प्रहरी
हे आँसू!
तुम बने रहना निरंतर मेरी आँखों में
ताकि ये आँखें न उठ सके किसी की ओर बुरी दृष्टि से
न ही ये आँखें देख सकें
किसी दूसरे की आँखों की व्यथा।
हे पीड़ा!
तुम भी मत साथ छोड़ना मेरे मन का
ताकि मेरा मन समझ सके दूसरे मन की पीड़ा को
और न कर सके विचार किसी दूसरे को पीड़ा पहुँचाने का।
हे मौन!
तुम बसे रहना सदा ही मेरे अधरों पर
और मत निकलने देना इनसे किसी दूसरे को
व्यथा पहुँचाने वाले शब्दों को।
हे दुःख!
तुम भी मत छोड़ना कभी मेरा घर
और खड़े रहना मेरी दहलीज़ पर
एक प्रहरी की तरह
नियंत्रित करने के लिये मुझे स्वयं को
और ये सुनिश्चित करने के लिये कि
मेरे घर से न बाहर जा सके
किसी को दुख पहुँचाने वाले उपादान।
हे आँसू, पीड़ा, मौन और दुख
तुम नहीं जानते कि आज के युग में
मनुष्य कितना असहिष्णु, अमर्यादित, अनियंत्रित, क्रूर और हिंसक हो गया है।
और इस क्रूरता, हिंसा, निर्दयता और अराजकता को रोकने
वाले समाज, शासन और व्यवस्था हो गये हैं कितने पंगु
अक्षम और प्रभावहीन।
और तुम्ही शेष हो संवेदनाओं के स्वर में
भावनाओं का कवच बन कर
भटकी आत्माओं के नियंत्रक प्रहरी के रूप में।
रामेश्वर शर्मा, आगरा, मो. 7042068926