बदलते हालात में
चन्द्रकान्ता, -गुरुग्राम, मो. 9810629950
पता नहीं यह यात्रा जरूरी थी या गैर जरूरी। यों सलाह-मशविरा देने वालों के अपने-अपने कचोटते अनुभव थे। ‘भागते चोर की लंगोटी ही सही‘- वाली मुद्रा में अधिकांश ने ‘घर‘ जाने की सलाह दी, तो दूसरे सिरे की अनिश्चितताओं, आतंक और आशंकाओं के साए में वहाँ तक पहुँचने का यह मुहिम भरा अभियान खासा व्यर्थ लगा। एक बार जीवन के ऊपर मृत्यु का दर्शन भी हावी हो गया। छोड़ो झंझट । जब सब खत्म ही हो गया तो छायाओं के पीछे भागने में क्या तुक? यह भी सोचा कि आखिर खाली हाथ आए हैं, जाना भी खाली हाथ ही है।
लेकिन उम्र के आखिरी सिरे पर इंतजार करती माँ बोधिसत्त्व की मुद्रा में भी अपने ‘छूटे हुए‘ के लिए अशांत थी। ‘घर वंदहय घर सासा‘ वाले अपने तकियाकलाम को हर आते-जाते के आगे दुहराने वाली माँ, यों अब ‘घर पुराण‘ भूलने की कोशिश में ज्यादा सुनती और कम बोलती है, पर हिदायतियों-सलाहकारों की भीड़ में जो दो-चार वाक्य उन्होंने बोले, वे खासे असरदार रहे।
‘‘हाँऽऽऽ बच्चों ! तुम सही कह रहे हो, हम ही बेवकूफ निकले।‘‘
‘‘बेटी ! अभी तो मेरे नाखूनों से घर की रेत-मिट्टी निकली नहीं....‘‘
‘‘मुझे क्या संजोया-बटोरा साथ ले जाना था....?‘‘
यानी कि तुम्हीं लोगों के लिए तो उम्र भर खटते रहे। लंबी साँसें ऐसी छुतहा कि लाख चाहो पर बचना मुश्किल। फिर अपने ‘असल‘ पश्मीने के जामावार शाल, बादामी बौरों वाले सिल्क कार्पेट, पुश्तैनी बर्तन-भाँड़े, कंडाल, देगचियाँ समावार..... । उस पर छोटा-सा गझिन वाक्य- ‘‘तुम्हारे बाबू जी कोई सेठ-साहूकार तो नहीं थे।‘‘
वह तो जाने दो, लेकिन पुरखों की थाती, जन्म नाल गड़ी धरती का ‘अपना टुकड़ा‘ घर की रसोई के बाहर लगी, ‘‘काक्पट्टी!‘ जिस पर वे रोज गरम भात और पानी की कटोरियाँ रखती थीं कौवों, चिड़ियों के लिए। पाँखी आकर उन्हें ढूँढते होंगे- कहाँ खो गए घर के लोग।
कोई पूछे, भला पक्षियों को क्या पड़ी कि तुम्हें याद करें? तो माँ उसाँस भरती- ‘‘वे हमारे पुरखे हैं, बच्चों! पाँखियों की शक्ल में आते हैं हमारा सुखसान पूछने। तुम लोग क्या जानो!‘‘
माँ के विश्वासों पर टिप्पणी किए बिना भी यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं था कि आतंकवाद से जुड़ी लूटपाट और चोरी-चकारी बीच भरा-पूरा घर खाली हो गया होगा। जमीन का टुकड़ा भले वहीं हो, राख-मिट्टी बनी जन्मनाल भी। शायद पुरखों की कोई निशानी, कोई महक भर बची हो, किसी कोने-अँतरे में।
अजय, उमा को ज्यादा उम्मीदें नहीं थीं। पिछले छह वर्षों में जितना कुछ घटा है वादी में, उससे उम्मीद रखना महज भावुकता ही हो सकती थी। लेकिन फिर भी वे जाने को तैयार हो गए, वहीं जहाँ डर कुंडली मारे बैठा था। शायद किसी दरो-दीवार के पीछे लुकी-छिपी दरार में उनका बचपन दबा-दुबका बैठा हो? यौवन की कोई हवस, होई हादसा, किसी बुखारचे, बरामदे या एटिक में साँस ले रहा हो? एक बार देख तो लो।
ऐसे ही कई जाने-अनजाने कारणों ने अजय, उमा को जम्मू-कश्मीर की चक्करदार यात्रा पर धकेल दिया।
जम्मू से अजय का दोस्त अशोक भी साथ हो लिया, यह कहकर कि तुम लोग तो अब अपनी गली-मोहल्ले के लिए परदेशी हो गए हो। वहाँ तुम्हें पहचानेगा कौन? कर्णनगर में यों भी अब इक्का-दुक्का ‘बटा‘ ही रहता है।
तीस वर्ष! सचमुच एक अरसा हो गया। इस बीच साल-दो साल में एकाध महीने के लिए जाते भी तो विजिटर की तरह। कभी पहलगाम-गुलमर्ग, कभी यूसमर्ग-अहरबल। जो समय बचता, वह आते-जाते समय नाते-रिश्तेदारों का आतिथ्य स्वीकारते गुजर जाता।
लेकिन इतने वर्षों बाद भी जेहन में जो रुका-ठहरा है, उसे महज भावुकता कहकर परे भी नहीं किया जा सकता।
दरअसल, अशोक के साथ चलने के दूसरे कारण थे, जो वह उन्हें बताना नहीं चाहता था। पिछले छह वर्षों में घर की टूट-फूट के अलावा भी काफी कुछ पराया हो गया था। एक बार जो घर से निकले या निकाले गए, उनका लौटना उपद्रवियों को मंजूर नहीं था। अशोक उन्हें संभावित खतरों से बचाना चाहता था। वह अपनी रिश्ते की बहन ‘बबली‘ को भूला नहीं था, जो कुछ जरूरी सामान लेने घर गई और वापस लौटने से पहले आतंकवादियों की गोली का शिकार हो गई थी।
रास्ते भर अशोक भूमिकाएँ बाँधता रहा। छह-एक वर्षों में महज कुछेक ताले पड़ा खाली घर, जो उस वक्त नए पुराने फर्नीचर, पुश्तैनी विरासतों और घरेलू सामान से ठसमठस अटा पड़ा था। उसमें बाकी क्या बचा होगा? जबकि जम्मू में ही उसने बता दिया था कि वहाँ कुछ लोग रह रहे हैं। यानी ताले-शाले टूट चुके हैं और लूट-खसोट मच चुकी है।
कुद, बटोत, रामबन, रामसू-एक-एक पहाड़ी पड़ाव आकर निकलते गए। जाने-पहचाने रास्ते! लगा, अभी-अभी तो इधर से गुजरे थे हम। रामबन के पंजाबी होटल में, राजमाभात परोसते मुन्ना सरदार से खूब बातें हुईं। उसके चेहरे पर समय ने झुर्रियों के जाल बिछाने शुरू कर दिए थे, मगर आत्मीयता ज्यों-की-त्यों। भर-भर कड़छियाँ राजमा परोसता वह अफसोस करता रहा कि अब मिलिट्री कॉनवायों और ट्रकों के अलावा देशी-विदेशी टूरिस्ट दिखाई नहीं पड़ते। हँसते-चमकते चेहरे और हसीन बुलबुलें तो ख्वाब ही हो गईं।
अजय उमा को वादी में नौकरी कहाँ मिली? आजीविका के लिए वृहद् राष्ट्र के एक कोने से दूसरे कोने तक भटकते रहे। मन कहीं टिका नहीं। सोचते रहे कि रिटायरमेंट के बाद घर लौटेंगे, अपनों के बीच। घर आकर कोई पूछता, क्या तुम्हारे लिए यहाँ भात नहीं था? तो वे हँसकर उत्तर देते- ‘आप लोगों ने ही तो निकाल दिया।‘
माँ-पापा वर्ष के दस महीने घर-द्वार से ही चिपके रहे। चिल्लयकलान के दो-एक बर्फीले महीनों में बच्चों के पास दिल्ली, बम्बई आते रहे पर मन तो वहीं कर्णनगर के घर, दरो-दीवारों और आँगन में खड़े लम्बे सफेदों की ऊँची फुगनियों के आसपास डोला करता। हरदम लौटने की बेताबी।
‘‘वहाँ बाथरूम का पलस्तर उखड़ गया है। फ्लश खराब पड़ा है। नाथजी ने कहा है, इस बार निशात बाग से गुलाब की कटिंग ले आऊँगा। ‘अब्दुल माली उसका दोस्त है न? पिछले साल जो सेब के पेड़ तुमने देखे, वे भी उसी ने शालीमार से लाकर दिए थे। अंबरी सेब की वैसी किस्में यहाँ कहाँ?
जितने दिन माँ-पापा बहू-बेटे के साथ रहते, घर के साथ वहाँ फल-फूल किचन गार्डन की लौकी, बैंगन, निका-निका सोंचल का साग भी उनके साथ रहा करते। कुछ भी पकाकर खिलाओ पर वह स्वाद कहाँ से लाओगे। ‘स्वाद तो आबोहवा में होता है बेटा! जाहिर है, उसे यहाँ नहीं ला सकते।‘
नाशरी नाले के पास पहाड़ों से रिड़के ढोक-पत्थर और मलवे बीच पर्वतीय नाले बह-बह सड़क खासी फिसलनी बना गए थे। सड़क के एक तरफ बुलडोजर मलवा हटा रहा था। ड्राइवर के एहतियात बरतने पर भरी कार जरा बाएँ झुकी तो तीनों जनों ने घबराकर सीट के हत्थे कसकर जकड़ लिए। झुकाव जरा-सा ज्यादा होता तो गहरे खड्ड में गिरकर रामनाम सत्त हो जाता।
अजय का चेहरा भय से सफेद पड़ गया, ‘जाने इस नाशरी नाले में कितने लोग दफन हो गए हैं? अंधेरी रातों में उनकी रूहें यहाँ आवाजाही करती होंगी।‘
ड्राइवर सड़क पर आँखें जमाए सपाट स्वर में बोल रहा था-‘‘आए दिन हादसे होते हैं साहब! भुरभुरे पहाड़ों से पस्सियाँ (मलबा) लुढ़कती ही रहती हैं। ऊपर से बहते पहाड़ी नालों से रपटने का डर भी लगा रहता है.....।‘‘
क्रेन के पास घुटनों तक फिरन पहने कुछ कश्मीरी मजदूर तसले-बेलचे लिए खड़े थे। उमा ने गाड़ी का शीशा उतारकर उन्हें देखा। इनमें कौन आतंकवादी हो सकता है? लेकिन उनके चेहरों पर धूल और दारिद्रय की मिट्टी चढ़ी हुई थी। वे सड़क पर झंडे की तरह गड़े नजर आ रहे थे और हवा से उनके फिरन फरफरा रहे थे।
उनकी आँखों में कौतुक था।
‘‘ऐसे क्यों देख रहे हैं?‘‘
‘‘आजकल इधर टूरिस्ट नहीं आते न।‘‘ .
‘‘हम टूरिस्ट नहीं हैं।‘‘ उमा को टूरिस्ट कहलाना अच्छा नहीं लगा। याद आए वे चार विदेशी टूरिस्ट जो कई महीनों से आतंकवादियों के कब्जे में हैं। पता नहीं किस हाल में होंगे? होंगे भी या नहीं। दूरदर्शन पर बयान देते उस आतंकवादी का मासूम चेहरा आँखों के आगे खिंच गया जिसने कहा था- ‘हम जेहाद के लिए कुछ भी कर सकते हैं।‘
लेकिन इधर लोगों का कहना है कि अब हालात बदल रहे हैं।
‘‘हाँ! लोग तंग तो आ गए हैं खून-खराबे से। उनका भी कम नुकसान नहीं हुआ। यह भ्रम भी टूट रहा है कि- बंदूक हर मसला हल कर सकती है।‘‘
अशोक जम्मू-कश्मीर सरकार की नौकरी में है। छह महीने जम्मू, छह महीने कश्मीर में रहता है। हालात से वाकिफ है।
बनिहाल की घुमावदार चढ़ाइयों पर ऊपर चढ़ती ट्रकें, जीपें नजरों के आगे छोटी-से छोटी होती पहाड़ों के पीछे ओझल हो रही हैं और थोड़ी ही देर में ऊपर वाली सड़क पर नमूदार हो जाती हैं। लेकिन कोई चहकती आवाज, कोई खिलखिलाता चेहरा नजर नहीं आता।
ऐसी उदास यात्रा उमा ने पहले कभी नहीं की। जब भी इधर से गुजरती, हँसता-गाता काफिला साथ चला करता। एक बार जाने कहाँ से कश्मीर देखने आया एक सत्ताइस-अट्ठाइस वर्ष का युवक उमा के पीछे पड़ गया। यही बानिहाल की घुमावदार चढ़ाई थी, पहाड़ों पर खड़े चीड़-देवदारों को वह मुग्ध होकर सराहता रहा। दूर पर्वत पर बैठे माचिस के डिब्बों से दिखते गूजर कोठे प्यासी आँखों देखकर उमा से पूछा- ‘‘आपका मन नहीं करता शहर के शोर-शराबे से दूर, उस कोठे में रहने के लिए?‘‘
उमा हँस पड़ी थी। ‘‘उन लोगों की जिन्दगी बड़ी बीहड़ होती है।‘‘
‘हाँ, पर कितनी शांत।‘ युवक पहली बार ही कंक्रीट के जंगलों से दूर पहाड़ों का रूप-रंग देख रहा था। बौराना शायद स्वाभाविक था।
जवाहर टनल पर बस से उतरकर वह दूरबीन से पीर पंचाल की बर्फ ढकी चोटियाँ देखता रहा। खुशी से उसकी चीख निकल गई थी- ‘‘वाऊ! हॉऊ ब्यूटीफुल! मार्वलस! पहाड़ पर बर्फ की चित्रकारी। लगता है, चित्रकार ने नीले-हरे पहाड़ों पर सफेद रंग की कूची फेर दी है। उधर ऊँची चोटियों पर बर्फ के साफे इधर झरनों की शक्ल में बह-बह जाती बर्फ! निकोलई रोरिक की एक पेंटिंग है- ‘हिमालय की महान आत्मा।‘ हू-ब-हू ऐसी ही।‘‘
उमा जब हूँ-हाँ के अलावा किसी अंतरंग संवाद में शामिल नहीं हुई तो युवक का चेहरा लटक गया। बस में बैठते ही उसने उमा के ऐन कान के पास मुँह लाकर गालिब का शेर गुनगुना दिया था
या रब वह न समझे थे न समझेंगे मेरी बात
दे उनको दिल और न दे मुझको जुबाँ और.....।
जवाहर टनल पर अच्छा खासा सैनिक जमावड़ा था। पहरे में कोई ढील नहीं। उन्हें कार से उतरने का कड़ा आदेश मिला। अटैची, बैग, बुकचे खोले-खंगाले गए। उमा तनी अकड़ी सड़क किनारे खड़ी रही।
अशोक ने ध्यान बँटाना चाहा- ‘हम छोटे थे तो लखनपुर चेकपोस्ट पर सामान की तलाशी ली जाती थी- मुझे याद नहीं, पर माँ कहा करती थीं। उस समय जम्मू-कश्मीर की सीमा में प्रवेश करने के लिए ‘परमिट‘ लेना पड़ता था। श्यामाप्रसाद मुखर्जी की बलि के बाद वह परमिट सिस्टम और तलाशियाँ बंद कर दी गई थीं।
हाँ! अब यह तलाशी..... जाने कितनी बलियों के बाद बंद होगी।
यह जरूरी है बहन। टनल के पास खड़ा एक ऑफीसरनुमा सैनिक उमा के तेवर देखकर पास आया, ‘आए दिन विस्फोट होते रहते हैं। हम लोग रिस्क नहीं ले सकते।‘
‘ठीक है, हम जानते हैं, थैंक यू।‘ अशोक ने एक ही साँस में तीन वाक्य उगले और चुप हो गया। वह हर अप्रिय स्थिति के लिए तैयार लगता है। अजय कहता है, वह आतंकवादियों से दोस्ती रखता है। अशोक कुछ नहीं कहता। आतंक के बीच जीने का सलीका सीख गया है।
टनलं के पीछे खड़े सिर उठाए पहाड़ बर्फ के भार से दबे-दबे लग रहे थे। बादलों की हल्की परत के नीचे मैला सूरज मलमल के थान के बीच झाँकने लगता है। पीली धूप पहाड़ी रास्तों के बीच बर्फीली हवाओं के डर से इधर-उधर दुबक रही है। टनल के बीच पानी के परनाले बह रहे हैं। छपाक छप्प की आवाजों के बीच फव्वारे उछलती कार सुरंग पार कर बाहर आई तो ठंडी हवाएँ चुभने लगीं। ऊँचाई से वादी मलगजी कुहरे में लिपटी रहस्य के आवरण में ढकी नजर आई। पानी के सैलाब में डूबे घरों का विस्तार धीरे-धीरे खुलने लगा तो गर्म कपड़ों के बीच ठंड घुसकर रीढ़ की हड्डी कँपाने लगी।
अक्टूबर में इतनी ठंड। गर्मी की छुट्टियों में उमा घर आती तो यहाँ से वादी पहाड़ों के चैकस पहरे बीच हरियाये आलम में मुग्ध, झीलों-झरनों से बतियाती-नजर आती। अपर मुंडा, लोअर मुंडा के घुमावों से नीचे उतर काजीगुंड पहुँचते ही लम्बे छरहरे सफेदों की कतारें बाहें फैलाकर आगोश में लेने दौड़ आती। हवाओं में कमलतालों, खलिहानों और वनस्पतियों की मिली-जुली गंध के साथ धान रोपती औरतों के सामूहिक लयबद्ध स्वर दूर तक पीछा करते- ‘थलि वोवमय व्योलिए, कलि दामा चेतमो!‘‘
आज वन मैनाएँ भी खामोश थीं। खेत सूने, सड़क के दोनों ओर सीमेण्ट की बोरियाँ और उनकी आड़ में खड़े कंधों पर गन सँभाले सैनिक जगह-जगह तैनात थे। नए ढंग का स्वागत।
लाल चैक के पास ड्राइवर अड़ गया, ‘‘साहब! आप यहाँ से दूसरा इंतजाम करें। मैं लाल चैक नहीं जाऊँगा। उधर खतरा है।‘‘ अजय उमा ने एक-दूसरे की ओर बेबसी से देखा। इतनी दूर आकर लौट जाएँ तो आने का मतलब ही क्या हुआ। अशोक ड्राइवर को मनाने लगा, ‘‘ऐसी तो कोई बात नहीं भाई, अब हालात बदल गए हैं।‘‘
‘‘सो तो हम भी अखबारों में पढ़ते हैं। पर उधर आतंकवादियों का कानून चलता है। किसी ने गोली-वोली चलाई तो...? नहीं साहब, मैं बाल-बच्चे वाला हूँ।‘‘
अशोक ने लाल चैक पर खड़े सिपाही से सलाह की, जाना ठीक रहेगा? बुत की तरह बेहरकत खड़े सिपाही ने पलकें पट-पटाकर उन्हें देखा। अकड़ी कमर को थोड़ा झुकाकर उन्हें सुना और ओ.के.‘ कर दिया।
ड्राइवर ने घिया-तोरी बना चेहरा लिए बेमन से इगनिशन ऑन कर दिया। एक्सीलेटर पर पैर इतनी जोर से दबाया कि गाड़ी ने हाई जंप मारी। तीनों जने सीटों से उछलकर गाड़ी की छत से टकराए।
बाहर सड़कें सूनी थीं। बुझी-बुझी बेरौनक चुप्पी बीच उन्होंने अमीराकदल का पुल पार किया। दो-एक दुकानों पर फिरन, फरकोट, शॉल कैप लटक रहे थे। एक दुकानदार बेंत की टोकरियों, काँगड़ियों की धूल कपड़े से फटककर झाड़ रहा था।
नुमाइश की सड़क से होते हुए पुराना शाली स्टोर पीछे छोड़ा तो कर्ण नगर का एरिया फोकस में आ गया। आगे विशाल चिनारों से ढकी श्मशान भमि का खुला फाटक नजर आया। फाटक के अन्दर जगह-जगह जलाई गयी लाशों के स्थान पर काले चकत्ते उभर आए थे जिन पर सूखे पत्ते चक्करघिन्नी खा रहे थे। इधर मृतक के अन्तिम संस्कार के बाद जगह लीप-पोतकर साफ की जाती है। फिर धूप-दीप जल-अन्न, पुष्प, दूध-दही आदि अर्पण करने का विधान है। लगता है, सैनिकों द्वारा लाशों का दाह-संस्कार हुआ है। काले चकत्ते लावारिसों की कहानी सुना रहे हैं। अपनों के हाथ नहीं लगे।
उमा के भीतर लम्बा उच्वास उमड़ा और टुकड़ों में बँटकर बाहर आ गया ‘‘इधर माँ शिव मंदिर में जल चढ़ाया करती थीं। हम टोकते, इतने सारे मंदिर हैं शहर में, तुम जलती लाशों के बीच उधर क्यों जाती हो। तुम्हें डर नहीं लगता?‘‘
‘‘डर कैसा? माँ सचमुच नहीं डरती थी। ‘‘मंगलकारी शिव का स्थान है यहाँ। उनसे तुम सबका मंगल माँगने जाती हो।‘‘
हवा में वैराग्य की गंध बढ़ती जा रही थी।
जल्दी ही घर दृष्टि के दायरे में आ गया, बंगले की ऊपरी तिकोन गेबल, काँच जड़े बुखारचे। उमा के सीने में दो-चार धड़कनें एक साथ उछल पड़ीं‘‘वह.... वह रहा हमारा घर।‘‘
‘‘हाँऽऽऽ।‘‘ सफेदों के झुरमुट के पीछे दिखती गेबल कलौंछ खा गई थी। अशोक ने कहा, ‘‘ऊपरी मंजिल में आग लगी थी, पर जल्दी ही काबू कर ली गई। ज्यादा नुकसान नहीं हुआ। घर इन्शयोर्ड है। क्षतिपूर्ति हो जाएगी।‘‘
‘‘क्षतिपूर्ति।’’ उमा के माथे की शिराएँ हल्के से काँपीं।
‘‘इधर गुलाबों की बाड़ रहा करती थी। गुच्छा-गुच्छा फूल दीवारें लाँघ बाहर झाँका करते। पड़ोसिन काकी मंदिर के बहाने टोकरी भर फूल तोड़ती तो मुझे बुरा लगता। पर माँ हँसकर कहती- ‘तोड़ने दो बेटी। भगवान के लिए ले जा रही हैं। दो दिन में कलियाँ फूट आएँगी तो फिर दीवार गुलाबों से ढक जाएगी....।
‘‘तुम फूलदान, जग और गिलासों में गुलाब सजाकर सारा घर महका देती।‘‘ अजय भी उमा की तरह पीछे लौट आया था।
‘‘उधर चाँदमारी के मैदान में विजयदशमी के दिन रावण जलता था न? हनुमान की पूँछ में आग लगाकर कागज की लंका को मिनटों में भस्म कर दिया जाता। याद है, एक बार मैं पूँछ लगाकर हनुमान बना तो पापा ने कितनी पिटाई कर दी थी?‘‘
‘‘बस! बस! इधर गाड़ी रोक दो।‘‘ ड्राइवर ने मलवे के ढेर के पास गाड़ी रोक दी। अशोक ने दरवाजा खोलकर अगुआनी की,‘‘आ जाओ।‘‘
टूटी दीवार में बनाए दरवाजेनुमा छेद के पास उमा ठिठक गई। ‘‘गेट तो उधर था।‘‘ ‘‘हाँ-हाँ, आ जाओ।‘‘ अशोक ने दुहराया।
अहाते में घुसते ही धक्का लगा। इधर नफासत से कटा-छंटा लान पसरा रहता था। अब पीली घास के अवशेषों के बीच जगह-जगह मिट्टी के खड्डे और ढूह नजर आ रहे हैं। दीवार के साथ काँटों की बाड़ उग आई है। गेट की तरफ बने हौज में खुला नल झर-झर बहा जा रहा है और आसपास कीचड़ का तालाब बजबजा रहा है। यहाँ-वहाँ कटे पेड़ों के दूंठ देख उमा की आँखें दुखने लगीं इधर अंबरी सेब के पेड़ थे न? उधर बबूगोशा और गिलास। वह भी काट डाले?
पिछवाड़े खर-पतवार के बीच सरो का पेड़ पीले पत्ते लिए- अब गिरा तब गिरा- की मुद्रा में झुका हुआ था।
‘‘ये हरा मोरपंखी पेड़ पीला कैसे पड़ा?‘‘
‘‘कोई रोग लगा होगा। देखने वाला कौन था यहाँ?‘‘ वही विरागी स्वर।
उमा की हिम्मत पस्त हुई जा रही थी। बरामदे की सीढ़ियों का सीमेण्ट उखड़ गया था। जालीदार दीवार की ईंटें खिसक आई थीं।
अशोक ने बाँह थामकर सहारा दिया। घर के दरवाजे पर हल्की-सी दस्तक देते ही काँच की खिड़की खुली और सीकचों के पीछे गोल टोपी वाला झुरींदार चेहरा उझक आया।
‘‘कुछ छुव?‘‘ (कौन है?)
‘‘हम हैं घर वाले।‘‘ घर वाले‘ शब्द फुसफुसाहट में फिसलता जान पड़ा। कहीं कोई सुन न ले।
भीतर एक मौतबर आदमी अधमैले पटू का फिरन पहने नंगी टाँगों, दरवाजा खोलकर सामने खड़ा हो गया। अशोक ने उमा-अजय का परिचय कराया- ‘‘घरवाले हैं। अपना घरबार देखने आए हैं। माँ बीमार है। वह नहीं आ पाई।‘‘
‘‘हाँ-हाँ!‘‘ कहता बुजुर्ग सिर हिलाता एक तरफ हट गया, ‘‘आओ अन्दर आओ, तुम्हारा घर है भाया।‘‘
बुजुर्ग बिना पूछे अपनी दास्तान सुनाने लगा।
‘‘हमारा तो सब कुछ लुट गया। दहशतगर्दो ने उधर चरारे शरीफ में घर-दुकान सब जला डाला। खाक पर बैठ गए....‘‘
अजय-उमा चैतरफा नजरें फिरा घर का पिटा हलिया देखते रहे थे। यह उन्हीं का घर है क्या?
‘‘आप लोग इधर कैसे आए? यहाँ तो ताले लगे थे।‘‘ अजय की आवाज अबूझ गुस्से से थरथराने लगी।
बूढ़े के हाथ विवश मुद्राओं में हिलने लगे। भूरी आँखों में बेचारगी उझक आई।
‘‘खुदा जानता है भाया, हमने कोई ताला नहीं तोड़ा। घर खुला था, हमें बताया गया खाली घर है, रहो.... जब तक सरकार कुछ इंतजाम करे....।‘‘ कॉरीडोर में आवाजाही करते उसने याचना-सी करते हाथ जोड़ दिए- ‘‘हम चले जाएँगे, उधर कुछ जुगाड़ हो जाए, बस। अपना घर-बार छोड़ पराई जगह दिल कहाँ लगता है? हम तो गाँव जवार के लोग....।‘‘
उमा कभी ड्राइंग रूम रह चुके कमरे की दहलीज पर खड़ी जख्मी फर्श और कीलें ठकी दीवारें देखती रही।
इस दाईं ओर की दीवार पर क्रिस्टल बल्बों के ऐन नीचे माँ-पापा की जवानी में खिंची तस्वीरें टँगी रहती थीं, जो कहीं नजर नहीं आईं। उसमें पापा गणतंत्र दिवस के किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम में कलाकारों को सम्बोधित कर रहे थे। बगल में बैठी माँ गर्व से तनी महीन-महीन मुस्करा रही थी। तस्वीर की जगह ठुकी कीलों के जख्मों के बीच फ्रेम की चैकोर जगह का निशान भर रह गया है। दीवारों पर मेखें ठोक कर कमरे के आरपार बनी अलगनी पर अधमैले गूदड़ रजाई, फिरन आदि इत्यादि लटक रहे हैं। कोने में फर्श पर किरासिन स्टोव के पास अल्युमिनियम के दो-तीन कलौंछ खाए पतीले, प्याले, चिमटे, तवा, हाँडी और अंगड़ खंगड़ सामान बिखरा पड़ा है। .
उमा को लगा, कमरे में ऑक्सीजन नहीं है। यह लम्बी-चैड़ी खिडकियों वाला धपीला घर एक अंधेरी खोह में बदल गया है। गर्दन मोडकर देखा, फ्रेंच विंडो पर अधमैली चादर टाँग दी गई है जिससे शीशे से छनकर कमरे में झाँकता उजास अधबीच ही घुटकर रह गया है, कमरों की दीवारें और नक्काशीदार लकड़ी की छत कालौंछ से पुत गई है।
‘‘इधर जो फर्नीचर, कालीन वगैरा थे, वह कहाँ गए?‘‘ अजय ने पूछ ही लिया।
‘‘खुदावंदे करीम को जवाब देना है भाया, हमने नहीं देखा। एक पुरानी दरी थी चैके में, वह जरूर चटाई पर बिछा दी, उधर देख लो....।‘‘
उमा ने उछलकर पाँव झटक लिए। कोई चूहा दौड़ता हुआ आया और पाँव के ऊपर कूदकर फुर्ती से भाग लिया।
वे कॉरीडोर से होते हुए जीने की तरफ बढ़ गए। बाईं ओर की स्टडी के अधखुले दरवाजे से ‘आह‘ जैसी ध्वनि बाहर आई। भीतर झाँककर देखा, काले कंबल से मस्तक ढकी आकृति चटाई पर लेटी थी। कारी डोर की आहट सुन कुन मुनाई और करवट बदलकर दीवार की तरफ मुड़ गई।
दाईं ओर रसोई का कमरा बंद था। सोचा, खोलकर देखें, खिड़की के बाहर लगी काकपट्टी उधर ही थी। अजय ने बरज दिया। ऊपर चलें?
लकड़ी की सीढ़ियों पर पैरों की आवाज हथोड़ों की चोटों-सी बजने लगी, उजाड़ घर की रूह धड़-धड़ धड़कने लगी।
बेडरूम के दरवाजे पर दस्तक दी तो भीतर हड़बड़ाहट सी हुई। जैकेट जींस पहने पच्चीस-छब्बीस की उम्र का दाढ़ीदार लड़का दरवाजे के फ्रेम में जड़ गया और आगुंतकों को अपरिचयी दृष्टि से घूरने लगा। अशोक ने दोबारा परिचय कराया। आने का मकसद दुहराया।
‘‘हम इधर आए तो यह घर सफाचट खाली था। हमें क्या पता किसका है? कोई भी आकर रह सकता है, यह मेरा घर है। फिलहाल तो हम लोग इधर रहते हैं।‘‘
लड़के की आवाज में लापरवाही, धौंस और चुनौती की मिली-जुली ध्वनियाँ थीं। उमा की टाँगें थरथराने लगी। अखरोटी लकड़ी के नक्काशीदार पलंग का एक कोना लड़के के पीठ पीछे झाँक रहा था। इस विशाल पलंग पर खड़ा अजय बचपन में हाई जंप की प्रैक्टिस किया करता था।
चलो, अशोक ने इशारे से कहा। इधर संवाद की कोई गुंजाइश नहीं थी। ऊपरी मंजिल की सीढ़ी के दरवाजे पर लोहे का मोटा ताला लटक रहा था। ‘उधर बंद है।‘ युवक की आवाज धमाके से बजी।
‘‘वहाँ हमारा कुछ जरूरी सामान है।‘‘..... अजय बोलते-बोलते हकलाने लगा।
हमने कहा न, कोई सामान इधर नहीं था। फर्नीचर हम खुद ले आए हैं।
‘‘आप ताला खोल देते तो....‘‘ पता नहीं उमा ने कहाँ से हिम्मत जुटाई।
‘‘मुमकिन नहीं। उधर कुछ जरूरी सामान है। आप लोग जाओ नहीं तो बेकार में खून-खराबा....।‘‘
अजय ने उमा की चुन्नी का छोर खींच लिया। यह चुपचाप खिसकने का इशारा था। अशोक का शरीर कौंध गया।
सीढ़ियों पर उतरते ही नीचे वाला बूढ़ा दिखा। ऊपर ही आ रहा था‘‘तुम्हें कुछ देना है ‘कूरी‘ (बेटी)?‘‘
उमा अभी युवक की धौंस भरी चुनौती से उबर नहीं पाई थी।
‘‘क्या?‘‘ गला खुश्क हुआ जा रहा था। क्या करने आई है वह इधर?
‘‘यह बुखारचे की अलमारी की चाबी है। उधर तुम्हारा मंदिर है न?‘‘ उसने फिरन की भीतरी जेब से जंग लगी ताली निकाली और उमा के हाथ में थमा दी। उमा हयबुंग देखती रही।
‘‘देख लो, अपना ‘अस्तान‘ देख लो। इतनी दूर से आए तो.....।‘‘ मैंने अलमारी में ताला लगाकर चाबी अपने पास रखी है। लड़के लोग यह सब नहीं समझते न।
उमा अजय बुखारचे के पास पहुंचे तो वृद्ध बरामदे में खड़ा रहा। बुखारचे की लाल नीले काँच जड़ी खिड़कियाँ खुली पड़ी थीं। कोने में तेलिहा तकिया और बंडपुरी चादर तहाकर रखी थी। वृद्ध शायद इधर ही सोता हो। अलमारी में जड़ा ताला खोला तो बंद अलमारी से सीलन भरी गंध का भभका बाहर आ गया। इस ‘बाबूजी के पूजागृह‘ में घर के देवता विराजते थे। घर बनाते समय ही यहाँ बड़ी अलमारी में नन्हें-मुन्ने देवताओं को स्थापित किया गया था। यहीं इसी बुखारचे में बैठ पापा धूप-दीप जलाकर सुबह-शाम पूजा-अर्चना किया करते थे।
उमा ने देवताओं की मूर्तियाँ छू ली तो पिताजी के भाव-विभोर शिवस्तुति के श्लोक अगरु गंध के साथ बुखारचे में फैलने लगे- ‘स्वात्मनि विश्वगते त्वयिनाथे, तेन न संस्सृति भीतेः कथास्ति, सतःस्वपि दुर्धर-दुःख विमोह त्रास विधायिषु कर्म गणेषु।‘
‘हे नाथ! भयंकर दुःख और मोह उत्पन्न करने वाले कर्मों के जाल में फंसे हुए आप के भक्त, इस भावना से कि विश्व आप का ही रूप है, अतः वे संसार के क्षणिक दुःखों से डरते नहीं हैं। क्योंकि डर अथवा भय तब होता है जब दूसरा हो। जब आपके बिना कोई दूसरा है ही नहीं तो डर कहाँ ?‘
जब आपके बिना कोई दूसरा नहीं तो डर कैसा? लेकिन डर रही है उमा। डर रहे हैं अजय और अशोक । श्मशान भूमि के शिव मंदिर में निर्भय होकर ‘त्रिजटाधर गंगाधर, शंकर रोजसानें‘ गाने वाली भगवान शंकर की भक्त माँ भी डर गई, जब आतंकवादियों ने उसके अखरोटी दरवाजे पर घर छोड़कर जाने का रुक्का चिपका दिया। सनातनधर्मी ब्राह्मण बहन-बेटियों की बेहुरमती की आशंका से भयभीत हो गए। भय से मुक्ति नहीं। जैकेट वाले युवक ने घर में घुसने से रोका, क्योंकि उधर सामान था। कैसा सामान? कलिशनिकोव और बारूद? उधर पिताजी का पुश्तैनी पुस्तकालय था। साहित्य, इंजीनियरिंग और विज्ञान की जिल्द बँधी पुस्तकों से सजी काँचजड़ी अलमारियाँ.....।‘ वहाँ भी डर दुबककर बैठा था।
किसी गर्भगृह की कंदरा में बंद देवताओं की मूर्तियों के फ्रेम भुरभुरा कर ढहने लगे थे। शारिका-राज्ञा और शिव-पार्वती की युगल मूर्तियों के फोटो-फ्रेमों पर दीमकों की मोटी तह जम गई थी। उमा ने चुन्नी से लीर काटकर देवताओं के मुरझाए मुख पोंछ दिए। छोटी-छोटी देव मूर्तियों के जाले साफकर उन्हें सुथरी जगह पर बिठा दिया। सिन्दूर अक्षत के अवशेष उमा ने ज्यों-के-त्यों रहने दिए। ताम्र-पत्र, शंख, आरती, निर्माल्य के बर्तन, शिवलिंग के शीश के ऊपर नन्हीं-सी घड़वी....
उमा ने गणेश और शिव-पार्वती की संगमरमरी युगल मूर्ति एहतियात से उठाकर माथे से लगाई। रूमाल में बाँधकर उन्हें फिरन की जेब में डाल दिया और अलमारी का ताला लगा चाबी वृद्ध के हाथ में दे दी।
वृद्ध ने मना किया- ‘‘आप रख लो। मैं क्या करूँगा? आज मरा तो कल दूसरा दिन। कब्र में पैर लटकाए बैठा हूँ..।‘‘ उमा की आँखों में कुहरा छा गया, ‘‘इसे सँभालकर रखना। कभी लौटी तो ले लूँगी आपसे।‘‘
बूढ़ा, पिघली आँखों से देखता रहा, ‘‘अल्लहमदुलिल्लाह। जरूर लौटेंगे। खुदा के फजल से।‘‘
वृद्ध ने चाय के लिए इसरार किया, लेकिन उमा अजय वहाँ से भागना चाहते थे। जो ‘घर‘ आने को उकसा रहा था वही अब तेजी से वापस धकेल रहा था।
जाते-जाते वृद्ध दुआएँ देता रहा- ‘‘हम भी लौट जाएँगे, अल्ला-ताला ने चाहा तो जल्दी घर लौटेंगे। कहते हैं मुआवजा मिलेगा। हमने ‘भट्ट‘ भाइयों को कभी गैर नहीं समझा। खुदा जानता है.... नई पौध नहीं समझती। वक्त का कहर है..... क्या कहें, मर रहे हैं वे भी गोली खाकर.... अल्लाह रहम करे। ऊपर पुलवामा से आए लड़के रहते हैं। उधर लड़कों को जबरदस्ती उठा कर ले जाते हैं, इसी मारकाट की ट्रेनिंग के लिए। क्या करें?‘‘
जाते-जाते वृद्ध दरवाजे तक आ गया- ‘‘उम्मीद कायम रखो बेटी। अल्लाह की मेहर हुई तो हालात बदल जाएँगे।‘‘
उमा को लगा, वह रो पड़ेगी। उजाड़-वीरान घर में वृद्ध की आत्मीयता बोझिल लगने लगी।
सड़क पर निकले ही थे कि वृद्ध का लड़का मिल गया। वृद्ध ने परिचय कराया, ‘‘मेरा फरजंद है, चाय की दुकान है बाजार में। यह घर वाले हैं रहमान बेटा।‘‘
लड़का कार तक छोड़ने आया तो उमा ने मुड़कर मुख्य द्वार देखा। छोटी सत्या की शादी में जो द्वार के दोनों तरफ हल्दी चूने-मेंहदी से रचे बेलबूटे बने थे, उनके निशान दीवार पर ठहर गए थे। बूढ़े वाले कमरे में मेंहदी रात को देर तक तुंबकनारियों पर ‘छकरी‘ बजती रही थी....।‘ गेट के पास लाल सीमेण्ट की सड़क पर खुदे शतदल पर रखी पापा की अर्थी आँखों के आगे कौंध गई। ढेरों-ढेर गेंदे गुलाबों से सजी पापा की निष्प्राण देह और घर के लोगों का करुण रुदन। कर्मकांडी ब्राह्मण का हिदायती स्वर गूंजा- ‘तुम्हारे पिता अब शिव हो गए हैं। आरती करो। रोना नहीं।‘ लॉन में खड़े लोगों की सीढ़ियों, खिड़कियों से झाँकती बीसियों आँखों से झरते आँसुओं के बीच आरती के आर्द्रस्वर पीछा करते रहे....।‘
‘शिव शंकर, शिव शंकर, हरू में हरूर द्वरितम....।‘
अपने कहारों के कंधों पर सवार पिता अन्तिम यात्रा को निकले थे, भयमुक्त। भाग्यशाली थे।
भय कैसा? जब आपके बिना कोई दूसरा नहीं तो डर कैसा?
रहमान अशोक के साथ फुसफुसाकर कुछ बातें करने में व्यस्त था। ऊपर की कलौंछ खाई खिड़की, नीचे कटे पेड़ों के ठूठ, मेखों जड़ी जख्मी दीवारें, घरवालों की याद में झर-झर रोता नल, सभी उन्हें देख रहे थे। शायद किचन से लगी काकपट्टी भी। उमा ने जेब में रखी देव मूर्तियों को जोर से भींच लिया और सीट से सिर टिकाकर आँखें बंद कर ली।
कार अब खुली सड़कों पर दौड़ रही थी। शहर पीछे छूट रहा था। पर्वत शिखर पर बैठा शंकराचार्य का मंदिर दूर तक साथ-साथ चलता रहा। अजय-अशोक टुकड़ों में बतिया रहे थे- ‘‘अब यह शंकराचार्य मंदिर ही लो, ढाई हजार वर्ष ईसा पूर्व गुणाढ्य वंश के राजा संधिमान ने बनाया था। इसे भी तौसफी लोग ‘काहे मारान‘ सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं।‘‘
. ‘‘हाँ! छह सौ साल पहले सिकन्दर बुतशिकन ने मंदिरों, पवित्र ग्रंथों को ध्वस्त कर प्राचीन इतिहास को मिटाने की कोशिश की थी। अब नए जमाने में नए ढंग से मूल निवासियों को निर्मूल किया जा रहा है।‘‘
हारी पर्वत के ऊपर चक्रेश्वर का मन्दिर सिर उठाए वादी को देख रहा था- ‘‘कहते हैं, इधर उमा ने सारिका का रूप
धरकर राक्षस जलोद्भव का वध किया था और वादी के लोगों की रक्षा की थी। वक्त-वक्त पर इधर मस्जिदें-गुरुद्वारे बने। कैसा संगम रहा यह धर्मों का!...... और आज?‘‘
पांपुर के केसर-खेत यासुमन फूलों से बरजस्त लहरा रहे थे। अजय पर अतीत हावी हो गया, ‘हम बचपन में पापा के साथ ताँगे पर सवार होकर चाँदनी रातों में ‘कोंगफुलय‘ देखने यहाँ आते थे। पापा कितने सुरीले सुरों में वह केसर की बहार का गीत गाया करते.....
‘यार गयोम पोंपुर वते, कोंग पोशव रोट नाल मतें
मेरा प्रिय पांपुर गया तो रास्ते में केसर के फूल गले से लिपट गए। इधर लल्लदेदी का जन्म हुआ था जिसने कहा- ‘शिव सर्वत्र व्याप्त है। हिंदू-मुसलमान का भेद मत करो....।‘
‘अरे अब तो नुन्दऋषि का चरारे शरीफ भी जला दिया गया....‘ उमा ने अचानक ही अशोक से पूछा, ‘‘वह रहमान तुमसे क्या कह रहा था?‘‘
‘‘कह रहा था, इधर हम हरदम मौत के पंजे में फंसे जी रहे हैं.... हालात बदल भी गए तो कितना फर्क पड़ेगा....?‘‘
‘‘यानी?‘‘
‘‘यानी क्या? कह रहा था, घर बेच दो। हम खरीद लेंगे.... आप लोग अब लौटकर इधर क्या करोगे? आगे क्या पता.....।‘‘
‘‘मगर बूढ़ा तो?‘‘.... उमा ने अधबीच ही टोका।
‘‘बूढ़ा तो बीता समय है उमा बहन, रहमान आज की पौध है। इस बीच वितस्ता में काफी पानी बह गया है। तुम क्या नहीं जानती?‘‘
‘‘ड्राइवर कार रोक दो।‘‘ उमा ने आदेश-सा दिया। अजय और अशोक आश्चर्य से देखते रहे। उमा चिनार के पेड़ से टहनियाँ काटकर डिक्की में भर रही थी। क्या कर रही है यह लड़की?
बनिहाल के पास पहुंचे तो उमा खड्ड और दरारें देखती रही।
‘‘इधर कहीं ‘भट्ट गजिन‘ है। मालूम है, सदियों पहले तातार डुलचू हजारों भट्टों को दास बनाकर साथ ले गया, पर यहीं कहीं बर्फीले तूफान में फंस गया। भट्टों के साथ उसकी भी कब्र यहीं बन गई।‘‘
क्या कहना चाहती है उमा?
‘‘डुलचू और सिकन्दर बुतशिकन के बाद भी भट्ट दोबारा वादी में बस गए, ग्यारह घरों में सिकुड़ने के बाद भी। तुम लोग रहमाने की बात कैसे सच मान गए?‘‘
‘‘उसके लिए बड़शाह और तेगबहादुर को जन्म लेना पड़ेगा जिसकी आज उम्मीद कम है।‘‘ उमा आवेश से थरथरा रही थी और अजय नाउम्मीद था।
अशोक ने उबारना चाहा- ‘‘भई! जोरों की भूख लगी है। बनिहाल में खाना खाएँगे।‘‘
‘‘मुझे भूख नहीं है, तुम लोग खा लो।‘‘ उमा गले में अटके आवेग को उगलना चाहती थी।
‘‘इधर चंद्रभागा के किनारे बैठते हैं। ठीक पहले दिनों की तरह। हूँ? देखना, कैसे भूख जागती है।
चंद्रभागा के किनारे उन्होंने खाना खाया। पिछली यात्राएँ याद की। पुलवामा के युवक और रहमाने को जेहन से उतारना चाहा और वृद्ध को याद करते रहे- ठीक वैसे ही जैसे सदियों पहले सिकन्दर को लोग भूल गए और बड़शाह को याद रखा। शायद भीतर वे किसी बड़शाह के जन्म का इंतजार कर रहे थे। .
उमा रास्ते भर नन्हें शिवजी को सम्हाले सोचती रही कि माँ को लौटकर क्या कहेंगी? यही कि काकपट्टी पर अब पुरखे नहीं आते? घर का ध्वस्त हुलिया बयान करे या पुलवामा के लड़के की बातें? या रहमान के घर बेचने का मशविरा?
बेचैन प्रश्न दिमाग में भन्ना रहे थे। पर एक तसल्ली भी थी कि शिवजी को अपने घर से निष्कासित करके उसने माँ के लिए कम-से-कम यादों का एक वृहद् कोष जिंदा तो कर ही दिया है- बिना किसी अनुष्ठान के, छूटे सिरे का प्रतिष्ठापन।