ब्रिगेडियर उस्मान का उत्सर्ग



पाकिस्तानी सेना में सबसे उंचे ओहदे के लालच को दरकिनार कर भारतीय फौज में रहते हुए कश्मीर की पहली जंग जीतने वाले बिग्रेडियर उस्मान की वीरता ने कश्मीर के इस युद्ध में भारतीय पक्ष और इसकी सत्यता को और मुखरित किया है। जब पाकिस्तानी सेनाएं नौशहरा, झंगड़ में उलझी हुई थीं, काफी रक्तपात हो चुका था, तब इस वीर सेनानायक ने धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को बहुत ऊंचा उठा दिया। पाकिस्तानी सेना और अधिकारी उसे काफिर कहते थे। पाक में आजाद कश्मीर के तथाकथित अधिकारियों ने उसके सिर के लिए 50,000 रुपए पुरस्कार की घोषणा की थी। लेकिन इस वीर योद्धा और सेनानायक ने मुलतान से 50,000 गैर-मुस्लिमों को सुरक्षित भारत पहुंचाया था। 3 जुलाई 1948 को कश्मीर में युद्ध के दौरान कबाइलियों और पाकिस्तानियों को काफी क्षति पहुंचाने वाले इस योद्धा को अपने कर्तव्य पथ पर वीरगति प्राप्त हुई।

पाकिस्तान के पास कश्मीर का एक तिहाई भूखंड आ चुका था। जब भारतीय सेनाएं पुंछ से कूच करके पाकिस्तानी घेरे को तोड़कर तथाकथित आजाद कश्मीर पर आक्रमण करने ही वाली थीं, तभी भारत सरकार ने 1 जनवरी 1949 को युद्धविराम की एकतरफा घोषणा कर दी। पाकिस्तान द्वारा बलात् कब्जाया गया कश्मीर का भूखंड उसके हवाले हो गया। यह तो गलती थी ही लेकिन पंडित नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को प्रसन्न करने के लिए भारतीय संविधान में धारा 370 को जोड़ कर एक नया सिरदर्द भारतीय जनता और संवैधानिक व्यवस्था को दे दिया। भारतीय एकात्मकता के साथ, कश्मीर की आत्मीय पहचान को तथाकथित प्रबुद्ध पाकिस्तानोन्मुखी नेता कभी समझ नहीं पाए।

धारा 370: एक अभिशाप

भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 तत्कालीन संविधान निर्माताओं के समक्ष एक जटिल, असहज और अव्यावहारिक प्रस्ताव का ही प्रारूप था। पंडित नेहरू का समर्थन और शेख अब्दुल्ला के इसके प्रति आग्रह ने डॉ. भीमराव अंबेडकर को उद्वेलित और पीड़ित किया था। इस अनुच्छेद में कहा गया कि जम्मू-कश्मीर के लिए विधि बनाने की भारतीय संसद की शक्तियां उन्हीं विषयों तक सीमित होंगी, जिनको राष्ट्रपति उस राज्य से परामर्श करके विलय पत्र में निर्दिष्ट उपबंधों के अनुसार राज्य के लिए तत्स्थनागत घोषित करें। राज्य सरकार से परामर्श करके और उसकी सहमति से ही ऐसा किया जा सकेगा, अन्यथा नहीं अर्थात् यदि राज्य की संविधान सभा बनाने से पहले ऐसी कोई विधि-व्यवस्था की जाए तो भी उसे संविधान सभा के समक्ष रखा जाएगा और उसकी सिफारिश पर ही वह लागू हो सकेगी। 

सन् 1951 में राज्य में संविधान सभा बनाने के लिए निर्वाचन हुआ और 11 अगस्त 1952 को कश्मीर की संविधान सभा में शेख अब्दुल्ला ने कहा था, 24 जुलाई 1952, मेरे और पंडित नेहरू के बीच दिल्ली समझौता हुआ था, जिसे भारतीय संविधान में 370 धारा के तहत, वैधानिक दर्जा प्रदान किया गया है। इस धारा 370 के अंतर्गत भारत ने कश्मीर की विशेष स्थिति स्वीकार करते हुए जम्मू-कश्मीर को पूर्ण स्वायत्तता प्रदान की है।

अब राज्य में शासक के स्थान पर अध्यक्ष का चुनाव होगा, जिसकी अवधि पांच वर्ष की होगी। भारतीय संविधान में जो मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं वे कश्मीर को भी प्राप्त होंगे, लेकिन इससे राज्य-भूमि संबंधी कोई भी कानून प्रभावित नहीं होगा। भारतीय उच्चतम न्यायालय का अधिकार क्षेत्र भी कश्मीर के विषय में केवल अंतर्राज्यीय विवाद, मौलिक अधिकार, सुरक्षा और वैदेशिक मामलों और संचार तक ही सीमित रहेगा। भारतीय ध्वज को मान्यता देते हुए भी कश्मीर के अलग ध्वज को मान्यता दी गई। भारत के राष्ट्रपति के सभी संकटकालीन अधिकार भी इस राज्य पर राज्य की सहमति से ही लागू हो सकेंगे, ऐसी व्यवस्था और प्रावधान तय किए गए।

इस अनुच्छेद द्वारा कश्मीर राज्य के नरेश हरिसिंह के समस्त अधिकार समाप्त हो गए। राजवंश को संपूर्ण वैधानिक स्तर पर नकार दिया गया। जहां किसी भी राष्ट्र में राष्ट्र की एकता के प्रतीक और संप्रभुता का वास्तविक स्वरूप प्रदर्शित करने के लिए एक प्रधान, एक विधान, एक निशान होते हैं, लेकिन अनुच्छेद 370 की व्यवस्था द्वारा इस सिद्धांत की मान्यता को कश्मीर के परिप्रेक्ष्य में बदल दिया गया।

अगर हम इतिहास की ओर, पिछले घटना-क्रम की ओर लौटें तब पता चलता है, कश्मीर के विलय के समय जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री मेहरचंद महाजन की प्रार्थना पर पंडित जवाहरलाल नेहरू ने तभी ध्यान दिया जब वहां बैठे हुए शेख अब्दुल्ला ने उनसे कहा। शेख साहब के परामर्श पर ही हर कदम पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ऐसा उठाया जो भारतीय राजनीति और राष्ट्र-निर्माण के लिए अत्यंत घातक सिद्ध हुआ। शेख साहब ने धारा 370 का प्रारूप तैयार किया, पंडित नेहरू ने उसका समर्थन किया और फिर इसे संविधान सभा में डॉ. अंबेडकर के पास भेज दिया। शेख साहब तो कश्मीर के प्रधानमंत्री के रूप में एक प्रकार से जम्मू-कश्मीर की संपूर्ण स्वायत्तता और शक्तियां अपने हाथों में केंद्रित करना चाहते थे। 

जब डॉ. अंबेडकर के पास यह प्रस्ताव और उसका प्रारूप लेकर शेख साहब आए, तब डॉ. अंबेडकर ने उनसे कहा-‘‘आप चाहते हैं भारत की सेनाएं कश्मीर में रक्षा करें, भारत वहां सड़कें बनाए, अन्य विकास के कार्य करे... लोगों को राशन दे, परंतु भारत का कश्मीर पर कोई अधिकार नहीं हो, यह बात मैं हरगिज नहीं मान सकता और न ही इसे संविधान में स्थान दे सकता हूं।‘‘ 

शेख साहब पंडित नेहरू के पास वापस आए और उन्होंने पंडित जी से कहा-‘‘इस व्यवस्था के बिना मैं कैसे कश्मीरी मुसलमानों से संविधान सभा के माध्यम से कश्मीर को भारत विलय के हित के लिए समर्थन जुटा पाऊंगा। यह तो वक्त की मांग है और कश्मीर के मुसलमानों को अपनी ओर लाने का यही माध्यम है।‘‘ शेख साहब ने बड़ी चतुराई से पंडित नेहरू की मित्रता का लाभ उठाते हुए धारा 370 की व्यवस्था को भारतीय संविधान में जोड़ने का काम पूरा करवा ही लिया। डॉ. अंबेडकर ने पंडित जी को समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन उन पर तो शेख साहब की दोस्ती का रंग गहरा चढ़ा हुआ था।

गवर्नर जनरल माउंटबेटन ने 26 अक्टूबर 1947 के विलय संधि पत्र के साथ एक टिप्पणी भरा पत्र जोड़ दिया था जिसका अर्थ था कि महाराजा के विलय संबंधी पत्र पर फिलहाल विचार करते हैं, परंतु बाद में इस पर कश्मीरी जनता की राय भी ली जाएगी। यह अत्यंत कुटिल और घातक 

टिप्पणी थी जिसका दुष्परिणाम अभी तक लोग भोग रहे हैं और पाकिस्तान युद्ध की आग जलाए हुए है।

कश्मीर की संविधान सभा ने बहुमत से कश्मीर का विलय भारत में संवैधानिक तौर पर स्वीकार कर लिया और जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग घोषित किया। 1956 में कश्मीर की संविधान सभा का विसर्जन हो गया।

 धारा 370 (दोहरी नागरिकता)

संपूर्ण भारत की नागरिकता केवल भारतीय नागरिकता ही कहलाती है। किसी अन्य प्रदेश की अलग नागरिकता का प्रावधान नहीं है परंतु जम्मू-कश्मीर में प्रदेश नागरिकता की व्यवस्था है। प्रदेश के नागरिकों को भारतीय नागरिकता के तो सब अधिकार प्राप्त हैं लेकिन उन्हें कुछ विशिष्ट अधिकारों और सुविधाओं से संपन्न भी बनाया गया है तथा भारत के अन्य नागरिकों की तुलना में कश्मीरी नागरिकता की स्थिति विशिष्ट बन गई है जिसके कुछ महत्वपूर्ण पहलू इस प्रकार हैं

  1. प्रदेश का नागरिक अपने नाम से अचल संपत्ति खरीद सकता है। अन्य भारतीय नागरिक वहां अचल संपत्ति नहीं खरीद सकता। 
  2. प्रदेश सरकार की नौकरियों में अन्य भारतीयों को यहां नौकरी पाने का अधिकार नहीं। 
  3. अन्य भारतीय नागरिक यहां के स्थानीय निकायों के चुनाव में मतदान नहीं कर सकते। वे केवल लोकसभा के चुनाव में ही मतदान के अधिकारी हैं। 
  4. जम्मू-कश्मीर प्रदेश की महिला का विवाह यदि प्रदेश के बाहर किसी व्यक्ति से होता है, तब उसे पैतृक संपत्ति एवं प्रदेश की नागरिकता से वंचित किया जाएगा। लेकिन दूसरी ओर यदि वह पाकिस्तानी नागरिक से विवाह करती है, तब उसे अपने पाकिस्तानी पति को जम्मू-कश्मीर का नागरिक बनाने का अधिकार प्राप्त हो जाता है।

इस प्रकार की व्यवस्थाओं और कानूनी मान्यताओं के बीच राष्ट्र की अखंडता उसके सम्मान की चुनौती बनी रही है। बड़ा दुःखद पहलू है कि आज तक जम्मू-कश्मीर में सरकारों का रवैया भारतीय एकात्मकता को सुदृढ़ बनाने का नहीं रहा। अपने विशेष अधिकारों द्वारा अपनी अलग और विशिष्ट पहचान बनाए रखने से कहीं न कहीं आतंकवाद को बल मिला है, बल्कि उसका प्रसार भी इस स्थिति के कारण हो रहा है। आज इसकी आग केवल भारत ही नहीं अपितु विश्व भी झेल रहा है।

स्व. विजय गुप्त
प्रस्तुति: ऋचा नागपाल (बेटी़, स्व. विजय गुप्त, नई दिल्ली) मो. 9313161393


Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य