डॉ. अहिल्या मिश्र का रचना संसार (प्रकाशित पुस्तकों में से चुनीं कविताएँ, निबंध, लेख, कहानियाँ एवं समीक्षाएँ)

 


पत्थर-पत्थर-पत्थर....डॉ. अहिल्या मिश्र (1989)


पत्थर

पत्थर तो हूँ मैं

किन्तु वो नहीं जिसे 

बारूद से उड़ा दिया जाय 

तो वह दीर्घ.... 

आर्तनाद के साथ

बदले की भावना से भरा 

तुम्हारा सर फोड़ने

वापस द्रुत वेग पहुँच जाये।

मैं मील का पत्थर

असीमितता ही जिसकी

एकमात्र पहचान होती है।

जिसका न दोस्त / न दुश्मन 

नहीं कोई मेहमान होता है।

अपने स्थान पर 

अडिग, अचल

किन्तु गति का 

विस्तृत / संकलित 

दिनमान होता है।


बंजर का आर्तनाद 

हवाओं की सनसाहट 

ने चिथड़ों को भी 

उड़ा कर साथ कर लिया 

और सर्द ठिठुरन 

जीने को अकेले उसे 

छोड़ दिया। 

पहले ही क्या कम थे ? 

एहसास ! 

बादलों के 

सफेद रेशे में भी 

इतना साहस नहीं कि 

वह झुक कर 

जर भूमि को 

मैं और उसकी बेबस 

कोख को आबाद करें। 

वह 

भी तो हमेशा 

पवन-रथ पर सवार 

तेज रफ्तार से दौड़ता 

चुपचाप चला जाता है। 

इस सूने.... 

सूनेपन के डर से भाग कर।

 

काश! 

कि कोई एकबार 

गरजते समन्दर को ही 

क्षण भर को पुकार पाता

और उसके दावे को कहीं 

सही होने में सहायक होता 

और बंजर का आर्तनाद 

मिटा पाना 

धरती के कोख में 

एक दूब ही पनपा कर 

गहरे बसे मन के 

बाँझपन का एकाकी भाव 

मिटा पाता। 

क्या ऐसा कोई 

एहसास पालने वाला

मन आसानी से

पा सकते ।
****


पथिका

चल उठ पथिका ! तुझे जाना दूर है। 

इस क्षण ही थककर होता क्यों चूर है ?

मग में अगर आये विजन 

क्षण भर भी न सोच कि उतारूँ थकन 

चाहे बलखाती नदियाँ बाँधे या 

बाँधने आये नीर की थिरकन 

ठान ले यह बात मन में 

चलते हुए ही धो लूँ तपन 

जीवन की दुविधा में वितृष्णा का राज है 

चल उठ पथिका ! तुझे जाना दूर है। 

चाँद गर संकेत दे तो चाँदनी भी ताप ले 

रवि गर आसक्त करे तो धूप को भी माप ले 

सब्र गर बगावत करे तो उम्मीद को भी साथ ले 

आशा गर साथ छोड़े तो निराशा को ठोकर मार दे 

हवाओं की सनसनाहट में अब नयी सरूर है 

चल उठ पथिका ! तुझे जाना दूर है। 

रास्ते में उतँग शृंग बाधक बने तो 

नदियों की परिभाषा सीख 

या झरनों-सा चीर कलेजा ले 

अपना पथ बीन (चुनना) 

चीखती चिल्लाती पवन जब 

झोंके आँखों में धूल 

अविचल मंथर गति से

बढ़ते जाने में ही तेरी साख है

चल उठ पथिका! तुझे जाना दूर है।

रुकना नहीं, झुकना नहीं,

डिगना नहीं, टूटना नहीं,

अविराम चलते जाना ही,

तेरे जीवन का लक्ष्य है।

रोकना पग-पग पर

संसार का पुराना दस्तूर है।

चल उठ पथिका! तुझे जाना दूर है।।

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