डॉ. अहिल्या मिश्र का रचना संसार (प्रकाशित पुस्तकों में से चुनीं कविताएँ, निबंध, लेख, कहानियाँ एवं समीक्षाएँ)

मेरी इक्यावन कहानियाँ (2009)

स्नेह की डोर

आज सुबह की चाय पर निशा चहकती हुई आई। मेरे गले में हाथ डालकर प्यार किया और जल्द-से-जल्द नाश्ता कर बाहर जाने के मूड में लगी। मैंने अधिक ध्यान नहीं दिया। किन्तु उसके हाव-भाव मुझे कुछ अजीब-से लगे। अपनी जल्दबाजी के कारण वह मेरे मन में शक के बीज बोने लगी। उसके सामने एवं ऊपर से चुप रहने पर भी मेरे अंदर उथल-पुथल मचती रही। मैं परंपरा में विश्वास रखने वाली माँ थी। उसके अंदर पनप रहे लक्षण मुझे अच्छे नहीं लगते थे। किन्तु मैं अपने ब्रिगेडियर एवं जमींदार पति के आगे कुछ बोल नहीं पाती थी। पिता के लाड़-प्यार एवं उनके द्वारा दी गई स्वतंत्रता ने निशा को स्वच्छन्द बना दिया था। मैंने उसके चेहरे पर अपनी नजरें गड़ाते हुए पूछा- ‘‘क्या बात है बहुत जल्दी में लग रही हो? चैन से बैठकर नाश्ता तो कर लो। फिर भागना।‘‘ 

उसने बिना मेरी ओर देखे ही झट से कहा “कई काम हैं। मम्मी इन्हें निबटना है फिर किसी से मिलना है। मुझे लाइब्रेरी जाना है। आप क्या करेंगी यह सब जानकर? आप भी न कभी-कभी पुलिस वालों की तरह कुरेद-कुरेद कर पूछने लग जाती हैं।‘‘ अंतिम कौर मुँह में ठूसते हुए जूस का ग्लास लगभग एक ही घूँट में निगल डाला और वह तीर की तरह बाहर निकल गयी। मैं उसे देखती रह गयी। कुछ बोल पाने का अवसर ही मुझे नहीं मिला। सोचने लगी आज कल की लड़कियों को ये कैसे पर लग गए हैं? उड़ती फिरती हैं। मैं तो अपनी ही बेटी के इस रंग-ढंग को देखकर परेशान हूँ। आखिर क्या करना चाहती है? दूसरों के लिए क्या सोचूँ, क्या समझूँ। क्या कहूँ? क्या जानूँ? क्या मानूँ?

निशा कॉलेज एवं लाइब्रेरी से निबट कर अपने नित्य नियमित मिलन-स्थल पर जा पहुँची। वहाँ कृतार्थ पहले से उसकी प्रतीक्षा में रत था। निशा को सामने आते देखकर उसकी आँखों में चमक बिखर गयी। उसने हर्षित होते हुए कहा- “आओ निशा तुमने तो आने में बड़ी देर लगा दी। मैं तो इन्तजार करते करते ठूंठ हो गया हूँ।‘‘ निशा दौड़ कर कृतार्थ के गले लग गयी। कृतार्थ ने उसे बाहों में बाँध लिया। युगों के प्यासे प्रेमी की तरह दोनों आपस में गुंथ कर गले मिले। फिर पब्लिक प्लेस का ध्यान आते ही संयत होकर अलग-अलग बैठ गए। कृतार्थ ने पूछा- “तुम्हारी परीक्षा कब समाप्त होगी?” निशा ने उत्तर दिया “बस अब कुछ दिनों की बात है। फिर तुम्हें अकेले प्रतीक्षा नहीं करनी होगी।” कृतार्थ ने उसे छेड़ते हुए कहा- “फिर तुम्हें छोड़ेगा कौन? उड़ाकर ले जाऊँगा। प्लेन में अपने बगल में बिठाऊँगा। दुनिया की सैर कराऊँगा। आकाश की ऊँचाइयों से दुनिया दिखाऊँगा।” उसकी बातों से गोरी चिट्टी छरहरी निशा के गालों पर गहरी लाली बिखर गयी।

निशा का रंग ही गोरा नहीं था बल्कि सुन्दर नयन-नक्श एवं करीने से सजी-सँवरी हुई वह गुड़िया जैसी लगती थी। चंचलता उसका स्वाभाविक गुणधर्म था। ऊँचे-पूरे सलोने एवं हृष्ट-पुष्ट कृतार्थ से उसकी मुलाकात एक सहेली के जन्म दिन की पार्टी में हुई थी। वह उसे पहली नजर में ही भा गया। स्त्री-सुलभ संकोच से वह उसे कुछ नहीं कह पायी। कृतार्थ भी उसे देखकर लट्टू हो गया था। पार्टी में तो परिचय बढ़ाने की उत्सुकता लिए उसके आगे-पीछे घूमता रहा। किन्तु सफलता नहीं मिली। फिर भी कृतार्थ ने हिम्मत नहीं हारी। उसकी सहेली से उसका पता पूछकर कॉलेज तक जा पहुँचा। धीरे धीरे जान-पहचान बढ़ी और वह निशा से निरंतर मिलने लगा। कृतार्थ इंडियन एअरलाइन्स में पायलट था। कार्य के बाद का समय वह अपनी पसंद को पाने के लिए व्यय करने लगा। आकर्षक कद काठी, खिलता हुआ सांवला रंग, फिर बातों के चमत्कार के साथ सोने पे सुहागा उसका कमाऊ पूत होना था। भला कौन सी लड़की उससे परिचित होने के बाद अपने को उसके सम्मान से बचा पाती। विरले कोई होगी जो शायद यह मोह तज पाए या इस सम्मोहन से अपने को बचा ले जाए। निशा एक सुन्दर किन्तु औसत बुद्धि की आम लड़की थी। उसे कृतार्थ दो बार मुलाकातों में पसंद आ गया। दोनों के प्यार की गाड़ी पटरी पर भागने लगी। निशा सब कुछ भूल कर इस गाड़ी में बैठ सपनों की दुनिया की सैर करने लगी।

दोनों की आज की मुलाकात विशेष थी, क्योंकि कृतार्थ ने संकेत दिए थ कि वह कुछ अलग बात करने वाला है। निशा का दिल बार-बार धड़क रहा था। मन शका-आशंका से भरा पड़ा था। मिलने के साथ ही उसने कृतार्थ से पूछ डाला- “हाँ तो कृतार्थ क्या विशेष बात है जो तुम मुझे बताने वाले हो। जल्दी से बोलो। मैं अब और प्रतीक्षा नहीं कर सकती। कल से ही आज के शाम की बेचैनी मेरे मन में भरी हुई है। अब बोल डालो ताकि मेरी बेचैनी को चैन मिले।” वह उत्सुक नजरों से कृतार्थ की ओर देखने लगी। कृतार्थ चुपचाप उसकी तरफ देख कर मुस्कुराता रहा। उसकी बेचैनी का अंदाजा लगाता रहा। उसकी छटपटाहट का आनन्द लेते हुए बोला- “मैं तो कुछ खास कहने वाला नहीं था। बस इतना ही कि तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो। मैं तुम्हारे बिना जी नहीं सकता।” निशा कृतार्थ को घूरती हुई बोली -‘‘क्या यही बात थी?” “यह तो कई बार मैं तुम से सुन चुकी हूँ, फिर तुमने इतना सस्पेंस क्यों निर्मित किया।” और वह रूठने का अभिनय करती हुई दूर हट गयी। “जाओ मैं तुमसे बात नहीं करती।” कृतार्थ ने सोचा-“बहुत हो गया।‘‘ वह मनुहार करता हुआ बोला “निशा यहाँ आओ, अब सुन ही लो वह बात, जिसे मैं कई दिनों से तुम्हें बताने की सोच रहा हूँ। परीक्षा समाप्त होते ही मैं तुम से विवाह करना चाहता हूँ। मेरी नौकरी की शर्ते पूरी हो गयी है। अब मैं विवाह करने के लिए आजाद हूँ। बस तुम्हारी पढ़ाई समाप्त हो जाये। यह बताओ कि वैसे कब विवाह करना ठीक रहेगा? मेरे लिए अब सब्र करना बहुत ही कठिन है।‘‘ .

निशा उसकी बात सुनकर शर्मा गई। पलकें नीची कर अपने को संभालने लगी। फिर बोली- “विवाह करने के लिए हमें अपने माता-पिता से अनुमति लेनी होगी। इसके लिए तुम्हें ही सारे प्रयत्न करने होंगे। वैसे अपने माता-पिता को मनाने में मैं तुम्हारा सहयोग अवश्य करूँगी। अपने लोगों को तो तुम्हें ही मनाना होगा।” 

कृतार्थ ने उत्तर दिया- ‘‘मेरी चिन्ता छोड़ो। तुम्हारे माँ-बाप मान जायें तो बस अपना काम बन जायेगा। रूककर लंबी साँस खीचते हुए बोला- “परीक्षा समाप्त होते ही मैं तुम्हारे घर आऊँगा। देखें वे लोग मेरे भाग्य का क्या फैसला करते हैं?” फिर रूककर निशा को देखते हुए बोला- ‘‘अगर उन्होंने नहीं माना तो तुम्हें उठाकर ले जाऊँगा। समझ ली तुम्हें किसी हाल नहीं छोडूंगा।‘‘

निशा नजरे नीची कर अंगूठे से जमीन कुरेदते हुए बोली -“मेरे माता-पिता वैसे तो हम दोनों बहनों को बहुत प्यार करते हैं, किन्तु कुछ मामलों में वे कट्टर हैं। वे शायद ही हमारी शादी के लिए राजी हों। खैर, मना करने पर देखा जायेगा। कुछ न कुछ करना पड़ेगा क्योंकि अब मैं तुम्हारे बगैर जीने की कल्पना भी नहीं कर सकती।“ रुकते हुए पुनः बोली - “आसान तो नहीं है फिर भी मैं उन्हें मना लूँगी ऐसा मेरा विश्वास है।“

कृतार्थ और निशा इधर-उधर की बातें करते रहे। फिर निशा ने कहा - परीक्षा सर पर है। अतः पहले से कम समय दे पाऊँगी।‘‘ कुछ दिनों तक विदा लेने पर आपस में दोनों राजी होकर अपने घरों की ओर चल दिए।

निशा की परीक्षा समाप्त होने के दूसरे दिन कृतार्थ उसके घर आ धमका। निशा के माता-पिता दोनों से मिलकर सीधे-साधे उनसे निशा का हाथ माँग बैठा। दोनों पति-पत्नी इस बात से अनभिज्ञ थे कि निशा कृतार्थ को जानती है। कृतार्थ ने अपनी पसंद बताते हुए कहा कि हम एक-दूसरे से प्यार करते हैं और विवाह करना चाहते हैं। निशा के पिता ब्रिगेडियर अवश्य थे, किन्तु स्वाभाव से एक सीधे-सादे आदमी थे। माँ परंपराओं एवं रीति-रिवाजों का पालन करने वाली घरेलू किन्तु शिक्षित स्त्री थी। अच्छे बूरे की समझ रखने वाली माँ तो जैसे आसमान से गिरी। पिता भी आवाक् रह गए। कुछ देर बाद सँभलते हुए उन्होंने कहा कि- ‘‘आप अपनी जानकारी छोड़ जाइए। हम सोच-विचार कर आपको उत्तर देंगे। हमें सोचने-समझने के लिए कुछ समय चाहिए।‘‘

उन लोगों ने कृतार्थ की सत्कार में कोई कमी नहीं होने दी। जब वह चलने लगा तो निशा कमरे से निकल कर बाहर आयी। कृतार्थ को देखकर वह मुस्कुरा उठी। कृतार्थ विदा लेकर वापस चला गया। निशा के पिता का चेहरा क्रोध से लाल-भभूका हो रहा था। वे अपने आपको संयत करने की चेष्टा कर रहे थे। 

कृतार्थ के जाने के पश्चात् पिता ने निशा से पूछा- ‘‘तुम कृतार्थ को कब से जानती हो?” निशा ने उत्तर दिया- ‘‘काफी दिनों से जानती हूँ। पिताजी वह एक अच्छा इंसान है। पायलट है। जिन्दादिल है और मुझे पसंद है। मैं उसे जीवन साथी बनाने का फैसला कर चुकी हूँ। आपकी सहमति चाहिए।” पिता उसकी बातें सुनकर चुप रहे। माँ ने पूछा- ‘‘इसके घर-परिवार के संबंध में क्या जानती हो? इसके माता-पिता क्या करते हैं? कहाँ रहते हैं? वह किस जाति का है? इसका पारिवारिक इतिहास क्या है? क्या तुमने यह सब जानने की कोशिश की है।” निशा ने माँ के गले में बाहों की माला पहनाते हुए उत्तर दिया - “माँ मुझे इसके इतिहास, भूगोल से क्या लेना-देना है? न तो मैं भूत को जानती हूँ और न ही जानना चाहती हूँ। मुझे उसका वर्तमान मालूम है कि वह एक पायलट है। सरकारी नौकरी करता है और मुझे पसंद है। आप हाँ कर दीजिए।‘‘

पिता ने अपने क्रोध पर काबू पाते हुए लाड़ली बेटी को समझाने के अंदाज में कहा- “बेटी हमने तुम्हारा लालन-पालन जिस अंदाज से किया है वह तुम्हें वैसे नहीं रख सकता है। वह एक नौकरी पेशा युवक है। सीमित आय में तुम्हारी यह ठाठ-बाट नहीं निभेंगे। आगे चलकर दोनों के बीच मतभेद उत्पन्न होगा। जीवन नर्क बन जाएगा। हम तुन्हारे लिए अच्छे-से-अच्छा रिश्ता तलाशेंगे। जो तुम्हारे जीवन स्तर के अनुकूल रखते हुए तुम्हें खुश रखे।‘‘ निशा ने उत्तर दिया- ‘‘पापा आपने बचपन से मुझे आजादी दी है। अपने ढंग से जीना सिखाया है। आज जीवन साथी के चुनाव में मेरी यह स्वतंत्रता क्यों छीन रहे हैं। फिर...।‘‘ रूकते हुए आगे बोली- ‘‘पापा वह इंडियन एयर लाइन्स में कार्यरत है। उस तरह की जिन्दगी जीने का अपना मजा अलग ही होता है। रोज पार्टी-नाच गाना-धम्माल। जिन्दगी भागती रहती है। फिर आप भी तो मिलिट्री में थे। जमीनदार परिवार से संबंध रखते हुए भी आपने नौकरी को प्राथमिकता दी। आपके पास पुरखों का सब कुछ था, किन्तु आपने भी तो नौकरी का चुनाव किया। पापा प्लीज! उन्हे हाँ कह दीजिए। मेरे लिए...।‘‘ पिता सुबोध चुपचाप उठकर वहाँ से चले गए। माँ समझ गयी कि बेटी के मन पर कृतार्थ पूरी तरह से छाया हुआ है। इस समय उस पर किसी बात का प्रभाव नहीं पड़ेगा। उन्होंने निशा की ओर देखा तो वह बोल उठी - ‘‘माँ आप तो समझ सकती हैं न। उसमें कोई कमी नहीं है। अगर होती तो भी मैं प्रेम के सहारे उस कमी को भूल जाती और गुजारा कर लेती।” माँ ने फिर समझाने की कोशिश करनी चाही, बोली - ‘‘बेटी हम उसके घर वालों की जानकारी के बाद निर्णय लेंगे। केवल उसे देखकर अपनी पहली संतान का फैसला हम कैसे करें? तुम निश्चिंत रहो, अगर सब ठीक-ठाक रहा तो हम तुम्हारी बात मान लेंगे। वैसे पायलट का जीवन जोखिम भरा होता है। कई-कई दिन फ्लाई करने पड़ते हैं। क्या उस जीवन की कठिनाइयाँ तुम सह पाओगी?‘‘ निशा बेचैनी से बोल उठी- “माँ तुम चिंता मत करो। मैं कृतार्थ के साथ हर हाल में खुश रहूँगी। आप दोनों केवल हाँ करें, माँ! मेरे लिए, हमारे लिए प्लीज।” ।

कृतार्थ से जब उसके माता-पिता के संबंध में पूछा गया तो पहले तो वह टालता रहा। किन्तु जब उसने देखा कि बिना बताए काम नहीं चलेगा, तो फिर गर्व से सिर उठाते हए बोला- “मेरे दादा ब्रिटिश सरकार में ट्रक चलाते थे। मेरे पिताजी सिक्ख रेजीमेंट में कमाण्डर रहे हैं। बांग्ला देश की लड़ाई में वे शहीद हो गए। मैं बहुत छोटा था। उनकी इच्छा थी कि मैं हवाई जहाज चलाऊँ। विशेष रूप से लड़ाकू विमान चलाऊँ। मैं सेना में तो नहीं गया, किन्तु पायलट तो बन ही गया। पिताजी की मृत्यु के बाद सेना की ओर से मेरी शिक्षा-दीक्षा का प्रबंध किया गया। 

एन.डी.ए. की ट्रेनिंग के समय माँ का देहांत हो गया। कुछ कारणवश मैं सेना में जाने का मन नहीं बना पाया। इसलिए आप लोग केवल मुझे ही मेरा परिवार मानें। चाचा-ताऊ आदि से मैं मिलना नहीं चाहता। फिर आपको मिलवाने का प्रश्न ही नहीं उठता। इतना कह सकता हूँ कि आपकी बेटी को कोई तकलीफ नहीं होने दूँगा। मुझे आपकी दौलत से कुछ नहीं चाहिए। केवल निशा का हाथ चाहिए।” फिर वह गर्व से आगे बोला- “मैंने निशा से अपने बारे में कुछ नहीं छुपाया है। उसे मेरी सीमित आमदनी में ही अपनी गृहस्थी का संचालन करना पड़ेगा। अब आप लोग जैसा चाहें करें। मैंने अपनी स्थिति खोलकर आपके सामने रख दी है।”

उसका यह अप्रत्याशित व्यवहार हमें घायल कर गया। किन्तु अपनी बेटी की जिद्द के आगे हम विवश थे। हमारी बेटी जीवन के इतने महत्वपूर्ण निर्णय को खेल समझ बैठी थी। बचपन से ही हर बात मनवाने के लिए वह जिद का सहारा लेती आई थी। आज भी उसने इसी शस्त्र का उपयोग किया और हमारी सारी संवेदनाओं एवं चेतना पर कुठा......कर दिया। समझाने के सारे उपाय निरस्त हो गये। कृतार्थ के नाम की रट को अनशन में बदलने पर हम दोनों ने हथियार डाल दिए, क्योंकि हम जानते थे कि वह अपनी बात मनवाने के लिए किसी हद तक जा सकती है। पंडित जी को बुलवाकर मुहुर्त निकलवाने के बाद सादगी से विवाह सम्पन्न हुआ। निशा अपने माँ-बाप से विदा होकर पति के घर रहने चली गई। बेटी की सुख सुविधा का ध्यान रखते हुए उन्होंने कार, फ्रिज, एअर कंडीशनर, टी.वी. सोफा सेट एवं जीवन जीने की सारी वस्तुएँ दहेज में देकर उसे विदा किया। हनीमून का भी सारा व्यय भार वहनकर अपनी ओर से उसे पूरी तौर से सुखी एवं रहने की व्यवस्था कर दी।

हनीमून ट्रिप से लौटकर गृहस्थी का बोझ उठाते ही अनबन की प्रथम चरण साँसे लेने लगी। निशा को केवल आज्ञा देने की आदत थी। हुक्म बजाना या घर का काम करना तथा खाना पकाना तो उसने सीखा ही नहीं था। कृतार्थ स्वभाव से अड़ियल एवं अनुशासन पसंद था। उसने समझौते के लिए हाथ तो बढ़ाया, किन्तु उसे ज्यादा सफलता नहीं मिली घर में बाहरी काम-काज के लिए एक दाई की व्यवस्था की गई। किन्तु निशा तो रसोई घर में जाना ही नहीं चाहती थी। हमेशा होटल या मेस से खाने की व्यवस्था कृतार्थ को अटपटी लगी। नाश्ता तो माडर्न ब्रेड से चल जाता। यह भी कई बार कृतार्थ को स्वयं ही तैयार करना पड़ता। निशा माँ के पास गयी तो कृतार्थ उसे लेने आया। बातचीत में उसने सास से कह दिया कि मम्मी आपने निशा को खाना बनाना नहीं सिखाया। इसे घर सम्हालने की शिक्षा नहीं दी। सुबह का नाश्ता मैं स्वयं तैयार करता हूँ। यह सोती पड़ी रहती है। कभी उठकर बाय करती है तो कभी यूँ ही सोई रहती है। मैं ऑफिस चला जाता हूँ। आप ही कहें कि हमारी गृहस्थी की गाड़ी कैसे चलेगी? कितने दिन हम इस प्रकार का जीवन जी पायेंगे। मैं कुछ कहता हूँ तो यह बेमतलब का झंझट शुरु कर देती है। स्थिति की विषमता से समझने-समझाने की स्थिति ही समाप्त हो जाती है। कैसे करूँ। कैसे समझौता होगा? कहाँ तक समझौता कर पाऊँगा? कुछ समझ में नहीं आता है। जब कभी जीवन का कोई छोर इसे पकड़वाना चाहता हूँ तो यह मुकर जाती है। वह तो कोई छोर पकड़ती ही नहीं। वह तो बंधन को चटकाने पर अभी से तुली है। जितना कठिन बंधन बाँधना है। उतना ही आसान तोड़ना है। विवाह पूर्व जिस निशा को देखकर मैं प्रेमातुर हो उठता था। आज की निशा के लिए क्या कहूँ। माँ आप निशा को समझाइए। घर-गृहस्थी चलाने की शिक्षा दीजिए। कुछ कीजिए माँ। आप ही कुछ कर सकती हैं। गृहस्थी बचाने के लिए निशा को भी दो कदम चलना पड़ेगा। मैं तो दस कदम चलने और समझौते करने तथा झुकने के लिए तैयार हूँ।

मेरा सिर शर्म से झुक गया। मन कराह उठा। काश! कि मैंने आरंभ से ही निशा को अपने कंट्रोल में रखा होता। उस पर अंकुश लगाए होते। उसके पिता को समझाया होता या समझाने की कोशिश की होती तो आज यह सब नहीं सुनना पड़ता। लेकिन इसके लिए मैंने कई बार प्रयास किया था। किन्तु उसके पापा के बीच में आने एवं उनके रौब के प्रभाव में मुझे हमेशा चुप रहना पड़ता था। बेटी को घर के कामकाज सिखाने के लिए जब भी डाँटना चाहती तो वे बोल पड़ते - ‘‘क्यों उसे परेशान करने पर तुली रहती हो? क्या जरूरत है उसे यह सब काम धाम सीखने की। मैं उसे किसी ऐसे वैसे के पल्ले थोड़े ही ना बाधंूगा। मैं उसका विवाह वहाँ करूँगा, जहाँ नौकर-चाकर होंगे। खाना पकाने के लिए सिद्धहस्त बावर्ची होंगे। अभी पढने-लिखने दो। मौज-मस्ती करने दो। उसका पीछा छोड़ो।‘‘ अपने पापा का शहर जाकर वह और निडर होती चली गई और हरदम मनमानी करने लगी। मुझे तो कुछ बताना भी उचित नहीं समझती थी। कुछ पूछने पर उल्टा प्रश्न दाग देती और चलती बनती। सत्य तो यह कि मेरी किसी बात पर वह कभी भी कान नहीं धरती।

अनुशासन प्रिय कृतार्थ निशा की हर गलती ढोता रहा। किन्तु मनमानी करने की निशा की आदत उसके सहन शक्ति को झकझोरने लगी। एक दिन दोनों के बीच उठे विवाद ने भयानक रूप ले लिया। बात बतरंग हो गई। निशा के चीखने-चिल्लाने और कटूतापूर्ण व्यवहार से उत्तेजित 

कृतार्थ का हाथ उस पर उठ गया। निशा को सहन करने या क्षमा करने की आदत तो कभी से थी ही नहीं। उसने तुरंत अपने पापा को टेलीफोन कर सारी बातें चला दी। उनसे घर से कार मँगवाया और वापस मायके आ गई। तबसे उसने कृतार्थ से संबंध स्थापित करने की कोई कोशिश भी नहीं की। वर्ष से ऊपर हो चले हैं। वह वापस जाने या कृतार्थ से अपार घृणा हो गयी है।

जब भी निशा को देखती हूँ मेरा मन पश्चाताप की अग्नि में जलने लगता है। माँ के रूप में मुझे सारा दोष केवल अपना दिखाई देता है। मैं एक सही माँ साबित नहीं हुई। मुझे तो पता था कि बेटी ऐसी बिरवा होती है जिन्हें एक जगह से उखाड़ कर दूसरे जगह लगाया जाता है। फिर मैंने इन्हें अनुशासन में क्यों नहीं रखा? क्यों नहीं घर के कार्य में दक्ष एवं कुशल बनाया? इन्हें संसार में जीने का सही अर्थ, रीति-रिवाज, परंपरा आदि की जानकारी देकर व्यावहारिक क्यों नहीं बनाया। निशा की वर्तमान स्थिति के लिए मैं दोषी हूँ। केवल मैं। जब सोचते-सोचते थक जाती हूँ तो फैसला ऊपर वाले के हाथ में छोड़ देती हूँ।

अपनी इस गलती का पश्चाताप कैसे करूँ? निशा की जिन्दगी कैसे सवारूं? इन प्रश्नों से दो-चार होती हुई मैंने निर्णय लिया कि अपनी दूसरी बेटी निधि को मैं एक पूर्ण गृहिणी बनाऊँगी। पहले तो उसके पापा से मुझे मानसिक तौर पर निबटना होगा। उन्हें तो कोई फर्क नहीं पड़ता, किन्तु जवान बेटी की चुप्पी मुझे तो अंदर तक छीजकर रख देती है। मैं निधि को उसकी इच्छा के विरुद्ध गृहस्थी के कार्यों का प्रशिक्षण देने लगी। उसकी पढ़ाई पूरी हो गयी थी। मुझे अब उसे नारी जीवन जीने के लिए तैयार करना था। यह कार्य पूर्ण करके ही उसका विवाह करना होगा। पहले तो घर के कामों के लिए निधि के ना नुकुर करने पर उसके पापा ने उसका साथ दिया। किन्तु मेरे समझाने पर वे चुप बैठ गए। निशा का उदाहरण सामने था। अतः न चाहते हुए उन्हें अनुमति या मौन स्वीकृति देनी पड़ी। निधि के लिए प्रसिद्ध व्यापारी शैलेष जी के यहाँ से रिश्ता आया। परिवार हर प्रकार से उत्तम था। लड़का भी उच्च शिक्षित था एवं व्यापार में व्यस्त था। सब कुछ देख सुनकर दोनों के पसंद को जान समझकर हमने निधि के लिए निर्मेष का रिश्ता तय कर दिया। इस रिश्ते से निधि बहुत खुश थी। सगाई के बाद उसकी सास एवं ननद उसे विवाह  को शापिंग के लिए अक्सर ही बुलवा लेती। हमें भेजने में कोई एतराज नहीं था। वहाँ से लौटकर निधि उनके गुणों एवं पसंदों के सुगान की वर्षा करती। मैं सुनकर मुस्करा देती। बेटी की आँखों में चमकती खुशी हमें आंदोलित करती रहती। अब तो वह निर्मेष के पसंद-नापसंद की जानकारी भी रखने लगी थी। किन्तु निशा पर निगाहें पड़ते ही मैं सकापका जाती। उसके पास कृतार्थ के लिए केवल शिकायतों का पुलिंदा था। न कोई खुशी, न कोई स्नेह, न कोई अपनत्व। निधि के विवाह का निमंत्रण पत्र छप गया और वितरित होने लगा। उधर, निशा की असहिष्णुता एवं मेरे पतिदेव की शह के कारण निशा के तलाक की तैयारी चल रही थी। कागजात तैयार हो चुके थे। वकील तलाक मिल जाने का पूरा यकीन दिला रहे थे। मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है कि मैं क्या करूँ? न तो मैं खुश हो पा रही थी, न ही खुलकर रो सकती थी।

निधि एक ओर जहाँ हमारे जीवन की निधि बन रही थी। हमारे मान-सम्मान को ऊँचा उठा रही थी। पिता का नाम रौशन करने जा रही थी। लाड़-प्यार को सही अर्थ दे रही थी और अपने लिए भी खुशियों का अंबार खरीद रही थी। वहीं निशा अपनी नादानियों बचपनाओं के कारण जीवन को ठोकर मारने की तैयारी कर रही थी। समझौता करना तो उसने सीखा ही नहीं था। बचपन से ही अपनी बात मनवाने की आदत डाल रखी थी। अच्छी-बुरी किसी बात से उसे कोई मतलब नहीं था। बस उसे तो जो चाहिए, केवल चाहिए और मिलना ही चाहिए। अपने नाम के अनुरूप अपनी जिंदगी को निशा सम बनाने पर तुली थी। निशा के हाथों से स्नेह की डोर के दोनों छोर जहाँ छूट रहे थे। वहीं निधि की बांहे इस बंधन को कस रही थी। क्या विडंबना है? क्या करूँ? मेरे बस की तो है नहीं कुछ भी। उसने जब मेरे ही ममत्व की डोर की छोर को छूने से इंकार किया तो भला और किस डोर से बँधती या बाँधने के लिए छोर पकड़ती। वह तो अपनी इच्छाओं की पूर्ति करते हुए एक अलग जीवन जीना चाहती थी। पूरी तौर पर स्वतंत्र रहना चाहती थी। मन के आकाश में इच्छाओं की पतंग स्वेच्छा की डोर से बाँधकर उड़ाना जानती थी। भले ही इसकी एक छोर हाथ से पकड़ी रहे। किन्तु मैं तो माँ हूँ। निशा की जिंदगी के अंजाम के लिए अपने को दोषी ठहरा रही हूँ। स्वयं को कोस रही हूँ। अब मेरे हाथ में पश्चाताप के सिवा कुछ भी शेष नहीं है। काश ! मैं निधि के जीवन में आने वाली बहार को अपने अंर्तमन की खुशी से स्वागत कर पाती। मेरी दोनों आँखों में एक आँख की रौशनी जो बंद पड़ी है, उसके लिए क्या करूँ। दूसरी आँख अकेले कैसे खुशी छलकाए? काश निशा अपना भला बुरा सोच पाती। अगर ऐसा होता तो आज मुझसा सुखी विरले ही होता। सोचते-सोचते माँ की आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गयी, परन्तु निशा थी कि अपने नाम के अर्थानुसार अंधेरे की कालिमा से निकलकर उज्जवल सवेरे की ओर आना ही नहीं चाहती थी। स्नेह की कीमत से एक बार फिर से वो अनभिज्ञ हो चुकी थी।

गोवा के प्रसिद्ध नाटककार के साथ डाॅ. अहिल्या मिश्र


घरभरौनी

अपूर्वा एवं श्रुति चहल-पहल से भरे घर के कोने में एक दूसरे के निकट अधलेटी धीमी आवाज में बातों में खोयी हुई थी। श्रुति कभी सखी को छेड़ती तो कभी उसे व्याहता जीवन के गुर बताती जा रही थी। अपूर्वा अपनी शंकाओं में लिपटी इसकी समाधान तलाश रही थी। वास्तव में श्रुति अपूर्वा से दो वर्ष बड़ी थी। किन्तु दोनों अंतरंगत सखियाँ थीं। अपूर्वा ने जब सुना कि उसके पिता उसकी कथा (विवाह की बातचीत) के लिए गए हैं तो वह बेचैन हो उठी। माँ से आज्ञा लेकर श्रुति के घर गयी। श्रुति को एकांत में ले जा कर उसने वे सारी बातें बतला दी। साथ ही अपनी छोटी उम्र होने एवं विवाह न करने की इच्छा भी बताई। दोनों के बीच कोई भेदभाव नहीं होने के कारण अपूर्वा कई प्रश्न करती रही और यथाशक्ति श्रुति उसके संशय का समाधान करने का यत्न करती रही।

विवाह के दिन अपूर्वा के आग्रह पर श्रुति समय से पूर्व ही आ धमकी थी। दो वर्ष पूर्व विवाह होने पर भी गौना नहीं होने के कारण श्रुति अपने नैहर में ही रह रही थी। पति कहीं पढाई कर रहे थे। उन्हें भी निमंत्रण भेजा गया था। वे बारात के साथ ही पधारने वाले थे। श्रुति के मन में यह उत्सुकता समायी हुई थी। यदि आप का समय प्रतीक्षारत हो तो स्वाभाविक रूप से समय काटने का सुन्दर स्थान शादी विवाह का घर होता है। अपनों की भीड़ व हम उम्र के बीच एकान्तता का दंश कम हो जाता है। विवाह का घर, लोगों का रेला हँसी, चुहल, छेड़छाड़ की बरसात में गाने की लोकधुनों का स्वर, लाउडस्पीकर की गूंजती आवाज तो कभी बिछुड़न एवं दर्द की आवाज में सिसकियों की झंकार। कभी लेन-देन तथा वर पक्ष के गुणों का बखान आने जाने वालों में पास-पड़ोस की महिलाएँ, औनिया, पौनिया आदि अन्दर बाहर सभी जगहों में बात-चीत करते दीख रहे होंगे। खुशियों से भरा एक वातावरण समक्ष सृजित हुआ रहता है। जो मन के विषाद, विरक्ति या निवृत्ति को दूर भगा देता है। कुछ गोतिया-दियाद भी वहाँ उपस्थित थे। सब अपूर्वा के भाग्य की प्रशंसा कर रहे थे। किसी ने कहा- “बाप के सूरत की है, जन्म से ही भाग्यवान है। गढ़ने वाले ने फुर्सत में गढ़कर रूप का खजाना तो दिया ही है। स्वभाव में मिठास इसे माँ से मिली है। इन सबसे बढ़कर भाग्य पाया है जो लाखों-करोड़ों में एक को मिलता है।

दूसरे ने हामी भरी- “हाँ, इसमें क्या संदेह है? ब्राह्मण कुल की बेटी बिना श्रम के एवं बिना दहेज के उठ जाए, वह भी आज के जमाने में ऐसा कम ही देखने सुनने को मिलता है। फिर लड़का भी ऐसा पढ़ा-लिखा, रूपवान, गुणवान परिवार इतना ऊँचा एवं संभ्रात। लोग भी अच्छे हैं, जैसा कि रामानेक बाबू का कहना है। यह तो सोने में सुहागा है।‘‘ अपूर्वा की दादी शिवरानी आने वालों का स्वागत कर रही थी। इतने में दरवाजे के चैखट के अन्दर शिवरानी की परम प्रिय सहेली लालकाकी चली आती हुई दिखाई दी। शिवरानी ने हर्षतिरेक से उठकर उनका स्वागत करते हुए कहा- “आइए-आइए आपका ही इंतजार कर रही थी। दो बार रमरतिया को बुलाने भेज चुकी हूँ। आप स्नान-ध्यान में मग्न थी। चुपके से देखकर वापस आ गई। तो मेरी चिंता समाप्त हो गयी है। अब से लेकर सिंदूरदान तक की सारी जिम्मेदारी संभालिए।‘‘ लंबी सांस खींचकर आराम व इत्मिनान... का भाव चेहरे पर ले आयी।

लाल काकी सारे गाँव की काकी थी। बाल वैधव्य के बाद से सारे गाँव की सेवा में तन-मन से जुटी रहती। हमेशा मुस्कान बिखेरता चेहरा, लोगों के दुःख-सुख सुनना तथा सही विचार देना या अपने बूते के कार्य होने पर उसे पूरा कर देना, उन्होंने इसे अपना धर्म बना रखा था। इन्हें कोई बाल-गोपाल भी नहीं था। किन्तु इनके मातृत्व से सारा गाँव सिक्त रहता। नियम की पक्की थी। पाँच बजे सुबह उठकर बारहों महीने स्नान ध्यान तथा संध्या से निवृत होती। एक से दो घंटे की पूजा पाठ के बाद कार्य में दत्तचित होकर जुट जाती। चैबीसों घंटे में एक बार भोजन करतीं। लोग कहते बड़ी पुण्यात्मा ब्राह्मणी है। कुछ समृध आलोचक यह भी कहते- “न जाने किस जन्म के पाप का फल है कि भरी जवानी में यह दिन देखना पड़ा। सबका भला करने वाली स्वयं खुशियों को तरसती है।” किन्तु लाल काकी को इससे कोई मतलब नहीं था। वह अपनी धुन में मस्त थी। उनका कार्य था-गाँव समाज के सभी लोगों को बिना भेदभाव की सेवा करना तथा उन्हें खुश रखना। पता नहीं क्यों इतनी सेवाभाव वाली को भगवान ने इतना सारा दुख दिया। शादी विवाह हो या संस्कार हो या जन्माशौच। सभी जगह लाल काकी पूर्ण तत्परता से कार्यरत रहतीं। गाँव की बेटी बहू का बरसाइत पूजन हो या मधु श्रावणी कर्म हो ये सारे कार्य तो उनके बिना पूरा ही नहीं होता था। नई बहुओं से लेकर नई ब्याही बिना द्विरागमन की बेटियों निमंत्रण पहुँचाने वालों की उनके घर पर होड़ लगती थी तथा बहू-बेटियाँ पूजन सामग्री सजाए प्रतीक्षारत बैठी हुई रहती और उनकी इंतजार की घड़ियाँ सुबह से ढलकर मध्याह्न में बदलती जाती। अकेली लाल काकी मुस्काते चेहरे से पुरोहिताई करती रहती थीं। उनके चेहरे पर न थकान होती न मलिनता। वे सभी आमंत्रित घरों में श्रेणीबद्ध एवं क्रमबद्ध रूप से पहुँचती सभी बहू बेटियों के पास और वे उनके कार्य संपन्न करवाती थीं।

शिवरानी का उल्लास देखकर उनकी बहू गीता उधर निकल आयी। उसने काकी का पाँव छूकर प्रणाम किया और अपूर्वा को आवाज लगा दी। लाल काकी ने औपचारिकता का निर्वाह करते हुए कहा कि रहने दीजिए। बेटी को क्यों परेशान करती है। मैं यहीं से आशीष दे रही हूँ। “दूधों नहाओ पूतों फलो‘‘ किन्तु माँ की आवाज पर अपूर्वा वहाँ तक आ गयी थी। उसने लाल काकी के पाँव छुए और मुड़कर जाने को उद्यत हुई। उसके चेहरे पर एक अनचाही उदासी तैर रही थी। उसे अपनी सखी श्रुति के हाल ही में हुए विवाह का दृश्य याद आ रहा था। किन-किन कठिनाइयों से उसे गुजारा गया था। केवल संस्कारित करने या सामाजिक मर्यादा के निर्वाह के नाम पर झूठे ढकोसलों को विधि (रीति) कहकर उसे पूरा किया गया था।

लाल काकी ने जो आशीष के मंत्र पढ़े वह उसके पल्ले कुछ नहीं पड़ा। सच तो यह था कि वह विवाह के लिए मानसिक रूप से तैयार ही नहीं थी। किन्तु उसका विरोध दादी के उच्चस्वर व परिष्कृत आकांक्षाओं के सामने नगाड़खाने में तूती की आवाज सिद्ध हुई। आज के जमाने में बेटी जल्द अपने घर चली जाए तो माता-पिता ही नहीं परिवार वाले भी मुक्त हो जाने का सुख अनुभव करते हैं। बेटी तो समाज की होती है। सारे समाज के प्रमुख एक स्वर से विवाह की हामी भरते हैं। संकोचवश तथा अपनी मानसिक ऊहापोह के बीच मन में एक वितृष्णा एवं गहन सोच लिए कुछ देर अपूर्वा खड़ी रही। पुनः मुड़कर वापस जाने लगी तो देखा कि विद्यालय के दिनों की परम प्रिय सहेली चली आ रही है। क्षणभर के लिए वह प्रफुल्लित हो उठी। आगे बढ़कर इति के गले में बाहें डालते हुए ममत्व व लाड़ प्यार के साथ उसे अन्दर लिवा ले गयी। कुछ दूर मंथर गति से चलती दलान में पहुँचते ही दोनों ऐसे भागी मानो पिंजरे से निकला हुआ पंछी।

सीधे जाकर श्रुति के पास दोनों धड़ाम से गिरी। इति को देखकर श्रुति भी चहक उठी। “क्या बात है मेरी बन्नो कहाँ से भागी आ रही हो? क्या किसी ने छेड़छाड किया है? चेहरे से घबराहट तो वैसे ही टपक रही है?‘‘

अपूर्वा ने उत्तर दिया- “श्रुति क्या बोले जा रही है? इति ननद लगती है इसका यह अर्थ तो नहीं कि कुछ भी कहती चली जाओ, हम दोनों दादी-माँ तथा लाल काकी से पल्ले छुड़ाकर भागी चली आ रही है। ओफ्फो भगवान बचाये इन बड़ी-बूढ़ियों से। आशीर्वाद देना तो इनका जन्मसिद्ध अधिकार है। वहाँ भी ये अपना भोगा हुआ सच ही बाँटती है। चूल्हे चक्की और पति बच्चे परिवार...बस इतना कुछ ही इनके पास होता है।” वह धीमें किन्तु रोष-भरे स्वर में बोलती रही। 

इति ने कहा- “अपूर्वा बस कर ये रोना-धोना और आक्रोश दिखाना। रोने या कुछ बोलने भर से कोई फायदा नहीं। श्रुति की विवाह के समय हम दोनों सहेलियों ने इसे बिचारी समझ कर किस तरह दया की पात्रा माना था। हमने सोचा था कि एक तो हम जल्दी विवाह ही नहीं करेंगी। दूसरे अगर कहीं मजबूरीवश करेंगी तो इन दिखावे को नहीं स्वीकारेंगी। अब हमारी परीक्षा की घड़ी आ गई है। यही समय है जहाँ से हमें अपनी राह बदलनी है। बोल- है हिम्मत तुझमें नई राह बनाने की। एक नई क्रांति का सूत्रपात करने की।

अपूर्वा कुछ बोलती इससे पूर्व श्रुति कह बैठी- ‘‘तुम दोनों क्यों यह बेकार की बातें कर रही हो। विवाह बार-बार होता है क्या? यह जीवन का सबसे सुखद एवं दायित्व पूर्ण समझौता है। हमारे पूर्वजों ने बहुत सोच समझकर समाज में इस संस्कार का निर्माण किया है। यह केवल शारीरिक मेलभर नहीं है। यह नए जीवन की शुरुआत है। इसे पूर्ण निष्ठा एवं विश्वास से स्वीकारना चाहिए...।‘‘

इति उसकी बात काटते हुए बीच में ही बोल उठी- “बस-बस, बस करो दादी माँ की सगी। ये भाषण बहुत पुराने हो चुके हैं। हम स्त्रियों ने घर-परिवार को संवारने-सुधारने का ठेका ले रखा है। घर की लाज का संबोधन देकर एक चाह-दीवारी हमारे चारो ओर खींच दी जाती है और हमें ममता और स्नेह के परकोटे में बाँध दिया जाता है। हमें खुंटे की गाय की भाँति माता-पिता की देहरी से खोलकर सास-ससुर की देहरी पर बाँध दिया जाता है। रखवाली की डोर पति के हाथों में थमा दी जाती है। क्या खूब संस्कार है। हाँ..हाँ..हाँ।‘‘

अपूर्वा ने कहा- ‘‘श्रुति मैं घबराहट से भरी जा रही हूँ। मैं तुम्हारे विवाह के सभी रिवाज अपनी आँखों से देखी थी। विवाह के दिन तो तुम्हें पूरा जोकर ही बना दिया गया था। कई बड़ी बुढ़ियों ने अपने ज्ञान का रामायण बधारना आरंभ कर दिया था। सर महोदय यानी हमारी जीजाजी को तो केवल इतनी सजा मिलती थी कि उन्हें उस ठंडी युक्त रात में नंगे बदन रहना पड़ा था। उस पर तुर्रा यह कि कपड़े उतारने का जुर्माना तुम्हारे पिता जी ने भरा था। दहेज की लंबी सूची एवं इसकी प्राप्ति से उन लोगों का पेट नहीं भरा। और तो और। उन्हें संगिनी नहीं चाहिए। वे विवाह करके जैसे तुम्हारे खानदान पर एहसान कर रहे थे। तुम सारे दिन बिना खाए पिए बैठी रही। वे मोटर में सवार होकर गाजे.बाजे एवं बारातियों की भीड़ में पधारे। यहाँ सारी औरतों ने तुम्हें धूल फाँकते हुए कच्ची सड़क से ले जा कर और महुए के फेरे लगवाएँ। मजदूरों एवं स्त्रियों की भीड़ के साथ कुम्हार के घर का चक्कर लगवाया।

भूखे पेट पैदल चलना ऊपर से धूल-धक्कड़ झेलना यह तो कुछ नहीं...। सारे गाँव जब बारात की शोभा एवं छटा निहार रहे, उस समय तुम्हें एक कोने में बिठा दिया गया और तुम्हें सुहाग की वृद्धि के लिए गौरी पूजन करने का काम सौंपा गया। कन्यादान करते समय स्त्रियाँ रो-रोकर बिछुड़ने का क्षोभ दरसा रही थी तब वे कौन सा गीत-मंगल गा रही थीं? “पिताजी मत करो शादी उमर बारह बरस की हैं‘‘ साथ ही उनका बड़प्पन बखाना जा रहा था- ‘‘पूरब खोजलहूँ बेटी पश्चिम खोजलहूँ खोजिलेली मगह मुंगेरहे। तेहरो जुगुत बेटी वरहु न भेटल आबे बेटी रहती कुमार हे। इस तरह की दैन्य विनती दर्शायी गयी। वह रुककर आगे बोली ‘‘ हाथ पकड़ो नाथ अब तो मैं तुम्हारी हो चुकी।” यहाँ तक ही नहीं आगे बढे सिन्दूर दान के बाद क्या गाना गाया था-“बिसरु हे सीता बेटी बाप जनक रिषि समरु सिया ना ससुर राजा दशरथ‘‘ क्या सीख है? बेटी सारे अस्तित्व को नकार कर नए चोले को धारण कर लो और... भूल जाओ सब कुछ।” श्रुति बीच में ही बात काट कर बोली-“यह क्या सब बेकार की बातें बोले जा रही हो? हमारी भूमि अपने संस्कारों तथा रिवाजों के लिए सदियों से चर्चित एवं प्रशंसित रही है। यहाँ की नारियों ने त्याग बलिदान के कई ऐतिहासिक अध्याय लिखे हैं। यह राम और सीता की भूमि है। जानकी को स्वयं वरण करने की छूट दी गयी। कन्या की इच्छा से वरण करने की प्रथा हमारे प्राचीन संस्कार हैं। द्रौपदी से लेकर सुभद्रा तक यदि हम देखें तो भाई ने बहन की इच्छापूर्ति के लिए पिता या परिवार की आज्ञा भुलाकर बहन का साथ दिया। अनाचार और अनैतिकता से बचाने के लिए ही तो हमारे यहाँ विवाह व्यवस्था जैसी संस्था का निर्माण किया गया है।‘‘

इति को और कुछ सुनने की इच्छा नहीं हुई। उसने कहा- “किस जानकी की बात करती हो? राजा जनक के शर्त को क्यों भूल गई। राम के स्थान पर रावण धनुष तोड़ता तो उसे रावण को वरण करनी पड़ती। वहाँ यही होती सीता की स्वयंवरण की इच्छा। क्या शर्त रखी गई जो धनुष तोड़ेगा वही वरमाला का अधिकारी बनेगा। इसमें स्वेच्छा कहाँ बाकी रही? मुझे जरा बताओ!‘‘ अपूर्वा बोल उठी- “अच्छा श्रुति यह बताओ कि तुम्हारे 

मधुश्रावणी के दिन जो कुछ हुआ वह सही, मानवीय था? श्रुति ने मुस्काराते हुए उत्तर दिया। ‘‘उसमें क्या हालत थी। इस वैवाहिक संस्कार की तो हर नववधू प्रतीक्षा करती है। कितनी रौनक होती है। मधुश्रावणी हो। भेजागरा हो या संध्या पूजन हो। विवाह के पहले वर्ष जहाँ पिया मिलन का सुहाना नशा तन-मन पर छाया होता है, वही इन संस्कारों के द्वारा दो मन अटूट बंधन में बंधते हैं। अपने प्रिय की सान्निध्य की उत्सुकता का प्रमाण प्राप्त करना भी उल्लासपूर्ण होता है। टेमी विधि के माध्यम से यही तो होता है। पान के पत्तों के बीच आग की गर्मी, शरीर पर उभरते फफोले, यह सब यही तो कहते हैं-लंबे सुहाग-सुख-दुख के बीच में प्रेम के बंधन की दृढ़ता, अपनत्व, सहनशीलता और प्राप्ति का अधिकारिक सुख।

इति बोल उठी- “बस करो यह दर्शन। उबासी आती है। बड़ी-बूढियों सा भाषण देने में पटु हो गई हो। तुम्हारे क्या कहने। शरीर को तेल या घी में सने बत्तियों से दागी जाए और हम इसे सुहाग की जाँच समझकर आनंदित हो आखिर क्यों? सारे रीति स्त्रियों के लिए ही क्यों बनाये गए हैं? पुरुष हर क्षण आजाद बना रहता है। उसके निर्भर है कि वह पारिवारिक बंधन माने या नहीं। उसको जो अच्छा लगे करे। जब चाहे प्यार करें या दत्कारे। हम पालतू की तरह पूँछ हिलाती हुई उसके सामने घूमती रहें और उसे चाटती रहें। उसे प्यार की बरसात में भिगोती रहें। कन्यादान करने वाले हमारे पिता सर झुकाए जी हुजूरी करते रहे। जब कि देने वाला लेने वाले से बड़ा होता है। किन्तु यहाँ सब उल्टा है। ऐसा क्यों? इतना ही नहीं अन्यरीति की भी दाद देनी पड़ती है, सब कुछ लेने वाला विदाई के समय रिवाजों में बंध कर विदाई की बेला में विधिकारी के पूछने पर कि “केकर घर भरै छी?‘‘ वर उत्तर देता है- “सास-ससुर के” दोनों का विवाद सुनकर श्रुति बोली- “बन्नो ! अपूर्वा को क्यों भड़का रही हो? अपने पर आये तो यह करना। तब तुम्हारे पापा और भैय्या का नाम ऊँचा होगा। सारे गाँव में गुणगान होगा। लोग कहेंगे- ‘‘माडर्न मास्टरनी समाज 

सुधार कर रही है। नारी की उन्नति पर भाषण दे रही है। ध्यान से सुनो, क्या गाया जा रहा है- बताओ इसे क्या मानती हो? ध्यान देने पर सुना गया- कई कंठ स्वर से एक साथ ये स्वर निकल रहे थे- “हम नहीं आजु रहब एहि आँगन जौ बूढ़ होयता जमाई गे माईः पोथी पतरा सेहो छिनी लेबनि...जौ कुछ बजता नारद ब्राह्मण दाढि धरि देवनि घिसियाय गे माई।”

अपूर्वा ने मुस्कुराते हुए कहा- “दीदी यह तो हमारी स्थिति और दयनीयता का खुला चिट्ठा है।‘‘

श्रुति ने पूछा-“कैसे?”

अपूर्वा ने कहा- ‘‘बाल-विवाह तो हमारी दुर्नियति है ही। बूढ़ों के साथ विवाह कर देना भी अपने पास आम प्रचलन था। माँ विरोध करती है। पिता विरोध पर कान नहीं धरते। हताश माँ पति के द्वारा अनसुना करने पर अगुआ के प्रति अपना सारा रोष दिखाती है। यह रीति कहीं भी, कभी भी हमें मजबूत तो नहीं बनाती है...कुछ रुककर ‘‘दीदी हमसे कोई यह क्यों नहीं पूछता कि हम विवाह करना चाहती है या नहीं, अगर स्वयंवर की प्रक्रिया मान भी लिया जाए तब भी इसे थोपने या राजनीतिक समझौते की गंध ही मिलती है। कालान्तर में वह विलीन हो गया। 

सभा गाछी या सौराष्ट्र इस की परिकल्पना का विकृत रूप ही हमारे सामने प्रस्तुत है। यहाँ भी स्त्रियाँ वस्तु रूप में प्रयुक्त है। वे मात्र लेन-देन की ही आधार है। पुरुष की क्षमता-अक्षमता ही उभर कर सामने आती है। सामाजिक प्रक्रिया को देखूं तो विवाह की योग्यता के लिए हमारा कद ही पैमाना होता है। क्या यह ठीक है? फिर चाहे अनचाहे अप्रत्यक्ष रूप से विवाह की ओट में हमें शारीरिक शोषण का शिकर होकर कच्ची उम्र में ही माँ बननी पड़ती है। सारी आकांक्षाएँ घुटकर रह जाती हैं, आप अपने को ही लीजिए न। आप कल तक हमारी भाषा बोलती थी, किन्तु आज हमें सीख दे रही हैं।’’

श्रुति जल्दी से बोल उठी- ‘‘अपूर्वा विवाह अंजान पुरुष के संसर्ग में आने से भी भयभीत थी। सोचती थी, कैसे होंगे? कैसे कटेगी? और न जाने क्या-क्या। किन्तु चतुर्थी के दिन दुबारे सिन्दूर दान व प्रत्यक्ष दर्शन के क्षणों में उत्पन्न मन में नैसर्गिक स्नेह का स्रोत सारे संदेह का विनाशक सिद्ध हुआ। तब समझ में आया कि प्रकृति एवं पुरुष के इसी प्रेम से विश्वास का संचार होता है। माया, जगत एवं जीव का मूल प्रेम और मिलन है। प्रेम सृष्टि का आधार है। विश्व का संचार है।’’

यही सृष्टि के विकास का राज है। हम एक अणुमात्र हैं। हमारा जन्म योगदान के लिए है। इसलिए ही पति-पत्नी को अर्धांगिनी, सहधर्मिणी एवं सहगामिनी का नाम दिया गया है। मंडन मिश्र से लेकर आयाची मिश्र तक ने इसे सत्य सिद्ध किया है। भारती एवं गार्गी इतिहास परक सत्य हैं। बोलने या क्षोभ व्यक्त करने से कुछ नहीं होगा। जो कुछ होगा सहिष्णुता एवं सद्भाव से होगा। हम सदा शीर्षस्थ थीं और रहेंगी। हम मातृरूपा है। ऐसे में माँगना भी क्या उचित है, बिना माँगे ही जब सब मिलता हो।

अपूर्वा धीरे-धीरे बात समझने का यत्न कर रही थी। श्रुति ने उसे समझाने के लिए रिश्तों में मिठास की बातें की तो स्वयमेव वह कल्पना में खोने लगी। इति ने विरोध के तेवर दिखलाते हुए विभिन्न विधि व्यवहार की आलोचना करनी चाही, किन्तु आँगन में शोर गुल बढ़ने लगा। अपूर्वा की माँ कमरे में आ गयी। अन्य कामों से निवृत्त होकर लाल काकी भी वहाँ आ पहुँची। उन्होंने कहा- “बहू विधिकारी कौन है? बुलाओ ना। अभी तक लड़की फैशन में चूर बैठी है। ये नए जमाने की छोरियाँ, दो अक्षर लिख-पढ़ क्या लेती हैं, बाँकी सारे काम-धाम भूल जाती है, दो-दो सखियाँ इसे घेरे बैठी है। इन्हें न तो कनियाँ को कनिया को रूप देने की होश है और नहीं इसे (दुल्हन) को सजाने का होश है। न किसी और काम की चिन्ता है। बस बैठी-बैठी चप्पड़-चप्पड़ कर रही है। उठो छोरियों, विधि व्यवहार होने दो। बाद में करती रहना हँसी-ठिठोली।‘‘

इतने में दरवाजे पर श्रुति के ओझा जी आकर खड़े हो गए थे। मीठी नजरों से श्रुति को देखते हुए उन्होंने सूचना दी कि वर एवं बाराती मंदिर पर पधार चुके हैं। अपूर्वा ने धीरे से पलकें उठाकर देखा तो दोनों को नयनों की अनबूझ भाषा में खोए अपने आस पास से बेखबर किसी और ही दुनिया में डूबे हुए पाया। शब्द स्वतः उनके मुख से झर रह थे। अपूर्वा की सारी कटुता स्वयमेव घुलने लगी। संस्कार अपना स्थान प्राप्त करने लगे।

क्रम आगे बढ़ा। समय गतिशील, चक्र घूमता हुआ, धुरी पर कसे रिश्ते की डोर। अगम्य से गम्य। चर से अचर। चल से अचल। अनास्था से आस्था। भाषा से मूक परिणिति।

विधिकारी ने यंत्रवत् परंपरागत रूप से कन्यादान होने वाले कमरे में विधि व्यवहार से लेकर वर द्वारा कन्या निरीक्षण एवं साली द्वारा दधि लेपन जैसे हास्य-विलास का कार्यक्रम पूर्ण करवाया। तत्पश्चात् वधू अपूर्वा को वर अजय की अंगुली पकड़ा दी गई। अन्य स्त्रियों व पारिवारिक पुरुषों के झुंड एवं झुरमुट के बीच छोटे-मोटे विधि व्यवहारों के माध्यम से आम के पल्लव में चावल भर कर कलाई पर बंधन तक की बातें समाहृत हुई। पाणिग्रहण संस्कार वेदी पर हवन कार्य के बाद पतिगृह का वस्त्र धारण करने एवं सिन्दुरदान कार्यक्रम के अंतर्गत कई छोटे-मोटे रिवाजों का नियमन हुआ। विविध रूपों में श्रृंगार का चित्रण, मान-मनाऊन और मिलन का गीतात्मक दृश्य-घुरि सुतु-घुरि सुतु-की प्रस्तुति।

विदा की वेला सामने आ खड़ी हुई। वर प्रसन्न हुआ वधू पाकर। बारात प्रसन्न हुए उत्तम व्यंजन व सत्कार पूर्वक भोज खाकर। किन्तु कन्यागत साथ छूटने के दुख से विह्वल-कातर-रोते सिसकते-गीत के बोल में गूंज उठे। बिछुड़ने एवं बिलगाव तथा पराए होने का दर्द। समदाउन के शब्द में ध्वनित स्वरः- “वर रे जतन सँय धिया हम पोसलहूँ सेहो विदेशिया नेने जाए।” रूदन के बीच प्रश्नोत्तर करती विधिकारी- वर की बाहों में सिमटी वधू, घर की कन्या के अंजूरी से धान गिराती हुई- वर प्रश्नों के उत्तर देता हुआ- विधिकारी प्रश्न पूछती हुई “केकर घर भरइ छी?” वर का उत्तर- “सास ससुर के‘‘ विधिकारी का प्रश्न तीन बार “केकर घर भरई छी-‘‘ वर का उत्तर- “सास ससुर के।” अंतिम विधि घर भरौनी का कार्य पूर्ण होते ही अपूर्वा अपनी विदाई कार्यक्रम पूरा होने के साथ पति की गाड़ी में बैठकर विदा की गई।

सन् 1998 में उर्दू की कहानीकार पद्मश्री जमीला बानो, मुनिंद्र जी 
एवं प्रो. राम निरंजन पाण्डेय के साथ डॉ. अहिल्या मिश्र

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