तुम भी सोचो, हम भी सोचें
बर्फ की चाँदी सी चादरें ओढ़े
दूर-दूर तक, हरी-हरी घास की साड़ियाँ पहने
केसर की क्यारियों में,
खुश्बूएँ बिखेरते कुदरती नज़ारे
आज भी मोह लेते हैं, मुसाफिरों को...मगर
ठण्डी हवा के खुश्बूदार झोंके
झन-झन बहते इधर-उधर झरने
धूप-छाँव सा खेल खेलते ये नज़ारे
अब सवाल पूछते हैं
जिस नाम से रोमांच हो आता था, जाने को दिल ललचाता था,
नाम आते ही उस फूलों की घाटी का, घूम जाते थे आँखों में
हजारों दृश्य
बादामी बाग की सिड़ियाँ, खुर्मानी से लदे रास्तों वाली सड़कें
सेब के बगीचे
ठण्डे पत्तों की छाँव वाले चिनार के घने पेड़
आकाश को छूते देवदार...बतखों की तरह पानी पर बहते
फूलों से सजे शिकारे...
कमल की डंडियों के बने गर्म-गर्म पकोड़े और काहवे
कांगडी की मीठी-मीठी आग जो बदन को गरमाये रहती थी
क्यों अब बदन को जलाने लगी है?
अब कोई वहाँ मौसम के खुलने का इंतज़ार क्यों नहीं करता?
हनीमून के लिये जाने का विचार नहीं करता?
ये नज़रे, ये चीज़ों सब आज भी वैसी की वैसी हैं
लेकिन दहशत का जहर इनमें फैल गया है।
केसर के खेतों में सड़ रही हैं लाशें
गडरियों के गीतों में भर गई हैं आहें
चुभने लगी है चिनारों की छाँव
कोई नहीं आता खुशी से इस गाँव
कि होने लगी है अब यहाँ,
बंदूकों की खेती,
बंटने लगी है अब यहाँ
बहू और बेटी
चप्पे-चप्पे में फैली है उदासी
ऐसा तो न था ये मेरा कश्मीर
किसने चलाए हैं नफरत के तीर?
भर दी है गोशे-गोशे में पीर
क्यों फूलों की घाटी की बदली तकदीर?
क्यों जलने लगा सारा कश्मीर ?
तुम भी सोचो, हम भी सोचें
मिलकें बनाए एक पक्की जंज़ीर
फिर से खिलाएँ आशा के फूल
खड़ी करें इसकी वही तस्वीर
तुम भी सोचो, हम भी सोचें।
कितनी संधियाँ और करोगे?
कितनी संधियाँ और करोगे?
हर संधि
युद्ध की तैयारी के लिये
माँगा हुआ शांतिपूर्ण समय है
जिसमें...
जाँचे जाते हैं नक्शे,
भेजे जाते हैं जासूस मैत्री के रूप में
पहुँचाया जाता है असला चप्पे-चप्पे में
लगाये जाते हैं निशान निशानों पर
खरीदे जाते हैं देश के गद्दार
माँगी जाती है दुनिया से सहानुभूति
भरमाया जाता है शांति के रास्तों को
संधि शांति में लिपटा हुआ बम्ब है
जो कभी भी तुम्हारे आँगन में फूट पड़ेगा
और तुम रह जाओगे अवाक्, हैरान
ये क्या हो गया?
हमने तो संधि की थी, मैत्री और शांति का कदम बढ़ाया था
इसीलिये खोले थे बार्डर
आमंत्रण दिया था नरेश को
बिछाये थे रेड कारपेट
अपनी गरीब प्रजा के कंधों पर
डाला था बोझ, जगाये थे आशा के दीप
कि चलो चिनार के पत्तों को ठण्डक बनी रहे
ओ मेरे भोले नरेश!
इतिहास मत भूलना
तराजू में तोलना
जब मुद्दे प्रतिष्ठा के बन जाते हैं
तो प्रेम खत्म हो जाता है, भर जाती है नफ़रत और आग
कश्मीर ऐसा ही एक मुद्दा है
तुम्हारी बातचीत, संधि का सपना
युद्ध के लिये माँगा हुआ शांतिपूर्ण समय है।