रूपोश

मीरा कांत, नई दिल्ली, मो. 9811335375

जैसे सुख संजीवनी खाकर नहीं आता है वैसे ही दुख को भी संजीवनी नसीब नहीं हो पाई है। फिर वो चाहे इस ज़मीन पर बसे बहिश्त की बात ही क्यों न हो। घाटी की उस उर्वरा मिट्टी में चारों ओर पसरी हरियाली और पहाड़ों पर उग आए बेपनाह जंगलों में अपने ज़ख़्मी पैर लिए बद्हाल भटकता दुख भी संजीवनी तलाश नहीं कर पाया है। अगर ये तलाश जारी हो तो भी इसमें जितना फीसदी हिस्सा उम्मीद है उससे कहीं अधिक फीसदी नाउम्मीदी भी मुस्कुरा रही है... मन ही मन में।

जिगरी की तरह उसका दर्द भी बुढ़ा गया था। बूढ़ा दर्द सहन करना सीख ही जाता है। बूढ़ों की ही तरह सुस्त रहता है। करवट बदलकर जिगरी ने हौले-हौले हथेलियों से आँखें मलीं, खोलीं तो महसूस हुआ कि पलकों पर कुछ वरम हो आया है। पलकें पूरी तरह नहीं खुल रही हैं। वह दम लगाकर उठी। लाठी टेकते हुए बाहर नल तक पहुँची। चेहरा धोया। आँखों पर कई छपके पानी मारे। साड़ी के पल्लू से पोंछकर भीतर आई और ऐनक लगाकर सामने की दीवार को ठहरकर ध्यान से देखा। नज़र पर वरम का असर नहीं था। उसे सब्र हुआ। वर्ना राज की दस बातें सुननी पड़तीं कि देर तक क्यों जागती हो, बिस्तर में घुसकर रोती क्यों हो, आँखों का ख़्याल क्यों नहीं करतीं और भी न जाने क्या-क्या। उसका उफनता स्वभाव कभी-कभी जिगरी के लिए नाकाबिले बर्दाश्त हो जाता है। फिर सोचती है.....बेटा है...।

आज राज को सवेरे ही बृजनाथ के घर पहुंचना था। वहाँ से दोनों को सरकारी महकमे से मुआवजा लेने जाना था। फैक्टरी का मुआवज़ा। जिगरी ने अपने हालात पर एक तरस-भरी नज़र डाली। बसी-बसाई फैक्टरी उजड़ गई। सख़्त मेहनत से कमाई थी वो फैक्टरी। माना कि ये तावत् मात्र जीवन एक खेत के समान है। इसमें संतोष का बीज बोकर ही आनंद-फल की प्राप्ति होती है। पर बीज कोई बोए और फल किसी और को मिलता रहे तो!

जब राज को शेरे कश्मीर मेडिकल इंस्टीच्यूट के क्वार्टरों के लिए लकड़ी के सोफे और बेड सप्लाई करने का ऑर्डर मिला था तो किसी को यकीन ही न होता था। यह बहुत बड़ा ऑर्डर था। बाग-ए-अली में चल रही कितनी ही फै़क्टरियों ने टेंडर भेजे थे। पर ऑर्डर की चिट्ठी राज को ही मिली थी। अगले दिन जिगरी के कहने पर राज और रूपा खीर भवानी गए थे। माँ के चरणों में नैवेद्य चढाने। बाद में जिगरी हरी पर्वत भी गई थी। रूपा के सहारे टुकटुकाते हुए। नैवेद्य बरकत लाया था। ऐसे ऑर्डर और भी आने लगे थे। फिर एक दिन सब कुछ धरा रह गया। ऑर्डर भी और फैक्टरी भी। अब सुना है सरकार मुआवज़ा देगी। पर किस-किस चीज का मुआवज़ा देगी वो....!

जिगरी को भीतर कहीं अजीब-सी बेज़ारी महसूस हुई। इस मुसलसल उदासी से वो थक सी गई थी। जिस्म का हर जोड़ चटखता था। गुज़रा वक्त़ ज़हन में कुछ इस क़दर खौलता था कि अंततः इस पत्थरों के शहर में अतीत के आबशार फूट पड़ते थे। इन आबशारों का ही सहारा था। इनमें उसकी सराय हो गई ज़िन्दगी के गोशे-गोशे में पनाह लिए बैठे दर्द व दहशत कहीं दूर बह निकलते थे। आबशारों के ठंडे छींटे मन के साथ-साथ चेहरे पर पड़ते थे तो आँखें  मुंद जाती थीं। कुछ लम्हों के लिए पीछे छूट गई यादों का छिड़काव-सा हो जाता था पर तपते पत्थरों पर। जिगरी निःशब्द हो पुकार उठती थी, “वो मुझसे मेरी ज़मीन ले सकते हैं... मकान ले सकते हैं पर वहाँ की बुखारी से जो अंगारे मैं अपने मन की काँगड़ी में छिपाकर लाई हूँ उसकी आँच को जलाए रखना मेरे हाथ में है। जब तक मैं हूँ यह तपिश बनी रहेगी।‘‘ चारों ओर जिगर की रेशवॅर... संतस्थली की स्मृतियाँ नियामत की तरह बिखरी होती थीं।

रूपा ने जिगरी को हौले से हिलाया तो जिगरी लौट आई थी गर्म पत्थरों के शहर में। 

“कहवा लीजिए,” कहा रूपा ने तो जिगरी ने हाथ बढ़ाकर कहवे का गिलास थाम लिया, “तूने पिया ?‘‘

‘‘हाँ।” 

“आज क्या देर से जाएगी?‘‘ 

“नहीं”

‘‘तो‘‘ 

‘‘मन नहीं कर रहा जाने का‘‘ 

“हाँ, जेठ की गर्मी... है जिस्म तोड़कर रख देती है तेल निचोड़ लेती है।‘‘ 

“गर्मी का क्या सोचना... अब तो यही गर्मी है इसी का आसरा है पर’’

“क्या बात है ? रुक क्यों गई ?” जिगरी ने चाय का गिलास एक ओर रखते हुए पूछा। रूपा की आँखों में भयाकुल कातरता के भाव उभरे, “माना हम क़ाफ़िर थे... हम कायर थे ...हम बागी थे... पर...पर वो निर्मला। आवाज़ रुंध गई थी उसकी।

“कौन निर्मला...क्या हुआ उसे ?‘‘

‘‘निर्मला रैना...उसने सोच लिया था... अपनी ज़मीन को किसी क़ीमत पर नहीं छोड़ेगी... गाँव-भर की हितैषी थी,‘‘ आवाज को हिम्मत थमाते हुए कहा रूपा ने, “कब किसके काम नहीं आती थी....उसे भी नहीं छोड़ा।‘‘

“क्या गोली मार दी ?” एक आह की तरह बेसाख़्ता निकल गया जिगरी के मुँह से। 

“मार देते तो अच्छा था... हाथ-पाँव तोड़कर पेड़ से लटका दिया।‘‘ 

“ईश्वर !” जिगरी ने अपने सहमे हाथ किसी अदृश्य के सामने जोड़ दिए।

सहमकर राज उठ बैठा। गर्दन मोड़कर देखा। पास ही रूपा गहरी नींद में सो रही थी। उसकी उँगुलियों ने अपने माथे को छुआ और वहाँ उभर आई पसीने की बूंदें पोंछ डालीं। फिर उठकर एक गिलास पानी पिया। जी कुछ सँभला। झाँककर देखा, जिगरी भी सो रही थी।

आज उसने फिर वही सपना देखा था। भयंकर आतंक की पुनरावृत्ति का सपना। एक सँकरी गली में वह खड़ा है। चेहरे पर भय, त्रास और बेचैनी के झुलसे भाव लिए। जिस्म का रंग हर पल गहराता जा रहा था... पुराने शीशम का रंग...सहमी हई साँसों में छटपटाहट के फंदे। सामने से एक शख्स चला आ रहा है। भारी-सा फिरन और ऊँची सलवार पहने। पैरों में नए व कीमती जूते....चर्र-मर्र...चर्र-मर्र। उस शख़्स की ओर देखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था वह ...बिना सिर का वह जिस्म... उसी की ओर आता हुआ। चेहरा नहीं था सो आँखें भी नहीं थीं...वह देख नहीं पा रहा था। उसके चौड़े कंधे पर एक चिड़िया बैठी है। छोटी-सी चिड़िया स्याह रंग की। वह सिरकटा... बिना चेहरे वाला शख्स उसे तलाश रहा है। हाथों से टटोल-टटोलकर उस सँकरी गली में आगे बढ़ रहा है। राज की ही ओर। राज आगे बढ़ेगा तो उसकी गिरफ़्त में आ जाएगा। पीछे की ओर गली बंद है। उसने मुट्ठियाँ भींच लीं...मुट्ठियों में बंद थी सिर्फ़ हताश होने की आज़ादी। वह सिरकटा शख़्स बढ़ता चला आ रहा है उसी की ओर... टटोलता हआ...लगातार...।

ओह! अब इस शहर में तो पीछा छोड़ दो मेरा। मुँह में बुदबुदाकर कहा उसने। कुछ नहीं बचा है मेरे पास अब। छिटककर दूर जा गिरी उजड़ी हुई चनार की एक निर्जीव शाख-भर रह गया हूँ...शिथिल व निस्पंद!

रिश्तों का भी एक बोझ होता है, शायद। दोस्तियों का, घर व शहर से जुड़ाव का, अपनी हवा का...। सब बोझ उतर गए। फिर मन भारी क्यों है ? उस एक रात ने कहीं कुछ बाकी नहीं छोड़ा। वह रात त्रास देती है रह-रहकर...अब तक।

वो शिवरात्रि की शाम जब राज घर में अकेला था। जिगरी और रूपा जम्मू में थे। वह पाँच दिन पहले ही उन्हें जम्मू पहुँचाकर आया था मामा जी के इसरार पर। फिर यहाँ श्रीनगर में हालात ऐसे न थे कि जिगरी की आँखों का लगकर इलाज हो पाता। जिगरी की इच्छा थी कि राज भी कुछ दिन रुके और शिवरात्रि मनाकर ही लौटें। पर राज के क़दमों को फुसफुसाकर बर्फ पुकार रही थी। वे लौट आए थे। पैरों के नीचे जो चाहिए वही राह मिल गई थी।

शिवरात्रि की शाम अकेले घर में बैठा राज अखरोट तोड़-तोड़कर खा रहा था। भूख लगी थी। सोचा चलकर किसी होटल से कुछ खा आऊँ। तभी मुश्ताक ने दस्तक दी थी। बातों के सिलसिले में भूख कहीं ऐसी दुबकी कि नज़र से ओझल हो गई। किस-किस मौजूं पर बात न की थी उन्होंने। श्रीनगर के हालात, नई फ़िल्में, डल की उजाड़ ज़िन्दगी, सीज़न की बर्फ के गुज़रते क़दमों की आवाज...! तभी अचानक मुश्ताक पूछ बैठा था, “कुछ दिन जम्मू क्यों नहीं हो आते ?‘‘

“यार, अभी तो लौटा हूँ जिगरी को पहुँचाकर।” 

“यहाँ अकेले क्या करते हो... आठ-दस दिन हो आओ वहाँ।”

“हाँ, रूपा और जिगरी की भी यही ज़िद थी...पर...।‘‘ 

“पर क्या ?‘‘

“मन नहीं लगता कहीं और। यहाँ अकेले रहना मंज़्ाूर है पर...अपना शहर तो अपना ही होता है...फिर इस जैसा शहर !‘‘

“हर्ज क्या है, हो आओ कुछ दिन।”

“छोड़ो यार... कौन रहेगा उस पत्थरों के शहर में यहाँ की आबोहवा छोड़कर... फिर यहाँ की दोस्तियाँ भी तो यहीं हैं...।‘‘

“वो सब तो ठीक है पर मान जाओ...कुछ दिनों के लिए यहाँ से चले जाओ।‘‘

राज ने ठहरकर एक साँस खींची, मुश्ताक के चेहरे पर नज़र डालते हुए। वह ख़ामोश था। तभी एक वीरान-सी बेचैनी दिखाई दी उसकी आँखों में। राज के भीतर एक आग जाग गई। सब कुछ जान लेने की आग। उसने क़रीब सरकते हुए पूछा, “बात क्या है ?‘‘

“राज, तुम जम्मू चले जाओ...बोलो...बोलो...जाओगे ना...राज?... 

“मगर क्यों ?‘‘

‘‘तुम्हारा...तुम्हारा नाम मिलिटेंट्स की हिट लिस्ट में है... राज... बोलो राज...जाओगे ना... ?‘‘

जैसे किसी ने भरे तालाब को चीर दिया हो। भीतर तक दो हिस्सों में। राज का जिगर दो फाँक हो गया था। सन्नाटा सनसनाता हुआ बह निकला। एक ज़िन्दा चीख़ ने उसे थाम लिया था, हाथ बढ़ाकर, ज़हन के साए में। राज को यकीन न आया। वह समझ नहीं पा रहा था। आख़िर क्यों ? क्या यह सच होगा? मिलावट हवा में है या मुश्ताक की नीयत में ? उसके मन में शुबहा ने अपने पाँव पसार दिए। मुश्ताक ने उसे कंधे से झकझोरते हुए कहा, ‘‘राज...तुम हिट लिस्ट पर हो...राज बोलो, जम्मू जाओगे ?‘‘ 

“कब जाऊँ ?‘‘ अशक्त व रिक्त राज ने खुद को कहते सुना।

“कल सुबह...आज रात काट लो यहाँ जैसे-तैसे...मैं कल सुबह आऊँगा...जब थोड़ा अँधेरा-सा होगा...तभी... तुम्हें बस अड्डे तक पहुँचा दूंगा।” मुश्ताक दरवाज़ की ओर बढ़ चला था। पलटकर बोला, “आज की रात भी सँभलकर रहना...सुबह मिलेंगे... ख़ुदा हाफ़िज़।”

कुछ लम्हे राज वहीं बैठा रहा अपना बेहिस्स जिस्म लिए...शिथिल...। तो इतनी ज़िन्दगी उसने आँख मूंदकर ही काट ली। दर्द के स्याह साये उसकी चेतना को निगलने लगे। एक पल को उसने चाहा था...मन से चाहा था कि मुश्ताक पलटकर आए और मुस्कुराकर कहे, “डरा दिया ना, कैसी रही !‘‘

पेट की भूख इन बेतरतीब ख़्यालों के कुछ निवालों से शांत हो चुकी थी। वह झटके से उठा। दो ताले खोजे और काँपती टाँगें लिए बाहर गेट की ओर बढा। एक ताला बाहर गेट पर और दूसरा पिछवाड़े के दरवाज़े पर लगाकर उसकी उँगलियों ने चाबियाँ जेब में डालीं। सहमे मन ने काँपती आवाज़ में कहा था, “आगे से आएँगे तो पीछे से भाग लूँगा, पीछे से आएँगे तो आगे से......’’

रात के साथ-साथ ठंड भी बढ़ती चली आ रही थी। भीतर हड्डियांे की ओर सिमटती हुई। राज ने कुछ अदद ऊनी कपड़े और पहने। उसके दाँत बजने लगे थे। उसे शरीर आब से भर आया हुआ महसूस हुआ। वह बाथरूम की ओर बढ़ गया। लौटकर गले में मफ़लर लपेटा व सिर पर टोपी पहनी। ठंड और सिमट आई थी। जेबें टटोलकर देखीं सिर्फ़ 1400 रुपये थे और तिजोरी की चाबी शायद जम्मू में ही रह गई थी। उसने अलमारी से अपना पासपोर्ट खोज कर कोट के भीतर वाली जेब में रख लिया। कमरे में बुख़ारी जल रही थी। बाहर से कोई देखता तो समझ जाता कि भीतर कोई है। कुछ अंगारे काँगड़ी में डालकर बुखारी उसने बुझा दी। ठंड बर्फ़ हो चली थी। सारे घर की बत्तियाँ गुल कर राज एक अदद मोमबत्ती की रोशनी में सीढियों में जा बैठा काँगड़ी लेकर। सारी रात उसने उसी टिमटिमाती मोमबत्ती के सहारे काट दी। एक बुझने को होती तो उसी से दूसरी जला लेता।

हर पल यह धड़का कि कहीं वो आ न जाएँ। सन्नाटे की सम गति पर दहशत घुमड़ती चली आ रही थी। नीरव शब्दहीन रात में ठिठुरता हुआ राज बैठा था सीढ़ियों में अकेला सिकुड़ा हुआ-सा। बरसों से धड़क रहा है दिल, पर ऐसी 

धड़कन ! कहीं ये लौ के बुझने से पहले की फ़ड़फड़ाहट का संकेत तो नहीं ! मोमबत्ती का धुआँ ख़ौफ़ में तबदील हो रहा था।

वो रात किसी दरवेश का आशीष लेकर आई थी। जल्द न बीतने का सुकून चेहरे पर लिए। उस रात ज़िन्दगी ने दहशत के अँधेरों को जिया था। उससे कहीं अधिक वेग के साथ मन में जो फूट पड़ी थी-वही थी जिजीविषा...जिसे तरस-भरी एक नज़र से देखा था ज़िन्दगी ने। चेहरे पर नागवारी की सलवटें लिए दहशत हर धड़कन पर जिजीविषा को धकियाती रही थी...और हाशिए पर खड़ी ज़िन्दगी घुटन-भरे गलियारों में ख़ुद को ढूँढ़ती फिर रही थी। दहशत के दायरों ने अँधेरे की कूची से खिड़की व दरवाज़ों के फ़र्क़ को मिटा दिया था। एक पल को लगा था कि शायद फ़र्क़ मिट गया है ज़िन्दगी और मौत का भी।

बाहर सड़क पर कुत्तों के भौंकने की आवाजे़ं या राहगीरों के क़दमों की आहटें रात के सन्नाटे पर रह-रहकर आरी चला देती थीं और राज की धड़कनों को कोई चीर देता था। ख़ौफ़ का धुआँ घुमड़ता चला आ रहा था। सीढ़ियाँ उसकी गंध से भर गई थीं। सीढ़ियों के किनारे लगी रेलिंग के खम्भे ऐसी जीवंत उपस्थितियाँ थीं जिन्हें बीच-बीच में छूकर राज अपने ज़िन्दा होने का प्रमाण पा लेता था। 

घड़ी ने पौने छह बजाए तो गेट-बेल ने आवाज़ की। रात गुज़र गई थी। चैंककर राज उठा और सीढ़ियों को लाँघता हुआ नीचे पहुँचा। फिर ठिठका। अगर मुश्ताक न हुआ तो ? अगर वह अकेला न हुआ तो? क्या सचमुच वह मुझे बचाना चाहता है ? आगे बढ़कर राज ने लेटर बॉक्स में से झाँककर देखा। साइकिल का हत्था पकड़े मुश्ताक खड़ा था। दरवाज़ा खोलने के अतिरिक्त राज के पास कोई विकल्प न था।

मुश्ताक ने उसे चैक पर मिलने का संकेत दिया और साइकिल ले आगे बढ़ गया। राज ने घर पर ताला लगाकर एक बार नज़र भरकर मकान को देखा। पहली मंज़िल की बालकनी पर काले चेहरे वाले राक्षस का डिठौना लटक रहा था। लाल जुबान बाहर निकाले। जिगरी का ख़याल था कि इससे दूसरों की बुरी नज़र नहीं लगती है।

मुश्ताक की साइकिल के हत्थे पर बैठे राज की कमर में लगातार मुश्ताक के पेट से बँधी पिस्तौल चुभती रही थी। तो ये पिस्तौल भी रखता है...। लगभग बीस मिनट में मुश्ताक ने उसे बस अड्डे के पास ही एक गली में पहुँचाया और खुद वहाँ से ओझल हो गया था। 

आठ बजे राज एक टैक्सी में बैठा जो जम्मू जा रही थी। उसमें तीन सवारियाँ पहले ही बैठी थीं। लगभग कूदकर राज टैक्सी में बैठा और टैक्सी चल पड़ी। पहले तो उसने एक ठंडी साँस ली परंतु तभी उसे महसूस हुआ कि वह ज़िन्दगी की सबसे बड़ी ग़लती कर बैठा है। अन्य तीनों सवारियों के चेहरे दाढ़ी में छिपे हुए थे और वे तीनों ही ख़ामोश बैठे थे। उसने चीख़ना चाहा था, पर निःशब्द चीख़ें गले तक आकर गाँठों में तबदील हो जाती थीं। फिर एक के बाद एक गाँठ वापस पेट की ओर जाती हुई। टैक्सी में एक ग़मगीन ख़ामोशी घुमड़ती रही थी।

बटोट तक राज का दिल डूबता-उतराता रहा। इस दोपहर तक के सफ़र में उसने ज़िन्दगी की आखि़री घड़ियाँ गिनी थीं। साँस रोककर उतरते और चढ़ते दोनों क्रमों में। बटोट पर टैक्सी रुकी तो तीनों सवारियाँ उतरीं। एक होटल की ओर बढ़ने लगीं। तभी उनमें से एक पलटकर आया और राज से बोला, “पंडित जी, खाना नहीं खाओगे ?” राज बिना कुछ कहे उतर आया और उसके पीछे-पीछे चलने लगा। मेज़ पर बैठकर उनमें से एक ने राज के ज़र्द चेहरे की ओर देखा, “क्या बात है ? घबराए हुए हो।”

‘‘नहीं, ऐसा तो नहीं।” अचकचाकर कहा राज ने।

“अब तो बटोट पहुँच चुके हैं। ख़तरा टल गया है। बताओ, क्या बात है ?” पानी का गिलास उसकी ओर बढ़ाते हुए एक दाढ़ी वाले ने कहा।

राज को महसूस हुआ कि इतने घंटों का तनाव अचानक अपनी गिरफ़्त ढीली कर रहा है। उसे पता चला था कि वे तीनों मुर्गियों का धंधा करते थे और चूजे ख़रीदने जम्मू जा रहे थे। राज ने खाना खाया। जम्मू तक का बाक़ी सफर लम्बी और खुली साँसें खींचकर तय हुआ। शाम तक टैक्सी जम्मू पहुँच गई थी। उस जम्मू में जो अब शायद उसका नसीब बन गया था।

कुछ ही दिनों में राज ने नानक नगर के एक तिमंज़िला मकान की सबसे ऊपर वाली मंज़िल पर बने एक कमरे में अपनी गृहस्थी एक बार फिर बसाई। रूपा और जिगरी के साथ। पर वो ख़ौफ़ज़दा रात राज के भीतर कहीं टँगी रह गई थी।

रूपा ने राज के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘नींद नहीं आ रही ? क्या सोच रहे हो।’’

राज ने पलटकर देखा। रूपा की आँखों का शहद भी अब दर्द की सफे़दी से चितकबरा दिखने लगा था। राज ने उसके कंधे पर सिर टिका दिया।

‘‘आज पहली तारीख है। हरभजन आएगा।’’

जानता हूँ...हर महीने ही आता है। अपने पंडित होने का जुर्माना तो मुझे भरना ही होगा...हर महीने... ता-ज़िन्दगी...।

‘‘ऐसे क्यों सोचते हो...हमारा अपना मकान है श्रीनगर में...बरसात ज़िन्दगीभर नही चलती... उतरती भी है।‘‘ आवाज़ में भोर की नमी उतर आई थी।

‘‘नफ़रत की बरसात नहीं... कभी नहीं, कब तक... कब तक पिटेंगे हम इसके हाथों...बेवजह...और कितने सितम सहने होंगे...’’ डूबते जी से कहा राज ने।

रूपा ने उसके बालों में उँगलियाँ फँसा दीं। राज झट उठ बैठा, “कहाँ से लाऊँगा मैं हर महीने 1200 रुपये हरभजन के लिए। बाकी इन तीन भूखे पेटों के लिए... कभी-कभी जी करता है कि हम भी कैम्प में रह लें... कुछ तो निजात मिलेगी..’’

‘‘निजात ! कैसी बातें करते हो...वो सब देख पाओगे मेरे साथ तुम...उस गंदगी को सह पाओगे? यहाँ टाँग तो फैला सकते हैं। वहाँ साँपों और ज़हरीले बिच्छूओं के साथ रह पाओगे? बूँद-बूँद पानी के लिए लड़ पाओगे...और...और क्या पता औरों को देखकर एक दिन मैं भी ग़लत न समझूँ पेट पालने के लिए अपना जिस्म...’’

‘‘चुप रहो...भगवान के वास्ते... ‘‘राज को एक बार फिर वेदना ने बाँहों में भर लिया था... अपनी ओर समेटते हुए, “क्या-क्या दर्द नहीं सहा है हमारी क़ौम ने...।’’


बाहर फुसफुसाहट-सी बारिश हो रही थी। बर्फ़ की बारिश। श्रीनगर की बर्फ़। खिड़कियाँ सभी बंद थीं। हवा में लिपटी वह फुसफुसाहट खिड़कियों की झिर्रियों पर अंदर घुस आने के लिए सिर पटक रही थी। कुछ हिस्सा एक लकीर में अंदर आ पा रहा था। सोफे पर बैठे नसीर के फिरन का कॉलर कुछ काँपा तो उन्होंने पहलू बदलकर काँगड़ी और क़रीब कर ली। रिसाला पहली ही झपकी में हाथ से छूटकर दूर जा गिरा था। तभी सन्नाटे में कुत्तों की आवाज़ से वे चांैक गए। काँगड़ी एक ओर रख उन्होंने खिड़की के पल्ले को जरा-सा खोलकर बाहर झाँका। दूस्-दूर तक फैला सर्द अँधेरा। पूनम की रात में चाँदी के बर्फ़ीले फर्श पर लैम्प पोस्ट की रोशनियों के पीले धब्बे। दूर मैदान में बिखरी बर्फ़ पर दो कुत्तों का दीवानगी की हद तक लोट-लोटकर खेलना। नसीर के चेहरे पर मुस्कुराहट उभर आई। बावले हैं...बर्फ की हर बारिश के बाद ऐसे ही खुश होते हैं। बचपन में सबको कहते सुना था कि बर्फ़ का आना इनके लिए अपने मामा का घर आना होता है। तभी खुशी से पागल हो जाते हैं। बर्फ़ मामा के आने की खुशी।

नसीर ने पल्ला बंद किया और समय का ख़्याल किया। बमुश्किल ग्यारह बजे होंगे। वे बिस्तर की ओर बढ़ने ही वाले थे कि रात को चीरती हुई एक गोली की आवाज़ ने उन्हें चैंकाकर रोक दिया। अब ये आवाज़ें चैंकाती-भर हैं ख़ौफ़ नहीं जगाती। आदत में दाख़िल होती जा रही हैं।

अंदर से नफ़ीसा ने हड़बड़ाकर पूछा, “गोली चली है कहीं शायद ?‘‘ नसीर ने उसके कमरे की ओर बढ़ते हुए सँभले लहजे में जवाब दिया, “हाँ, तुम सो जाओ।” नफ़ीसा ने ‘ख़ुदाया’ कहते हुए करवट ली और पास लेटी शाहाना पर बाँह छोड़कर सोने की कोशिश में जुट गई।

डॉ. नसीरुद्दीन डार श्रीनगर मेडीकल कॉलेज में प्रोफेसर थे। उन्हें फ़ख्र था कि एक ज़माने में वे इसी कॉलेज के स्टूडेंट भी रहे थे। दो साल यूरोप में लगाकर आए थे। स्विटज़रलैंड देखने की चाह उम्र के साथ-साथ पनपती चली गई थी। स्विट्ज़रलैंड... इस ज़मीन का बहिश्त...! चाहते तो वहाँ टिक सकते थे पर अपनी हवाओं की खुशबुओं का अक्स उनके मन को सहला जाता था। वे भीतर से सिहर उठते थे। उनका वैज्ञानिक मन अपनी तार्किक शक्ति खो बैठता था। कभी-कभी अपना बहिश्त उन्हें एक कविता-सी लगने लगता था। दूर-दूर तक फैले ऊँचे पहाड़ों पर देवदारों, चीड़ों, चनारों के कुहराम से लिखी कविता... चश्मों, आबशारों, नागों की लय पर लिखी कविता...केसर की क्यारियों पर लहराती हवाओं के खुलूस से लिखी कविता...सूफ़ियों दरवेशों, संतों के कलामों से हासिल रूहानी सुकून की बहारों से लिखी कविता... लोककाव्य। वेे लौट आए थे अपने लोक में। हमेशा के लिए। 

पाँच दिन की मुसलसल हड़ताल, फ़ौजियों के मार्चपास्ट और बिजली की आँखमिचैनी ने माहौल में बेचैनी भर दी थी। वादी के सियासी हालात करवट ले चुके थे। नसीर के रोज़मर्रा के शग़ल में ख़ास अंतर नहीं आया था पर अंदर ही अंदर हलचल बढ़ती जा रही थी। 

नसीर यहाँ के सियासी तानेबाने की समझ रखते थे। तवारीख़ से वाक़िफ़ थे। लेकिन फिर भी नौजवान पीढ़ी के आज़ादी के नारों को सुनकर उनके कश्मीरी ख़ून में भी हल्का-फुल्का उबाल आने लगता था। अगले ही पल माहौल में बसी बारूद की गंध उन्हें इस कदर निर्भीकता से घूरती थी कि वे नज़र वहाँ से हटा लेते थे। झीलों और दरियाओं के नीचे पानी पर बिखरा सुर्ख़ अक्स उन्हें भीतर तक कचोट डालता। ऐसे में ऊँचे क़द और चैड़े कंधे वाले आज़ादी के नारे भी शर्म के मारे मुट्ठी-भर के हो जाते थे। और उन नारों की उँगली थामकर राह खोजते लोग? वे लोग सरहद पार से आती मदद का दीया हथेली पर लिए राह खोजते थे। उस दीये को सिर पर चमकता सूरज मानकर। फिर हर बार किसी पंडित परिवार के पलायन की ख़बर असंख्य तारों में एक संख्या का और जुड़ जाना...लगातार। मुँह का ज़ायका कड़वा हो जाता था। हैरानी छाने लगती थी और पूरा ज़हन बोझिल हो जाता था। कोई अपना बसा-बसाया घर, सामान, ज़मीन, बैंकों में रखा ज़ेवर और रुपया, पुरखों की यादें छोड़कर कैसे हमेशा के लिए जा सकता है ! मुल्क़ की ज़हीन मानी जाने वाली क़ौम को यह क्या हो गया है ? अपनी तहज़ीब, अपनी ताक़त...सबको नज़रअंदाज़ कर सिर पर पाँव रख वे क्यों भाग रहे हैं? यह क्यों नहीं समझ रहे कि उनको भागने के लिए डराया जा रहा है, उकसाया जा रहा है। अपना घर-बार छोड़कर जाने वालों को रोकने के बजाय, उन्हें हिफ़ाज़त की गारंटी देने के बजाय सरकारी हाथ उन्हें भागने में मदद दे रहे हैं। उन्हें याद आया राज किशन तिक्कू। पिछली सर्दियों में जम्मू में उससे अचानक मुलाक़ात हो गई थी। गले मिलने के बाद वे उस पर बरस पड़े थे, ‘‘तुमसे ये उम्मीद न थी। आँधियाँ आती हैं, गुज़र जाती हैं...तूफान आकर थम जाते हैं। यह वक़्ती सिलसिले होते हैं... ज़िन्दगी फिर अपनी रफ़्तार पकड़ लेती है।”

राज ने भीगी आवाज़ में कहा था, ‘‘आँधी जारी थी, तूफ़ान का ख़ौफ़ बढ़ता जा रहा था... बचने की कोशिश के अलावा कोई चारा नहीं था।‘‘ इसे दर्द में लिपटी बुज़दिली समझ नसीर और उबल पडे़ थे, “मुहल्ले के किसी गुंडे ने लठ घुमाया और आप पीठ दिखाकर भाग लिए।‘‘

‘‘लठ नहीं... ए.के. फ़ौटी सैवन...। माफ़ कीजिएगा डॉक्टर साहब, आप अब तक चैन से इसलिए बैठे हैं कि इस बंदूक ने अभी आपकी तरफ़ रुख़ नहीं किया है।‘‘ इतना कहकर राज ख़ामोश हो गया। उसके अलफ़ाज़ की तल्ख़ी और तंज़ से नसीर बिंध गए थे। राज ने उनसे रुख़सत ली थी। वे वहीं बाजार में खड़े देर तक उसके झूलते-से कंधे देखते रह गए थे। इस उम्र में... कैसा बुढ़ाने लगा है...चेहरे का रंग भी इतना भी... ख़ौफ़ किस बात का!

एक के बाद एक धमाकों की आवाज़ों से खिड़कियाँ बज उठीं। सर्द रातों में ये आवाज़ें कितनी भी दूर से आती हों, दहला जाती हैं। नसीर को इस सर्दी में भी अचानक प्यास महसूस होने लगी। गला रूखा-सा हो आया था। उन्हें गुल्ले पर भी गुस्सा आ रहा था। घर के कामकाज के लिए पाल-पोसकर बड़ा किया था। घर के मेम्बर की तरह रखा। उसके रहते घर की फ़िक्र भी दूर ही रहती थी। लेकिन साल-भर पहले जो अचानक लापता हुआ तो पलटकर नहीं आया। नाशुक्रा! तभी दरवाज़े की बेल सुनकर वे एक बार फिर चैंके। इतनी रात गए कौन होगा ? उन्होंने बाहर की बत्तियाँ जलाईं, दरवाज़ा खोला तो सामने गुल्ला खड़ा था।

गुल्ले, तू...बड़ी लम्बी है तेरी उम्र...पर कहाँ मर गया था?‘‘ 

“तमीज़ से बात कीजिए डॉक्टर साहब‘‘ गुल्ले को उनकी तल्ख़ी पसंद न आई थी। नसीर गुल्ले के लहजे से सकपका गए। उन्हें गुमान भी न था कि गुल्ले की आँखों का लिहाज़ किसी फ़ाख़्ता की तरह उड़ जाएगा। अगले ही पल गुल्ले ने दाईं ओर से फिरन उठाकर कंधे पर रख लिया। वहाँ लटकी ए० के० फ़ौटी सैवन देखकर नसीर सँभल गए, “अरे भई, मैं तो मज़ाक़ कर रहा था। आओ, अंदर आओ। तुम तो बच्चे हो अपने। कहाँ रहे इतने दिन ?” 

“मैं जंगजुओं में शामिल हो गया हूँ।” नसीर की धड़कनों ने कुछ पल ठहरकर सुना, ‘‘हर तरह के हथियार चलाने की ट्रेनिंग ले चुका हूँ और मुल्क़ की आज़ादी की राह में कुर्बानी की क़सम खा ली है।” सामने की कुर्सी पर बैठते हुए फ़ख्र के साथ कहा गुल्ले ने। नसीर ने जैसे-तैसे मुँह की लार निगली, “बहुत अच्छा, तुम्हारे जैसे होनहार नौजवान से यही उम्मीद थी। ख़ुदा तुम्हें कामयाब करे।”

गुल्ला कुछ बेसब्र था। उसकी एक टाँग लगातार हिल रही थी, “रात बहुत हो चुकी है, मुझे दूर पहुँचना है...पर...।‘‘

“पर क्या ?‘‘ नसीर की जान धड़कनों में ज़ोर से धड़की। धक-धक्। 

“आपसे एक दिल की बात करने आया हूँ।” गुल्ले के चेहरे पर सख़्ती बनी हुई थी। 

“हाँ-हाँ, कहो...।” नसीर घबराए कि कहीं गुल्ले तक उस धक् धक् की गूँज न पहुँच जाए। तभी उन्होंने गुल्ले को कहते सुना, “सिर पर कफ़न तो बाँध लिया है... लेकिन मरने से पहले सोचता हूँ ...शादी कर लूँ।” धड़कनों की गूंज ने सांस ली, ‘‘बिल्कुल, क्यों नहीं। तुम्हारे जैसे नौजवान के लिए लड़कियों की क्या कमी हो सकती है। ज़रूरत पडे़ तो हमें बताना। हम भी कुछ जरूर करेंगे।‘‘

“लड़की मैंने चुन ली है,” गुल्ले के सख़्त चेहरे पर एक सुर्ख़ी लहरा गई। नसीर ने उसकी पीठ ठोकने के अंदाज में कहा, “ये हुई न बात। चलो इसी बात पर मुँह मीठा करते जाओ।’’ वे उठे और अलमारी से मिस्री निकालकर पेश की, “हाँ भई, कौन है वो खुशनसीब? गुल्ले के चेहरे पर तनाव की सलवटें उभरीं। मिस्री की डली उठाते हुए उसने कहा, ‘‘शाहाना।’’

शाहाना का नाम सुनते ही नसीर के जिस्म का ख़ून ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर दौड़ा। दिमाग़ में सनसनाहट-सी हुई। खुद को जबरन सँभालकर जस का तस बनाए रखते हुए वे बोले, “अरे वाह...इसमें तो कोई परेशानी ही नहीं है।” गुल्ले के चेहरे का तनाव ग़ायब हो गया। उसने मिस्री मुँह में डाली, “अब आप जैसा कहें...चाहें तो कल ही...”

नसीर ने कुछ पल सोचने में लगाए। फिर संजीदा हो बोले, “देखो, तुम इस  घर में बेटे की तरह रहे हो और अब दामाद बनने वाले हो...तुम जानते हो शाहाना मेरे पास खुर्शीद की अमानत है। मुझे कुछ मोहलत दो। मैं कल ही उससे बात करता हूँ। उसे भी भला क्या एतराज़ होगा... मगर फिर भी...’’ नसीर ने सीधे गुल्ले की आँखों में देखते हुए कहा, “कुल मिलाकर तुम मुझे हफ़्ते-भर का वक़्त दे दो...बस।”

राइफल सँभालते हुए गुल्ला उठ खड़ा हुआ, “ठीक है। फिर मैं अगली जुम्मेरात को आऊँगा और जुम्मे के रोज़...।‘‘

“बिल्कुल ठीक,‘‘ कहते हुए नसीर ने गुल्ले को गले से लगाकर रवाना किया। उसके जाने के बाद वे सोफ़े पर अपना कटा जिस्म ले ऐसे गिरे कि न बर्फ़ीली हवाओं का होश रहा न काँगड़ी का। ज़रा-सा उचककर देखा। राज का वो जुमला जम्मू के उस बाज़ार से आकर सामने की कुर्सी पर बैठा मुस्कुरा रहा था, “आप अब तक चैन से इसलिए हैं कि इस बंदूक ने अभी आपकी तरफ रुख़ नहीं किया है।” उसी कुर्सी पर जिस पर से उठकर अभी-अभी गुल्ला गया था।

घड़ी ने एक के बाद एक घंटा बजाया। बारह बज चुके थे। नसीर ने खुद को समेटकर ठेला। सोफे़ से उठाया और कुछ दूर रखे फ़ोन के पास पहुँचे। उन्होंने दुबई का नम्बर मिलाया ! जब अपने बहनोई खुर्शीद की आवाज़ सुनी तो सिर्फ़ इतना कहा, “खुर्शीद...मैं...नसीर... मुझसे कोई सवाल मत करना... कल जैसे भी हो पहली फ्लाइट पकड़कर दिल्ली पहुँचो। जनपथ होटल...बाकी बातें वहीं होंगी।‘‘ घंटे भर बाद डॉ० नसीरुद्दीन का परिवार टैक्सी में सवार हो जम्मू की तरफ़ रवाना हो चुका था।


तीन गर्मियाँ गुज़र चुकी हैं। चैथी सेंध लगाने को है। राज ने फोल्डिंग बेड बाहर खुले में बिछाया। लेटते ही नज़र को तारों ने थाम लिया। छितरी हुई टिमटिम के बाद आकाशगंगा। दुख की हल्की धार ने नीचे तक आते आते नदी का स्वरूप ले लिया। ज़िन्दगी के साथ-साथ चेहरों के रंग भी उड़ जाते है। एक अर्सा गुज़र गया... उस एक रात ने पूरा पैटर्न बदल दिया जीने का... सोचने का... और शायद महसूस करने का भी। सुख के एक-एक पल को कुतर डाला... रफ़्ता-रफ़्ता। कभी कभी लगने लगता है कि ज़िन्दगी के सुख ने अपना चेहरा छिपा लिया है...।‘‘रूपोश हो गया है कहीं...दुख से बचने के लिए अंधेरे झुरमुट में। पर बच पाया? अब ज़िन्दगी में जो बचा रह गया है वह क्या है ? दर्द...वेदना। शायद यही सच होता है, ... अंतिम सत्य इस जगत का। जिगरी के विषाद-भरे पल आकर राज के सिरहाने बैठ गए, ‘‘सब माया है... भ्रम... सच तो सिर्फ़ वेदना है जो चारों ओर फैली है। यही वेदना जब अनुकूल हो तो सुख हो जाती है और प्रतिकूल हो तो दुख। सच है...सुख भी दुख का एक प्रकार है।’’

दुख का प्रकार...सुख...और सुख की स्मृति...फिर स्मृतिजन्य विराग...। उसने करवट बदल ली। नदी का प्रवाह बाहर-भीतर समान हो चला।

तो डॉक्टर नसीर तीन साल बाद अपने घर लौट रहे हैं। घर लौटने का ख़्याल भर ही कैसी सिहरन जगा देता है धमनियों में। इतना समय उन्होंने गोवा में बिताया। जब खबर मिली कि गुल्ला फ़ौजियों के हाथों मारा गया तो वे लौट रहे हैं। उनका गुल्ला मरकर उनका ख़ौफ़ भी साथ ले गया। और वे लौट रहे हैं...तीन साल बाद अपने घर। पर मैं...क्या मैं कभी लौट पाऊँगा। काश!

नदी बहती रही। बराबर बहती रही और राज की पलकों पर थकान उतर आई। वे बोझ से मुँद र्गइं। अब राज नदी पार कर रहा था, तैरते हुए। पार पहुंचते ही पूरा दम लगाकर वह बाहर निकला। गीले होने से कपड़े भारी हो गए थे और जिस्म पर चढ़ी खाल की खाल बन गए थे। उसे गुमान भी न था कि वह नदी को तैरकर बाहर आ सकता है। बाहर एक खुला मैदान... छोटी-छोटी पहाड़ियों से घिरा हुआ। जानी-पहचानी-सी पहाड़ियाँ...ऊँचे दरख्तों के साए में। वह तेज़ क़दमों से चलने लगा। कहीं पहुँचने की जल्दी थी शायद...पर कहाँ ? नामालूम-सी जगह। तभी उसने पाया कि कई क़दमों की आवाज़ें हैं... उसी की ओर आती हुईं। वह ठिठक गया। पलटकर देखा चंद लोग उसी तरफ आ रहे थे। वे जितना पास आते थे उनकी तादाद उतनी बढ़ती चली जा रही थी। देखते ही देखते एक हुजूम सामने उफन पड़ा था। सभी के जिस्म पर काले लबादे...सबके जिस्म पर गर्दन मगर सिर गायब। वह पलटा और भागने लगा। मगर भागकर जाता कहाँ ? सामने की ओर से भी ऐसा ही इंसानी हुजूम उमड़ रहा था। उसने चारों ओर नज़र दौड़ाई। हर तरफ़ से ख़ुद को घिरा पाया। वह तमाम इलाका भर गया था सिरकटे इंसानों के हुजूम से। इन पहाड़ों से बेहतर तो वह नदी है। उसने सोचा पर वहाँ लौटना भी अब मुमकिन नहीं। उसे एक शोर सुनाई दिया। अजीब-सी आवाजे़ं गड्डमड्ड। समझ से परे। तभी उसकी नज़र उन लोगों के कंधों पर पड़ीं। हर कंधे पर एक चिड़िया बैठी थी। तरह-तरह की चिड़ियाँ। अलग-अलग शक्ल-सूरत और मुख़्तलिफ़ रंग। फड़फड़ाती और उदास चिड़ियाँ। हरी, लाल, पीली, नीली, नारंगी, काली, सफ़ेद चिडियाँ। वे चहक नहीं रही थीं चीख़ रही थीं। उन सबकी मिली-जुली चीेख़ों ने पहाड़ो से घिरे उस मैदान को ख़ौफ़ की बर्फ़ से ढक दिया था जो ज़मीं चली जा रही थी। कितना अकेला और बेबस है वो! सारे रास्ते बंद थे। भागे तो कैसे ? उसने एक पल के लिए आँखे मूँद लीं। अपनी सारी हिम्मत को यकजा किया और उन सिरकटे शख़्सों को ठेलता हुआ एक ओर को बढ़ने लगा। उसे कई हाथों ने रोकना चाहा, पकड़ना चाहा, मगर वह उनसे जूझता, टकराता, कतराता हुआ बढ़ता चला गया। तभी एक शख़्स ने उसे कंधों से पकड़ लिया। उसने खुद को छुड़ाने की कोशिश की पर कामयाब न हुआ। घबराकर आँखें खोलनी पड़ीं। पलट कर देखा। एक सिरकटा शख़्स था। तभी उस शख़्स ने झोले से निकालकर कंधे पर बंदूक लटकाई और अपना सिर निकालकर गर्दन पर रख लिया। चेहरा नकाब से ढँका था और दो ख़ूबसूरत आँखें राज को ही देख रही थीं। फिर उसने अपना नकाब हटा दिया। राज चैक उठा ‘‘तुम...मुश्ताक...तुम...तुम मिलिटेंट हो?‘‘

‘‘नहीं, मैं मुश्ताक हूँ...जिसने तुम्हें बचाया था... अब नदी पार कर इतनी दूर आए हो तो कहाँ भाग रहे हो?’’

‘‘पता नहीं।’’ 

‘‘चलो, वापस चलो...मान जाओ राज...घर चलो।‘‘ 

‘‘घर... कौन से घर?‘‘

‘‘अपने घर...तुम्हारे घर...अबकी उस पर बड़ा सा डिठौना लगाएँगे... चलो राज, घर चलो।‘‘

राज ने महसूस किया कि उसके कपड़े सूख रहे हैं। दूर से उड़ती एक चिड़िया आकर उसके कंधे पर बैठ गई। यह चिड़िया चीख़ नहीं रही थी। उसने पाया कि मुश्ताक वहाँ नहीं है। उसकी जगह एक चनार का पेड़ लहरा रहा है। नज़र दूर तक दौड़ाई। इंसानों का हुजूम कहीं नहीं था। एक जंगल-सा उग आया था। दूर-दूर तक चारों ओर। चनारों का जंगल। उस जंगल के बीच खड़ा राज... और उसके कंधे पर बैठी... गुनगुनाती वो चिड़िया!

साभार: वर्ष 1998 में प्रकाशित कहानी संग्रह ‘‘हाईफ़न’’


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