जयप्रकाश मानस की डायरी ‘पढ़ते-पढ़ते लिखते-लिखते’

समीक्षा

डॉ. नीलोत्पल रमेश, झारीबाग, झारखंड, मो. 9931117537


पढ़ते-पढ़ते लिखते-लिखते (कवि की डायरी)

लेखक - जयप्रकाश मानस 

प्रकाशक - विजया बुक्स नई दिल्ली

मूल्य - 325 रूपये

पृष्ठ - 211

वर्ष - 2018

नित्य-प्रतिदिन के व्यक्तिगत अनुभवों को लिखना ही डायरी कहलाता है। इसलिए इसे आत्मगत विधा माना जाता है, वस्तुगत नहीं। इसे दैनंदिनी, रोजनामचा, दैनिकी आदि नामों से भी जाना जाता है। हिंदी साहित्य में डायरी विधा अन्य गद्य विधाओं की तरह आधुनिक विधा है, जिसकी शुरुआत श्रीराम शर्मा की ‘सेवाग्राम की डायरी’ से माना जाता है। जिसका प्रकाशन 1946 ई. में हुआ था। लेकिन इसके पूर्व में भी दो डायरियाँ प्रकाशित हो गई थीं- पहला घनश्याम दास बिड़ला का ‘डायरी के पन्ने’ (1940 ई.) और दूसरा सुंदरलाल त्रिपाठी का ‘दैनंदिनी’ (1945 ई.)। अधिकांश विद्वान श्रीराम शर्मा की डायरी से ही हिंदी साहित्य में डायरी लेखन की विधा की शुरुआत मानते हैं। 

भारतीय सभ्यता और संस्कृति में डायरी लेखन बहुत पहले से होता रहा है। प्राचीन काल में राजा-महाराजाओं के द्वारा भी रोज़नामचा तैयार किया जाता था, जो प्रत्येक दिन के कार्यों का विवरण होता था। साथ ही हमारे यहाँ के दुकानदार और व्यापारी भी हिसाब-किताब और लेन-देन को सुरक्षित रखने के लिए बही-खाते का प्रयोग करते हैं। यह भी डायरी लेखन ही है। 

हाल के वर्षों में प्रकाशित प्रमुख डायरियाँ हैं- जाबिर हुसैन का ‘जिंदा होने का सबूत’ और ‘ये शहर लगे मोहे बन’, प्रभाष जोशी का ‘कहने को बहुत कुछ था’, ओम नागर का ‘निब के चीरे से’, कृष्णा अग्निहोत्री का ‘अफसाने अपने कहानी अपनी’, गरिमा श्रीवास्तव का ‘देह ही मेरा देश’, पुष्पिता अवस्थी का नीदरलैंड-डायरी आदि। 

‘पढ़ते-पढ़ते लिखते-लिखते’ जयप्रकाश मानस का हाल ही में प्रकाशित डायरी संग्रह है। जिसमें कवि जयप्रकाश मानस की 25 अगस्त 2015 ई. से लेकर 31 जुलाई 2016 ई. तक की डायरियाँ संकलित हैं। इसमें एक कवि की दैनंदिनी कार्यों का विवरण के साथ-साथ उसकी वैचारिक टकराहटों का भी वर्णन है। प्रारंभ में कवि ने स्वीकार किया है कि डायरी लेखन के प्रति उनका झुकाव नाना जी की डायरी-लेखन को देखकर हुआ है। वे उनकी डायरी को किशोरावस्था में पढ़ा करते थे। नाना जी ने उन्हें पढ़ने से कभी रोका नहीं। वे लिखते हैंः  “नाना जी की डायरी में निहायत कम शब्दों की वे एंट्रियाँ नाना जी के जीवन और उनके समय का सच्चा इतिहास हैं। जहाँ घर-परिवार की चिंताएँ हैं, खेती की चुनौतियाँ है, समाज का ताप-संताप है और इसके अनुशीलन में उनकी अपनी दुनिया का खुरदुरा इतिहास है....”  

इसमें जयप्रकाश मानस ने स्वयं स्वीकार किया है कि “इसमें मेरी साहित्यिक दुनिया की ताक-झाँक शायद जरूर हों। बावजूद इसके, इस डायरी में मेरा ‘मैं’ बहुत कम उपस्थित है। इस डायरी में अपनी निहायत कम उपस्थिति का मतलब अन्य कवियों, उनकी कविताओं, पुस्तकों, घटनाओं या उनसे संबंधित चर्चाओं के बहाने ही मेरे होने को आँकने का प्रयास भी हो सकता है।”

‘पढ़ते-पढ़ते लिखते-लिखते’ जयप्रकाश मानस की डायरी का नाम इसलिए दिया गया है कि एक लेखक की पढ़ने की और फिर लिखने की आदत ताउम्र ख़त्म नहीं होती है। वह पढ़ते-पढ़ते लिखने लगता है। यह प्रक्रिया उसके जीवन के अंत तक चलती रहती है, जब तक उसमें पढ़ने-लिखने की क्षमता रहती है। 

डायरी अपने समय की सच्चाई और इतिहास को भी व्यक्त करती है। डायरी वह विधा है जिसमें समाज की यथार्थपरक बातों के साथ-साथ सामयिक परिवेश भी वर्णित होता है। जयप्रकाश मानस ने 25 अगस्त 2015 ई. की प्रविष्टि में लिखा है: बाप रे बाप शीर्षक के अंतर्गत पत्नी ने उनसे पूछा- पिछले साल इसी समय एक किलो प्याज की कीमत 15 रूपये के आसपास थी। आज 60 रुपये किलो यानी 400 प्रतिशत की वृद्धि। बाप रे बाप ! इस देश में हो क्या रहा है जी ? लगता है अब प्याज को सूँघकर ही चलाना पड़ेगा। 

भारत में गुरु-शिष्य परंपरा लगभग समाप्ति के क़गार पर है। भले ही हम गुरु-गुरु कहकर दिखावा करते रहें, लेकिन सच्चाई कुछ और ही है। 5 सितंबर2015 ई की असलियत शीर्षक के अंतर्गत लेखक ने लिखा है कि साल में केवल एक दिन गुरु-गुरु चीख़ कर हम भारतीय चाहे जितना ढोंग रचा लें, असलियत यही है कि हमारे महान देश में अब गुरु-शिष्य की पावन परंपरा संगीत और अध्यात्म के अलावा किसी भी अनुशासन में नहीं दिखाई देती। साहित्य अकादमी सम्मान लौटाने का सिलसिला उन दिनों चल रहा था- हमारे देश में। साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने बयान जारी कर कहा था- लेखकों के लगातार सम्मान लौटाने से अकादमी की गरिमा घटी है। विरोध दर्ज कराने वाले लेखकों का तरीका सही नहीं है और लेखक अपनी ही संस्था का अपमान कर रहे हैं।....मैंने पद छोड़ने के बारे में नहीं सोचा था क्योंकि उन्हें लेखकों ने चुना है,, और उन्हें लेखकों द्वारा निर्विरोध चुना गया था। फिर विनोद कुमार शक्ल का बयान भी आया था कि मैं अपना अकादमी सम्मान नहीं लौटाऊँगा और इसे सलीब की तरह ढोता रहूँगा। यह सम्मान कोई उधार नहीं है, जिसे लौटाया जाय। हाँलाकि मैं मानता हूँ कि जिन कारणों से सम्मान लौटाए जा रहे हैं, उन कारणों के साथ मैं भी हूँ। (16 अक्टूबर, 2015 ई.)

23 अक्टूबर, 2015 की डायरी में लेखक ने आचार्यों-प्राचार्यों से एक प्रश्न किया है  कि कभी सुना है आपने: हमारे ज्ञानकेंद्र विश्वविद्यालयों / महाविद्यालयों के हिंदी-विभाग अपने छात्रों को लेकर कभी तुलसी, सुर, मीरा, प्रेमचंद, प्रसाद, पंत, निराला, नागार्जुन, मुक्तिबोध या अन्य किसी महान् रचनाकार के गाँव गये हों ? जबकि सच्चाई यह है कि वे अपने मन-माफिक जगहों पर घूमते रहते हैं। 

10 नवंबर, 2015 की डायरी में लेखक ने धर्म और विजय शीर्षक के अंतर्गत लिखा है कि धर्म और विश्वास परस्पर दो विपरीत ध्रुव हैं। धर्म प्रेम की ओर ले चलता है, विजय युद्ध, हिंसा और असहिष्णुता की ओर। धर्म में आँख, नाक, कान सब खुल उठते हैं और विजय में सब बंद हो जाते हैं। धर्म और विजय का यह कथन ठीक से समझा जाना है। 

23 दिसंबर, 2015 ई. की डायरी में लेखक ने लिखा है कि बिहार के वैशाली जिले का एक गाँव कुमर वाजितपुर ऐसा गाँव है, जहाँ एक ही परिवार के तीन लोगों को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिले हैं - प्रो. हरिमोहन झा (वर्ष 1985), राजमोहन झा (वर्ष 1996) और मनमोहन झा (वर्ष 2015)। इन्हें मैथिली भाषा के लिये ये पुरस्कार मिले हैं। हरिमोहन झा एक ऐसे लेखक हैं जिनकी पुस्तकें मिथिलाँचल में बेटी की विदाई के समय दी जाती हैं। वे पुस्तकें हैं कन्यादान और द्विरागमन। 

28 फरवरी 2016 ई. की डायरी में लेखक ने जन्मदिन मनाने, न मनाने के बारे में लिखा है लेकिन चन्द्रगुप्त मौर्य और अशोक की तरह अपना जन्मदिन मनाइए ! भगवतशरण उपाध्याय ने लिखा है कि भारत में जन्मदिन मनाने की परंपरा की शुरुआत चन्द्रगुप्त मौर्य ने की थी। सम्राट अशोक भी मनाते थे अपना जन्मदिन। ये अपने जन्मदिन को उत्सव की तरह मनाते थे। इसी बहाने अशोक ने कैदियों को मुक्त करने की मानवीय प्रथा की नींव डाली थी। 

27 मार्च, 2016 ई की डायरी में लेखक ने उल्लेख किया है कि सुप्रीम कोर्ट प्रशासन ने अंततः हिंदी में लिखी याचिका स्वीकार करनी पड़ी है, वह भी आजादी के 69 वर्ष बाद। इसके पहले अँगरेजी में लिखी याचिका ही सुप्रीम कोर्ट में स्वीकार की जाती थी। ये कारनामा पटना के वकील ब्रह्मदेव प्रसाद ने कर दिखाया था। 

7 अप्रैल, 2016 ई. की डायरी में लेखक ने एक ऐसे गाँव का जिक्र किया है, जहाँ के चार-चार कवि हुए हैं। वह गाँव है कानपुर, जिले के यमुना नदी के किनारे बसा तिकँवापुर। वे कवि हैं- भूषण, मतिराम, चिंतामणि तथा जटाशंकर। वैसे लोग कहते हैं कि अकबर के नवरत्नों में प्रमुख बीरबल का जन्म भी यहीं हुआ था। 

23 जून, 2016 ई की डायरी में लेखक ने नवनीत में नर्मदा पुत्र अमृतलाल बेगड़ की बातों का उल्लेख किया है। यह समय बहुत ही कठिन होते जा रहा है। धरती का अपहरण तो हो रहा है, अगर बादलों का अपहरण होने लगे तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। अमृतलाल बेगड़ ने अपनी चिंता व्यक्त करते हुए लिखा है कि “भविष्य में बादलों का अपहरण होगा। बादलों का एक बेड़ा किसी देश को जा रहा है । बीच में ही दूसरा देश हाईजैक करके उसे अपने यहाँ ले आयेगा। बादलों की चोरी होगी। बादलों को मनचाही दिशा में  ले जाने की तकनीक विकसित हो जाएगी। पानी आज भी उतना ही है, जितना डायनासोर के समय में था। पानी जरा भी कम नहीं हुआ। माँग बढ़ गयी है। कल एक अनार सौ बीमार थे, आज एक अनार लाख बीमार हैं और भविष्य में दस लाख बीमार होंगे।”

अपनी डायरी में जयप्रकाश मानस ने फेसबुक के टैगासुरों और हिरणियों का भी उल्लेख किया है। जिन्हें देखकर लेखक को एक प्रकार की एलर्जी होती है। इनके बारे में मिलान कुंदेरा के एक कथन को लेखक ने सही कहा है- “लोग दूसरों के प्रति जितना उदासीन होते जाएँगे, वे अपने चेहरों के प्रति उतने ही जुनून से घिरते जाएँगे।”

‘पढ़ते-पढ़ते लिखते-लिखते’ जयप्रकाश मानस की डायरी है जिसमें लगभग 2 वर्ष की प्रमुख डायरियों के अंश संकलित हैं। ये डायरी के पन्ने हमारे समाज की सच्चाई को उजागर करते हैं। इसमें इतिहास भी है, समाज भी है, अर्थ भी है, पसंदीदा साहित्यकार भी हैं,यानी हमारे समाज का सबकुछ किसी-न-किसी रूप में वर्णित हो गए हैं। यही कारण है कि वर्तमान समय में डायरी एक मुकम्मल विधा के रूप में पहचान बना रही है। 

डायरी तो किसी व्यक्ति-विशेष का निजी अनुभव और अनुभूतियों का संग्रह होता है, लेकिन इसमें वर्तमान समय, समाज का प्रतिबिंब भी प्रतिबिंबित हो जाता है। इस डायरी में पठनीयता भी है। यही कारण है कि एक बार शुरु करने के बाद बिना पूरा किए छोड़ने का मन नहीं करता है। छपाई साफ-सुथरी है और प्रूफ की गलतियाँ नहीं हैं। 

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