल्कि उनमें आत्म गौरव का भाव भरना चाहती हैं।

संस्कृति और साहित्य एक-दूसरे से संबद्ध है, इसके साथ लेखिका ने पूरी तरह न्याय किया बिहार की। साहित्यिक विरासत की समृद्धि को पाठकों के समक्ष रखा है। वे लिखती है- बिहार संस्कृति है, परंपरा है, शक्ति है, नियति है, प्रेम है योग है, स्वर्णिम संभावना है। इसी संभावना की तलाश में लेखिका एक सार्थक सुदीर्घ विरासत सौंपना चाहती हैं। ‘अष्टागीय मार्ग’ के विश्लेषण के साथ-साथ 1994 से बिहार योग विद्यालय के वृहद् कार्यकलाप से भी हमें परिचित करवाती हैं। भारतीय इतिहास के युग-पुरुष वीर कुंवर सिंह के संघर्ष और स्वाधीनता आंदोलन में उनकी भागीदारी को परत दर परत खोला है। उनके संबंध में भोजपुरी में लिखी पंक्तियों को लेखिका ने उद्धृत किया है- जे ना दिही कुंवर सिंह के साथ-साथ अगल जन्म में होई सुअर/ओकर बाद होई भुअर।

बेहद सहज शब्दों में कुंवर सिंह के प्रति आस्था और विश्वास को प्रकट किया है। इस आंदोलन में योगदान के अछूते प्रसंग को पाठकों के सामने लाने का प्रयास किया है।

तोप आ बंदुकि उगिली लोग आगि ओने से
त ऐने टोंटा-हीन ही बंदूकी लाठि बनलिनी नू।

महात्मा गांधी एवं कृपलानी के साहचर्य और सामरस्य को जिस सहजता के साथ लेखिका ने दर्शाया है, वह उनकी समर्थ लेखनी का परिचायक है। मोहनदास करमचंद के ‘गांधी’ बनने तक का सफर और चंपारण में उनके अन्य कार्य को लेखिका ने अपनी लेखनी से समृद्ध किया है।

बिहार के बारे में प्रचलित अवधारणा कि, बिहार एक पिछड़ा और अशिक्षित प्रदेश है, इसे लेखिका ने पूरी तरह खंडित किया है। इस पुस्तक में बिहार के अतुल्य विभूतियों से हमारा साक्षात्कार कराया है। इस पुस्तक में डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद प्रथम राष्ट्रपति के धर्म, ज्ञान विवेक तेजोर्मय दीप्त व्यक्तित्व का वर्णन किया गया है। मानवीय करुणा, सदाचार, त्याग से परिपूर्ण प्रतिभा संपन्न डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद के व्यक्तित्व, कार्यकलाप के छुए-अनछुए पहलुओं का बारीक, विश्लेषण किया गया है, जिसे आज के संदर्भ में समझने की आवश्यकता है। लेखिका लिखती हैं- ‘‘काश कि हमारे जातिगत, वर्गगत, धर्मगत राजनीति को प्रश्रय देनेवाली सरकारों को होश आए और अपनी विरासत एवं अमूल्य धरोहरों को संभाले। आशा है आज नहीं तो कल यह अवश्य होगा और भारत के भाल पर एक चमकता सितारा पुनः सजेगा। यह उक्ति लेखिका के चिंतन को दिखाता है कि, किस तरह वह संपृक्त है समाज से और गौरवशाली विरासत से।

लेखिका की कलम यही नहीं रूकती है बल्कि ‘कलम के जादूगर’ रामवृक्ष बेनीपुरी की साहित्यिक यात्रा के साथ-साथ, मानवीय भावों के चितेरे के रूप में चित्रित करना डाॅ. मिश्र का ही कमाल है।

आज इस पुस्तक में कहीं ‘गीतों के शहजादे गोपाल सिंह नेपाली के गीतों की गेयता, लालित्य माधुर्य की सरस धारा को शब्दों के रूप में बहने देती हैं और उनके साहित्य के बहुआयामी भावधाराओं को अपने कलम के द्वारा एक धरोहर बना दिया है। यह कारवां ‘दिनकर’ के युगद्रष्टा राष्ट्रकवि होने से लेकर उनकी विचारों भावों की प्रखरता से भी डाॅ. मिश्र की लेखनी हमें परिचित करवाती है। बिहार का यह लाल किस तरह एक कालजयी कवि बना। व्यवस्था-विरोधी सतत् संघर्षशील व्यक्तित्व ‘‘नागार्जुन’’ जो वैद्यनाथ मिश्र’ से लेकर ‘नागार्जुन’ बनने तक में कही रुके नहीं, झुके नहीं। उनकी उदार स्वाभिमानी, स्वतंत्र व्यक्तित्व एवं कृतित्व को डाॅ. मिश्र ने एक नवीन आयाम दिया है जो अनुकरणीय है, पठनीय है।

एक उत्कृष्ट रचनाकार जो बिहार की एक धरोहर हैं- जानकी वल्लभ शास्त्री जिनके बारे में काफी कुछ नहीं लिखा गया। उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को डाॅ. मिश्र की परस-लेखनी का स्पर्श मिला है।

स्त्री-अस्मिता, सक्षमता का जीता-जागता उदाहरण डाॅ. मृदुला सिन्हा की परिवार से समाज, समाज से प्रांत, प्रांत से राष्ट्र की पहचान बनने से लेकर उनकी साहित्यिक भावभूमि की, विचारधारा की संपूर्ण सत्ता को बड़े ही सहज-सरल तरीके से उकेरा गया है।

स्वयं में बिहार की बहुआयामी, समाज, संस्कृति साहित्य को समेटे यह पुस्तक अपनी समग्रता में पठनीय और संग्रहणीय है। भविष्य की युवा पीढ़ी को बिहार की संपूर्ण आरोह-अवरोह, उत्कर्ष अपकर्ष से परिचित करवाती एक धरोहर है, यह पुस्तक।

हिंदी सलाहकर समिति की बैठक में विद्युतमंत्री एवं अन्य सदस्यों के साथ डाॅ. अहिल्या मिश्र

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