‘साँची कहूँ’ - शब्दों और विचारों के सत्य का दर्पण

मंतव्य


रमेश गुप्त नीरद, पुराना नं. 34-35, वालटैक्स रोड, चेन्नई - 600001, मोबाइल: 9381021015 

‘साँची कहूँ..‘, वर्तमान समय में सच कहना इतना आसान और स्वीकार्य नहीं है जितना कि डॉ. अहिल्या मिश्र ने अपनी पुस्तक ‘साँची कहूँ‘ में विभिन्न विषयों के संदर्भ में उद्घाटित किया है। संपादक-कर्म तलवार की धार पर चलने के समान है। एक ओर उसे अपने विचारों की स्पष्टता, निर्भिकता एवं दृढ़ता से समाज का मार्गदर्शन करना होता है तो दूसरी ओर समाज में व्याप्त अहंकारिता और हिटलरशाही का सामना भी करना पड़ता है। सामाजिक संस्थाओं द्वारा प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं में इस प्रकार की समस्या तथा स्थितियाँ समय-समय पर संपादक के मनोबल को गिराने का प्रयत्न करती रहती हैं। स्वार्थों में टकराव और सत्य को नकारने की प्रवृत्ति इसका मुख्य कारण होती है। फिर भी, जो संपादक अपनी सत्य निष्ठा से समाज के विकास को दृष्टि में रखकर अपने विचारों के प्रतिपादन का साहस रखते हैं- देर-सवेर समाज के आमजन उनकी प्रशंसा कर सम्मान प्रदान करते ही हैं। समाज में भले-बुरे, स्वार्थी-स्वार्थरहित कार्य करने वाले सभी प्रकार के कार्यकर्ता तथा पदाधिकारीगण होते हैं। एक संपादक समरसता, समन्वयता और अपने विचारों तथा कार्य की पारदर्शिता से पत्रिका को समाज में लोकप्रिय बनाने में अहम् भूमिका निभाता है। 

“साँची कहूँ‘ पुस्तक के दोनों खण्डों में संग्रहित आलेखों और संपादकीय टिप्पणी में इसकी झलक मिलती है। डॉ. अहिल्या मिश्र ने खण्ड-1 - ‘सोचों के कैनवास पर हिंदी का वातायन‘ में हिंदी की दशा. दिशा. विश्व में हिंदी और भारत में इसकी दुर्दशा पर गंभीरतापूर्वक चिन्तन, मनन कर आम भारतीय के मन की पीड़ा को उजागर किया है। सत्तर वर्षों के बाद भी 80 प्रतिशत से अधिक भारतीयों द्वारा बोली, समझी और लिखने-पढ़ने वाली भाषा ‘हिंदी‘ आज भी राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त नहीं कर पाई, जबकि विश्व के सभी राष्ट्रों का एक ध्वज और एक भाषा उनकी अपनी पहचान है। डॉ. अहिल्या मिश्रा ने अपने एक लेख में इस स्थिति के लिए विरासत में मिली अफसरशाही और अंग्रेजी मानसिकता को जिम्मेदार ठहराया है जो सच है और उनके इस कथन से सभी हिंदी प्रेमी तथा विद्वान सहमत हैं। ‘विश्व में हिंदी भाषा की भूमिका‘ आलेख तो सर्वोत्तम तथा ज्ञानवर्धक है, जिसमें विश्व के विभिन्न देशों में हिंदी की स्थिति, हिंदी का पठनपाठन तथा हिंदी प्रेम को विस्तारपूर्वक समझाते हुए अन्त में एक प्रश्न उठाया है कि विश्व में हिंदी भाषा के प्रति इतना सम्मान तथा अध्ययन के प्रति रूचि है तो भारत में ही क्यों यह राजनीति की बेड़ियों में जकड़ी हुई है। इसी संदर्भ में मेरी एक कविता की कुछ पंक्तियाँ यहाँ उद्धृत हैं - ‘अपने ही घर में बेगानी/परित्यकता-सी कटी जवानी/बूढ़ी हो गई हिंदी की वाणी/हिंदी तेरी अजब कहानी।‘

हिंदी विषयों पर खण्ड-1 में 10वें विश्व हिंदी सम्मेलन की रपट तथा वहाँ पारित प्रस्तावों की भी एक झलक है। मेरा मानना है कि अधिकांश ये विश्व हिंदी सम्मेलन अपने-अपने दलों के हिंदी विद्वानों को उपकृत करने तथा सरकारी मौज-मस्ती के लिए मनाए जाते हैं। इन सम्मेलनों को हिंदी का उत्सव रूप देकर एक-दूसरे की पीठ थपथपाने में अधिक होता है बल्कि इसके कि सम्मेलनों की समाप्ति पर हिंदी के विकास तथा उसे प्रतिष्ठापित करने, प्रचार-प्रसार की क्रिया अपनाने पर सक्रिय कार्य किया जाए। अस्तु। कुल मिलाकर, वास्तविकता में सोचों के कैनवास पर हिंदी का वातायन निर्मित करता है यह खण्ड जिसके लिए डॉ. अहिल्या जी का यह प्रयास सराहनीय एवं प्रशंसनीय है। 

‘साँची कहूँ‘ - खण्ड 2 का शीर्षक है ‘शब्द मंथन की दीर्घा से‘ जिसमें पुष्पक पत्रिका के अंक 5 से लेकर अंक 30 तक में शब्दों द्वारा मंथित सम्पादकीय टिप्पणियाँ हैं। इन संपादकीय आलेखों तथा टिप्पणियों का फलक इतना विशाल है कि उसमें विषयों के अद्भुत रंग और विचारों की बिजलियाँ पाठक के मन को न केवल विस्मित करती हैं बल्कि कहीं-कहीं उद्वेलित भी करती हैं। संपादकीय यदि पाठक मन को छू जाये तो उनकी सार्थकता प्रकट होती है। संपादक का लक्ष्य ही अपने विचारों के द्वारा पाठक और समाज को अनुप्राणित करना होता है। समाज में निहित कुरीतियों, परम्पराओं पर अपनी संवर्धनात्मक दृष्टि डाल समाज का उन्नयन करना होता है। समाज द्वारा प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं का लक्ष्य समाज की गतिविधियों से समाज को परिचित कराने के अलावा, समाज को विकासोन्मुखी बनाना, दिशा और दशा का मार्गदर्शन भी होता है।

‘साँची कहूँ‘ - भावना की सच्चाई इन संपादकीयों में ही अपना रूप प्रदर्शित करती हैं। डॉ. अहिल्या मिश्रा अपने इस प्रयास में सफल रही हैं - मैं दावे के साथ तथा अधिकारपूर्वक कह सकता हूँ। मैंने भी वर्षों सामाजिक पत्र-पत्रिकाओं के संपादन का कर्तव्य निभाया है।

जहाँ निष्ठा होती है, समर्पण भाव होता है, कुछ करने की ललक और सीखते रहने की प्रवृत्ति होती है - वहीं सफलता और सम्मान अपना डेरा डालते हैं। जैसा कि डॉ. अहिल्या जी ने अपने ‘अभिप्रेरण‘ में लिखा - 12-13 वर्ष की उम्र से कहानी-कविता सृजन करते-करते, संपादकीयों में वर्णित विषयों और शैली पर उनकी निगाहें रहती थीं और अपनी इस भेदी दृष्टि से ही उन्होंने सफल संपादिका का उत्तरदायित्व निभाया। स्त्री-विमर्श तथा अन्य सामाजिक विमर्शों पर अपनी पैनी दृष्टि द्वारा अपने विचारों का आलोक फैलाकर समाज को आलोकित किया। यह उनकी आत्मशक्ति का प्रतीक है। एक अल्हड़, उत्साही एवं कर्तव्यपथ पर आँख बंद कर भागने वाली सामाजिकता से अनभिज्ञ, सहज, सरल, बिलकुल अनजान-सी, अनाड़ी इस विदुषिका का अपने संपादकीयों की प्रभा से सामाजिक आकाश को रौशन करता, प्रगम्य एवं वंदनीय है। 

मैं अपने विचारों के समुद्र की गहराइयों से अभिभूत होकर आपके स्वास्थ्य और सुदीर्घ जीवन की कामना करता हूँ और मुझे ‘साँची कहूँ‘ पुस्तक के दर्शन का सौभाग्य प्रदान किया, उसके लिए हृदय से आभार प्रेषित करता हूँ।

डाॅ. अहिल्या मिश्र अपने परिवार के साथ दक्षिणी स्पेन में।

नवजीवन मंडल में प्रधानाचार्या के रूप में कार्यरत

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