फरिश्ते


   डॉ. प्रणव भारती, अहमदाबाद, मो. 9904516484

आजकल पास वाला बंगला बंद पड़ा है, उसके मालिक अपने बेटे के पास लन्दन गए हुए हैं। अक्सर वह उनके रहते अथवा न रहने पर भी अपनी दीवार से सटे मीठे नीम की इंडियाँ तोड़ लाती है। पड़ौसन ने कहा था।

“अब आपको मीठा नीम लगाने की कोई जरुरत नहीं है, हमारे यहाँ तो कम ही यूज होता है इसे आपके लिए ही लगवाया है।‘‘ वह भी जानती है कोई किसी के लिए बेकार ही श्रम नहीं करता किन्तु यह कथन दो परिवारों की वर्षों की मिठास का प्रतीक था।

वह मुस्कुरा भर दी थी। अपने बंगले के दूसरी ओर के परिवार को वह लगभग रोजाना ही उन लोगों से झगड़ा करते हुए सटे हए मीठे नीम के उन पत्तों को तोड़ लेते थे जो बंगले की चारदीवारी को लांघकर सड़क-दर्शन करने के लिए झाँकने का प्रयास करते थे। उसमें कोई हर्ज भी नहीं था, वृद्ध दंपति अधिकतर अमरीका में रहते थे, उनका एक बेटा भी था जो परिस्थितियोंवश अर्धविक्षिप्त सा हो गया था और बरामदे में लगे झूले पर लगभग हर समय ही बैठकर कभी जोर-जोर से तालियाँ बजाता रहता अथवा जोर से टी.वी की आवाज से पूरे वातावरण को प्रदूषित करता रहता था या फिर किसीको सड़क पर से मीठे नीम के पत्ते तोड़ते हुए देखकर अपनी माँ को आवाजें लगाता रहता था। वृद्ध माँ बेटे की आवाज सुनकर लंगड़ाते हए लगभग भागने की मुद्रा में बाहर आती थी और फिर माँ-बेटे दोनों नीम तोड़ने वाले पर कृपालु होकर सुंदर-सुंदर गालियों की बौछार करने लगते। एक-दो बार उसने भी अपनी सहायिका से सड़क के बाहरी भाग में झुके हुए मीठे नीम के पत्ते तुड़वाए थे किन्तु वह इस बात को सोचकर भयभीत भी होती थी कि कहीं इस बार उसकी बारी न आ जाए। इस प्रकार बदजुबानी सुनने का कोई शौक उसको न था और उसकी सहायिका भी कंधे उचकाकर उसे उस तरफ से नीम तोड़कर लाने के लिए मना कर देती थी। अतः उसे अपनी पड़ोसन का यह कहना वाजिब ही लगा था और उसने अपनी दीवार की ओर झुके हुए मीठे नीम के पेड़ से पत्ते तोड़ने शुरू कर दिए थे। इसमें उसे बहुत सहूलियत होती थी। बरामदे तक गई और अपनी चारदीवारी की ओर झुकी टहनियों में से अपनी जरुरत के अनुसार कुछ पत्तियाँ खुद ही तोड़ लाई।

आज अष्टमी थी, परिस्थितियाँ ऐसी न थीं कि वह चना,हलुआ-पूरी बनाकर कन्याओं को जिमा सके। इस वर्ष वह कुछ अधिक ही थकने लगी थी। अचानक पति के जाने के पश्चात वह जैसे वर्षों की उम्र ओढ़कर इतनी बुढ़ा गई थी कि उसका कोई भी काम करने में मन नहीं लगता था। कैसी बेनूर हो जाती है जिंदगी! इस तथ्य से परिचित होकर भी हम एक आवरण में वास्तविकता को छिपाना चाहते हैं। जीवन है तो साथ ही उसका जाना भी सुनिश्चित है, कुछ नया नहीं है किन्तु मनुष्य का मन विचलित होने में देर कहाँ लगती है? सब-कुछ जानते-बूझते हुए भी हम जीवन को अनन्त मान अपने ही भंवर में घूमते रहते हैं।

हाँ, तो आज अष्टमी के दिन उसने कन्याओं के लिए केले व पैसे निकालकर ही अपने क्षुब्ध मन को शांत कर लिया। प्रतिवर्ष उसकी सहायिका अपने मुहल्ले के बच्चों को एकत्रित करके ले आती थी, इस बार केले व पैसे देकर उसने हाथ जोड़ दिए थे। मन हुआ अपने लिए मुरमुरे भूनकर रख ले अतः बरामदे की ओर मीठा नीम तोड़ने चली गई जहाँ खाली बंगले के झूले पर कई बच्चे लटके हुए थे जिन्हें एक दूसरे परिवार में जीमने के लिए बुलाया गया था। जैसे ही वह नीम तोड़ने लगी।

‘‘दादी-दादी‘‘ की आवाज उसके कानों में पड़ी। उसने दीवार के दूसरी ओर अपने पंजों पर खड़े होकर झाँका। आस-पास के घर में काम करने वालों के बच्चे बंगले के झूले में लंबी-लंबी पींगें ले रहे थे, उनका बचपन उत्साह से छलक रहा था। एक बच्चे के चिल्लाते ही सारे बच्चे ‘दादी-दादी‘ करके चिल्लाने लगे। उसके मुख पर मुस्कराहट की क्षीण रेखा पसर गई। नहीं, आ तो मारी दादी छे-” अचानक उसने एक बच्ची के मुख से सुना। यह उसके घर बर्तन साफ करने आने वाली बाई की पोती थी।

‘‘मारी बा दादी ने घरे काम करती हती...हैं न दादी,चोक्खू छे न ?” बच्ची ने अपनी भाषा में हिन्दी का पुट लाने का प्रयास करते हुए कहा। उसका कहने का तात्पर्य था कि मेरी दादी इन दादी के घर काम करती थी। इस बात पर वह उससे मुहर लगवाना चाहती थी।

“पण अमे एमने दादी नथी कई शकता...केम?‘‘ एक चंचल बच्ची ने उसकी ओर मुख करके पूछा-

“हाँ, केम नई ? हूँ बद्धा नी दादी छु...‘‘नीम के तोड़े हुए पत्ते हाथ में पकड़े हुए ही उसने सब बच्चों से मुखातिब होकर उतर दिया। 

“तमे जमवाणु आपसो ?”(आप खाने के लिए देंगी?) बच्चे शोर मचाने लगे थे।

“मैंने तुम्हारी दादी को सबके खाने के लिए केले और पैसे भी दिए हैं, उनसे ले लेना है’’

नन्हे फरिश्तों ने सिर हिलाया और फिर से शोर मचाने लगे। वह सोच रही थी काश ! उसके बच्चे कभी भी बड़े न होते। उसके सामने अपने पोते-पोतियों का बचपन घूम गया जो उसे इसी प्रकार दादी-दादी चिल्लाकर पुकारते थे और उनके साथ ही और छोटे बच्चे भी उसी प्रकार चिल्लाकर उसे पुकारते रहते थे। अचानक उसकी आँखों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी।

उसे अचानक यह शेर याद आया, 

मेरे दिल के किसी कोने में एक मासूम सा बच्चा, 

बड़ों की देखकर दुनिया, बड़ा होने से डरता है।                               

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