श्रीनगर का वह पुरस्कार

संस्मरण


कुसुम अंसल, नई दिल्ली, मो. 9810016006


उसका फोन फिर आया...उसकी खरखरी आवाज में शालीनता कम आग्रह अधिक था और फिर पुरस्कार का नाम आकर्षक भी बहुत था-‘अनजान स्त्री अनजान स्वर‘। मैंने तो कभी किसी साहित्यिक गोष्ठी में न उसे देखा न सुना था...फिर...कश्मीर की वादी। कश्मीर की हरी-भरी वादी...डल लेक का शिकारों से थरथराता पानी सदा ही मुझे आकर्षित करता रहा है...तो? फिर डॉ. महीप सिंह का फोन आया। बताने लगे उनके लिए भी निमन्त्रण है। ‘‘आप‘‘? मैं चुप हो गयी। उनका स्वास्थ्य तो साथ नहीं दे रहा था... परन्तु उनका उत्साह बड़ा था-“सोच रही हूँ‘‘ कुछ दिन बीत गये...कुछ पत्रिकाएँ मिलीं, जिनमें पुरस्कार लेते उसके चेहरे से थोड़ी पहचान बनी... अवश्य ही बडी लेखिका होगी कोई, परन्तु आश्चर्य सनीता भी नहीं जानती थी। शाम को फोन की घण्टी बजने लगी-उसका नाम समझ में नहीं आने के कारण मैंने उसे ‘कश्मीर‘ लिखकर फोन में फीड कर लिया था उसका आग्रह फिर मेरे सामने फैल गया था तो उपाय सूझा। मैंने उसे टालने जैसी आवाज में कहा, ‘‘मैं अकेली नहीं आ सकती...अगर आप मेरी मित्र सुनीता जैन को आमन्त्रित कर लें तो फिर मैं शायद आ सकूँगी।‘‘

‘‘हाँ, अवश्य...मुझे उनका नम्बर दीजिए...।‘‘

फिर एक पत्र..मुझे और सुनीता-दोनों को आया। चलो, दो रात की बात है, चलते हैं। हवाई जहाज के टिकट करा लिए और ‘ललित‘ होटल में बुकिंग भी करा ली। फरवरी के अन्तिम दिन थे। ठण्ड थी, जब यान में बैठे सुनीता ने कहा... पता है कुसुम, मैं पहली बार जा रही हूँ कश्मीर, अमेरिका घूमती रही..., यूरोप में वर्षों रही, परन्तु अपने देश के इस सौन्दर्य से वंचित रह गयी थी...चलो तुम्हारे संग वह इच्छा भी पूरी हो जायेगी।‘‘ 

“चलो, फिर तो अच्छा है, पुरस्कार के साथ तुम्हारी कश्मीर यात्रा भी होगी। मैं तो बहुत वर्षों आती रही श्रीनगर पहलगाँव, क्योंकि सुशील गोल्फर हैं। श्रीनगर का गोल्फ कोर्स शायद भारत का सबसे सुन्दर गोल्फ कोर्स है...। और फिर यहाँ पर प्रकृति का अद्भुत रूप मुझे बहुत आकर्षित करता है। मुझे लगता है इस शहर के सौन्दर्य में एक अजीब रहस्यवादी कविता घुली हुई है, या सपनीला संगीत है, जो जब-तंब कानों में रस घोल जाता है।‘‘ गाड़ी के बाहर चिनार के पेड़ों के पत्ते लहलहा रहे थे। गहरे हरे रंग की चैड़ी हथेलियों जैसे पत्ते बरसते पानी को हाथों पर सहेज रहे थे। 

जाने क्यों इन दिनों मैं कहीं भी अकेले जाने में घबराती हूँ। ‘पंचवटी‘ फिल्म के समय या अपने टेलीविजन सीरियल बनाने के समय बिना विचलित हुए अनजाने लोगों के बीच बम्बई चली गयी थी, जहाँ मेरा तब कोई रिश्तेदार या मित्र नहीं रहता था। हाँ, केवल अपने मन में होता था एक गहरा आत्मविश्वास जो अजनबी रास्तों पर, टैक्सियों की यात्रा के समय मेरे तन-मन को सँभाले रहता था, परन्तु अब, जब सुविधाएँ हैं-सबसे बड़ी मोबाइल फोन की, कहीं से भी एक क्षण में आप अपनों से बात कर सकते हो...फिर श्रीनगर मेरे लिए अनजान नहीं था। जब भी गयी ‘ललित‘ होटल में ही ठहरी। वहाँ की वैभवशाली सज्जा...हरे-भरे छायादार चिनार के वृक्ष, फूलों से सज्जित बगीचे मुझे बहुत-बहुत सुखकर लगते हैं। दंगों की ख़बरें, समाचार-पत्रों में छपी दहशतगर्दी के बावजूद किसी अशान्ति ने हमें विचलित नहीं किया था। फिर वहाँ भगवान शिव का निवास है। जब भी जाती हूँ शंकराचार्यजी के मन्दिर की ढेर सारी सीढ़ियाँ चढ़कर दर्शन किये बिना मुझे चैन नहीं आता। जैसे उस अनजाने शहर में अपना कोई आस्थावान बुजुर्ग उस ऐतिहासिक शिवलिंग में समाधिस्थ मुझे आशीर्वाद के लिए पुकार लेता है...शिवोहम् शिवोहम्। 

पुरस्कार के आयोजन का पत्र मिल गया था। पुरस्कार का नाम था ‘लल्लेश्वरी पुरस्कार‘, मेरे समूचे साहित्य के लिए। कवयित्री लल्लेश्वरी को पढ़ा तो नहीं था, परन्तु जानती अवश्य थी। सूफी कविता की रचयिता थीं वह, जिनका स्वर अभी भी वादियों में गूंजता है, जीवन्त है, यही नहीं तेरहवीं सदी में शैव परम्परा को नयी ऊँचाइयों पर ले जाने वाली लल्लेश्वरी (भक्त कवयित्री, 1320-1392) या ललद्यह की चीखें अभी भी वहाँ मुखर हैं-‘‘हम ही थे। हम ही होंगे। हम ही ने चिरकाल से गौर किया। सूर्योदय और अस्त का कभी अन्त नहीं होगा। शिव उपासना कभी समाप्त न होगी।‘‘ इतनी महान कवयित्री के नाम का पुरस्कार मेरे नाम के साथ जुड़ेगा। बस, यही एक सबसे बड़ी शह थी जो मुझे खींच रही थी। 

लल्लेश्वरी के बारे में जितना सोचती, मन उतना ही कश्मीर की ओर आकर्षित होता। उनका दर्द...और दर्द मिश्रित प्रेम और हृदय से निकलती फूटती कविताएँ...मैं डूबती जा रही थी। आत्मसमर्पण, आत्मनिवेदन।

‘‘प्रेम की ओखली में हृदय कूटा /प्रकृति पवित्र की पवन से /जलायी भूनी स्वयं चूसी / शंकर पाया उसी से।‘‘ 

शैव भक्ति के गहरे सागर में उतरती चली गयी उनकी आत्मा... जीवन चक्र की वास्तविकता का ज्ञान ही भक्त को उस आयाम तक पहुँचा सकता है और वह आयाम के निकट जाकर रुकता है। शून्य को शून्य में लीन कर देने हेतु।

Forever we come forever we go 

forever day and night 

we are on the move 

whence we come, thither we go 

forever in the circle of 

birth and death 

from nothingness to nothingness 

But sure, a mystry have abides 

something is there for us to know.  ललद्यद या लल्लेश्वरी 

कश्मीर के कुछ लेखकों के नाम भी याद आये, जैसे चन्द्रकान्ता, वह तो अपनी मित्र है। क्षमा सोंधी की ‘जलावतन‘ उसी के उदास स्वर में सुनती रही थी। कब से जानती हूँ उन्हें। विस्थापितों की दुर्दशा बयान करते साहित्य से आमने-सामने हुई तो बहुत कुछ जानने को मिला विस्थापितों से। दरअसल उनकी अपनी ज़मीन का टुकड़ा ही नहीं छूटा, उनकी आस्था का केन्द्र, वितस्ता नदी, डल लेक और खीर भवानी का मन्दिर भी छट गये। बर्फ के ढेर पर मनती शिवरात्रि और वसन्त और उसी के साथ-साथ उल्लास के रंगों में उमगता ‘नवरोज-नवरेह‘ भी आतंकवाद के बन्दूकी शोर में विलुप्त हो गया। बात 1990 के आसपास की थी, कवि मोनीलाल साकी का साहित्य खुला तो दंग रह गयी।

उन्होंने अपने आँसुओं से ही लिखा होगा, ‘‘वही जानता है, जिसने अपना घर खो दिया हो‘‘ या फिर-‘‘आज वादी में दहशत का आलम है-डुलचू की पीढ़ी जवान हो गयी है। ललद्यद और शेख-उल-आलम को आज कौन सुनेगा? बडशाह की रूह काँप रही है और वितस्ता का पानी बदरंग हो गया है।‘‘ विश्वासों की पुरानी परिभाषाएँ आतंकवाद के तूफान में चूर-चूर होकर बिखर गयी हैं। चन्द्रकान्ता ने भी वक्त के उस पल में लिखा होगा-‘‘तुम्हारे काम नहीं आयेगी मेरे बच्चों के भरोसे की वह इबारत, खुदा की हो या नेता की हो, खुद तुम्हें लिखनी होगी वक्त के पन्ने पर नयी इबारत।‘‘

अनेक निराशाओं, अनिश्चितताओं को जीता कश्मीर जैसे-तैसे साँस ले रहा है-यात्री आ रहे हैं, जा रहे हैं। मुझे लगा साहित्य और संस्कृति से जुड़े विविध आयामी विषयों पर सार्थक गोष्ठी वह, जहाँ हम जा रहे थे अवश्य ही वहाँ के कवियों और उनकी दुर्लभ रचनाओं से साक्षात्कार होगा। मेरे मन ने 14वीं शती की सन्त कवयित्री. योगिनी ललद्यद की वाणी को अपनी मूल प्रेरणा मानकर अपनी डायरी के पृष्ठों पर लिख लिया-‘‘शिव, प्रभु थल-थल में विराजते हैं। रे मनुष्य! तू हिन्दू और मुसलमान में भेद न जान, प्रबुद्ध है तो अपने आपको पहचान, यही साहिब, ईश्वर से है तेरी पहचान।‘‘ वायुयान से उतरे तो हलकी-सी बूंदाबांदी हो रही थी-गीला-गीला स्वागत । सुनीता की इच्छा थी ‘खीर भवानी मन्दिर‘ जाने की। सामान टिकाकर हम गाड़ी में बैठ गये।

‘टूरिस्ट सीजन‘ नहीं है-हमारा ड्राइवर बता चुका था। हम दोनों सड़क के दोनों ओर देखे जा रहे थे। कभी कोई आवाज चैंका देती‘‘अनजान शहर अनजान लोगों के बीच एक पहचानी-सी आवाज आयी-‘‘बदहवासी का वो आलम था। मैं खुद को ही आवाज दे रहा था।‘‘ 

‘खीर भवानी‘ का मन्दिर लगभग दो घण्टे दूर था हमारे होटल से। सुनीता के पास उसका कोई पुराना शॉल वाला आकर बैठ गया था। मैंने अपने आईपैड पर ‘खीर भवानी‘ की जानकारी के लिए पढ़ना आरम्भ किया, तो आश्चर्यचकित रह गयी। माता का मन्दिर रावण ने श्रीलंका में बनवाया था। माता को वहाँ ‘श्यामा‘ के नाम से जाना जाता था, परन्तु उसके व्यवहार से क्षुब्ध भवानी वहाँ नहीं रहना चाहती थीं। अतः उन्होंने हनुमानजी से कहा कि वह उन्हें लंका से ‘तुल-मुल‘ के पवित्र स्थल पर ले जायें। हनुमानजी ने माता को उनकी इच्छानुसार ‘तुल-मुल‘ में स्थापित कर दिया जहाँ उन्हें दुर्गा के रूप में पूजा जाता था। उन्हें ‘रागनियाँ‘ भी कहते थे। सीता भी उन्हीं ‘रागनियाँ देवी‘ का अवतार मानी जाती हैं। लंका से ‘तुल-मुल‘ आने पर जिस स्थल पर दुर्गा माँ को स्थापित किया गया उसे ‘रागनियाँ कुण्ड‘ कहते हैं, परन्तु वह सारा स्थल दलदल से भरा था और बाढ़ के प्रकोप से पूरा-का-पूरा नष्ट हो चुका था। 

तब ‘बोहरी कदल‘ के कश्मीरी पण्डित, पण्डित तापलू को स्वप्न में देवी ने आज्ञा दी कि वह उन्हें ‘तुल-मुल‘ से ले जायें। संवत् 1920 में ‘‘बोहरी-कदल‘ के मन्दिर में उनकी स्थापना की गयी जहाँ पहले से एक शिवलिंग भी था। भवानी की प्रतिमा ठीक उसी जगह प्रतिष्ठित की गयी जहाँ प्रतिवर्ष महायज्ञ होता था। रावण अपनी लंका में दुर्गा माँ को ‘खीर‘ का भोग लगाया करता था। इसी कारण यहाँ भी खीर का भोग लगता है और माँ के दर्शन को आये श्रद्धालुओं में बँटता है।

इस मन्दिर की विशेषता और भी एक रहस्य को उजागर कर रही थी। एक झरना जो हर समय बहता है-पश्चिम से पूर्व की ओर, उसकी जलधार माँ के चरणों पर गिरती है। यह जब-तब समयानुसार अपना रंग बदलता रहता है। जब शहर पर कोई मुसीबत आने वाली होती है तो विनाश की आशंका दर्शाते हुए इस जल का रंग काला हो जाता है। स्वामी विवेकानन्द और अबुल फजल ने इस जल परिवर्तन को अनुभव किया था।

हम जब तक मन्दिर पहुँचे, बारिश और तेज हो गयी थी, परन्तु मन्दिर के द्वार खुले थे। भीड़ भी नहीं थी। आसानी से माँ के दर्शन किये। पण्डितजी ने तिलक भी किया। सुनीता अपनी और मैं अपनी प्रार्थना में लीन अपने-अपने आसन पर बैठ गये। मैं नहीं जानती उसकी प्रार्थना क्या थी? परन्तु मेरे मन में मेरी आत्मा में कुछ नहीं उभर रहा था इस समय ...शब्दविहीन शून्यता में बैठी थी-आध्यात्मिक स्वतन्त्रता जैसी-हाँ शिव मन्दिर की एक दीवार पर लिखे शब्द-‘न मैं मृत्यु शंका न मैं जातिभेद‘ । शायद इसी कारण शॉल वाला सुनीता का मुसलमान मित्र भी आँखें मूंदे हमारे पास ही बैठा था।

प्रतिमाओं से लिपटी फूलमालाएँ मुरझा गयी थीं। सारे फल माथा झुकाये सूख रहे थे, परन्तु उनके बीच गुंथा, उनके मध्य से गुजरता धागा-बस वही जीवन्त था। परमानेंट अमर ‘थ्रेड ऑफ इनफिनिट‘, जीवन्त जिसे परिवर्तन छू भी नहीं रहा था। शायद भवानी माता का वही सन्देश था हमारे लिए कि कुम्हलाते-टूटते रिश्तों के मध्य जीवन्त रहना है। मन्दिर से बाहर आये पण्डितजी ने खीर की कटोरी पकड़ा दी-आई एक्सेप्टेड व्हाट वाज ऑफर्ड। 

सुबह उठकर जब कमरे का दरवाजा खोला तो मैं हैरान रह गयी.. हल्की-हल्की रुई के फाहे जैसी बर्फ..उस लम्बे-चैड़े लॉन की हरी घास पर अपना तन्तुजाल फैलाती पसर रही थी। अद्भुत अनुभव था। मैंने पहली बार इतने निकट से बर्फ को गिरते देखा था। बाहर आकर अपनी हथेलियाँ फैला दीं। परत-दर-परत कोमल-सी हिम मेरे अस्तित्व में घुलने लगी। याद आयी प्रसादजी की कामायनी-

‘‘हिमशिखर के उतुंग शिखर से /एक पुरुष भीगे नयनों से / देख रहा था जल प्रवाह / ऊपर हिम था नीचे जल था  / एक तत्त्व की ही प्रधानता / कहो उसे जड़ या चेतन‘‘ 

हाँ, मेरी हथेलियों पर जमा हुआ जल, जैसे अनुभव जमे रह जाते हैं हृदय में, और जो स्मृतियाँ तरल होकर बहती हैं, वे...कविता जैसी प्रवहमान उगती हैं मन में।

हम तैयार होकर चल पड़े...जिस स्थान पर पुरस्कार देने की व्यवस्था थी वह होटल से दूर था। चीड़ और पाइन पेड़ों की कतारों को फलाँगते जब हम वहाँ पहुँचे तो बहुत आश्चर्य हुआ। सुनीता बड़बड़ा रही थी-‘‘कहाँ ले आयी हो मुझे कुसुम, यह श्रीनगर है या गाँव जैसा माहौल है यहाँ, क्या लेखकों की अब इतनी दुर्दशा हो गयी है कि इस गँवार दालान में साहित्य की चर्चा की जाये।‘‘ मैं भी परेशान थी-‘‘कहाँ आ गये सरे राह चलते-चलते।‘‘ उस स्त्री के इतने फोन, इतने आग्रह कि बिना जले मोमबत्ती पिघल जाये तो मैं या हम..? परन्तु मैं कहाँ जानती थी कि...उस जगह पहुँचकर पहले तो कार से उतरना ही कष्टकर था, जब उतर गये, तो सामने खड़ी लकड़ी की वे गीली कमजोर सीढ़ियों से क्यों? कैसे चढ़ेंगे हम? ये ही सीढ़ियाँ चढ़ने इतनी दूर आयी हूँ मैं...बिना सोचे? देखा कुछ लोग एक-दूसरे को थामे कठिनाई से चढ़ रहे थे, तो हम भी अपने ड्राइवर की सहायता से किसी तरह वहाँ पहुँच गये। 

भीतर गये तो दृश्य और भी निराला था-कनटोपे, मफलर, शॉल सिर पर लपेटे-थोड़े-बहुत लोग, जो लेखक कम, किसी गँवार पंचायत के पंच जैसी मुखाकृति-परिवेश..दुशाले ओढ़े वृद्धजन बड़े से तख्त पर विराजमान थे। कुर्सियाँ भी थीं। हमारे देखते-देखते एक महिला कम्बल बाँट रही थी। लोग कम्बल लेकर अधलेटे से अपने आप को स्टेज पर स्थापित कर रहे थे। कम्बल हमें भी दिये उन्होंने पर...वे बदबूदार...जाने किसके कम्बल थे? हमने अपने शॉल दुपट्टे सिर से लपेटे, सोचा, अब ओखली में सिर दिया तो मूसल से क्या डरना जैसी स्थिति, जिससे पार उतरना था? मैं और सुनीता हतप्रभ उस अजीबोगरीब पुरस्कार को ले रहे थे। मुझे एक बात कील-सी चुभी। वह महिला बाकी सभी को लेखक...रचनाकार कहती थी, परन्तु मेरे नाम के साथ जोड़ती थी ‘कुसमांजलि की अध्यक्षा। बहुत बार उसने इस विश्लेषण का प्रयोग किया जो असहनीय जैसा था। हाँ, परन्तु एकाएक मेरे सामने उसके अनगिनत फोन और मीठे आमन्त्रण का भेद खुल गया था। बर्फारोहण का भी, अनादर से जुड़े आदर से दूर रहने का सन्देश। समारोह समाप्त होते ही मैं सुनीता का हाथ पकड़कर उतर आयी...वह आग्रह करती रही-‘‘भोजन करके जायें, कुसुमजी।...‘‘ यह भी सुनने में आया...‘‘पुरस्कार का पूरा ख़र्च मैंने अपने बलबूते पर उठाया है...‘‘ मेरा जी चाहा उसकी दी छोटी-सी रकम का वह चेक फाड़ दूँ। वहाँ कोई यह भी बता रही थी कि हमने चन्द्रकान्ता जी को भी बुलाया था, पर वह कहने लगी “हमें तो लाख-ढाई लाख के ‘व्यास पुरस्कार‘ मिलते हैं। तुम्हारे इस भुखमरे पुरस्कार को लेने क्यों आयें?‘‘ लेखन को तिजारत में बदलते...ये अधकचरे लेखक...पुरस्कार..या अपमान, कौन-सा साहित्य... क्या था वह? सुनीता और मैं रास्ते भर चुप रहे। सारा उत्साह उस बर्फ में जम-सा गया। होटल आकर खाना खाया, फ्रैश हुए। होटल के चारों ओर बर्फ अपना जाल बिछाये हमें और उदास करने लगी। तो क्या हम ही पागल थे आग्रह...को आग्रह माना था, पुरस्कार को सम्मान समझा था निरादर नहीं। परन्तु हम कहाँ खड़े थे-बर्फीली हवाओं में अपनी बेवकूफी पर झल्लाते हुए। तभी मेरी बेटी का फोन आया...‘‘हाय मॉम, क्या कर रही हैं आप?‘‘ 

“कुछ नहीं यहाँ इतनी बर्फ गिर रही है कि...हमारा डल लेक तक जाना नहीं हो पा रहा, सोच रहे थे शिकारे की सैर करते, पर बोरियत हो रही है।‘‘ 

‘ओह मॉम गो टू द बार। वहाँ बैठकर सेलीब्रेट कीजिए। आप लोगों को पुरस्कार मिला है...‘‘

‘‘ओह हाँ,...थैक्स हम जरूर सेलीब्रेट करेंगे।‘‘ मैं उससे क्या कहती? ...बस हम उठ गये। साड़ियाँ पहनी, तैयार होकर ‘बार‘ में चले गये...। मद्धम रौशनी में पियानो बज रहा था, हलका कॉकटेल संगीत-बुरा नहीं था। ‘‘चीयर अप‘‘ पुरस्कार पुरस्कार है यही मानकर चलते हैं। हमने अपने नीबू पानी के गिलास हवा में उठाकर टकराये। टेलीविजन पर रंगीन गाने भी उभर रहे थे। भुनी मूंगफलियाँ और ललित होटल का पुराना ऐतिहासिक परिवेश धीरे-धीरे हमें सहज कर रहा था। तभी हमारे एक पुराने शॉल वाले का फोन आया-‘‘ओह मैडम...मैं अहमद आपका शॉल वाला, अभी आपके बारे में सुना-आप श्रीनगर में हैं। मुझे मेरे दोस्त ने फोन किया और पता चला आपकी किसी किताब पर कोई ‘प्राइज‘ मिला है आपको।‘‘ याद आया एक शेर-

‘‘जाने कौन पहचान वाला था अनजाने शहर में,
जिस तरफ से गुजरा पत्थर बेशुमार चले।‘‘ 

उस कमरे के हर कोने को देखा-लगा एक चिपचिपाहट दीवारों से लिपटी है और चेहरे जैसे पुराने पोस्टकार्ड के झाँकते शब्द पीले-बदरंग होते हुए। तो क्या हम किसी भूले-बिसरे अजायबघर में पहुँच गये हैं? उसके शब्दों की मिठास हमें खरोंच रही थी। बाद में एक गुनगुनी चाय का गिलास कोई वेटर पकड़ा गया था, जो हमारे भीतरी उत्साह के उफान को बुझी हुई सिगरेट की महक से भर गया था। अपने ही वजूद में हम जैसे अपने-अपने मौन में एक टूटी-सी किरचों की रहगुजर पर खड़े हो गये थे। तभी घण्टी बजी..‘उस महिला‘ का फोन आया था... घण्टी बजती रही, पर मुझे क्या बात करनी थी उससे? कुछ भी नहीं, क्योंकि उसकी बातों में उलझकर ही यहाँ तक आयी थी। अब बचा क्या था जानने को?...हाँ, तब तो नहीं पर बाद में, मैं पत्रिकाओं में देखती-पढ़ती रही...‘महान लेखकों को मिलने वाले सारे पुरस्कार। वर्ष-दर-वर्ष उनके गर्वित चेहरे के साथ उभरते हैं। सुबह हमारी फ्लाइट थी, उठे तैयार हुए, परन्तु बर्फ का प्रकोप एक अनिश्चय गढ़ रहा था, फ्लाइट जायेगी भी या नहीं। चाय के गिलास पकड़े प्रतीक्षा में थे। होटल के रिसेप्शन हॉल में पुरानी बहुत पुरानी कलात्मक वस्तुएँ, जो मुझे हमेशा अच्छी लगती थीं, न जाने क्यों आज दीवार पर चिपकी, मुझे डिप्रेशन से भर रही थीं। दो बार उस महिला का फोन मेरे मोबाइल पर अपना नाम दोहरा चुका था जो बार-बार मेरे मौन को तोड़ रहा था। किरचों की एक रहगुजर पर खड़ा कर देता था। क्या बात करूँ उससे? उसकी बातों में उलझकर आयी थी यहाँ-‘महान लेखकों से मिलने-जानने का उत्साह समाप्त हो चुका था।’ 

बर्फ तो बस गिरती जा रही थी। बर्फ तो बर्फ ही होती है। हथेलियों पर गिरे या घास पर...या लपेट लूँ उस रेशमी पटके में जो पुरस्कार स्वरूप मिला था। क्या? बर्फ की शीत सच्चाई नग्न...हमें पथरा रही थी। तभी फोन पर एक मैसेज मुझे मुझमें लौटा ले गया

"Don't change your colour for few people ____May be they are colour blind stay, real".

(अन्य व्यक्तियों को देखकर रंग परिवर्तित मत करो, क्योंकि हो सकता है वह रंगों को देखने में असमर्थ हों-कलर ब्लाइंड।) 

प्लेन में बैठने के बाद सोच रही थी अपनी उन दो दिनों की प्रश्नात्मक स्थिति के बारे में। कश्मीर की इस वादी में, जिस साहित्य के परिचय के लिए हम आये थे, वह तो मिला नहीं। हाँ, एक नाकाम-सा आक्रोश मन में घुमड़ता रहा, परन्तु मेरे हाथ में जो पत्रिका थी, उसमें छपे ये वाक्य ‘शान्त‘ कवि के-‘‘अँधेरा है अभी, पर सूर्य जरूर निकलेगा” और सन्तोषी कहते हैं-‘‘इस बार सूर्य मेरी नाभि से निकलेगा।‘‘ 

तो मैं भी उस सच के सूर्य की प्रतीक्षा करूँगी, वह सच, वह उजाला, जो वास्तव में लेखक की उपलब्धि का होता है-उसकी अपनी रचना या यह नामधारी पुरस्कार, जो मेरे नाम को गौरवान्वित कर रहा था। 

धन्यवाद, उस महिला का, जिसने यहाँ लाकर खड़ा कर दिया था, मुझे। लल्लेश्वरी देवी...नाम का बीजमन्त्र, जो मुझे भविष्य में हमेशा प्रोत्साहित करेगा आगे तक।


साभार - 




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