यह सिर्फ एक डायरी नहीं...

 समीक्षा

डाॅ. जसविन्दर कौर बिन्द्रा


बोरुंदा डायरी/मालचंद तिवारी

राजकमल प्रकाशन, 2014, 

मूल्य-रुपये 150/-

कुछ साहित्यकार ऐसे होते हैं, जो किसी भाषा विशेष के लेखक होने के बावजूद इतने लोकप्रिय तथा प्रसिद्ध हो जाते हैं कि उन के लिये फिर भाषाई बंधन नहीं रह जाता और इसी सर्वप्रियता की बदौलत वह संपूर्ण देश के लेखक साहित्यकार बन जाते हैं। ऐसी प्रसिद्धि बहुत कम लेखकों के हिस्से में आती हैं, जो सारे देश का प्रतिनिधत्व करते हैं। उन की रचनायें देश-विदेश की अधिकतर भाषाओं में अनुवादित हो कर पढ़ी जाती हैं। इन्हीं लेखकों में एक नाम विजयदान देथा का भी शामिल हैं। उन की ‘बातां री फुलवाड़ी‘ के 14 भागों का हिन्दी में अनुवाद करने के लिये मालचंद तिवाड़ी को जिम्मेवारी सौंपी गयी, जो स्वयं भी हिन्दी-राजस्थानी भाषा के जाने-माने लेखक है, मगर शर्त यह थी कि अनुवाद, प्यार से ‘बिज्जी‘ के नाम से पुकारे जाते लेखक के घर पर रह कर उन की देख-रेख में ही संपन्न किया जायेगा, क्योंकि बिज्जी वृद्धावस्था तथा बीमारी के कारण बिस्तर पर थे। यह कार्य बहुत बड़ा भी था, हालाँकि मालचंद तिवाड़ी ने सितंबर 2012 में बिज्जी के घर बोरुंदा में अपना ठिकाना बना लिया था, परन्तु उस ने वहाँ के रोजमर्रा की बातों को डायरी रुप में लिखना 11 जनवरी, 2013 को आरंभ किया और इस का अंतिम पृष्ठ सिर्फ अनुवाद -कार्य की समाप्ति पर ही नहीं हुआ, बल्कि बिज्जी के प्राण त्यागने के दिन 10 नवंबर, 2013 को मालचंद ने इस डायरी का अंतिम पृष्ठ लिखा, जो ‘अप्रतिम बिज्जी का विदा गीत‘ बन गया।

प्रायः जिस प्रकार से डायरी को लिखा जाता है, यह भी उस प्रकार से डायरी लिखने की तिथि के साथ लिखी गयी। हालाँकि बीच-बीच में जब भी लेखक अपने घर या किसी समागम-आयोजन के लिये बोरुंदा से निकला, डायरी का रोजनामचा वहीं बंद हो गया। इस में अनेक बार डेढ-दो महीने का अंतराल भी आया। यह ठीक है कि मालचंद ने इस में प्रातःकाल से आरंभ कर देर रात को सोने तक की मुख्य-मुख्य घटनाओं का जिक्र किया, जिस में नाश्ते, खानेपीने के साथ-साथ बिज्जी के अल्प आहार का भी जिक्र रहा और कई बार लिखना खत्म करने के बाद ‘पुनश्च‘ भी लिखा।

यह डायरी सिर्फ दैनिक क्रिया-कलापों का लेखा-जोखा नहीं, बल्कि उन दिनों का साक्ष्य बन गयी, जो दो लेखकों, गुरु-चेले, मूल लेखक तथा अनुवादक ने एक साथ बिताये। जिस में अपने महान् लेखक तथा उस की रचनाओं के प्रति यदि अत्यन्त मान-सम्मान का भाव था, वहीं उस के अनुवाद- कार्य का हिस्सा बनने के साथ-साथ, उस समय अत्यन्त खीझ व थकावट भी महसूस होने लगती थी, जब बिज्जी दिन-भर किये गये अनुवाद- कार्य को रोज-रोज सुनने की जिद करते और मालचंद को उन्हें जोर-जोर से वे सब पढ़ कर सुनाना पड़ता। मगर जहाँ बिज्जी उस के खाने-पीने के बारे में पूरी तवज्जो रखते, वहीं कई बार ऐसा भी होता था कि बार-बार पुकारने पर भी बिज्जी सुरति में नहीं होते थे। वहाँ मालचंद की सभी जरुरतों के साथ, अनुवादित- कार्य का उचित पारिश्रमिक भी समय से अदा किया जाता रहा।

बिज्जी के घर लेखक अनेकों बार गया और वहाँ रहा भी, मगर पाठक चिमनाराम, (मित्र व सेवक ) महेन्द्र, कबीर, (पुत्र) नैना महारानी (पड़पोती) तथा अनेक गणमान्य व्यक्तिओं,परिवार के अन्य सदस्यों, लेखकों के बारे ना जान पाते, जैसेः चिमनारामजी जैसा सहृदय, सहयोगी, व्यक्ति ने बिज्जी की निःस्वार्थ सेवा किस प्रकार की। जहाँ एक ओर बिज्जी के घर-वातावरण को इस रचना के माध्यम से समझा गया, वहीं लेखक की अपनी अनेक घरेलू समस्यायें थी, जिन के कारण वह अनेक उलझनों में डूबा हुआ था। वह अपनी अनेक निजी समस्याओं से भी अवगत करवाता चलता है, जो एक मध्यमवर्गीय गृहस्थ को झेलनी ही पड़ती हैं, अगर वह नौकरी या अन्य किसी रोजगार में नहीं है तो वित्तीय परेशानी सदा मुँह बायें खड़ी रहती है। इस स्थायी परेशानी से हरदम घिरे रहने के बावजूद, लेखक ने हर सुबह के साथ एक नई शुरुआत की। मन को शांत करने के लिये वह सस्वर गीता का पाठ पढ़ता है और अपनी पत्नी व पुत्रों के साथ - साथ अपने अनेक दोस्त-मित्रों के साथ संपर्क बनाये रखता है।

इस डायरी को लिखते हुये लेखक ने हिन्दी, उर्दु, राजस्थानी, संस्कृत अनेक भाषाओं की साहित्यक रचनाओं, काव्यपंक्तियों, लेखकों के उद्धरणों का जिक्र मौके अनुसार कर के इस रचना को अत्यन्त पठनीय बना दिया। जिसमें व्यंग्य, चुटकी, सरल हस्य, शेरो-शायरी, श्लोक शामिल होने के साथ- साथ, लेखक का हर बार दिन की रचना समाप्ति पर अगले दिन के लिये कोई-न-कोई नया किस्सा या बात बताने का वायदा करना, उस की लेखन-शैली में पाठकों के साथ मित्रवत् व्यवहार को भी बयान करता हैं। इस के साथ यह एक निरंतरता का आभास देता है, जिस में पाठक-लेखक एक-दूसरे के साथ तारम्यता में जुड़े प्रतीत होते हैं।

मालचंद तिवाड़ी ने अनेक पारपंरिक रीतिओं, रिवायतों , राजस्थानी लोक-गीत, डाँगल, (पुरातन राजस्थानी-काव्य) के साथ भी जान-पहचान करवायी और जहाँ-जहाँ मौका मिला, राजस्थानी भाषा, बोली-बानी के नमूने भी पेश कर उस की मिठास पाठकों के साथ साझा की। अपने इस डायरी लेखन में लेखक ने प्राकृतिक रंग, आस-पास मंडराते, घूमते-फिरते जीवों से बने संबंधों को भी जगह दी।

कुल मिला कर, यह डायरी संसारिक, पारिवारिक, साहित्यक, अध्यात्मिक-धार्मिक, मैत्री अर्थात् जीवन के सभी पक्षों को अपने में समेट एक ऐसा दस्तावेज बन गयी, जो तिथियों के पुराने पड़ने के बावजूद भी पुरानी नहीं होगी, क्योंकि बिज्जी और इस की पठनीयता कभी ऐसा होने नहीं देंगे...। इस पुस्तक ने डायरी-विधा को एक उच्चस्तरीय धरातल प्रदान कर दिया है।

-डाॅ. जसविन्दर कौर बिन्द्रा, नई दिल्ली, मो. 9868182835

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