एक शाश्वत सच की उद्घोषणा: सिर्फ स्थगित होते हैं युद्ध

 समीक्षा


डॉ. शशिप्रभा, चंडीगढ़, मो: 9855156426

प्रभा मजुमदार, मुम्बई, मो. 9969221570

मेरे पीएच. ड़ी के शोध मार्गदर्शक डॉ. मैथिलीप्रसाद भारद्वाज का कथन कि साहित्येतर विषयों के अंग्रेजी माध्यम से शिक्षित विद्वान विशेषज्ञों के पास भावभिव्यक्ति के लिए सहज भाषा का न होना हिन्दी की विडंबना है- साहित्येतर विषयों पर अच्छे साहित्य से वंचित होना, परंतु इस निराशा भाव में आशा का संचार करती हैं प्रभा मुजुमदार जैसी गणित की विशेषज्ञ, तेल एवं प्रकृतिक गैस निगम में भू वैज्ञानिक के तौर पर कार्यरत रहीं, मध्य प्रदेश में जन्मीं और नौकरी के सिलसिले में देश के अलग अलग प्रदेशों में विचरण करती हुईं तथा अब मुंबई में निवास करती मराठी भाषी कवयित्री की सशक्त हिन्दी कविताएँ। आपका चतुर्थ काव्य-संग्रह “सिर्फ स्थगित होते हैं युद्ध” केवल काव्य-संग्रह ही नहीं है, इसका शीर्षक मानव सभ्यता के एक शाश्वत सत्य की उद्घोषणा करता है।  

प्रभा जी के इस संग्रह में 40 शीर्षकों के अंतर्गत कुल 65 कविताएँ 144 पृष्ठों के कैनवास में समेटीं गईं हैं। इन कविताओं में निजी महत्व को प्रतिपादित करने में प्रयासरत, दूसरों के अस्तित्व को रौंदने-मिटाने का अनवरत सिलसिला जारी रखे रहने वाले मानव के प्रति प्रतिरोधात्मक अभिव्यक्तियों के साथ-साथ जीवन के रोजमर्रा के सहज अनुभवों, मन के कोमल भावों, रिश्ते-नातों तथा समाज के प्रति सरोकारों का भी चित्रण किया गया है। जीवन, जगत तथा आसपास की परिस्थितियों के प्रति आपकी चिंताएँ, बेबसी, व्याकुलता, उदासी, खुशी, छटपटाहट, संघर्ष की उत्कंठा, आत्मविश्वास आदि सब कुछ इनमें मिल जाता है। विषयों और भाव-सामग्री के आधार पर इन कविताओं को 19 वर्गों में बांटा जा सकता है जो मानव समाज एवं परिस्थितियों का व्यापक परिदृश्य प्रस्तुत करता है। इस परिदृश्य को प्रस्तुत करने के लिए आपने शब्दों को “संबल” माना, लेखन को “शक्ति” माना और एक तरह से प्रण किया कि “लिखूंगी तो जरूर” (पृष्ठ 9)। 

”मेरे पास सेनाएँ नहीं/ संबल है“

”एकांत में पन्नों पर उभरते/कुछ काले अक्षर हैं/अनबिके शब्द है/भयमुक्त स्वर हैं“ (संबल पृ. 12)  

आधुनिक युग की वैश्विक, बाजारीकृत व्यवस्थाओं तथा सुविधाभोगी आत्मकेंद्रित जीवन-शैली में, समाज तथा विश्व के उलझे ताने-बाने में पर्यावरण बहुत बड़ा मुद्दा है जिसके प्रति ज्यादातर लोगों के निर्लिप्त रहने की स्थिति को कवयित्री कह उठती है ”बहुत जरूरी है कि/आग में हो/कम से कम इतनी आग/कि मशाल की तरह करे/अंधेरे कोनों को प्रदीप्त“ अथवा ”हवा में घुली रहे इतनी हवा/घुटन को चीर कर आ सके/सुगंध और शीतलता“ 

”और बचा रहे/सिर्फ इतना-सा जंगल/कि कंक्रीट की दुनिया में/दूर से तो  झलके/हरियाली की छोटी सी परत“। 

कवयित्री चाहती है कि ”खुदगर्ज पलों के बीच/सिर्फ एक पल/आग, हवा और पानी/आकाश और धरती/धूप, बारिश और हरियाली के नाम“। (सदी के महामार्ग पर पृ 70)। अपनी भावना को व्यक्त करते हुए नदी के लिए कहती हैं- ”आभारी हूं मै नदी/ बचाए रखी तुमने/मेरे भीतर/प्रवाह और तरलता/निश्छलता और निरंतरता“। (आभारी हूं मै नदी पृ 23)। 

पर्यावरण की तरह ही रिश्तों में भी संवेदनाओं का अभाव कवयित्री को विचलित करता है, वह महसूस करती हैं कि संबंधों के रेशमी धागों को उलझ कर गाँठ बन जाने में वक्त नहीं लगता, इसीलिए इन्हें बचाए रखने के लिए संतुलन साधना पड़ता है। अगर यह संतुलन न साध पायें तो जैसे इमारतों में जाले लग कर गंदगी का विस्तार होता है, वैसे ही व्यक्तित्व में भी जाले लग जाते हैं ”अक्सर लगता है इनदिनों/ बाहर से कहीं ज्यादा/मेरे भीतर ही/बनते जा रहे है जाले“ (जाले  पृ 36)। रिश्तों कि तरह ही उसे पुरानी यादें भी कचोटती हैं ”हंसी और कहकहों में ही नही/कराहों और सिसकियों में भी/कुछ कहती है यादें। (यादें पृ 31)

अनुभव करने और अभिव्यक्त न कर पाने कि स्थिति में व्यक्ति कई बार चुप्पी ओढ़ लेता है, लेकिन कवयित्री के शब्दों में चुप्पी की भी अपनी आवाज़ होती है ”इतनी भी चुप नहीं होती है चुप्पियां/कि सुनी ही न जा सकें/ उनकी आवाजें“   (चुप्पी पृ. 23)। 

अभिव्यक्ति और आंतरिक छटपटाहट के चलते कभी कभी निराशा और अवसाद मन को घेर लेते हैं, जिसकी अभिव्यक्ति “इन दिनों” शीर्षक की तीन कविताओं में की गई है- ”इन दिनों/अक्सर पूछने लगी हूँ अपने से/ क्या जिंदा रहना जरूरी है/ इस तरह ? लेकिन इसी घुटन, अवसाद और निराशा से उबर सकने का रास्ता भी वह तलाशना चाहती है।“ (इन दिनों पृ 20)। 

ऐसा लगता है कि कवयित्री के निराशा भाव और अवसाद के कारणों में कहीं अलग अलग रूप में अतीत कि यादें हैं ”रीती दिखती हथेलियों में/ कितने रंगों, मिट्टियों, और मौसमों के/आस्वाद, अनुभूतियाँ“ (अर्थ पृ. 15), तो कहीं कैंसर की भेंट चढ़ चुकी अंतरंग सखी का असमय चले जाना, जिसे वह “तुम्हारी याद में” की दो कविताओं में याद करती हैं- ”कैसे कहूं की तुम नही हो आज/ जबकि तुम्हारे हंसी से मिलती/ सूरज की सुनहरी उजास है“, पृ. 52। इन्हीं संदर्भों में जीवन-यथार्थ को स्वीकारती, व्यक्ति के जन्म और मृत्यु के साथ रिश्तों को जोड़कर बहुत सुंदर व्याख्या करतीदुख हैं- ”अकेले ही नही/ जन्मता है कोई/जन्म लेते है उसके साथ ही/कई कई आंखों में स्वप्न।“

”अकेले नही मरता है कोई/निश्शब्द खामोश।/तिल तिल कर मरते  है बहुत सारे/... एक ही रिश्ता अतीत नही होता/ पुनरपरिभाषित होते है/ बाकी भी संबंध“ (इस चक्र में पृ. 54)।  

नकारात्मकता, निराशा, दुःख, अवसाद की स्थितियों में जब आप महसूस करती हैं‘ ”दुःख के न होने पर भी/अभिशप्त हम/ दहशत में जीने के लिए“  (दुःख पृ. 30) तो यह भावना आपको सकारात्मकता की ओर अग्रसर करती है, आपको लगता है कि- ”अनगिनत विभीषिकाओं के बावजूद/ जीने की जिजीविषा/रिश्तों की गरिमा/भविष्य की अनंत संभावनाए“  (इसी धरती पर पृ 56) लेकिन इसके लिए (जरूरी है पृ 59) ”जरूरी है कुछ पर्व कुछ उत्सवों का आयोजन/ताकि उल्लास और उमंग की किरणें/निजात दिला सकें/उदासी और कुंठा की धुंध से....

महक उठे यादों की बगिया/रंगोलियों से सज उठे देहरी/ जगमगाएं कुछ दीप/.... और भी बहुत कुछ।   

व्यक्ति, प्रकृति, परिस्थितियों के प्रति निजी संवेदनाओं की अभिव्यक्ति के साथ साथ आपने सामाजिक सरोकारों को भी अपने काव्य का विषय बनाया है, जिसमें प्रमुख हाइसमाज में नारी की स्थिति और उस स्थिति के प्रति समाज एवं नारी की जवाबदेही। जहाँ तक नारी की स्थिति है, आप कहती हैं- ”हर दिन/गहराते ज़ख्मों के साथ/औरत/रिसती है बूंद बूंद“ तथा ”नीव के पत्थर सी/ बरसों दशकों शतकों/पड़ी रहती है/ निश्शब्द निश्चल सी“ और ”वे जीती रही ताउम्र/किसी पिंकी अथवा पप्पू की माँ बन कर/फलां श्रीमती, बेगम अथवा बेवा बन कर“ (नीव के पत्थर सी पृ. 62)। 

लेकिन प्रभा के शब्दों में, वे अधिक जागरूक होने लगी हैं-“समझ रहीं हैं वह, ये सारे षडयंत्र .....” (परछाई पृ. 69)

तथा अपनी जवाबदेही भी उसने तय की है-”दशा और दिशाओं को बदलना/ हालात का नहीं/मेरे दायित्व था“ (नकामयाबी के लिए पृ. 66)। यूँ वह यह भी मानती हैं कि ”उस पर पोती गई यह कालिख/औरत के चेहरे पर नहीं../एक संपूर्ण सदी के मुख पर है“। 

व्यवस्था के जनता के प्रति विषेशरूप से औरत के प्रति पक्षपातपूर्ण व्यवहार के लिए वह शासनतन्त्र से पूछती है-”सच कहो दशानन/अपनी बहन नहीं हुई होती/अगर वह अपमानित/तो जंगलों मे घूमती/किसी ऐरी-गेरी औरत का दर्द/वही प्रतिशोध जगाता क्या तुममे?“ (विजयपर्व पृ. 90)। कवयित्री ने औरत की बेबसी तथा पुरुषप्रधान समाज की दोगली नीतियों पर कटाक्ष करते हुए “विजयपर्व“ शीर्षक की 5 कविताओं में प्रश्न उठाए हैं-”हर सीता को ही/झेलना होता है/अंततः एक अनिवार्य निर्वासन“, लेकिन ऐसे प्रश्नों संदर्भों का उत्तर ”नकामयाबी के लिए“ कविता में लिखा है। 

औरत की सबसे बड़ी उपलब्धि है संतान को जन्म देना- जिसके अस्तित्व में, लालन-पालन में वह स्वयं के अस्तित्व को विलीन कर देती है-”तुम्हारे नन्हें से अस्तित्व में/खो गया था/मेरे अपने होने का अहसास“। लेकिन वक्त के साथ अंतराल भी अपेक्षित ही होता है ”आखिर बढ़नी तो थीं ही/हमारे बीच की दूरियाँ“ फिर भी ”फिर भी चाहती हूँ कि/ दे सकूँ एक पुख्ता जमीन तुम्हें/अपनी धरती के हिस्से से/बचा सकूँ तेज धूप अंधड़ और बारिश में/अनुभवों की छतरी ले कर ”(तुम्हारे आकाश में पृ. 40)।  

नौकरी के सिलसिले में स्थानांतरण सामान्य बात है, मगर यह कैसी स्थितियाँ पैदा करता है, क्या अहसास दिलाता है यह प्रभा जी के ही शब्दों में-”चयन करती हूँ/कम से कम चीजों का..../मन मन का पत्थर, सीने पर रख कर/रद्दी के ढेर मे डालती हूं/अपनी पसंदीदा किताबें/पत्रिकाए डायरिया“ तथा ”मन भारी हो जाता है/ बहुत कुछ छूटने के बाद/हर तबादले पर“। नई जगह जाने पर भी तो ”उस अनपहचाने घर के/खाली कमरों/दीवारों दरवाजों को/ देना पड़ता है परिचय/संवेदनाओ की नमी से/सीचना होता है आँगन/सुननी समझनी होती है/वहां की हवा मे घुली आवाज़े“ (स्थानांतरण पर  पृ. 45)।

कवयित्री को लगता है कि जीवनभर परिस्थितियों के चक्रव्यूह में घिरा, अनेक प्रकार के दंगे-फसादों के बीच जिंदा मनुष्य संवेदनहीन हो जाता है, इसके बावजूद उसमें मशाल बनकर जलते रहने, समाज को प्रकाशित करने कि संभावना बनी रहती है (मरने के बावजूद पृ 78) तथा (कुछ आग बाकी है पृ 79)। इसी संभावना के चलते, उसकी जीवन यात्राएं जारी रहती हैं- वह अंदर से बाहर और बाहर से अंदर की तरफ अर्थात अंतरयात्राएं करता रहता है- 

”कल की निर्धारित मंजिल/ हासिल होने के ठीक उसी क्षण/प्रस्थान बिन्दु बन जाती है/नई यात्रा का“ 

”बेमानी नहीं होती कोई यात्रा/इतिहास और आगत के बीच के/हर कालखंड को/अलग अलग पड़ावों में सहेज लेती हैं यात्राएं“ (जारी रहती हैं यात्राएं पृ. 82), लेकिन इन यात्राओं को जारी रखने के लिए ”बहुत जरूरी है कुछ पुलों का/बचाये रखा जाना“ (पुल पृ. 86)। 

कवयित्री ने पौराणिक-ऐतिहासिक कथानकों पर प्रश्न-चिन्ह लगाते हुए कहा है कि- ”इतिहास के गलियारों में“ (पृ 93) झाँके तो सदा सब कुछ सही तो नहीं होता। 

विक्रम-बैताल कि मिथक कथा का संदर्भ लेकर प्रभा जी ने मानव सभ्यता कि विकास यात्रा में प्रकृति के साथ  हो रही छेड़छाड़ और आदिवासियों की समस्याओं को उठाया है (बेताल के साथ पृ 99)। संग्रह में “मी लार्ड” कविता, व्यवस्था की अदालती प्रक्रिया में एक गवाह की स्थिति का प्रभावशाली वर्णन करती है-”रात दिन की धमकियों से डरा सहमा/सपरिवार रोता हूँ मैं“ (पृ. 105)। 

व्यवस्था तंत्र में उलझे बुद्धिजीवी या फिर सामान्य जन स्थितियों से तटस्थ होकर आत्मकेंद्रित होने लगे हैं तो लगता है जैसे व्यक्ति एक उपनिवेश बन गया है (मैं एक उपनिवेश पृ. 111)। कवयित्री को लगने लगा है-”मुर्दों के शहर में/जाहिर है सब मुर्दे ही रहते है” (मुर्दों के शहर में पृ 109) जीवन, जगत, व्यवस्था पर हर तरह से दृष्टिपात करती करती कवयित्री को अंततः मान लेना पड़ता है कि इतिहास बदलने पर भी कुछ नहीं बदलता, बेशक पात्र बादल जाते हैं- “इतिहास की एक निर्णायक घड़ी/पराजित और पस्त हो जाती हैध् अपने हो अंतरद्वंदों और दुविधाओं की छाया मे” (हर बार पृ 134)।

इसीलिए युद्ध कभी खत्म नहीं होते (सिर्फ स्थगित होते हैं युद्ध ”शीर्षक बिल्कुल सार्थक है-न कभी जीत अंतिम होती है न हार। ”अंतिम नहीं होती/कोई हार/कोई भी जीत/निर्विवाद नहीं होती“  

”जारी ही रहेंगे युद्ध/एक छोटी सी विश्रांति के बाद“ (पृ. 141), इस सत्य को जानते हुए भी कवयित्री को लगता है ”फिर भी जरूरी होती है/युद्धविराम की संभावनाओं की तलाश“। 

यह आवश्यक भी है- मानव सभ्यता को बचाए रखने के लिए। प्रभा और मुझमें वैचारिक मतभेदों के बावजूद, काफी कुछ वैचारिक समानताएँ भी हैं। मोहन राकेश रचित “आषाढ का एक दिन” नाटक के खलनायक विलोम के द्वारा, नायक कालिदास के प्रति कहे संवादों को दोहराऊ तो “कहीं हम एक दूसरे के बहुत निकट हैं”। प्रभा के संग्रह का शीर्षक है “सिर्फ स्थगित होते हैं युद्ध” और 2018 में प्रकाशित में कहती हूँ ”अवश्यंभावी हैं युद्ध/क्या करें/अधिकार न मिलें तो/लड़ना पड़ता है युद्ध“। 

संग्रह की कविताओं की भाषा काफी प्रभावशाली है तथा वैचारिक अभिव्यक्ति, गहन गंभीर चिंतन तथा प्रौढ़ता का परिचय देती है। अपने भाषिक अभिव्यक्ति में अलंकारों का खूब प्रयोग किया है- उदाहरणार्थ “डोफार सा तमतमाता मन” “अंधड़ की तरह उड़ रहे हैं विचार”। इन अलंकारों में उपमा,रूपक तथा पुनरुक्ति  तथा पुनरुक्ति  प्रकार जैसे “चिंदी-चिंदी” “शब्द-शब्द”, अक्षर-अक्षर आदि प्रयुक्त हुए हैं। प्रतीकों ने आपकी अभिव्यक्ति को सशक्त बनाया है। बावजूद आलंकारित भाषा के, कविता सिर केआर ऊपर से नहीं गुजरती अर्थात सरलता से ग्रहणीय है।  

संग्रह की कुछ कविताओं को मैंने विश्लेषण के लिए नहीं उठाया क्योंकि साहित्यिक परिप्रेक्ष्य में व्यक्तिपरक अथवा किसी पूर्वाग्रह पर आधारित रचना का विश्लेषण न करना ही सही रहता है।              

एक अच्छी गहन-गंभीर कृति के लिए प्रभा जी को साधुवाद।              


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