उसके हिस्से की धूप

मीनाक्षी मेनन, होशियारपुर, पंजाब, मो. 91 94174 77999

कोहरे भरे  दिन अब विदा हो रहें हैं, बहार दे रही हैं पतझड़ में लुटी डालियों के द्वार पे नई कोंपलों की दस्तक। लंबी ठिठुरती रातों की अकड़न से  बेचैन धरा इतरा रही है,गुनगुनी धूप का नरम,और गरमाता हुआ स्पर्श पा के। बड़े मालिकाना हक से बरामदे में पसरी धूप में अठखेलियां करती गिलहरियों को देख सहसा मन्नू ने थाम लिया मेरे ख्यालों का दामन, जैसे कह रही हो,‘‘ दीदी,बहुत पतझड़ और बेदर्द शिशिर सहा है मैंने, टुकड़ा टुकड़ा हीं सही धूप और बसंत पर मेरा भी तो कुछ हक है।‘‘

उफ्फ !! 13 साल की मन्नू ने कैसे सहा होगा इतना लंबा और निष्ठुर  पतझड़? क्या महसूस किया होगा उसने

 जब छूटे होंगे रिश्तों की टहनी से एक-एक करके सभी पत्ते? आहत मन,पीड़ित तन लिए कितना छटपटाई होगी वो, ठिठुरती, बेजान, और चरमराई सी टहनी की तरह भयभीत कांपती होगी ,असहाय बिना किसी धुपहले स्नेहिल स्पर्श की ओट और आत्मीयता की नरम धूप के सहारे।

‘‘दीदी पानी!‘‘,16-17 साल की एक लड़की ट्रे में पानी लिए खड़ी थी।

आत्मीयता से मुसकरा कर जब मैने उसकी ओर देखा तो न जाने क्यों मेरी आँखें  ठिठक कर रह गई उसके चेहरे पर। अजीब सा सम्मोहन था उसमे, कुछ था उसकी वाचाल सी लगने वाली आंखों में, जो ठहर गया था य अतीत की कोई काली परछाई सी होगी यकीनन । 

अनायास ही पूछ बैठी , ‘‘नाम क्या है तुम्हारा?‘‘

‘‘जी, मन्नू‘‘

‘‘यहां कब से हो?‘‘

‘‘4 बरस से दीदी‘‘

‘‘ हूँ....‘‘ , जाने क्यों मेरी ‘‘हूँ’’... जरा लंबी हो गई और उस अंतराल में जैसे मेरा मन पढ़ गई मन्नू।

Juvenile homes के साथ बरसों से एक काउंसलर की हैसियत में काम करते इतना तो जानती थी मैं कि यहां हर बच्ची एक दर्दनाक हादसे से गुजर के आती है। 


विडंबना देखिए, आत्मरक्षा में किए गए वार के लिए भी खुद को निर्दोष साबित करने के लिए एक लंबी अवधि,अपनो से दूर एक ऊँची  चारदीवारी मे गुजारनी पड़ती है,दुर्भाग्य कहुँ या नियति कि जहां उत्पीड़न होता है वहां अक्सर सबूत और गवाह नहीं होते। 

मुझे अपनी ओर निहारते देख बोल उठी मन्नू,‘‘हम बेकसूर थे दीदी,सच्ची विद्या कसम ! पर अम्मा और छुटकी ही न आए हमारे हक़ में बोलने। सोचते होंगे बेइज़्जत तो हो ही गए हैं हम ऊपर से चाचा की बाजू भी काट दिए हंसिए से,चाचा भी तो गुस्साए होंगे खूब हमारे दरोगा बाबू को शिकायत करने पर। 

अम्मा संग ब्याह कर के आसरा भी तो वही दिए थे हम सब को। उनको सजा हो जाने से घर भी तो आदमी से खाली हो जाता न,सो हम ही को कुलच्छनी कह के विसार दिए। कचहरी से डाक भी गई दो तीन बार पर अब वहां कोई रहता ही नहीं। होंगे तो वहीं गांव में बस खोली बदल लिए होंगे। वह महिमा मैडम है ना, जो आपको यहां छोड़ने आई थी, बड़े साहब की मिसेज... बहुत अच्छी है वह। दया करके हमें यहां खाना बनाने और सफाई के काम पर रख लिया। पढ़ाती भी है वह हमें। आठवीं की परीक्षा भी देंगे हम इस बार.. ‘‘अरे हम भी क्या शुरू ही हो गए अपनी कथा लेकर,आपके लिए चाय लाएं? हे भगवान! आप तो रो रही हैं दीदी। हम तो भले चंगे हैं, अब सब भूल भुला गए हैं।‘‘

बत्तीसी दिखा कर बोली मन्नू। ‘‘देखिए तो हम कितने खुश हैं।‘‘ , 

उसकी मुस्कान जैसे कलेजा ही भेद गई मेरा, कितनी बावरी है ये लड़की, दुख को मुस्कान में लपेट के परोसना सीख गई है इतनी छोटी सी उम्र में,और उसे खुशी कहती है। अजीब सी इस पहली मुलाकात ने मेरे दिल पे ऐसी अमिट छाप छोड़ी कि सोते जागते जैसे मन्नू संग बंध गई मैं। 

आज मधु की विदाई थी। Juvenile homes को छोड़ वह अपने घर जा रही थी। 

‘‘सुन मन्नू, तेरी मां के लिए कोई चिट्ठी देनी है तो दे ना।‘‘

‘‘ ना - री रहने दे ‘‘

‘‘और हरी पूछेगा तो क्या कहूं ?तू याद करती है उसे ?‘‘

‘‘ना-हम याद नहीं करते किसी को, और उसको तो बिल्कुल भी नहीं। गणित पढ़ाता था हमे और हमारे हिस्से की रोटी खा जाता था...भुक्खड़।‘‘  खिलखिला के हंस दी दोनों।

‘‘अरे दीदी आप कब आए?‘‘

‘‘बस अभी, यह लो मधु तुम्हारे लिए एक छोटा सा उपहार‘‘

मैं मन्नू का हाथ पकड़ कर उसे वहां से अपने ऑफिस में ले आई।

‘‘मन्नू इधर देखो‘‘

मन्नू की बड़ी बड़ी आंखें मे आंसू थे।

‘‘क्या हुआ ?‘‘ 

‘‘कुछ नहीं दीदी वह हमारे गांव की है ना मधु, सो मन भर गया। खुश हैं वैसे तो हम ,चलो किसी को तो घर वापस मिला।

‘‘मन्नू‘‘ कहते हुए मैंने अपनी बाहें फैला दी।

गले लिपटते ही ऐसे फूट-फूट कर रो दी मन्नू ,जैसे बरसों से जमा दर्द बह निकला हो। मेरे आंसूओं ने भी उसके दर्द को शिद्दत से महसूस किया ।

‘‘दीदी हमें मां और दीना की बहुत याद आती है। बापू अगर जिंदा होते तो जरूर ले जाते हमें घर । फफक के रो रही मन्नू जाने मेरे कांधे पर कौन सा आसरा ढूंढ रही थी। मुझे याद आ रही थी आंगन में पसरी धूप की टुकड़ियों में फुदकती गिलहरियां,और मन में ठान लिया था मैंने मन्नू को उसके हिस्से की धूप लौटाने का। बस फर्क इतना होगा कि वह आंगन उसके गांव में नहीं मेरे घर पर होगा। एक संतोष सा महसूस हुआ मुझे जब उसके माथे को चूम उसे अपने से अलग करते हुए मैंने पूछा ,

‘‘मन्नू मेरे घर चलोगी?‘‘ और मुस्कुराकर मन्नू मुझसे लिपट गई।

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