चिन्तनशील मनीषी... डाॅ. अहिल्या मिश्र

 मंतव्य


डाॅ. रानू मुखर्जी, ए.303 दर्शनम सेंट्रल पार्क, परशुराम नगर, सयाजीगोंग, बरोदा 390020 (गुजरात), 
मो. 919825788781, ईमेल: ranumukharji@yahoo.co.in

साहित्य  की अनेकानेक  विधाओं में आज हमारी विरासत, संस्कृति, जीवन मूल्य  सुरक्षित है। डाॅ. अहिल्या मिश्र जी जैसे संघर्षशील व्यक्ति के जीवन की निष्ठा, सामाजिक जीवन के उदात्त संकल्प, समाज के दमित नारी वर्ग के उत्थान की प्रतिज्ञा और विश्वजनीन सांस्कृतिक आदर्शों की प्रस्तावना का कार्य उनकी रचनाओं के माध्यम से होता है। एक संघर्षशील व्यक्ति का जीवन अनेक मनचाही-अनचाही घटनाओं का साक्षी है। उन्होंने इतना कुछ देखा है कि इतिहास को भी उनका गवाह होना पड़ता है। 

भारतीय सांस्कृतिक चेतना, श्रम के महत्व की पक्षधर, केवल हैदराबाद ही नहीं वरन राष्ट्रीय स्तर पर जानी जानेवाली एक साहित्यकार, कथाकार, कवयित्री, नाटककार, निबंधकार, समीक्षक, आलोचक, भाषा विशेषज्ञ हैं। भारतीय नारी अपनी जिजीविषा का परिचय हर क्षेत्र  में देती रही है। समायोजन की समस्या का सामना, संघर्ष का सामना, उसे हर क्षेत्र में करना पड़ा, पर अपने कर्मक्षेत्र में बढ़ने की अदम्य लालसा पर डाॅ. अहिल्या मिश्र ने आंच न आने दी। समाज सेवा, नारी उत्थानार्थ कार्य तथा साहित्य साधना में अपना जीवन गुजारने वाली डाॅ. अहिल्या मिश्र जी की साहित्य साधना ने साहित्य के माध्यम से अनुभव व अभिव्यक्ति को नई धार दी है। जीवन के समस्त उतार चढ़ाव व बदलते  परिवेश को आत्मसात कर नए नए आयामो के झंडे गाडे़ हैं।

डाॅ. अहिल्या जी में गहन ज्ञान है। उनकी अनूठी चेतनाशक्ति एवं अद्वितीय प्रतिभा का हर व्यक्ति कायल है। उन्होंने साहित्य की हर विधा पर अपनी कलम चलाई है। साथ ही साथ हिन्दी के उन्नयन और अहिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी के विकास और प्रचार प्रसार में उल्लेखनीय कार्य किएं हैं। सहकारी  कार्यालयों में राजभाषा हिन्दी के श्रेष्ठ कार्य निष्पादन के लिए उन्होने राज भाषा के नीति, प्रयोजनमूलक हिन्दी, पत्राचार, पारिभाषिक शब्दावली व टिप्पणी आदि विषयों पर महत्वपूर्ण कार्य किया।

उनके व्यक्तित्व में एक ऐसी सहज संवेदना एवं ऐसी आत्मियता है, जो प्रत्येक साहित्यकार का उत्तराधिकार होने पर भी उसे प्राप्त नहीं होता है। अपनी गम्भीर मर्मस्पर्शी दृष्टी से अहिल्या जी ने जीवन के गंभीर सत्यों, मूल्यों का अनुसंधान किया है और सहज सफलता और आत्मियता से इसे दूर-दूर तक पहुँचया है।

शिक्षा और साहित्य में अहिल्या जी ने नारी की सहभागिता को विशेष महत्व दिया है। उनका  व्यक्तित्व उनकी रचनाओं में प्रतिबिंबित होता है। जैसा चेखव ने एकबार कहा था कि कुछ लोग जीवन में बहुत भोगते हैं- ऐसे लोग बाहर से शांत और हंसमुख दिखाई देते हैं। वे अपनी पीड़ा दूसरों पर थोपते नहीं क्योकि उनकी शालीनता उन्हे पीढा प्रदर्शन से रोकती है। अहिल्या मिश्र जी का व्यक्तित्व कुछ ऐसा ही है। जीवन की चेतना और धरती की करूणा उनमंे कूट काटकर भरी है। प्रभावशाली व्यक्तित्व के कारण न जाने कितने लेखक, कवि, समाज-सुधारकों ने उनसे प्रेरणा पाई है। उनमें मानवीय उदारता से उपजी एक सहज सात्विक आस्था है। मन में तूफान उठने पर भी चेहरे पर प्रतिबिंबित नहीं होने देती हैं।

शिक्षा को जीवन का अभिन्न अंग मानने के कारण आजीवन शिक्षा के क्षेत्र में उन्नती और साक्षरता-अभियान में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती हैं। पुत्र को अच्छी शिक्षा देने के लिए पति राजदेव मिश्र को साथ लेकर सीमित पूंजी के साथ शहर आ गई। शहर का जीवन उनके के लिए आसान नहीं था। अथक परिश्रम किया दोनो ने। हर क्षेत्र में संघर्ष सार्वजनिक शिक्षा, नौकरी, लेखन, नारी की शिक्षा, समाज सुधार के लिए निरंतर अहिल्या जी ने संघर्ष किया। 

नारी के प्रति अत्यंत संवेदनशील हैं। उनके शब्दों में,‘‘ नारी को अपनी पहचान बनानी चाहिए।‘‘ अहिल्या जी नारी को नर की सहचरी, सहभागी और अर्धांगिनी कहती हैं। उनके संपर्क में आनेवाली हर जरूरतमंद स्त्री को उन्होंने मदद किया। समाज में नारियों का विकास कराते हुए एवं उन्हे प्रतिष्ठा प्राप्त करने का अवसर उपलब्ध कराते हुए अक्सर देखा है। उनके अनुसार नर-नारी दोनों को एक दूसरे के गुणों की अवहेलना न कर उन्हे  सम्मान  करना चाहिए, जिससे सभ्य समाज का स्वस्थ्य तंदुरूस्त रूप बन सके। 

उनका संपूर्ण व्यक्तित्व उनकी रचनाओं की तरह मनोहर, उदबोधक एवं प्रेरणादायक है। उनके व्यक्तित्व की विशेषता रही कि अनेक विचित्र एवं जटिल समस्याओं से घिरे होने पर भी संघर्ष के लिए तत्पर स्थिर एवं निष्कंप दीप शीखा की भांति निरंतर जलती रहती हैं। कामकाजी महिलाओं का दायित्व दुहरा हो जाता है। पारिवारिक दायित्व के साथ-साथ उन्हे अपने कर्म क्षेत्र का दायित्व भी निर्वाह करना पड़ता है। परिणामस्वरूप उनकी व्यस्ता बढ़ जाती है। स्त्री ने कामकाजी होकर अपने दायित्वपूर्ति के लिए भूमिका बदली है उसने घर और बाहर दोनों स्थानों पर संतुलन बिठाने की कोशिश की है। आज स्त्री इसी दोहरी नैतिकता को चुनौती दे रही है और अपने लिए जगह बना रही है फिर भी योग्य कामकाजी स्त्री से घर के दायित्व छुटा नहीं। अहिल्या मिश्र जी इसका एक मात्र उदाहरण हैं और प्रेरणास्रोत हैं। 

लेह में मैं पहली बार अहिल्या मिश्रा जी से मिली तब मेरे अचरज का ठीकाना न रहा। मेरा नाम सुनते ही मेरी कविता ‘‘मैं भी बन सकती हूँ सीता पर नहीं‘ ‘की दो प्रमुख लाईनें सुना दी। मेरा सर गर्व से तन गया। उनका कहना ‘‘डाॅ. रानू मुखर्जी मैं आपको आपकी इस कविता से पहचानती हूँ।‘‘ उनके सामने मैं नत मस्तक हो गई। किसी पत्रिका में मेरी इस कविता को पढ़ा था और उनको मेरी यह कविता छू गई थी। इतनी बड़ी शख्सियत, विद्वान, पूरी दुनिया घुमती है, लाखों लोगों से मिलती है उनको मेरा नाम भी याद है और कविता भी याद है। मैं अभिभूत हो गई। झट से उनका आशीर्वाद ले लिया। ऐसी हैं डाॅ. अहिल्या मिश्र जी सभी को अहसास कराती रहती हैं कि आपके अंदर भी प्रतिभा है अपनी प्रतिभा को विकसित करो। 

नारी शिक्षा की सशक्त पक्षधर हैं। ‘‘नवजीवन बालिका  विद्यालय‘‘ जहाँ केवल लड़कियों को ही हिन्दी के माध्यम से शिक्षा दी जाती थी वहाँ लड़कियों के उत्थान में लग गई। उनकी शिक्षा के लिए तन-मन-धन से जुट गई। अनगिनत अभावग्रस्त अशिक्षित लड़कियों को शिक्षित किया। केवल साक्षर होने के लिए नाम दर्ज कर दिया जाता था अहिल्या मिश्र जी ने इन परिस्थितियों का डटकर विरोध किया। माता-पिता को बुलाकर शिक्षा के महत्व को समझाया कि शिक्षा भी उतनी ही आवश्यक है जितना कि विवाह। जो लड़कियाँ वहाँ पढ़ने आती थी उनकी जिम्मेदारी को भी उन्हांेने उठाया। गरीबी के कारण जिन लड़कियों का विवाह बचपन में ही कर दिया जाता था वो अब पढ़ लिखकर नौकरी करने के सपने देखने लगी ? ‘‘नवजीवन वोकेशनल अकादमी‘‘ की निर्देशिका के पद पर होने के कारण शिक्षा के उपरांत सिलाई, बुनाई, कम्प्युटर, टाइपिंग, एकाउंट आदि की शिक्षा भी दिलाने लगी। उनकी मदद से अनेक लड़कियाँ अपने पद पर खड़ी होने लगी और उनके जीवन में बदलाव आने लगा। 

हैदराबाद में हिन्दी कम बोली जाती है। अधिकांशतः तेलगु, उर्दू और अंग्रेजी भाषा का ही प्रयोग होता है। अभिव्यक्ति की समस्या से जूझती अहिल्या जी और अन्य हिन्दी प्रेमियों ने मिलकर  हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार का बीड़ा उठाया। उनका कहना है, ‘‘आपकी भाषा आपका स्वाभिमान है। प्रत्येक मनुष्य अपनी भाषा के माध्यम से अपनी पहचान स्थापित करता है। मातृभाषा और राष्ट्रभाषा हमारी अस्मिता एवं पहचान है।‘‘ दक्षिण में हिन्दी के विकास में इनका बहुत बडा योगदान है। हिन्दी प्रचार सभा के माध्यम से हिन्दी शिक्षा को बढ़ावा दिया। 

नारी को स्वतंत्र और आत्मविश्वास आत्मनिर्भर देखने के लिए उन्होंने अथक प्रयास किया। नारी मुक्ति और सशक्तिकरण के लिए अनेक सामाजिक संगठनों से जुड़ी। हिन्दी शिक्षा को बढ़ावा देने के साथ-साथ स्वयं भी लेखन प्रक्रिया से जुड़ गई। लेखक की कलम से सर्जित समाज की बेबाक सच्चाई को पाठक वर्ग तक पहुंचाने का एक मात्र माध्यम सक्रिय रचनात्मकता। उनके शब्दों में ‘‘साहित्यकार के असली साहित्य लेखन की पहचान सत्तापक्ष के गुणों के अवगाहन से होता है। इसमें लोक कामना का समावेश होता है।‘‘                                         

रचनाकार स्वयं को अपनी रचनाओं के माध्यम से अभिव्यक्त करता है। अगर डाॅ. अहिल्या मिश्र जी का साहित्यिक  मूल्यांकन करना है तो उनकी रचनाओं से गुज़रना होगा। उनके 2 उपन्यास, 3 कहानी संग्रह, 5 कविता संग्रह, 5 निबंध संग्रह, 1 नाटक संग्रह, 1 संस्मरण और एक समीक्षा संग्रह हैं जो उनकी अंदर की आवाज है। यहाँ मैं उनकी कहानी संग्रह ‘‘फांस की काई‘‘ की कुछेक कहानियों की चर्चा करूंगी जो मानवीय संवेदना और स्त्री सशक्तिकरण के महत्व को उभारती है। अहिल्या जी के शब्दों में ‘‘किसी कहानी की क्षमता यह होनी चाहिए कि वह पाठक को कितना अपने से जोड़कर पाती है। उसके नित्य प्रतिदिन के जीवन से हटकर किस प्रकार कुछ क्षणों के लिए एक अलग दुनिया की सैर करवाती है। कहानी स्वकेन्द्र से हटकर परामुख की ओर उसकी विचारधारा को मोड़ पाती है तो मनुष्य को सर्वहारा के दुःख दर्द से जोड़ पाएगी। अनुभव के संसार का विस्तार कर पाएगी। यह लेखक के कहानी कथन एवं लेखन की कला का कमाल होता है।‘‘ उक्त विचार लेखन के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और निष्ठा को दर्शाता है। ‘‘फाँस की काई‘‘ संग्रह की शीर्षक कहानी है नारी के संघर्ष, परिवार के प्रति उसकी प्रतिबद्धता और पुरुष के प्रतारण को चित्रित करता है।

सुविधा और प्रीतम के आस-पास कहानी घुमती रहती है। आँखो में अनगिनत सपने संजोकर सुविधा रोजगार हीन पति के घर में पदार्पण करती है। कोशिश करने पर भी प्रीतम को नौकरी नहीं मिल पाती है। माता-पिता की आर्थिक सहायता से उनका परिवार चल रहा था। प्रीतम नौकरी के लिए लगातार संघर्ष  कर रहा था। ऐसे में  नए मेहमान के आने की सूचना मिली। प्रीतम ने अब दूसरे शहर में जाकर भाग्य आजमाने की सोचने लगता है। पहले तो सुविधा आनाकानी करती रही पर बाद में उसे बाहर जाकर नौकरी करने में सहमत हो गई। प्रीतम दूसरे शहर में जाकर नौकरी ढूंढ लेता है और आफिस की सहकर्मी  माया के प्रेमजाल में बंध जाता है। एक पुत्र को जन्म देकर 

सुविधा अपने बेटे को लेकर प्रीतम के पास शहर चली आती है जिससे वह बहुत ही नाराज हो जाता है। पति के बदले  स्वभाव को देखकर सुविधा सबकुछ समझ जाती है। पर बेटे के भविष्य को लेकर चिंतित रहती धन। माया नामक कील सुविधा के जीवन में धँस गई थी। बेटा नितिन अबतक स्कूल जाने लगा था। अब प्रीतम के स्वतंत्र जीवन पर अंकुश लगाने के कारण वह सुविधा से अलग होने के लिए वकील से मिलकर तलाक का पेपर तैयार कर  सुविधा को भिजवा दिया। अदालत के निर्णय ने सुविधा को बेहोश कर दिया। उसने एक स्वर्ग बसाने की कल्पना की थी पर...। 

‘‘अपराजित‘‘ कहानी भी नारी की विडम्बना की व्यथा कथा है। दादा-दादी की छत्र छाया में पला बढ़ा जतिन लगातार विवाह के लिए आनाकानी कर रहा था। बचपन में ही जतिन की माँ गुजर गई थी। उसके पिता ने व्यापार के क्षेत्र में ढे़र सारा धन कमाया और एक हवाई दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई। दादा वृद्ध हो गए थे और जतिन का विवाह करके अपने दायित्व से मुक्त हो जाना चाहते थे। पर जतिन था कि लगातार आनाकानी कर रहा था। उनकी नजर में उनके मित्र की प्रपौत्री रंजीता जतिन के लिए सर्वथा योग्य थी। उन्होंने जतिन के मित्रों से उसे विवाह के लिए राजी करने के लिए कहा। दोस्तों ने जतिन को मुजरे में जाने के लिए तैयार कर लिया। वहाँ चंपा नाम की एक मुजरेवाली से जतिन को लगाव हो जाता है। चंपा को कुछ समय के लिए वो अपने दूर स्थित एक बंगले में ले आया, जहाँ चंपा ने अपना दिल खोला कि अपने अपाहिज पति के लिए वो इस राह पर आई है। पति की नौकरी समाप्ति ने उसे बेसहारा और बेवश बना दिया। जहाँ भी काम करने जाती लोलुप नजरें उसका पीछा करती रहती। घर  में पति की गालियाँ और क्रूर व्यवहार तथा बाहर शोषण। सबसे चंपा बेचैन हो गई। लीलाबाई से मिलकर विधिवत नृत्य की शिक्षा लेकर इस राह पर आई। पति की मृत्यु के पश्चात माँ, बहन, दोस्त, बहन, सखी सब कुछ अब लीलाबाई है। जतिन उसकी साफगोई से बहुत प्रभावित हुआ।  उसने उसे कहा- ‘‘मैं इस पवित्र रिश्ते को बचाने के लिए हर कुर्बानी देने को तैयार हूँ। मैं तुम्हें इस नर्क से निकालकर एक सम्मान जनक नौकरी की व्यवस्था कर दूंगा। यह सब तुम्हारी इच्छा पर निर्भर होगा।‘‘ वह अपराजित ही रहा। समाज में नारी के संघर्ष और यातना को बखूबी व्यक्त किया है अहिल्या जी ने।

‘‘वह बूढ़ा बरगद‘‘ एक भिन्न विषय को लेकर लिखी गई है। एक उद्देश्य को लेकर चलती है और एक संदेश देती हुई अंत की ओर बढ़ती है। अगर नींव मजबूत न हो तो वृक्ष हो या मानव कभी भी धराशायी हो सकता है। जोरों की आँधी आई और कहर बरप गया। गाँव के चैपाल के निकट का सबसे पुराना सात धुर में फैला वह बरगद का पेड़ तो जड़ समेत ही उखड़कर धराशायी हो गया। इतनी जोर की आवाज आई कि घरों में बैठे लोग चैंक उठे। लोग सोचने लगे शायद यह दैवी प्रकोप था। यह सारे गाँव की क्षति थी। सामूहिक क्षति। मानों वह बरगद नहीं गिरा प्रत्येक  घर का एक बूढ़ा गिर गया। सभी घर मातमी सन्नाटे में घिर गए। मित्रों में चर्चा होने लगी, यहाँ मैदान में दूबें हंस रही हैं और अमरूद आम के पेड़ भी दृढता से खड़े हैं, ये बरगद का पेड़ कैसे गिर पड़ा? मदन ने सभी को समझाते हुए कहा कि ये बूढ़ा बरगद का वृक्ष अपने जड़ों के फैलावे में इतना मगन हो गया कि उसकी सामने की जड़े उपरी सतहों पर अपनी पकड़ खोने लगी। वह उनका कसाव ही भूल गया। स्वाभाविक रूप से अपने हिस्से की धरती पर कमज़्ाोर हो गया और तुफान के आक्रमण से धरासाई हो गया। वह बूढ़ा भी हो चला था। उसे नए पौधों को पनपने का स्थान देना था। अतः यह अंजाम आवश्यक था। कथा के मर्म को समझाते हुए अहिल्या जी ने अंत में लिखा, ‘‘उन्नति अच्छी चीज है परंतु  इसमें इतना लिप्त कभी नहीं होना चाहिए कि हम अपनी पहचान भी खो दें। अपनी मातृभूमि की पहचान, अपनी भाषा, सांस्कृति और अपने गौरव की पहचान की रक्षा करते रहना हमारा कर्म और धर्म दोनों है। इनसे चूकने पर हम जितने भी आगे क्यो न बढे हम आधार हीन होकर धराशायी ही होंगे।‘‘ अहिल्या जी का कहना है कि हमें अपने से संस्कारों से जोडे़ रखना चाहिए।  

अहिल्या मिश्र जी ने हिन्दी के प्रचार प्रसार के लिए हिन्दी प्रचार सभा से जुड़ गई। इससे जुड़कर लोगों को शिक्षा में के प्रसार को बढ़ावा दिया। इसके अतिरिक्त विहार ऐसोसिएशन हैदराबाद, ब्रह्मर्षि सेवा समाज हैदराबाद, हिन्दी नगर जिला समिति आदि कई अन्य संगठनांे से जुड़कर स्त्री उत्थान और समाज सुधार के साथ भाषा के कार्य में भी संलग्न रही। इस संदर्भ में कई पत्र पत्रिकाओं से जुड़ी और लगभग 30 पत्र पत्रिकाओं में संपादन का कार्य किया। यह उनकी दक्षता है कि लगातार पूरे 3 वर्ष  से लगन के साथ ‘‘पुष्पक साहित्यिकी‘‘ का प्रकाशन सफलता से कर रही है। यह एक प्रतिष्ठित पत्रिका है। इसमें प्रकाशित होना गर्व की बात है। 

नारी शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए उन्हांेने ‘‘साहित्य गरिमा‘‘ पुरस्कार की स्थानापना की। दक्षिण भारत में हिंदी सेवा और विभिन्न क्षेत्रों में योगदान हेतु उन्हंे राज्य सरकारों ने अनेक पुरस्कारों से नवाजा है। 2018 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘‘सौहार्द सम्मान‘‘ से सम्मानित किया गया। भारत सरकार ने हिन्दी के क्षेत्र में इनके योगदान के लिए कृषि मंत्रालय और विद्युत मंत्रालय में हिन्दी सलाहकार के रूप में नियुक्त कर सम्मानित किया। आज निरंतर हिन्दी की सेवा में नारी को शिक्षित और सम्मानित करने की प्रकिया में संलग्न हैं।      

ईश्वर से उनके सुस्वास्थ्य, कर्म दक्षता और दीर्घायु की कामना करती हूँ।                    

सन् 2004 श्रीमति संगीता रेड्डी (एमडी अपोलो हॉस्पिटल) का सम्मान करती हुई 
डाॅ. अहिल्या मिश्र, टी. मोहन सिंह, डॉ. रमा द्विवेदी, गोरख नाथ तिवारी और अन्य

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