डॉ. अहिल्या मिश्र का रचना संसार (प्रकाशित पुस्तकों में से चुनीं कविताएँ, निबंध, लेख, कहानियाँ एवं समीक्षाएँ)

 भारतीय नारी तेरी जय हो (नाटक संग्रह) (2004)


कुछ भूली सी यादें


नाटक पर बात करने के लिए मैं सोचने लगी कि बात कहाँ से आरंभ करूँ ? क्योंकि नाटक लिखने का विचार आया कैसे ? यह इस बात से जुड़ी है।

यादों के झरोखे से एक शीतल झोंका आया। दस वर्ष की उम्र- आदरणीय चाचा जी, स्व. श्री बद्री नारायण मिश्र जो कई नाटक कर चुके थे एवं नाटकों के प्रति असाधारण रुचि रखते थे। सुंदर स्वर एवं संगीतबोध के धनी तथा बाँसुरी वादन में निपुण थे। अपने नये नाटक के मंचन की तैयारी। आदरणीय पिताजी स्व. श्री रामानंद मिश्र स्वतंत्रता सेनानी के प्रयासों एवं इच्छा शक्ति के कारण निर्मित ग्रामीण परिवेश में विशालकाय कायाकल्प लेकर सरकारी गर मजरुआ भूमि पर सागरपुर ग्राम वासियों के लिए पुस्तकालय की सुव्यवस्था हेतु उठाया गया कदम। पिताजी का पूर्ण सहयोग एवं सहायता ग्रामीण परिवेश के युवकों का पात्रों के रूप में चयन। वीर कुंवर सिंह के एक सिपाही की विधवा पुत्री का अपने पति के साथ चिता में भस्म होने का दृश्य एवं उस पात्रा का चरित्र अभीनीत करना। मेजर डगलस अंग्रेज पात्र। संपूर्ण नाटक का परिवेश एवं पात्र विधवा युवती का चरित्र अभिनीत करना। करूणा का संचार। दर्शकों के आँख से बहते आँसू। अभिनय की सफलता। मेजर डगलस के रूप में अंग्रेज का चरित्र अभिनीत करना प्रशंसा बटोरना। पिताजी, चाचाजी की कठिनाइयों से दो चार होते हुए मनःस्थिति का अपने ललक से शांत करना। सामाजिक परिवेश के कारण बेटी को अभिनय के मंच पर जाने देने की झिझक। किसी युवती का सामने न आना। पुनः मेरी बात मानना। हमेशा चाचाजी का निर्देशक से अभिभावक/गार्जियन बने रहना। पिताजी की स्फूर्तिदायक शब्दावली चित्र चलचित्र सा चलने लगा। कई-कई दृश्य एक साथ गुजरने लगे। मन इनमें डूबने उतरने लगा। नाटक देखने का भी बहुत चाव था मुझे। मिथला के मैं सागरपुर मधुबनी जिला में मैथिली भाषी ग्राम की बेटी थी। अतः मातृभाषा मैथिली का प्रभाव मेरे ऊपर हावी था। गाँव में मनोरंजन के साधन में रामायण के रामलीला एवं नाटकों का मंचन प्रचलित था।

मेरी नजरें दीवार पर लगी तस्वीरों पर ठिठकी। जयप्रकाश नारायण, महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, गौतम बुद्ध, भगवान महावीर, टाल्सटाय, आगस्टिन और न जाने कौन-कौन सी तस्वीरें सजी थी। मेरे पिताजी समाजवादी दल के समर्थक थे। स्वतंत्रता सेनानी होने के साथ ही उनमें आदर्श, न्याय एवं क्रांति की भावना कूट-कूट कर भरी थी। वे क्रांति से स्वतंत्रता प्राप्ति के समर्थक थे। मुझे उनके द्वारा सुनायी गयी सभी कहानियाँ आकर्षक काण्ड के रूप में याद आने लगी। क्रांति एवं इसके विध्वंस का प्रभाव।

मेरी निगाहें दीवार पर टंगे आइंस्टाइन के चित्र से चिपक कर रह गयी। यादों एवं विचारों के कई कोण बने। मुझे लगा कि आइंस्टाइन का समग्र कथन मेरे दिमाग में करवटे ले रहा है। इनमें से मैं आइंस्टान के उस कथन को याद करती हूँ जो उसने अपने अंतिम समय में एक सवाल का जवाब देते हुए कहे थे-‘‘ अगर दुनिया में तीसरा महायुद्ध हुआ तो इसमें कोई संदेह नहीं कि वह अत्यंत विनाशकारी अणु अस्त्रों से लड़ा जायेगा, लेकिन अगर दुनिया किसी चैथे महायुद्ध से गुजरी तो प्रतिद्वंदी तीर-कमान और लाठी-डंडों से लड़ते दिखाई देंगे।‘‘

मैं शाम के धुंधलके में नीचे सड़कों पर बह रही भीड़ की तरफ नजर डालती हूँ और सोचती हूँ कि बूढ़े वैज्ञानिक को यह अहसास क्यों पैदा हुआ होगा? उसने यह क्यों सोचा होगा कि परमाणु शक्ति अर्जित करने वाला मानव चैथे महायुद्ध तक पहुँचते-पहुँचते किस तरह अपनी सभ्यता के प्रथम चरण में पहुँच जायेगा।

मुझे लगता है कि आइंस्टान विज्ञान के इस विनाशकारी खेल से परिचित था। वह जानता था कि तीसरा महायुद्ध आदमी को ही नहीं, उसकी समस्त औद्योगिक, वैज्ञानिक और सामाजिक उपलब्धियों का विनाश कर देगा। दूसरे महायुद्ध ने दो नगरों को ध्वस्त किया था। तीसरा महायुद्ध पूरी मानव-सभ्यता को मौत के घाट उतार देगा। पूरी मानव सभ्यता को रौंद डालेगा, अपने क्रूर तलुओ के नीचे। 

और तब बचे-खुचे लोग नये सिरे से जीना सीखेंगे। नये सिरे से अपने घुटनों के बल सरकना आरंभ करेंगे। नये सिरे से अपने लिए तीर-कमान जुटायेंगे और नये सिरे से छोटे-छोटे भू-खंडों के लिए लड़कर अपनी सत्ता स्थापित करेंगे।

कितनी भयंकर सच्चाई व्यक्त की थी आइंस्टान ने। आधुनिक आदमी किस प्रकार आदि युग की सभ्यता में पहुँच जायेगा।

अगर तीसरा महायुद्ध हुआ तो ? 

बार-बार यह शब्द मेरे मस्तिष्क में कौंधते है और बार-बार आइंस्टान के चित्र की ओर देखती हूँ और मुझे विचार आता है कि विज्ञान के जगत् का यह एक महापुरुष है, वह ऐतिहासिक आदमी है, जिस पर इस शताब्दी का इतिहास गर्व करता है

गर्व करता है ? 

क्यों ?

क्या इसलिए, सिर्फ इसलिए कि उसने आदमी के सामने परमाणु शक्ति के भंडार खोल दिये थे, उसने अपने देश की झोली में वह ताकत डाल दी थी, जिसने अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के हाथ विजय की पताका दी, जिसने हिटलर के फासिस्टवाद को उसके अंत तक पहुँचाया ?

लेकिन यह इतिहास का एक पहलू है।

वह पहलू कहाँ चला गया ? जब पड़ोसियों ने, आइंस्टान के मित्रों और सगे-संबंधियों ने देखा कि परमाणु बम का आविष्कार करने वाले महान वैज्ञानिक ने उम्र के अंतिम चरण में अपने कमरे से अमेरिका के लोकप्रिय राष्ट्रपति का वह चित्र उतार दिया था, जो वर्षों से वहाँ टंगा था और उसके स्थान पर लगायी थी उस भारतीय संत की छवि जिसका नाम था- मोहनदास करमचंद 

गाँधी। महात्मा गाँधी।

क्यों ?

क्या इसलिए नहीं कि एक युद्ध का प्रतीक था और दूसरा शांति और अंहिसा का, मानव-प्रेम और भाईचारे का, विश्वबंधुत्व और सर्वधर्म समन्वय का ? यही चित्र आज तक इस बात का साक्षी है कि परमाणु शक्ति के आविष्कार के बाद उसने विनती की थी, अपने देश से, अपने देश के राष्ट्रपति और सत्ता में बैठे उच्च अधिकारियों से-‘‘इतनी बड़ी परमाणु शक्ति को मानव-जाति के विनाश के लिए प्रयोग मत करो, इसे प्रयोग करो मानव जाति की भलाई और सामाजिक निर्माण के लिए... वरना...‘‘इतिहास ने ये शब्द भुला दिए और अस्त्र शस्त्रों का निर्माण जारी रखा.....और एक चीख मेरे अंदर गूंज उठती है, इतिहास के पात्र मर जाते है। मरना आदमी की, प्राणियों की नियति है। त्रासदी यह नहीं, त्रासदी है कि जब ऐतिहासिक पात्र ही नहीं, स्वयं इतिहास भी मरने लगता है और यह समय वही है, जिसमें मैं जीवित हूँ।"

गौतम बुद्ध नहीं रहे, कब के जा चुके इस संसार से। उन्हें पता था छोड़ना ही है एक दिन। त्रासदी यह नहीं त्रासदी यह कि इतिहास के वे पन्ने भी धूमिल हो गए जिन पर उस महापुरुषों ने अपनी रौशनी बिखेरी थी।

गौतम का ध्यान आते ही पिछले ढाई हजार वर्ष का इतिहास मेरे सम्मुख जीवित हो गया। एक-एक करके वे सारे महापुरुष मेरे सामने से गुजर रहे हैं, जिनके गौरवपूर्ण नाम इतिहास के पन्नों पर लिखे हैं और जिनका कद आसमान की ऊँचाइयों को छू रहा है।

बुद्ध मेरी उँगली थामकर मुझे अपनी कहानी के उस पात्र तक ले जाते हैं जिसने ऋषि से अपनी जिज्ञासा शांत करने लिए पूछा था कि-

दुनिया की सृष्टि कैसे हुई ? यह पंच महाभूत कहाँ से आए ?‘‘ और ऋषि ने उसे उन देवताओं के पास भेज दिया था, जो विद्वानों और ऋषि-मुनियों से अधिक ज्ञान रखते है। प्रश्नकर्ता एक-एक आकाश पर चढ़ता गया, एक-एक देवता से पूछता गया। लेकिन कोई भी उसके ज्ञान की प्यास नहीं बुझा सका। कोई नहीं बता सका कि मिट्टी, आग, हवा, आकाश और पानी कैसे और कहाँ से पैदा हुए और दुनिया की सृष्टि किसने की ?

कोई भी देवता ऐसा नहीं था जो ज्ञान की प्यास को बुझा सकता। अंत में प्रश्न पूछने वाला चरण छूकर यही सवाल ब्रह्मा से करता है।

लेकिन इतिहास फिर भुलाया जा रहा है। भुला दिया गया है और आदमी प्रयास कर रहा है। स्टार-वार से लेकर जैविक शस्त्रों की तकनीक ज्ञात करने के लिए एक ऐसी तकनीक कि अगर चैथा युद्ध हो तो तीर-कमान बनाने वाले हाथ भी धरती पर शेष न रहें।

यह कैसा षड़यंत्र है। सोच थमने लगी। निगाहें अलग हटी। पुनः सोच के कोण बदले और पहुँच गयी अपने बचपन के दिनों में। यादें उस नाटक पर केन्द्रित हुईं नाटक मंच के साथ भावविभोर जन-सामान्य व ग्रामीण दर्शक। अभिनय के लिए स्मृति चिह्न, प्रमाण पत्र एवं स्वर्ण पदक। पुनः सामाजिक परिपेक्ष्य एवं शैक्षणिक कारणों से गाँव एवं शहर कस्बे के बीच बँटे रहना। बाद में केवल एक और नाटक में अभिनय कर पाना। पुनः पारिवारिक परम्परा के अनुसार जीवन का कोण बदल कर गृहस्थी में जुटने की प्रक्रिया शैक्षणिक - व्यावसायिक, सामाजिक, आर्थिक आदि कई कोण मुड़ते हुए नवजीवन बालिका विद्यालय तक की यात्रा।

यहाँ जैसे मंजिल मिल गई। स्थापित हुए और मन की अधूरी इच्छाओं को मार्ग मिला। छात्राओं से मेलजोल एवं शिक्षण के साथ उनके लिए विभिन्न उत्सवों के समय नाटक लिखना एवं इसे मंचन करवाना या निर्देशित करना। विगत 28 वर्षों के श्रम का यह पुलिन्दा पुस्तकाकार प्रस्तुत करने की धृष्टता कर रही हूँ।

इस पुलिन्दे में एक नाटक ‘जवाहर बाल भवन‘ द्वारा पुरस्कृत है। निर्देशन का पुरस्कार स्मृति चिह्न के रूप में पाकर सार्थक लगा। एक टैबलो बाल दिवस के अवसर पर आकाशवाणी द्वारा रवीन्द्र भारती में मंचित किया गया है। ये सभी अंतर विद्यालयीन प्रतियोगिताओं में अपनी पहचान बनाने में सफल रहे है। एक टैबलो तत्कालीन शिक्षा मंत्री पी. वी. रंगाराव द्वारा अनुसंशित है। दर्शक दीर्घा में बैठे पालकों की पसंद पर अधिकतम नाटक एवं टैबलो खरे उतरे है। 

इस प्रकार शौक, लक्ष्य और रुचिका समागम “भारतीय नारी तेरी जय हो‘‘ नाटक के, पुस्तक के रूप में आपके हाथों में सौंपती हूँ। इसमें विद्यालयी स्तर का ध्यान रखा गया है। कई अध्यापिकाएँ नाटक या टैबलो की माँग करती मेरे पास आती रही। उनके लिए यह पुस्तक सहयोगी होगी। इसमें जो अच्छा लगे वह आपके पसंद के लिए एवं जो ठीक नहीं वह मेरे लिए छोड़ दे। एक प्रयास मात्र है। मैंने न तो विधिवत नाटक का प्रशिक्षण लिया है और न ही निर्देशन या लेखन की कोई विशेष कला सीखी है। यह मेरे अपने मनोभाव एवं विचार है जो इस पुस्तक के नाटकों में ढले है। सामाजिक कुव्यवस्था एवं नारी जाति की स्थिति मेरी सोच के विभिन्न कोण है, इनका वर्चस्व मेरे सभी विधाओं के लेखन में स्पष्ट परिलक्षित होता है। यहाँ भी मैं इससे नहीं हटी हूँ।

अंत में आभारी हूँ स्व. सुश्री पद्मावती जी मुख्याध्यापिका की जिन्होंने मुझे नवजीवन बालिका विद्यालय में बुलवाया। महिला नवजीवन मंडल की सभी सदस्याओं की जिन्होंने बेरोकटोक मुझे काम करने दिया और नारी उत्थान के क्षेत्र में अन्य कार्यों के साथ नाटक मंचन से भी मैं जागृति का मार्गारोहण किया। सभी-प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष सहयोगियों को धन्यवाद। मातृवत पुस्तक प्रकाशन गीता प्रकाशन को 

धन्यवाद। मातृवत स्नेह युक्त मुद्रण के लिए संतोष प्रिंटिंग प्रेस के श्री बलवंत कौशिक एवं यादगिरी को आभार। 

राम नवमी, 2004, स्थान - हैदराबाद, -डॉ. अहिल्या मिश्र 


भारतीय नारी तेरी जय हो

पात्र - परिचय

1. पुरुषोत्तम: पिता

2. राधिका: माँ 

3. प्रिया: बेटी

4. रघुनाथ: बॉस

5. भगतराम: बॉस

6. रामू: चपरासी

भारतीय संस्कृति को रेखांकित करने वाला एकांकी भारतीय नारी तेरी जय हो

(पहला दृश्य)


(घर का ड्राईंग रूम पिता अखबार पढ़ते है। माँ कुछ काम करती दिखती है।)

माँ  :  सुनते हो...... सुनते हो...... अजी सुनते हो 

पिता :  जय गंगामाईकी इतना क्यों चिल्ला रही हो, मैं बहरा थोड़े ही हूँ, बोलो, क्या बोल रही हो.....। 

माँ  : बीच में ही टोक कर क्या खाक बोलूँ, जब देखो अखबार में नजरे गढ़ाए बैठे रहते हो। 

पिता : जय गंगामाई की सुन भी रहा हूँ और पढ़ भी रहा हूँ तुम बोलो तो सही। 

माँ : अपनी लड़की जवान हो गई है। तुम्हें परवाह है ? उसकी शादी करनी है कि नहीं ? अरे, कुछ तो ब्याह के लिए सोचो। 

पिता  : जय गंगामाई की, लकड़ी.... 

माँ : उफ हो लकड़ी, नहीं लड़की, लड़की, लड़की जवान हो गयी, उसकी शादी करनी है तुम्हें कि नहीं ? 

पिता : जय गंगामाई किसकी बरबादी करनी है मुझे?

माँ : हे राम, इनका क्या करूँ मैं, बरबादी नहीं, शादी करनी है, अपनी बिटिया की, अरे कुछ तो सोचो। 

पिता : जय गंगामाई की। जो जो जब जब होना है सो सो तब तब होगा ही। यह भी जब होना होगा हो जायेगा। मेरा दिमाग क्यों चाट रही हो। जाओ एक प्याली गर्मा-गर्म चाय पिलाओ। 

माँ : बस बैठे-बैठे अखबार पढ़ो और चाय पीओ। हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे तो हो जायेगा, इससे तो कुछ होने का नहीं। लड़की दिन-दिन मनमानी कर रही है और इनके कान पर जूं नहीं रेंगती। उसके लक्षण करम देख कर मैं चिन्ता से दोहरी हो जा रही हूँ। (बड़बड़ाती हुई चली जाती है।) 

पिता : जय गंगामाई की इस भागवान को कैसे समझाऊँ जमाना बदल रहा है, पहले जैसी बच्चियाँ नहीं रही। उनके मन के कुछ नहीं किया जा सकता। चुप रहने में ही भलाई है।

दूसरा दृश्य

(एक सुसज्जित गृह का सजा कक्ष, माता-पिता बेटे हैं। बेटी का प्रवेश, बेटी बिल्कुल आधुनिक वेशभूषा में है। मिनी स्कर्ट तथा खुले बाहों के टॉप, कटे हुए खुले सुन्दर तरीके से सवारें गये बाल, गले में पतली सोने की जंजीर, जिसमें लटकता हुआ दिल जैसा लॉकेट, हाथ में चूडियों के स्थान पर कुछ चाँदी के तार सा गोल लिपटा हुआ, और एक हाथ में घड़ी, कान में बड़ी बाली सा लटकता हुआ कुण्डल, गले से नाभि तक लटकता पर्स, ऊँचे एड़ी का सैण्डल। कुल मिलाकर एक भव्य आधुनिका की वेशभूषा। आते ही आवाज लगाती है-) 

प्रिया :  हाय मॉम , हाय डॅड। क्या मीटिंग चल रही है।  बड़े सीरियस हो, कोई प्रॉबलम.. 

राधिका :  बेटी जब किसी माँ की बेटी जवान हो जाती है तो उसके आँखों से नींद उड़ जाती है। दिन रात बस एक ही चिन्ता बनी रहती है, कैसे उसके हाथ पीले करें, वह किसी सुपात्र के हाथ जाय। इसकी व्यवस्था करना न केवल माता-पिता का धर्म होता होगा बल्कि ध्येय भी होता है। हम भी उसी सोच में लीन है... 

प्रिया : Stop it Ma बस् कीजिये ये पोंगा पंथी विचार। वो जमाना लद गया जब बेटी खूंटे में बाँधी गाय होती थी। बछड़े की भाँति एक खूंटे से खोल कर दूसरे खूंटे में बाँध दिया और चुपचाप देखती रही। न कोई शिकायक न ही कोई आवाज। एक तो मैं अभी विवाह नहीं करूँगी, दूसरे करूँगी तो अपने पसंद की युवक से। आप लोग अभी कुछ बोले नहीं, नहीं तो बेकार ही (मना करने पर) आपको दुःख होगा। 

राधिका :  ब्याह नहीं करोगी तो क्या करोगी? पढ़ाई पूरी हो गयी। अपनी जिद्द तो तूने पूरी कर ली, अब तो हमारी बात मान लो। न जाने क्या डिग्री ली है। हमारी समझ से तो मैट्रिक पास करना ही बहुत होती है, लड़कियों के लिये। घर-गृहस्थी चलाने के लिये, हिसाब-किताब की समझ अपने बच्चों को अक्षर ज्ञान देने का काम करना ही हमारा परम कर्तव्य है। उसके लिये इतने सारे डिग्री लेने की क्या आवश्यकता है। जिसमें तुमने अपने जीवन के 21 वर्ष बिता दिये, फिर कहती है कि ब्याह नहीं करूँगी... 

प्रिया : बस् बस्, बस् कीजिये। आपके लेक्चर से मैं परेशान हो जाती हैं। जब देखो ये मत करो, वह मत करो...। आपकी निगाहों में औरत होने का एक ही अर्थ है थोड़ा सा अक्षर सीख लो, रामायण पढ़ने आ जाये। स्वीट सिक्सटीन होते ही विवाह का फंदा गले में डाल लो किचेनक्वीन बनो। सास ससुर की सेवा करो, बच्चे पैदाकर पालो-पोसो, बड़ा करो, बूढी हो जाओ और फिर कहानी तमाम। है न यही बात क्यों माँ ? 

राधिका : बेटी, यही तो नारी का त्यागमय रूप है। यही तो नारी का जीवन दर्शन है। सेवाभाव है। हम जीती ही है दूसरों के लिये, इसका सुख अवर्णनीय है। इसीलिये पुरुष समर्थ होकर भी हमारे देश में नारी की पूजा करता आया है। हमारी संस्कृति नारी सम्मान और नारी शौर्य की गूंज से गूंजती रही है। हम आज भी शीर्ष है। 

प्रिया : बस् करो माँ। बस् करो। अपनी दकियानूसी विचार। मैं आप से अधिक कुछ नहीं कहूँगी। आप इतना जान ले। मैं आज के विज्ञान और उन्नति के युग में पैदा हुई हूँ। जहाँ नारी दासी नहीं, स्वतंत्र है। मेरी शिक्षा ने मुझे स्वतंत्रता सिखाया है। मैं अपने पांव पर खड़ी होऊँगी। नौकरी करूँगी। जब मैं कमाऊँगी तो किसी की गुलाम नहीं रहूँगी। 

पुरुषोत्तम : क्या कहा बेटी तूने ? क्या तुम नौकरी करोगी? क्या हमारे पालन-पोषण में कोई कमी रह गयी है ? हमने तुम्हें किसी वस्तु की कमी होने दी जो तुम नौकरी करना चाहती हो। किसी वस्तु की आवश्यकता हुई जिसे पूरा नहीं किया गया ? क्या मैं अपने परिवार के भरण-पोषण योग्य धन अर्जित नहीं करता? 

प्रिया  : नहीं डैड। यह बात नहीं है। आपके पास धन की कमी नहीं और न ही आपने किसी प्रकार की कमी की है। मैं नौकरी तो केवल अपने पैर पर खड़ी होने के लिये करना चाहती हूँ।

पुरुषोत्तम : तो क्या अभी तुम पांव पर खड़ी नहीं हो। बेटी, बेटी तो वेद की ऋचाएँ होती है, बेटी तो शीतल हवाएँ होती है, बेटी सन्मान होती है। बेटी एक मीठी भावना है। उसकी मिठास बनी रहने दो। विदा करने का सुख हमें उठाने दो। इस अपार दुःख में भी एक अनचाहा सुख है... एक नवनिर्माण का सुख। 

प्रिया  : डैड, आप कब से माँ की भाषा बोलने लगे है। आपने तो हमेशा मेरा साथ दिया है, क्या आप मेरी बात नहीं समझेंगे। पिताजी मेरी स्वतंत्रता नीलाम मत करें। आपको मैं बहुत प्यार करती हूँ। मेरे अच्छे डैड। (गले में बाँहे डाल कर पिता से लिपट जाती है और पिता को मना लेती है।) 

पुरुषोत्तम्  : अरी भागवान जाने दे, जमाना बदल गया है, जो बेटी चाहेगी हम वही करेंगे। औलाद की खुशी ही हमारी खुशी है। जब यह कहेगी तभी इस का ब्याह करेंगे। जाओ बेटी तुम जो करना चाहो करों। मैं तुम्हारे साथ हूँ। किन्तु मेरे द्वारा किये गये विश्वास को कभी खंडित न करना। ऐसा कोई काम न करना जिससे तुम्हारी माँ या समाज के आगे मुझे नत सिर होना पड़े। इतना ही कहूँगा। 

प्रिया : खुश होकर थैंक्यू डैड थैंक्यू, मेरे अच्छे पिताजी। माँ की ओर मुस्कुराकर देखते हुए माँ अब तुम भी हाँ कह दो... मैं चली। (प्रिया हँसती हुई चल देती है।) 

राधिका  :  (धीमें स्वर में) आपने इसे लाड़ - प्यार कर बिगाड रखा है, सर चढ़ाया है, आपको ही पछताना होगा। बेटी को इतनी आजादी देना ठीक नहीं। हे भगवान तुम ही इस बाप बेटी को सद्बुद्धि दो। पहले ही इसके रहन-सहन देख कर मैं लज्जित रहती हूँ। टी.वी. सिनेमा का सत्यानाश हो। इनके माध्यम से आजकल की छोकरियों को तो पहचानना....। अब तो यह बीमारी घर-घर... में फैल गयी है। आज कल की लड़कियाँ न किसी का रोक मानती है न टोक। मन माने अधनंगे बनी घूमती रहती है। फैशन-फैशन.. (रुककर) आग लगे इस फैशन को। इसमें लड़का है या लड़की समझ में नहीं आता। घोर कलयुग आ गया है। तुलसीदास ने सत्य ही कहा था... (कलिकाल...... में सब कुछ उल्टा-पुल्टा होगा। हे भगवान हमारी पत रखना। न जाने क्या करेगी यह लड़की। क्या करूँ ? कैसे रोकूँ। मेरे वश से सब कुछ बाहर है। 

पुरुषोत्तम  : देखो भागवान, जब बेटी बड़ी हो जाय तो उस पर दबाव नहीं प्यार का शस्त्र चलाना चाहिये। विरोध करे इसका अवसर नहीं देना चाहिये। जमाने के संग चलना सीखो। यह सब वह सुनने को तैयार नहीं। तुम हो कि उसे यही घूंटी पिलाना चाहती हो। स्वयं अनुभव उठाने दो। सब्र करो। (और चले जाते है। थकी हारी से राधिका अपने आप में बड़बड़ाती है...) 

(अपने आप उदास और परेशान सी अन्दर जाती है।)

दृश्य परिवर्तन

(स्थान कार्यालय: बॉस बैठे हैं... एक कोने में लगा टेबल कुर्सी पर प्रिया बैठी है। टाइप मशीन तथा पेपर बास्केट पड़ा है। प्रिया अपने नित्य प्रति के वेशभूषा में विद्यमान है। लो नेक के टॉप और स्कर्ट में।) 

बॉस रामू (घंटी बजाते हुए चपरासी से) ओ रामू 

रामू जी साहब, आया साहब। 

बॉस पी. एस. को बुलाओ। 

रामू :  प्रिया मेमसाहब, आपको साहब बुला रहे हैं। 

प्रिया : (प्रिया नोट बुक पेन्सिल हाथ में लिये हुए सामने आकर शालीनता से खड़ी हो जाती है।) 

बॉस :  प्रिया तुम इधर आओ कुछ डिक्टेशन देनी है। 

प्रिया :     एस. सर... प्लीज स्टार्ट ..(लिखने का उपक्रम।) 

बॉस हाय मेरी प्यारी बुलबुल, (आँखें चैड़ी कर घूरते हुए...) क्या संगमरमर की मूर्ति हो। ये क्या रोनी सूरत बनाकर खड़ी हो। तुम इसके लिये थोड़ी ही बनी हो। तुम तो मेरे हृदय की रानी बन सकती हो। यह नोटबुक और पेन्सिल छोड़ो और करीब आजाओ। 

प्रिया  : (होंठ काटती हुई) सर ये बेकार की बाते छोड़ें और डिक्टेशन दें। नहीं तो मैं फिर आऊँ। अभी आप दूसरे मूड में लगते हैं। (जाने को उद्दत होती है ...) 

बॉस (उसे रोकते हुए कहता है।) प्रिया मेरी बात मान लो। मैं तुम्हें प्यार करता हूँ। तुम्हें रानी बनाकर अपने दिल के सिंहासन पर बिठाऊँगा। क्या कागज पेन्सिल लेकर खड़ी हो। 

प्रिया : (क्रोध से भिन्नाती हुई) नहीं चाहिए आपकी नौकरी। जहाँ मेरे काम, मेरी कुशलता के स्थान पर मेरे सौंदर्य तथा शारीरिक मूल्य को महत्ता मिले, मुझे काम चाहिये, काम करने के लिये मैं परम्पराओं से विरोध कर आगे आई हूँ। आप पुरुष लोग एक ही भाव रखते है, स्त्री दास या गुलाम होती है। मैं अपना त्यागपत्र दे रही हैं। मैं वहाँ काम करूँगी जहाँ मेरे काम का मोल होगा, मेरे शरीर व सौंदर्य का नहीं। 

(तमतमाया हुआ चेहरा लिये प्रिया वापस आती है और रिजिग्नेशन लेटर टाईप कर बॉस के सामने त्यागपत्र रखकर बिना कुछ बोले चली जाती है।) 

बॉस (चुपचाप देखते रहता है फिर स्वयं से बोलता है) क्या चिड़िया थी? (हाथ मलते हुए।) शायद मैं दाना सही नहीं डाल सका निकल गयी। 

 दृश्य परिवर्तन (हताश व परेशान चली जा रही है।)

प्रिया : उसका मन क्षोभ व घृणा से भरा है। उसे लग रहा है कि वह हार गयी। वह अपने शिक्षार्जन के समय से ही यह मनोभाव पालती चली थी कि उसे सारी पुरानी मान्यताएँ नहीं स्वीकारनी है। वह अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व विकास करेगी। नारी जो भोग्या है, जिसे दहेज के लिये जलाया जाता है। शास्त्र ने जिसे एक धन के रूप में निरूपित किया है वह केवल धन बन कर नहीं रहेगी। वह दास भाव नहीं स्वीकारेगी। शिक्षा ने उसे समानता का बोध कराया, उसे मनुष्य होने का आभास कराया, उसे अपने होने का अर्थ बताया। किन्तु सामाजिक चक्र और इसमें फैली हुई विचार धारा इन सब को निगलने के लिये ग्रह बन मुँह बाये खड़ी है, इस दारूण अनुभव ने उसे विचलित कर दिया। वह विचार मग्न घर की ओर चल पड़ी। (अपने आप से बाते करती हुई..) यह पुरुष वर्ग क्यों हमें सदा उपभोग की वस्तु ही समझते है, आखिर क्यों? अभी तक तो मैं अपने माँ के विचारों को पुराना और दकियानूस समझती थी। किन्तु लगता है वे गलत नहीं। तो क्या मैं हार जाऊँ? नहीं मैं हारूँगी नहीं....। क्या कारण हो सकता है उनकी, उन सभी की भूखी और चैड़ी होती हुई नजरों का, सोचती हुई, तर्क-वितर्क करती हुई, कहीं यह हमारा रूप। जिसे सदा मैंने नये डिजाइन के कपडों व फैशन के साधनों से सवार कर रखा है, यह तो नहीं। अपने को अच्छा दिखाने का चाव तो हर किसी में होता है यह कौनसा जुर्म है.... थोड़ी देर रुक कर ... चलो एक प्रयोग करते है घर पहुँच कर...। 

प्रिया :  मॉम ओ मॉम, माताश्री आप मुझे अपनी साड़ी दें मैं पहन कर ऑफिस जाऊँगी। 

राधिका :  (चैंककर - आश्चर्य चकित सी) .... क्या कहा बेटी फिर से तो कहो। 

प्रिया : माँ तुम हमेशा मुझे इन कपडों और फैशन के लिये डाँटती थी न इसलिये मैंने सोच लिया है कि मैं तुम्हारी बात मान कर भारतीय वेशभूषा धारण कर नौकरी के लिये जाया करूँगी। 

राधिका : हे ईश्वर तेरा लाख-लाख शुक्र है। सभी माँ को ऐसी ही बेटी मिले और सभी बेटी को ऐसी ही सदबुद्धि। 

प्रिया : (स्वतः) माँ तुम क्या जानो ये सदबुद्धि उन कटू अनुभवों की देन है, जो मैंने अपने जोश के क्षणों में आर्थिक स्वतंत्रता के नाम पर कमायी है।

दूसरा दृश्य (दिन बदलता है।) 

प्रिया : सादी किंतु सुसज्जित भारतीय स्त्री के वेशभूषा में कार्यालय जाती है। वहाँ कार्यकर्ताओं के चेहरे पर स्वच्छ धुली व स्नेह युक्त मुस्कान होती है और दिनों के समान उसे फबतियों और सीटियों का सामना नहीं करना पड़ता। उसका साद्य उसके वेशभूषा से समन्वित होकर उसके व्यक्तित्व में गरिमा उत्पन्न कर देते हैं। प्रिया अपने स्थान पर जाकर बैठती है। बॉस उसे बुला भेजता है।

प्रिया का अन्दर प्रवेश

बॉस : वाह! क्या नैसर्गिक सौन्दर्य है। बेटी तुम तो सम्पूर्ण भारतीय नारी हो। तुम्हें अपने कार्यालय में रखकर मैंने अपने कार्यालय की शोभा बढाई है। 

प्रिया : आप मेरे पिता तुल्य हैं। आपका स्नेह मेरा मनोबल बढाएगा। मैं अपने कार्य द्वारा अपनी क्षमता बढाऊँगी और आज के युग में नारी स्वतंत्रता का प्रतीक बनूँगी। स्वतंत्रता तभी सच्ची होगी जब उसमें सादगी होगी। सादगी और भारतीयता सही शिक्षा से अपना स्थान पाएँगी, तभी हम समानता तथा आर्थिक स्वतंत्रता की बात कर सकेंगी। 

बॉस : बहुत सुन्दर, बहुत सुन्दर तुम्हारे विचार भी उत्तम है। 

प्रिया हमने निश्चय कर लिया है कि अपने अधिकार प्राप्त करें किन्तु इसके साथ ही हमें अपने अन्दर के सारे अंधविश्वास, दिखावा तथा फैशन का आकर्षण समाप्त करना होगा। तभी हम सही अधिकार प्राप्त करेंगी। 

अधिकार का माध्यम कर्तव्य को बनाना होगा। आज समाज को एक सीता, सावित्री जैसे या इकाई उदाहरण की नहीं, सबों को मिलकर सच को स्वीकारने की आवश्यकता है। आओ, हम यही करें। निश्चय करें कि इसी परिणिति को प्राप्त करेंगी। चलो 

बहनों, नारी का मान बुला रहा है हमें

दृढ़ता का कमान बुला रहा है हमें

एक नये सवेरे का आसमान बुला रहा है हमें।

सन् 2002 में शहरी विकास मंत्री श्री बंडारू दत्तात्रेय के साथ डॉ. अहिल्या मिश्र 
पुस्तक लोकार्पण समारोह

Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य