सामाजिक सरोकार की कवयित्री: डाॅ. अहिल्या मिश्र

 मंतव्य


डाॅ. राजेन्द्र परदेसी, 44-शिव विहार, फरीदी नगर, लखनऊ 226015, मो. 9415045584

प्रतिनिधि कवि वही होता है, जो समकालीन जीवन के यथार्थ एवं विसंगतियों को सशक्त काव्यात्मक भाषा प्रदान करता है। विश्वप्रसिद्ध कवि टी.एस. इलियट ने एक स्थान पर लिखा है कि एक सच्चा कवि अपनी अभिव्यक्ति करते समय अपने युग को भी उजागर करता है। लेकिन उससे भी अधिक महान कवि वह होता है, जो युग का प्रतिनिधित्व करते हुए उसका अतिक्रमण भी करता है। एक व्यापक एवं शाश्वत आयाम का निर्माण भी करता है। डाॅ. अहिल्या मिश्र की अनेक कविताओं में जहाँ युगबोध का सशक्त स्वर है तो वही अनेक कविताओं में शाश्वत मानव मूल्यों एवं सार्वभौमिक अनुभूतियों की काव्यात्मक अभिव्यक्ति भी इन्हीें दो गुणों के समन्वय के कारण इनकी कविताओं में जहाँ संवेदनाओं की ऊष्मा है, वहीं विधाओं की गूढ़ता भी। यही कवयित्री डाॅ. अहिल्या मिश्र की काव्यासाधना का रहस्य है। उदाहरण के लिए कैक्टस की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य है-

हमारे संबंधों के बीच अब

रेगीस्तानी सन्नाटा/रेत/धूल

और आँधी भर गये है,

उसमें नागफनी

हिन्दुस्तानी

ओर विदेशी

कैक्टस की

लम्बी वाटिकायें

अपना फैलाव कर रही है

क्या ?

संवेदनाओं एवं भावनाओं को कवयित्री डाॅ. अहिल्या मिश्र व्यक्त करते समय स्पष्टवादिता को नहीं छोड़ती। वह अपने हृदय के उद्गार यूँ बयान करती हैं कि जैसे शब्द उसकी परिक्रमा कर रहे हो और वह जिस शब्द को चाहती हैं, अपनी कविता में शामिल कर उसमें भाव पैदा कर देती है। हृदय की सागर जैसी गहराई को सतह पर लाने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती, यह बात कवयित्री की काव्य क्षमता को दर्शन के लिए काफी है-

पृथ्वी के उबड़ खाबड़ पत्थरीले

रास्तों को अपने ही तलबों के

मोटे-मोटे हालों से धोया था

और

चढ़ाये थे आशाओं/अभिलाषाओं

के बेशुमार फूल उस पर

कालचक्र की धुरी पर

समय के देवता को स्थापित किया था।

डाॅ. अहिल्या मिश्र की कविताएं जीवन की बहुआयामी समीक्षा करती हुई चिंतन की गहन घाटियों से लेकर संवेदना के शिखर तक की यात्राएँ करती हैं। और उस यात्रा में कोई उसके सौन्दर्यबोध पर विमोहित है कोई उनकी सरल, सुगम और सुबोध भाषा पर और कोई उनको पढ़ते-पढ़ते अपने अन्दर झांकने लगता है। कवयित्री की कविता के दर्पण में उनके अन्दर छुपे अत्यधिक संवेदनशील मानव का दर्शन होता है और उस मानव में त्याग की भावना के साथ समाज को शिवत्वमय बनाने की जो अदम्य ऊर्जा है उसे उनकी ही कविता की कुछ पंक्तियाँ-

शिव ने अपनी अनन्त रूप में

शक्ति को अपनाने का कष्ट किया था

कल्याण का निर्माण कर

विश्व में मनुष्यता का सम्मान किया था

इसकी स्थिरता/नंगापन

धूप छांव सहन शक्ति

सशक्तता/सत्य की निर्भीकता

सौंदर्य की अनपमेयता

को मानस पटल पर रखकर

मनुज ने पत्थर से इनकी 

आकृति का निर्माण किया था

आज विसंगतियों के टक्कर के बीच मानव फंसा हुआ है। एक कविता में टी.एस. इलियट ने लिखा है कि सूर्य की किरणें हमारे ऊपर आघात कर रही है। कल्पनाएं छिनन-भिन्न हो गया है। मृत वृक्ष छाया नहीं देते, कहीं आराम नहीं है। हर तरफ सूखे पत्थर है। पानी की कल-कल ध्वनि सुनाई नहीं देती।

इलियट के यह विचार वस्तुतः आज के आम आदमी का मनः स्थितियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। आज का आम आदमी जिस प्रकर की छटपटाहट में जी रहा है उसका वर्णन करना कठिन है। उसकी विवशताएं असीम है-

हमारी

अपनी समझदारी को

घुन लगती जा रही है

पुराने घाव पाप की तरह

बर बुख कई (नादानी) की

भीड़ में बहते चले जा रहे हैं...

कवयित्री की मानसिक छटपटाहट की पीड़ा को कुछ इस प्रकार और देखें-

वह भयानक पंजा

शायद ही कभी

कोई निर्माण कर पाए

हाँ/एक काम

तो कर सकता है

गरीबों के कब्र पर

महल बनायेगा

और सुहाने सपने सजायेगा

जिस प्रकार किसी जलधारा की सतह पर तल के कंकड़ों पत्थरों के टकराने से विक्षोप दिखायी देते हैं। वैसे डाॅ. अहिल्या मिश्र की कविताओं से काव्यधारा में नयी हलचल पैदा होती नजर आती है

मैं कोई प्रेम कविता नहीं

जो सबों के लिए केवल सपने बुने

और उसमें डूबकर आप भी

अपने लिए कोई सपना बुने

पत्थरों के सख्ती की

बनी ऊँची मीनार हूँ मैं

हाँ जो जहाँ पहुँच कर आप

अपनी बुलन्दी तो माप सकते हैं

किन्तु मुझको/इसको/उसको

किसी को गड्ढें में नहीं डाल सकते

कविता का सृजन एक अविराम प्रक्रिया है। वह कवि के हृदय की अंतः सलिला है। वह कवि के संस्कारों परिवेशगत स्थितियों, सामाजिक-राजनैतिक दशाओं आदि की क्रिया-प्रतिक्रिया, घात-प्रतिघातों के प्रति रचनाधर्मी की संवेद्य अनुक्रिया का स्वरण है। उसकी भाषिक संरचना और अभिव्यक्ति के लिए रूपों में परिवर्तन होते हैं। किन्तु कविता स्वतः प्रेरित हो कविता ही बनी रही है। इसका सप्रमाणिक उदाहरण डाॅ. अहिल्या मिश्र की ‘आम आदमी की सैर’ शीर्षक कविता है-

बदलते जमाने के साथ आदमी

का स्वाद व पसंद भी बदलता रहता है

आजकल आदमी को नटों का खेल

भाने लगा है।

नट फिर से रस्सियों पर चलकर

आग के घेरे से निकल कर

करतब दिखा नोट कमाने लगा है।

समग्ररूप से यदि मूल्यांकित किया जाये तो 

डाॅ. अहिल्या मिश्र के जीवन तथा काव्य व्यक्तित्व में सोच और संवेदना का ऐसा रासायनिक घोल व्याप्त है कि उनकी कवियों में पारदर्शी होकर सर्वत्र झलकता है। डाॅ. अहिल्या मिश्र के काव्य-व्यक्तित्व में दर्शन, विज्ञान, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान और सौंदर्यशास्त्र सभी एक साथ समाकर उस कदर आपस में घुलमिल गये हैं कि उनमें सृजन और चिंतन की परंपरागत वैचारिक दीवारें ढ़ह जाती हैं और एक शुद्ध मानव व्यक्तित्व की प्रतिभा उभर कर सामने आती है। डाॅ. अहिल्या मिश्र की संवेदना में अनुभूतियों, कल्पनाएं भावनाएं और संवेग अधिक गहने उतर कर उनके व्यक्तित्व का रचनात्मक निर्माण करते हैं। उनके काव्य-व्यक्तित्व में यदि व्यक्ति चेतना है तो समाज में चेतना भी निहित है। प्रकृति सौन्दर्य है, तो जीवन का यथार्थ भी मौजूद है। उनके प्रकृति-प्रेम और सौन्दर्य में यदि सहज आकर्षण है, तो संघर्ष और विद्रोही चेतना भी उनके उसी प्रेम और सौन्दर्य के मूल में उद्भूत है। दरअसल डाॅ. अहिल्या मिश्र का काव्य व्यक्तित्व खंडित नहीं, अखंड है। ऐसी चिन्तशील तथा शब्द एवं शिल्प के प्रति सतत सजग कवयित्री डाॅ. अहिल्या मिश्र से हिन्दी जगत को अभी बहुत आशा है। वे शतायु हों और हिन्दी साहित्य को समृद्ध करें।     

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