कर्मण्येवाधिकारस्ते... डॉ. अहिल्या मिश्र

 मंतव्य


डाॅ. आशा मिश्र ‘मुक्ता’

सपने देखते तो सभी हैं पर  इसकी सार्थकता तभी सिद्ध होती है जब इसे देखने वाले में इसकी लयान्विति को स्वरित करने की ऊर्जा हो, जिजीविषा हो उन सपनों को जीने की। प्रबल इच्छाशक्ति और लगन स्वप्न की क्षणिकता को स्थायित्व प्रदान कर शाश्वत बनाता है और यह तभी सम्भव है जब स्वप्न स्वांतः सुखाय के साथ-साथ सर्वजनहिताय के स्वरूप में दूसरों की आँखों में भी तैरने लगे। हैदराबाद ही नहीं वरन राष्ट्रीय स्तर पर जानी जानेवाली एक साहित्यकार, कथाकर, कवयित्री, नाटककार, निबंधकार, समीक्षक, आलोचक, भाषाविशेषज्ञ न जाने कितने नाम कितनी पदवी इन सबके अलावा स्त्री के अधिकारों के लिए लड़नेवाली, कभी न हार माननेवाली, अपना हक छीनकर लेनेवाली, चुनौतियों को स्वीकारते हुए कर्तव्य पथ पर पहाड़ सी अडिग रहने वाली, शेर की तरह दहाड़ने वाली, झाँसी की रानी और न जाने क्या क्या सम्बोधन की धनी डॉ. अहिल्या मिश्र। हार मानना या विचलित होना उनके शब्दकोश में नहीं। कई सबक गाँठ बांधकर वह बढ़ती हैं आगे की ओर। क्या लिखूँ उनके बारे में और किस सम्बोधन के साथ लिखूँ। माँ, माताजी या मम्मी। हाँ, गत 3 दशकों से मैं उन्हें मम्मी ही तो बुलाती रही हूँ। 

कैसी हैं डॉ. अहिल्या मिश्र पारिवारिक स्तर पर ? क्या वह सिर्फ मंच से भाषण देने में विश्वास करती हैं या परिवार के बारे में भी सोचतीं हैं ? ऐसे कई प्रश्न उन लोगों के हो सकते हैं जो उन्हें नहीं जानते। मैं इतना कह सकती हूँ कि मेरा और उनका साथ गत 29 वर्षों का है। उनकी कोख जाया नहीं तो अपने पुत्र से कम भी नहीं आंकतीं मुझे। स्त्री सशक्तीकरण की बातें सिर्फ मंच तक ही उन्होंने सीमित नहीं रखा है इसकी प्रत्यक्ष उदाहरण मैं स्वयं हूँ जिसने विवाहोपरांत पढ़ाई पूरी कर पी. एच. डी. की उपाधि पाई। मुझे सपने देखना भी उन्होंने ही सिखाया तो स्वाभाविक है उसे पूर्ण करने में उनका सहयोग अवश्य होगा। आज मैं यदि कलम पकड़ कर चंद पंक्तियाँ लिखने योग्य बनी तो उनकी वजह से और ये मेरा सौभाग्य है कि मुझे उनके सम्बंध में लिखने का अवसर मिला। आँसू को स्त्री की सबसे कमज़ोर साथी मानना और मुझे स्त्री की विशेषता से अवगत करवाकर आत्म विश्वास भरने का कार्य उन्होंने ही किया। साक्षी रही हूँ उनके जूझारूपन और संघर्ष का। देखा है मैंने प्रातः 8ः30 बजे से रात्रि 8ः30 बजे तक 12 घंटे की अथक परिश्रम। फिर भी चेहरे पर थकान को धूमिल करने वाली ऊर्जा और जिजीविषा। यातायात की सुविधाएँ भी तो सीमित ही थी उन दिनों। निर्भर होना पड़ता था गिने चुने सरकारी वाहनों पर। किराए के पैसे होते तो ऑटो भी कर लेतीं पर यह सम्भव कहाँ था तब? फिक्र घर और परिवार की भी उतनी ही। काम के दबाव के बावजूद नहीं भूलीं वह कभी भी सवेरे की चाय की चुस्की में पतिदेव का संग देना। पति के व्यवसाय सम्बन्धी कार्यों में भी हाथ बँटाना उतना ही आवश्यक मानती रहीं जितना स्वयं के कार्य। पुत्र को सी ए की शिक्षा दिलाकर उन रिश्तेदारों के मुँह पर तमाचा मारा जो ताने देने से नहीं चूकते थे कि एक व्यापारी बाप का पुत्र उच्च शिक्षा हासिल नहीं कर सकता। बाहर से जितनी सख़्त अंदर से उतनी ही मुलायमियत से सराबोर। यदि व्यक्तिगत खूबियों की गिनती करने जाऊँ तो शायद पन्ने कम पड़े। 

गाँव में था सब कुछ। खेत-खलिहान, जमीन-जायदाद, घर-परिवार। जानती थीं कि आराम से पेट भर जाएगा। जरूरत नहीं थी अधिक संघर्ष की। पर तलाश थी बेहतर जिंदगी और फिक्र पुत्र के उत्तम भविष्य की। आसमान छूने की चाह और स्वयं की नज़रों में अपनी विशेष जगह बनाने की ललक ने उन्हें सुशिक्षित बेरोजगार पति और 4 वर्षीय पुत्र के साथ गाँव त्यागकर शहर की ओर उन्मुख होने पर विवश किया। मनाया पतिदेव राजदेव मिश्र को। मनाना भी आसान नहीं था एक ऐसे पति को जिनकी आत्मा उनके गाँव और परिवार में बसती हो। परंतु हार नहीं मानीं। दी दुहाई एक बार फिर नन्हें पुत्र के भविष्य की और सफल हुईं पतिदेव की आँखें खोलने में। आ गए शहर में युवा दम्पति मात्र एक लोटा और एक पेटी के साथ।

आसान नहीं था जीवन यहाँ। गाँव से कहीं ज्यादा कठिन। रोजी और रोटी दोनों की चिंता। सर छुपाने को छत भी तो नहीं था। परंतु किया परिश्रम दोनों ने रात दिन। संतुष्ट नहीं हुईं किसी एक कामयाबी से। संघर्ष ही संघर्ष। पढ़ाई के लिए, नौकरी के लिए, लेखन के लिए, स्त्रियों के लिए, समाज के लिए। अथक परिश्रम। वैसे तो स्त्री होना  भी अपने आप में संघर्ष से कम नहीं है। भला इस संघर्ष से एक ऐसी जिद्दी स्त्री कैसे अछूती रह सकती, जो अपना रास्ता स्वयं बनाकर अपनी बूते खड़ी रहना चाहती है। रौंद डाले उन सारे काँटों को जिसने छलनी करना चाहा उन्हें। लेती रहीं सबक उन काँटों और पत्थरों से और बढ़ती रहीं बे-झिझक कर्तव्य पथ पर। 

‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन...’ श्रीमद्भगवद- गीता का यह श्लोक जो टांग रखा था उन्होंने बिस्तर के सामने अपने छोटे से कमरे में। प्रेरणास्रोत बने श्री कृष्ण और अर्जुन भी कि निःस्वार्थ भाव से कर्म करना ही जीवन है। हर सुबह एक नया लक्ष्य, नया जोश। समाज सुधार, स्त्री उत्थान, हिंदी सेवा, साहित्य सृजन आदि के सिर्फ नारे नहीं लगातीं बल्कि व्यावहारिक तौर पर प्रयोग में लातीं।  स्वयं के संघर्ष से समझ पाईं। उन असंख्य अशिक्षित स्त्रियों की पीड़ा जो घुटती रहती हैं चारदीवारी में और दम तोड़ देती हैं एक दिन। जुट गईं साक्षरता अभियान में और इससे अपने घर के सेवक भी अछूते नहीं रह पाए। चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, उम्रदराज हो या किशोर। पकड़ाया लेखनी और कॉपी। काम का ब्योरा देने के साथ-साथ पढ़ाई का हिसाब देना भी उन सेवकों के काम का हिस्सा बना। कोशिश होती कि कम से कम 10वीं तक की शिक्षा अवश्य प्राप्त कर ले, ताकि इज़्ज़्ात से चार पैसे कमाने लायक़ बन सके और भावी पीढ़ी को इस भट्ठी में झोंकने से बचा पाए। आसान नहीं था यह भी। कहाँ भाती थी उन गरीबों को कलम की ज़ुबान। मजदूरी माता-पिता से विरासत में जो मिली थी। कई नौकरों से उन्हें हाथ भी धोना पड़ा। पर जो बच गए और समझ गए लेखनी की ज़ुबान बन गए कुछ। इतना ही नहीं ड्राइविंग सिखलाकर लाइसेंस भी दिलवाया। अतः उन नौकरों में से आज कई ब्रांडेड स्टोर में सेल्स गर्ल, ट्रांसपोर्ट कम्पनी के मालिक तो कई डॉमिनोज जैसे फूड इंडस्ट्री में ऊँचे पद पर कार्यरत है। यह कार्य आज भी जारी है। आज भी हमारे घर का नौकर, 2 बच्चों का पिता होने के बावजूद आपके निर्देश पर 10वीं की परीक्षा की तैयारी कर रहा है।

यह रही घर की बातें। यदि समाज की बात करें तो डॉ. अहिल्या मिश्र एक ऐसी धातु के समान हैं, जो आग में तपकर कुंदन का रूप लिया है। जैसे पत्थर घिसने के उपरांत ही बेशक़ीमती हीरा का रूप लेता है। इसी प्रकार इन्होंने स्वयं को कठिन परिश्रम, संघर्ष, एवं जिजीविषा से तराशा है। लड़कियों के लिए बने हुए विशेष नियम की भुक्तभोगी ये स्वयं रही हैं। बचपन से ही यह मत करो, वहाँ मत जाओ जैसी कई पाबंदियों से आप अछूती नहीं रही। किंचित इन्हीं पाबंदियों की वजह से मेधावी छात्रा होने के बावजूद आपका चिकित्सक बनने का सपना अधूरा रह गया। अतः स्वयं को सांत्वना स्वरूप इन्होंने पी.एच.डी की उपाधि प्राप्त कर साहित्य की डॉक्टर बन उस सपने को अन्य रूप में पूर्ण किया। महिलाओं के लिए कार्य करना भी इसी प्रभाव का नतीजा है। बचपन की ख़लिश से उन्होंने सोचा कि लड़कियों में वह गुण भर देना चाहिए जो हम चाहते हैं और उससे जो फल मिलेगा उससे कुछ मिले या न मिले कम से कम आत्मसंतुष्टि तो मिलेगी ही। कहते हैं न कि किसी चीज़ को हम दिल से चाहें तो ईश्वर भी रास्ते बनाने में जुड़ जाते हैं। मिला अवसर और जुडीं। ऐसी कई संस्थाओं से जो प्रतिबद्ध थी नारी उत्थान के लिए। बच्चियों एवं कमजोर वर्ग की महिलाओं के लिए काम करने का अवसर मिला।  

‘नवजीवन बालिका विद्यालय’ जहाँ केवल लड़कियों को हिंदी के माध्यम से शिक्षा दी जाती थी। जुट गईं सेवा में एक अध्यापिका के रूप में। शिक्षित किया अनगिनत किशोरियों को और पूरे किए सपने उनके भी जिन्हें चाह थी, शिक्षा हासिल कर कुछ बनने की। कहाँ आसान होता है लड़कियों को पढ़ाई पूरी करना, वह भी तब जब वे या उनके अभिभावक स्वयं गरीब और अशिक्षित हों। नहीं भेजते थे स्कूल उन्हें। चारदीवारी लांघना उचित नहीं मानते थे लड़कियों के लिए। मारवाड़ी घराने की लड़कियाँ, पढ़ना उनके लिए वैसे ही आवश्यक नहीं था। बड़ी मुश्किल से मैट्रिक करते ही उन्हें बांध दिया जाता था गाय की तरह। एक ऐसे आदमी के साथ जो गल्ले पर बैठ जेब भर पाए। लड़कियाँ घर में चूल्हा चौका कर विशाल परिवार की देखभाल कर ले उतना काफी था। लड़कियों द्वारा नौकरी की बात सोचना भी शान के खि़लाफ थी। साक्षर भर होने के लिए नामांकन करवा दिया था स्कूल में।  2-3 सौ गज की दूरी पर घर रहने के बावजूद उन्हें सहायक के साथ इस विशेष हिदायत के साथ स्कूल भेजा जाता था कि स्कूल ख़त्म होने तक वह उनके साथ रहे। यह मानसिकता डॉ. अहिल्या मिश्र को कहाँ बर्दाश्त होने वाली थी। जान चुकीं थीं चुप बैठना उन लड़कियों के प्रति अन्याय होता। समझाया बुझाया उन अभिभावकों को कि शिक्षा भी उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी शादी। विश्वास दिलाया कि उनकी बच्ची स्कूल में सुरक्षित रहेगी। इसके लिए आवश्यकता पड़ने पर उनके घर तक भी जाने से नहीं चूकीं। ‘नवजीवन वोकेशनल अकादमी’ की निर्देशिका के पद पर रहते हुए लड़कियों को पढ़ाई के उपरांत सिलाई, बुनाई, कम्प्यूटर, टाइपिंग, एकाऊंट आदि की शिक्षा दिलाने हेतु  प्रोत्साहित किया। इस तरह आपने एक अध्यापक के रूप में हजारों लड़कियों को शिक्षा दिलवाईं और अपने पैरों पर खड़े होने के उनके सपने साकार करने में मदद कीं। 

इतने से भी वह रुकी नहीं। स्त्री सुधार और उन्हें आत्म निर्भर बनाने की भूख कहाँ शांत होनेवाली थी। यह भी कोई नशा से कम कहाँ। उन्हें तकलीफ होती थी उन महिलाओं को देखकर जो दिन रात घर की चारदीवारी में कैद रहकर कुंठा की शिकार हो रही थीं। सुबह से लेकर रात तक एक ऐसे कार्य में लगे रहना जिसकी अहमियत उनके परिवार वालों को भी नहीं होती। जीवन तमाम दूसरों पर अर्पण और बदले में ताने के सिवा कुछ नहीं मिलता। अपनी उपयोगिता से वह ख़ुद भी अनभिज्ञ होतीं। डॉ. अहिल्या मिश्र ने हथियार बनाया हिंदी को और जुड़ गईं हिंदी प्रचार सभा से जिसका कार्य दक्षिण भारत में हिंदी का प्रचार प्रसार करना था। इसके द्वारा संचालित विभिन्न परीक्षाएँ प्रवेश, विशारद, भूषण, विद्वान आदि जिसे मान्यता प्राप्त थीं 10वीं, 12वीं, बी. ए. और एम. ए. की। इसके माध्यम से न सिर्फ हैदराबाद बल्कि सम्पूर्ण आंध्रप्रदेश और तेलंगाना के कई केंद्रों से परीक्षाएँ दिलवाईं उन घरेलू गरीब स्त्रियों को। उत्तीर्ण छात्र को हिंदी अध्यापक की नौकरी मिलना आसान था। इसके अतिरिक्त हिंदी पंडित ट्रेनिंग करवाया। जिससे उनको सरकारी स्कूलों में अध्यापक बनना सम्भव हो पाया। इस तरह हजारों स्त्री न सिर्फ आत्म निर्भर होकर परिवार को आर्थिक सहयोग दिया और उनके नजरों में अपनी जगह बनाईं बल्कि खोया हुआ आत्मविश्वास भी हासिल किया। इसके एवज में मिला डॉ. अहिल्या मिश्र को आत्मसंतुष्टि और कई घरों को रोशन करने का आनंद। 

आप सदैव ही नारी मुक्ति और स्त्री सशक्तिकरण के लिए अग्रसर रहीं और इसके लिए कई सामाजिक संगठनों से जुड़ीं। तेरापंथ महिला मंडल, हैदराबाद सिकंदराबाद मारवाड़ी महिला संगठन, अखिल भारतीय मारवाड़ी महिला संगठन आदि संस्थाएँ जो स्त्री उत्थान के लिए कार्यरत थीं। इसके अतिरिक्त बिहार एसोसिएशन हैदराबाद, ब्रह्मर्षि सेवा समाज हैदराबाद, हिंदी नगर जिला समिति आदि कई अन्य संगठनों से जुड़कर स्त्री उत्थान और समाज सुधार के साथ भाषा सुधार के कार्य में भी संलग्न रहीं। इस संदर्भ में कई पत्र पत्रिकाओं से जुड़ीं और लगभग 30 पत्र पत्रिकाओं में सम्पादक का कार्य किया। इन पत्रिकाओं में सामाजिक सांस्कृतिक एवं साहित्यिक सामग्री पूर्ण मात्रा में पाई जाती थी। इनमें से कई पत्रिकाएँ स्त्री विषय केंद्रित और स्त्रियों द्वारा प्रकाशित की जाती थी जिसमें महिला सुधा, महिला दर्पण आदि है। 

डॉ. अहिल्या मिश्र बिहार की उस मिट्टी में गढ़ी गई हैं जिसमें गढ़े गए थे कई साहित्यिक धरोहर। ऐसी मिट्टी की सुगंध मिटना भला कैसे सम्भव हो सकता है, जहाँ के पैदावार हों कालिदास, विद्यापति, दिनकर और फणीश्वरनाथ रेणु जैसे विभूति। नहीं मिटने दिया और संजोया आपने भी उन साहित्यकारों की सुगंधों को। हिंदी भाषा से प्रेम ज्ञान रुपी दीये में ज्योति का काम किया। दक्षिण भारत में हिंदी की जद्दोजहद छिपी कहाँ थी इनसे। हैदराबाद में हिंदी कम ही बोली जाती थी। वार्तालाप का माध्यम अधिकतर तेलुगु, उर्दू और अंग्रेजी भाषा थी। अभिव्यक्ति की समस्या से आप जैसे कई हिंदी प्रेमी लोग जूझ रहे थे। विरासत में मिली हिंदी का ज्ञान फीका पड़ रहा था। “आपका स्वाभिमान आपकी भाषा है, प्रत्येक मनुष्य अपनी भाषा के माध्यम से अपनी पहचान स्थापित करता है और मातृभाषा एवं राष्ट्रभाषा हमारी अस्मिता एवं पहचान है।” कहनेवाली 

डॉ. अहिल्या मिश्र के लिए हाथ पर हाथ धरे बैठना भला कैसे संभव था। ताक़त बनाया हिंदी को और जुट गईं इसकी सेवा में तथा पूर्ण करने वह स्वप्न जो गांधी जी ने भी कभी देखा था। भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी को बनाना इनके वश में नहीं तो दक्षिण में इसके विकास हेतु थोड़ा योगदान तो दे ही सकती हैं। गैर हिंदी भाषी युवाओं को हिंदी प्रचार सभा की परीक्षाओं के माध्यम से प्रमाण पत्र दिलाया। जिससे न सिर्फ भाषा के प्रचार प्रसार में सहयोगी बनीं बल्कि हिंदी को आर्थिक संकट दूर करने का माध्यम भी बनाया। यहाँ भी आपने चुनौती को ताक़त बनाकर समाज सुधार का औजार बनाया और डँटी रहीं। कल्याण के पथ पर आजतक डँटी हुई हैं। 

एक ओर जहाँ हिंदी प्रचार सभा के माध्यम से हिंदी शिक्षा को बढ़ावा दिया, वहीं स्वयं लेखनी पकड़ीं और जुट गईं साहित्य साधना में। आप मानती हैं कि “साहित्य अपने तात्कालिक समाज का सच अपने अंतर में सम्भालता और यह कार्य साहित्यकार की कलम की नोक से उभरता है और जन सामान्य तक पहुँचता है।” नहीं रही अछूती उनसे साहित्य की कोई भी विधा। सर्जक बनीं 2 उपन्यास, 3 कहानी संग्रह, 5 कविता संग्रह, 5 निबंध संग्रह, 1 नाटक संग्रह, 1 संस्मरण और 1 समीक्षा संग्रह की। साहित्य की सेवा में अभी भी संलग्न हैं तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन हैं। ‘अहिल्या मिश्र- कृतियों से गुजरते हुए’ की समीक्षात्मक परिचय देते हुए अवधेश कुमार सिन्हा का कथन तथ्यपरक है- “किसी साहित्यकार का मूल्यांकन उसकी रचनाओं, उसकी कृतियों से होता है। जाहिर है कि हमें अहिल्या जी का आकलन एक समग्र साहित्यकार के रूप में करना है तो उनकी कृतियों से गुज़्ारना होगा, रू-ब-रू होना होगा।” अतः आपके  साहित्य के सम्बंध में जानने के लिए इनकी रचनाओं को पढ़ना और समझना आवश्यक है। स्थानाभाव के चलते मैं यहाँ बस इतना कह सकती हूँ कि आपने भी सर्वजन हिताय को ध्यान में रखकर साहित्य साधना की। कलम को सिर्फ अपने तक सीमित न रख समाज की भलाई का माध्यम बनाया। उनके ही शब्दों में-“साहित्यकार के असली साहित्य लेखन की पहचान सत्तापक्ष के गुणों के अवगाहन से होता है। इसमें लोक कामना समाविष्ट होती है।”

छिपी हुई प्रतिभा को पहचानना आसान नहीं होता तो डॉ. अहिल्या मिश्र से छुपाना तो और भी कठिन। पकड़ाईं लेखनी उन कई स्त्रियों को जो भूल चुकी थीं या बलिदान दे चुकी थीं अपनी प्रतिभा को पारिवारिक जिम्मेदारियों को पूर्ण करने में। पर आपके हृदय की टीस तभी बुझती थी, जब आप उन स्त्रियों को उनके अंदर झांकने पर विवश करें। ‘सत्यम् शिवम् सुंदरम’ और ‘सर्वजन हिताय’ के सिद्धांत पर चलते हुए अपने साथ साथ ऐसी कई स्त्रियों को लिखने के लिए प्रेरित किया, जो गृह कार्य और पारिवारिक कर्तव्य वहन हेतु चारदीवारी को ही सर्वस्व मान अपनी प्रतिभा को हृदय के किसी कोने में सदा के लिए जब्त कर लिया था। जगाया उन्होंने उन्हें और प्रोत्साहित किया उतारने को पन्नों पर अंतरात्मा में उठती उन उफानों को जो दबाए हुए थी वर्षों से। छुपी हुई हुनर को उभारना इन्होंने अपना कर्तव्य माना। भूमिका और आशीर्वचन लिख किताबें प्रकाशित करने में सहायक बनीं। 

पहचाना आपने उन नवांकुरों की पीड़ा भी, जिन्हें साहित्यिक अभिव्यक्ति के लिए न मंच मिलता था और न ही प्रोत्साहन। स्वयं भी तो गुजरीं थीं इन परिस्थितियों से। अतः मिला अवसर और संस्थापक बनी ‘कादम्बिनी क्लब हैदराबाद’ नामक संस्था की। प्रदान किया एक मंच नए साहित्यकारों को। ‘कादम्बिनी क्लब हैदराबाद’ के माध्यम से मासिक गोष्ठी में उन्हें आमंत्रित कर विचराभिव्यक्ति के लिए प्रेरित किया। दरअसल इस संस्था का मकसद प्रतिष्ठित साहित्यकारों के साथ साथ नवांकुरों को ज्ञान की क्षुधापूर्ति हेतु मंच प्रदान करना था। कादम्बिनी क्लब रूपी बरगद तले ऐसे कई साहित्यकार पनपे, जिन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर भी ख्याति पाई। हर्ष की बात है कि गत 26 वर्षों से यह संस्था हैदराबाद में उभरते हुए लेखकों को निरंतर मंच प्रदान करने का कार्य कर रही है। सदस्यों को पुस्तक प्रकाशन के लिए प्रेरित किया और उनके किताबों की भूमिका, शुभाशंसा, समीक्षा आदि लिखकर उनका मार्गदर्शन कर मनोबल बढ़ाया। ‘ऑथर्स गिल्ड ऑफ इंडिया (भारतीय लेखक संघ)’-हैदराबाद चैप्टर की आयोजक के रूप में अभी भी आप कार्यरत हैं। यह भारतीय लेखकों का एकमात्र समूह है, जो अंतर्राष्ट्रीय ऑथर्स फोरम का सदस्य है। यह संगठन भारतीय बहुभाषी लेखकों के हित में कार्य करता है। आप इस संस्था से 50 से अधिक लेखकों को जोड़कर अभी तक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंच प्रदान कर रही हैं। इसके अतिरिक्त कई साहित्यिक गतिविधियों का आयोजन कर साहित्यकारों को प्रोत्साहित करती रही हैं। 

कहने को तो आज स्त्री और पुरुष में कोई भेद नहीं है। जीवन के हर क्षेत्र में दोनों कदम से कदम मिला कर चल रहे हैं। डॉ. अहिल्या मिश्र एक सीमा तक ही इसमें विश्वास करती हैं। उन्हें पता है कि आज भी पुरुष समाज स्त्रियों की पहचान बनाने के पक्षधर तभी तक होते हैं, जब तक उनसे उनकी सत्ता को ख़तरा न हो। जैसे ही स्त्रियाँ उनकी प्रतिस्पर्धा में आती हैं, उनका सिंहासन डोलने लगता है और उसे बचाने के लिए वे अपनी असली अवतार में आ जाते हैं। आपकी जिह्वा ख़ुद भी इस प्रतिस्पर्धा का स्वाद चख चुकी है। उनका मानना है कि अभी भी स्त्रियों को दोयम दर्जे से देखा जाता है। गिनी चुनी सफल स्त्रियाँ अवश्य होंगी जो सफलता में पुरुषों को पीछे छोड़ देती हैं, पर उसके लिए उन्हें काफी जद्दोजहद से गुजरना पड़ता है। इस मुक़ाम तक की यात्रा में वह स्वयं भी इन जद्दोजहद से गुज़्ार चुकी हैं। अधिकतर स्त्रियों को परिस्थिति से समझौता करना पड़ता है। साहित्य भी इससे अछूता नहीं है। स्त्री रचनाकार जितने की अधिकारी हैं उतना उन्हें मिल नहीं पाता। स्त्री लेखन को दोयम दर्जे से बचाने, उन्हें प्रोत्साहित करने और उनकी प्रतिभा को निखारने और सम्मानित करने हेतु उन्होंने ‘साहित्य गरिमा’ पुरस्कार की स्थापना की जो सिर्फ स्त्री रचनाकार को ही दी जाती है और इसमें दी जानेवाली सम्मान राशि से उनके लेखन और पुस्तक प्रकाशन में लाभ होता है। विशेष रूप से दक्षिण की लेखिकाएँ जिनकी लेखनी को राष्ट्रीय स्तर पर निकृष्ट भाव से देखा जाता है। एक तो दक्षिण के साहित्यकार को राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत होने के योग्य नहीं माना जाता  और यदा-कदा यदि उन्हें पुरस्कृत किया भी जाता है तो उत्तर और दक्षिण के बीच की साहित्यिक फासले पर सवालिया निशान लगाए जाते हैं। ‘साहित्य गरिमा’ के रूप में साहित्य के क्षेत्र में आपका यह अनुदान निश्चय ही अतुलनीय है ।  

पिछले 40 वर्षों से आप इन कार्यों में लगी हुई हैं और आज 72 वर्ष की आयु में भी आपके कदम रुके नहीं हैं। कार्य के आवेग में थोड़ी कमी अवश्य आ गई है, पर जिजीविषा और समर्पण अपने स्थान पर बरकरार है। अभी भी उसी संस्था में प्रशासक के पद पर कार्यरत हैं जहाँ एक अध्यापक से शुरुआत की थीं। आज भी जरूरतमंदों की सहायता के लिए हिंदी प्रचार सभा से जुड़ी हुई हैं और हिंदी की परीक्षाएँ दिलाकर उनकी मदद करती रहती हैं। हिंदी सेवा और साहित्यिक गतिविधियाँ अपनी जगह पर कायम है। कोरोना काल में भी वेबिनार और ऑनलाइन सम्मेलनों के माध्यम से साहित्य की सेवा में संलग्न हैं। प्रधान संपादक के रूप में पुष्पक साहित्यिकी को आज भी राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित कराने में सहयोग दे रही हैं। 

डॉ. अहिल्या मिश्र ने उपर्युक्त कार्य कोई पुरस्कार या ख्याति प्राप्त करने के लिए नहीं किया। यह तो जूनून है बस। परंतु फूल के वश में कहाँ होता है अपनी ख़ुशबू को छुपाना। राज्य सरकारों से भी इनका सामाजिक कार्य अधिक दिन तक छिपा नहीं रहा। दक्षिण भारत में हिंदी की सेवा और विभिन्न क्षेत्रों में योगदान हेतु उन्हें राज्य सरकारों ने अनेक पुरस्कारों एवं सम्मान से नवाजा है और वर्तमान में भी यह सिलसिला जारी है। अनगिनत सम्मानों के अतिरिक्त 2019 में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा सौहार्द सम्मान से सम्मानित किया जाना एक उदाहरण है। भारत सरकार ने हिंदी के क्षेत्र में इनके द्वारा दिए गए योगदानों को देखते हुए कृषि मंत्रालय और विद्युत मंत्रालय में हिंदी सलाहकार के रूप में चयनित कर सम्मानित किया। वर्तमान में भी वह इस पद पर कार्यरत हैं।

अंत में, प्रश्न उठ सकता है कि डॉ. अहिल्या मिश्र के अथक परिश्रम और कार्य में परिवार कहाँ ठहरता है ? क्या वह एकतरफा दोहरी जिम्मेदारी निभाती रहीं या परिवार के तरफ से भी सहयोग मिला ? तो मैं इतना कह सकती हूँ कि जहाँ तक मेरी दृष्टि जाती है, पापा (पति राजदेव मिश्र) ने विशेष सहयोग नहीं किया तो किसी चीज के लिए मना भी नहीं कीं। दोनों के कार्यक्षेत्र में कोई समानता नहीं थी फिर भी सपने देखने की आजादी ही नहीं दी बल्कि उसे पूर्ण करने के लिए हर कदम पर प्रोत्साहित करते रहे। तरुण पत्नी जिसे ग्यारहवीं के बाद ही विवाह कर ले लाए थे, परिवार के विरुद्ध जाकर पी.एच.डी. तक की शिक्षा हासिल करवाई। आर्थिक संघर्ष के वक्त भी घर में सेवक रखकर गृह कार्य की जिम्मेदारी से मुक्त रखा। फिक्र इतनी कि रात को घर आने में देर होने पर स्कूटर लेकर बस स्टॉप पर जाते थे और अनिश्चित काल तक इंतजार कर उन्हें लेकर वापस आते थे। यह उस जमाने की बात है जब मोबाइल की सुविधा उपलब्ध नहीं थी। सवेरे ऑफिस जाने के वक्त आपको छोड़ने के लिए आपसे से पहले पति की स्कूटर तैयार होती थी। और क्यों न हो। आपने भी तो सारा कार्य सारे सपने परिवार की जिम्मेदारियों को निभाते हुए और पुत्र का लालन पालन करते हुए पूरा किया। 

जिस तरह पत्थर को तराशकर हीरा बनाया जाता है और आग में जलकर सोना कुंदन का रूप धारण करता है, उसी तरह आपने स्वयं को तराशा और अपना जीवन समाज, साहित्य तथा भाषा की सेवा हेतु समर्पित किया। आज उम्र के इस पड़ाव पर भी चैन से बैठना उन्हें गवारा नहीं। उनका परिश्रम, कार्य के प्रति जूझारूपन और ऊर्जा कभी-कभी मुझे सोचने पर मजबूर करती है कि मैं इतना क्यों नहीं कर पाती और अगले ही पल यह मुझमें ऊर्जा उत्पन्न कर स्फूर्ति प्रदान करती है। वास्तव में असंभव को संभव कर गुज़्ारने की चाह रखनेवाली दुष्यंत की इन पंक्तियों को अपने जीवन का मंत्र बनाने वाली न सिर्फ मेरी बल्कि असंख्य स्त्रियों की प्रेरणास्त्रोत हैं, जो जीवन में मुकाम हासिल करना चाहती हैं। 

"कौन कहता है कि आसमां में सुराख नहीं हो सकता, 
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों ।"


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