डॉ. अहिल्या मिश्र के कथ्य - सरोकार
मंतव्य

प्रबोध गोविल, -बी 301, मंगलम जाग्रति रेसीडेंसी, 447, कृपलानी मार्ग, आदर्श नगर,
जयपुर - 302004 (राजस्थान), मो. 9414028938
डॉ. अहिल्या मिश्र की ''इक्यावन कहानियां'' पढ़ते हुए आप ''शुभ'' की अवधारणा से गुजरते हैं। ये शुभ केवल इन कहानियों की संख्या से वाबस्ता नहीं है बल्कि इसके अर्थ कहीं और भी व्यापक हैं।
कोई क्यों गा रहा है, कोई क्यों रंग रहा है, कोई क्यों थिरक रहा है, कोई क्यों लिख रहा है... ये सब ऐसे सवाल हैं जिनका उत्तर हर दिशा से एक ही आता है!
और वो उत्तर है...
नहीं, इतनी जल्दी नहीं। पहले हम डॉ. अहिल्या मिश्र की बात कर लें, उनकी रचनाधर्मिता की बात कर लें, फिर उस उत्तर की बात भी करेंगे।
डॉ. मिश्र का जन्मस्थान मूलरूप से बिहार का मधुबनी जिला है। उनकी मातृभाषा भी ‘‘मैथिली‘‘ है। किन्तु मातृभाषा के साथ-साथ हिन्दी और अंग्रेजी पर भी उनकी गहरी पकड़ है। उनके जीवन की सबसे बड़ी विशेषताओं में से एक ये भी है कि हिन्दी भाषी बिहार में जन्म लेकर भी उनकी कर्मस्थली लंबे समय से दक्षिण का हैदराबाद नगर रही है। वे एक शैक्षणिक संस्थान से प्रशासक के रूप में जुड़ी रही हैं। साहित्य और भाषा से उनकी संबद्धता बेहद सक्रिय सरोकारों के साथ जुड़ी है। वे अपने क्षेत्र का एक ''बड़ा नाम'' हैं। कई विशिष्ट सम्मान व पुरस्कार, यथा- महादेवी वर्मा सम्मान, जय शंकर प्रसाद पुरस्कार आदि उनके खाते में दर्ज हैं। उनका लेखन भी व्यापक फलक समेटे हुए है। हैदराबाद के कादम्बिनी क्लब तथा ऑथर्स गिल्ड ऑफ इण्डिया से भी संयोजक के रूप में जुड़ी हुई हैं।
उनकी गीता प्रकाशन से 2009 में आई किताब ''मेरी इक्यावन कहानियां'' पढ़ते हुए मेरे दिमाग में वही सवाल आया था जिसका उत्तर मैं ऊपर अधूरा छोड़ आया हूँ। तो अब आपको बताता हूँ कि कला, संगीत, नृत्य और साहित्य वो उपक्रम हैं जो ईश्वर की बनाई हुई दुनिया की ‘‘डस्टिंग'' करते हैं। कलाकार और साहित्यकार जीवन की जीवंतता के लिए ख़र्च होने वाले लोग हैं।
जब डॉ. अहिल्या मिश्र ‘‘स्लेट की चाह में'' जैसी कहानी लिखती हैं तो वो महज एक कहानी के पाठकों से मुखातिब नहीं होतीं बल्कि दुनिया के तमाम समाज शास्त्रियों, विधिवेत्ताओं और बाल विकास विशेषज्ञों की मदद कर रही होती हैं।
अहिल्या जी की कहानियों में सबसे सबल पक्ष है उनके दुर्बल और निर्धन के पक्ष में खड़े कथानक। वे समर्थ और दबंग पात्रों के साथ पूरी विश्वसनीयता से खड़े रह कर भी समय आने पर उन्हें आइना दिखाने से नहीं चूकती हैं।
उनकी भाषा पर आंचलिकता का प्रभाव है। प्रभाव ही क्यों, कहीं कहीं तो उन्होंने पूरे पूरे संवाद ही पात्र की स्थानीय भाषाओं में दिए हैं। इनके अक्षरशः अर्थ चाहे पाठक न समझे पर तेवर बखूबी समझ जाता है। भाषा की ओर से निर्भीक रहना शायद उन्हें उनकी अपनी स्थिति ने सिखाया है जब वे मैथिली और बज्जिका की पुत्री होते हुए आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के क्षेत्रों में कर्मरत रहीं।
उनकी बात की कठोरता पत्थर सी सख्त है किन्तु कोमलता भी उतनी ही संवेदनशील है। ‘‘मेहंदी‘‘ कहानी में उनका ये कौशल बखूबी उभर कर आया है। ऐसी कहानियों को प्रामाणिक बनाने के लिए वे अपनी विलक्षण प्रशासनिक जानकारी का प्रयोग भी बखूबी करती हैं। पाठक हतप्रभ होकर देखता है कि जो कलम निर्बल असहायों को क्रूरता से अपने घरों से बेदखल करने का चित्रण कर रही है वही उनके पुनस्र्थापन के लिए भी अपने अंतरतम से चिंतित है। कहानी की सामाजिक जिम्मेदारी का निर्वाह एक संतुलन और साम्य के साथ होते देखना लेखिका को समर्थ रचनाकार मानने का पक्षधर दिखाई देता है।
प्रख्यात साहित्यकार संपादक राजेन्द्र अवस्थी कहते हैं कि वे भटकती जरूर हैं लेकिन यह भी हमारे जीवन का एक पक्ष है। उनकी कहानी ''अपूर्वा'' में एक पात्र विवाह और उसके फलस्वरूप अनजान पुरुष के संसर्ग से भयभीत है किन्तु जल्दी ही वो अपनी मूल सोच से इतर सिंदूरदान के लिए न केवल तैयार, बल्कि व्याकुल हो जाती है। इस तरह वह अपने अभीष्ट को पा लेने के बाद इस तरह लौटती हैं कि लेखिका को उसके विचलन पर कोई स्पष्टीकरण देने की जरूरत न पड़े। यही कहानी की सफलता है। कहानियों की ताजगी को रेखांकित करते हुए अवस्थी जी अपनी ‘‘पूर्वा‘‘ में कहते हैं कि लेखिका हमें आज की विदेशी हवाओं के सामने भी आस्था के प्रतिबिंबों में बांध के रखती हैं।
संग्रह की अंतिम कहानी ''सभा गाछी'' रिवाजों के प्रकाश में किशोर वय के अनछुए प्रणय निवेदन की कहानी है जिसके आरम्भिक संवाद स्थानीय भाषा में होने, और हर पाठक को समझ में न आने पर भी कहानी के रस को कहीं कम नहीं करते। पाठक संकुचाता-लजाता न जाने अपनी जिन्दगी के कौन-कौन से पलों को याद कर बैठता है?
किशोर वय नायक का विवाह एक अत्यन्त कमनीय किशोरी से होने पर उसके बचपन की एक हमउम्र साथी लड़की का कटाक्ष देखिए जो नायक की पत्नी की मुंह दिखाई कर लेने के बाद लौट कर ईर्ष्या की कुटिलता से लड़के को चेता रही है- ‘‘चैथीक चान सन दुबर पातर आ कांच कली कचनार सन नाजुक अछि। संभारिक रखबैक। तनिको जोर लगायब त घिया पुता के खिलौना जकां टूइट जाइत...!"
भाषा और शिक्षा के प्रश्न को लेखिका स्वयं "अंतहीन यात्रा" में उठाती हैं।
"और दिशाएं बदल गईं" कहानी नई नस्ल के वैज्ञानिक दृष्टिकोण का निर्वाह नाटकीयता के साथ करती है।
कहानियों में पर्याप्त विविधता है। ये ज्यादा लम्बी कहानियां भी नहीं हैं। लेखिका जो कहना चाहती हैं, उस पर तत्परता से आती हैं। उनका आत्मविश्वास उनके साथ है। जो कुछ कहना है उसकी भूमिका बांधने या पाठक की मानसिकता को उसके लिए किसी पूर्व तैयारी का अवसर देने की उनके यहाँ न कोई जरूरत है और न कोई रवायत।
इन इक्यावन कहानियों के व्यापक फलक पर समाज का लगभग हर पहलू चस्पां है। लेखिका ने अपनी पूर्वपीठिका "उपोदघात" शीर्षक देकर पहले ही चन्द उन बुनियादी सवालों पर अपना मंतव्य जाहिर कर दिया है, जो इतने विराट सीमांकन में फैले कथानकों में आने की सम्भावना या आशंका जगाते हैं।
ये कहानियां सचमुच हिन्दी कहानी के सफर का एक महत्वपूर्ण पड़ाव हैं जिसके लिए डॉ. अहिल्या मिश्र का अभिनन्दन किया ही जाना चाहिए।
आंध्र प्रदेश के राज्यपाल सुशील कुमार शिंदे का अभिनन्दन करते हुए डाॅ. अहिल्या मिश्र