बेनाम रिश्ता


करुणा पाण्डेय, लखनऊ, मो. 09897501069

सर..... सर.... करती तेज हवाएं चल रहीं थीं। रेलगाड़ी तीव्र गति से अपने गंतव्य की ओर दौड़ी चली जा रही थी।  रात्रि का घुप अँधेरा पॉंव पसार कर चारों  तरफ छा  गया था। ठण्ड इतनी कि मानों सब हिम खण्ड की तरह जम जाएगा। सब मुसाफिर सो गए पर सुहासिनी की आँख खुली हुई थी। खिड़की से झांककर देखा, बाहर सन्नाटा और अँधेरा गुफ्तगुं कर रहे थे। बीच-बीच में पेड़ों को सहलाती,दुलारती हवा हँसी ठिठोली कर रही थी। चाँद की सफेद,निर्मल चांदनी धरती के साथ मिलकर अंतरंगता का ताना बाना बुन रही थी। रेल की सीटी की ध्वनि रात की खामोशी की चादर पर अपनी उपस्थिति  दर्ज करा रही थी। रास्तों को पछाड़ती  रेलगाड़ी की गति से भी तीव्र गति से सुहासिनीं के विचारों की गाड़ी दौड़ रही थी, और विगत जीवन की एक-एक घटना उसके सामने से गुज़र रही थी। उसकी गोद में आज मिला सम्मान था। वह बहुत खुश थी। आज उसे “हिन्दी गौरव सम्मान” से सम्मानित किया गया था। इस सम्मान को वह देवधर सर को समर्पित करेगी। उन्हीं की मेहनत और निर्देशन का यह फल है। बहुत दिनों से उनको मैंने देखा नहीं है। पता नहीं अब कैसे दीखते होंगें ? उनका वह गौरवशाली व्यक्तित्व अब भी वैसा ही होगा क्या ? सर उतने ही ऊर्जावान होंगे। फोन पर आज भी उनकी आवाज दमदार लगती है। सुहासिनीं की आँखों से नीद कोसों दूर थी। उसका मन भावनाओं, संवेदनाओं और विचारों के जंगल में विचरने लगा, और सुहासिनीं की सोच दार्जिलिंग से होते हुए टाइगर हिल तक चली गयी।

टाइगर हिल पर सनराइज देखने को आने वाले हजारों की संख्या में लोग रोज ही होते हैं। रोज ही  सूरज उदय होता है, लोग आते हैं। सूरज तो वही होता है,पर देखने वाले लोग अलग-अलग होते हैं। वहां काम  करने वाले, टैक्सी टेम्पो वाले, चाय काफी  वाले, लोग नहीं बदलते हैं। सूरज का धीरे-धीरे निकलना,बूंद से एक विशाल गोले का रूप धारण करना, कंचनजंघा पर सोने की बरसात करना - मन में उमंग भर देता है। कहीं  धीरे-धीरे आकाश के मध्य अपनी विजयी ध्वजा को फहराते सूर्य  का उदय लोग अपने कैमरे में कैद करते है। कहीं साहित्यकार या कवि उस दृश्य से नई कविता  कहानी या आध्यात्मिक ज्ञान को अपने पन्नों में उतार लेते हैं। यह दृश्य स्वर्गिक आनन्द व सौन्दर्य की अनुभूति कराता है। सूर्योदय को देखकर देवदार के पेड़ हवा में झूम झूम कर एक मधुर गान करते हैं और सूर्य की किरणें पहाड़ियों और वृक्षों के अंग प्रत्यंग पर झूम झूम कर थिरकती है। 

इन सभी दृश्यों  में लीन देवधर कुछ लिखने में व्यस्त थे। धीरे-धीरे सूर्य अपने रोज के कार्यों में व्यस्त हुआ। टूरिस्ट भी सूर्योदय के आनन्द को समेटे दूसरे स्थानों  को देखने चल दिए । टाइगर हिल के बीच में बनी वह तिमंजली  इमारत भी खाली हो गयी। उसकी रेलिंग से नीचे ढलान की ओर जाती पगडंडी भी सुनसान हो गयी थी,पर ऊपर शीशे  के कमरे में मेज पर बैठकर देवधर लिखते रहे, उन्हें होश ही नहीं रहा कि कितना समय बीत गया है। वह अपने शब्दों की माला से अपने कृतित्व को सजाने में व्यस्त थे।

सुहासिनीं को घूमने का शौक था। वह हर देखने वाले पॉइंट पर देर तक घूमती रहती, तस्वीरें उतारती रहती और वहां के बारे में पूछती रहती थी। आज भी जब वह शीशे वाले कमरे में घूम रही थी तो उसे देवधर लिखने में मग्न दिखे। सुहासिनीं पहले तो उन्हें चुपचाप देखती रही, फिर धीरे से बोली...“सर, आप क्या लिख रहें हैं ?”

तपस्या में लीन मुनि की तरह देवधर ने कुछ नहीं सुना। वह उसी तन्मयता से लिखते रहे। सुहासिनीं और पास गयी और पूछा- “सर, आप अकेले क्या लिख रहे हैं ? लगता है आप साहित्यकार हैं या अनुसंधानकर्ता हैं।“

देवधर ने सिर उठाया। आकाश के आँचल से निकलते उजाले की तरह उस लडकी के दमकते चेहरे से एक आभा निकल रही थी। उस अल्हड़ लडकी को देखकर देवधर जड़वत मूर्ति से हो गए। एक अद्भुत सा आकर्षण, थोड़ी जिज्ञासा देवधर के हृ्रदय में जगी। उसकी तरफ देखकर मुस्कराए और कहने लगे।“ मैं कहानीकार हूँ और उपन्यास लिख रहा हूँ। तुम कौन हो ? दार्जिलिंग तुम घूमने आई हो न।

“सर आप उपन्यास लिख रहे हैं,यह जानकार मुझे बहुत अच्छा लग रहा है। मुझे भी लिखने का शौक है-”सुहासिनीं ने कहा।

“अच्छा, यह तो बहुत अच्छी बात है। तुमको देखकर तुम्हारी खोजी प्रवृति का पता चल रहा है। 

एक कहानीकार को दृश्यों और व्यक्तियों के भावों पर तीखी नजर रखनी चाहियें। कहानी तो हमारे चारों ओर फैली होती है। बस उसे थोड़ी कल्पना की खाद और शब्दों की चाशनी से पल्लवित करना पड़ता है ” देवधर ने कहा।

“वाह सर आपने तो मुझे गुरुमंत्र दे दिया।” बहुत देर तक देवधर और सुहासिनीं के बीच बातचीत  हुई इसी बीच सुहासिनीं के पापा आ गए और वह चली गयी।

समय बीतता गया। सुहासिनी की शादी हुई और जिन्दगी की दशा और दिशा बदल गयी। घर,बच्चे, स्कूल नौकरी में अतीत के शौक़ दफ़न हो गए। धीरे- धीरे बच्चों की ज़िन्दगी एक आकार लेती गयी और सुहासिनी खाली समय का सदुपयोग फिर से लेखन में करने लगी।

आज कहानी प्रतियोगिता का विज्ञापन अखबार में देखकर सुहासिनी ने अपनी कहानी प्रतियोगिता के लिए भेजी। दस दिन बाद वह कहानी अस्वीकृत होकर आ गयी। सुहासिनी ने कभी ना शब्द नहीं सुना था उसे बड़ा गुस्सा आया। अखबार लखनऊ का था। इसी बीच उसके पति को काम से लखनऊ जाना हुआ सुहासिनी भी साथ में चली गयी। लखनऊ में दीपक तो ऑफिस चला गया,पर सुहासिनी ने अपनी कहानी और अखबार उठाया और पत्रिका के दफ्तर चल दी। वहां पहुँच कर उसने पूछा...“ कहानी लेखन पर कौन विचार करता है ?”

एक लड़के ने उसे कहानी कक्ष की तरफ संकेत कर दिया। वह अन्दर गयी। वहां मिस्टर गुप्ता से मुलाकात हुई।

“ कहिये मैं आपकी क्या सहायता करूँ, मैं कहानी विभाग देखता हूँ, क्या परेशानी है ?”

“जी मैं यह पूछने आई हूँ कि मेरी कहानी किस आधार पर अस्वीकृत हुई है। पता है, मुझे कहानी का बीजमंत्र एक बहुत बड़े उपन्यासकार ने दिया था। मेरी कहानी बहुत सी पत्रिकाओं में छप  चुकी हैं, पर आपके यहाँ अस्वीकृत हुई, क्यों ?” 

“देखिये मैडम, स्वीकृति अस्वीकृति का फैसला हमारे बास करते हैं, हम तो बस उनके बताये निर्देशों का पालन करते हैं।” मिस्टर गुप्ता शालीनता से बोले।

पर सुहासिनी तो गुस्से में थी। बोली- “मैं इतनी सारी पत्रिकाओं में छपती रहीं हूँ। मेरे को बहुत सम्मान मिले हैं, मेरी कहानी को अस्वीकृत करने की हिम्मत कैसे हुई। मेरी कहानी संपादक मनुहार करके मंगाते हैं और आपने अस्वीकृत कर दी।” सुहासिनी न जाने क्या क्या बोलती चली जा रही थी कि गुप्ताजी बोले- “आप नाराज न हों, अभी हमारे निर्णायक मंडल के प्रधान  निर्णायक आते होंगे, आप उनसे मिल लें।” लीजिये वह आ गए ...............और तभी दरवाजा खुला और जिस व्यक्ति  ने प्रवेश किया वह सुहासिनी को जाना पहचाना चेहरा लगा। जैसे ही सुहासिनी को याद आया कमरे में जैसे गुलाब की सुगंध फैल गयी। कोकिल सी मृदुल वाणी में कहा?...“सर आप .......।”

“हाँ सुहासिनी मैंने तुम्हारी सारी बातें सुन ली, मैं उस कमरे में काम कर रहा था पर कैमरे से हम सब तरफ नजर रखते हैं। कहो क्या शिकायत है तुम्हारी “ देवधर ने कहा। हाँ वह देवधर ही थे।”

“ बोलो सुहासिनी तुम क्या कह रहीं थीं ....”

“कुछ नहीं सर..”

“तुमको शिकायत है कि तुम्हारी कहानी क्यों अस्वीकृत हुई,तो सुहासिनी तुम्हारे अन्दर कहने को बहुत कुछ है, जज्बे हैं,विचार हैं। पर तरीका नहीं है। सुहासिनी फटेहाली के भीतर भी खजाने छिपे होते हैं, हर व्यक्ति के अन्दर एक कल्पनाशीलता,सौन्दर्यबोध,एक भव्यता होती है। हर व्यक्ति में एक विश्व होता है। हर मनुष्य में  अनन्त संभावनाएं होती हैं। साहित्य का सम्बन्ध सिर्फ ऊपरी कलेवर से ही नहीं, वरन अंदरूनी भव्यता से भी है।”

“माँ की नौ माह की तपस्या के बाद ही एक बच्चे का जन्म होता है।  वैसे ही एक कृति को प्राणमय और सजीव बनाने के लिए लेखक को भी मानवीय,वेदनामय और भावनामय होकर विषय गढ़ने की जरुरत होती है। सिर्फ शब्दों के कलेवर से ही नहीं,भावों के पानी से भी अपनी कहानी को भव्य बनाओ, शायद मेरी बात तुम्हें समझ आ गयी होगी ” देवधर ने समझाया।

“ जी सर, मेरे पति पांच दिन लखनऊ में हैं, मैं कल फिर आती हूँ। “ सुहासिनी ने कहा और घर आ गयी।

रात भर सुहासिनी कहानी लिखती रही, पन्ने फाड़ती रही, सुबह तक एक नई कहानी उसके सामने थी ग्यारह बजे जब वह देवधर के केबिन में गयी तो देवधर उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने कहानी देखी कुछ काट छांट की और उसे कुछ समझाया। तीसरे दिन जब सुहासिनी देवधर के पास कहानी लेकर गयी तो देवधर बहुत खुश हुए।

“देखा सुहासिनी, आज तुमने एक जीवन्त कृति को जन्म दिया है। यह कहानी धूम मचा देगी। इसे मैं नहीं छापूंगा, किसी और पत्रिका में भेजो।”

“पर सर आप क्यों नहीं छापेंगे,जब यह इतनी अच्छी कहानी है तो आप डर क्यों रहे हैं ?”

“भई सुहासिनी इस कहानी को उत्कृष्ट बनाने में मैंने भी सहयोग किया है। अपनी चीज सबको अच्छी लगती है। तारीफ उस चीज की है जिसे दूसरे पसंद करें। यह कहानी जब दूसरा संपादक छापेगा और इसकी पाठक तारीफ करेंगें,तभी यह उत्कृष्ट कृति कही जायेगी। तुम्हारी तरह मेरी भी इस कहानी को लेकर परीक्षा होगी ” देवधर ने कहा। 

 सुहासिनी की कहानी छपी भी और उसने धूम भी मचाई। तब से आज तक सुहासिनी देवधर के निर्देशन में अपना लेखन कार्य कर रही है। न जाने कितने उपन्यास, कितनी कहानियां उसकी छप गईं।

एक लम्बा अरसा गुज़र गया। वक्त बीतता रहा। अब तो खुद उसके नाती पोते हो गए, पर लेखन कार्य निर्बाध रूप से चल रहा है। देवधर सर से चार या पांच बार ही मिलना हुआ। बस पत्र और फोन पर ही बात होती रही है। जब भी सुहासिनी को साहित्य लेखन में कोई दुविधा हुई, झट देवधर सर को फोन किया और उसकी दुविधा दूर हो गयी। आज चलते गिरते पड़ते वह कितनी दूर आ गयी है। आज “हिन्दी-गौरव-सम्मान “ अकादमी से मिला है, वह इसे देवधर को समर्पित करेगी। यही सोचकर सुहासिनी ने दिल्ली से सीधा लखनऊ का आरक्षण करवाया।

पता नहीं सर कैसे होंगे ? फोन पर ठीक ही लगते। उम्र का कहर तो सब पर बोलता है। मेरे अन्दर अब पहले जैसी ऊर्जा कहाँ रही है। जब दीपक को हार्ट अटेक पड़ा था,तो सर ने कितना सहारा दिया। तुरंत मेरे पास आये,अस्पताल में चार दिन तक रहे,जो पैसा खर्च किया उसे नहीं लिया,कहा था पैसा अपनों के लिए होता है। तुम पराई  थोड़ी हो। वापस लखनऊ आने पर भी रोज सुबह शाम फोन करके हाल पूछते और सांत्वना देते। सच बहुत ही सहारा रहा। जब दीपक की मृत्यु हुई तो सर ने कहा था...

“सुहासिनी मैं खुद तो नहीं आ पा रहा हूँ, पर मेरी सांत्वना, मेरी मदद, मेरा सहयोग  सदा तुम्हारे साथ है। मेरी मजबूरी है कि आजकल मेरी पत्नी बिस्तर पर है और उसकी जिम्मेदारी पूरी तरह से मेरी है,क्योंकि दोंनों बच्चे विदेश में ही रह रहे हैं। अपने को अकेला मत समझना, जो परेशानी हो मुझसे कहना।”

सर मुझे कितना संबल प्रदान करते थे। जब दीपक के जाने के बाद मैं टूट गयी थी, मेरा कुछ भी लिखने का मन नहीं करता था तो सर ने मुझे कितना प्रेरित किया था। उनके शब्द आज भी मेरे कानों में गूँजते हैं-“सुहासिनी कोई भी जगह बहुत दिनों तक खाली नहीं रहती। सियासत, समाज,जीवन कहीं भी रिक्त स्थान जल्दी से भर जाता है। तुम तो साहित्यकार हो-दीपक के जाने से खाली हुई जगह अपनी कृति से भरो, दीपक को अपनी लेखनी में जीवित रक्खो। शरीर से नहीं पर भावों से, आत्मा से हमेशा तुम उसे अपने पास पाओगी और तुम्हारा कृतित्व एक ऊंचाई की ओर अग्रसर होगा।” और सच में उसके बाद लिखे उपन्यास को सर्वश्रेष्ठ कृति का पुरुस्कार मिला। देवधर सर ने मेरे जीवन को एक आकार दिया। सुहासिनी अपने विचारों की पतंग को अतीत के आकाश में उड़ा रही थी कि गाड़ी लखनऊ के स्टेशन पर रुकी, झटपट सामान उतारकर टेक्सी लेकर वह इंद्रा नगर देवधर सर के घर की तरफ चल दी। मन में उत्साह था,सर से मिलने की आतुरता थी। 

मन फिर सोंचों के अन्तरिक्ष में सम्भावना की डोर थामे करवटें बदलने लगा। सर की पत्नी को मरे दो साल हो गए हैं,अब कौन होगा उनकी देखभाल करने वाला, कैसे रहते होंगे? सुहासिनी इन्हीं प्रश्नों के उत्तर खोज रही थी कि टैक्सी देवधर सर के घर पर पहुँच गयी। सुहासिनी ने टेक्सी का किराया दिया, सामान उतारा और कॉल बेल बजाई। कुछ देर के सन्नाटे के बाद धीरे से दरवाजा खुला। सामने सर को देखा तो विश्वास ही नहीं हुआ... चेहरे पर सूर्य सा तेज, आँखों में सागर सी गंभीरता, पर शरीर शक्तिहीन, हाथ कांपते हुए देखकर सुहासिनी की आँखें भर आई पर संयम रखते हुए कहा- “कैसे हैं सर?” आप कितने कमजोर हो गए है सर ?”

“अरे सुहासिनी क्यों परेशान  होती हो ? अन्दर आओ, सारी बातें बाहर ही कर लोगी, सब बताएँगे तुम्हें और धीरे-

धीरे कमरे की तरफ बढ़ गए। सुहासिनी ने सामान अन्दर रक्खा, सम्मान देवधर को समर्पित करके पैर छूकर कहा-“सर यह ‘हिंदी गौरव सम्मान‘ आप स्वीकार करके मुझे अनुगृहित करें।”

“अरे भई तुम तो हमेशा ही सम्मान देती रही हो, तुम्हारे लिए मेरे हृदय में एक विशिष्ट स्थान है। चलो फ्रेश हो जाओ,मैं चाय बनता हूँ, चाय पीते-पीते बातें करेंगे। और सम्मान को लेकर माथे से लगाया।

“सर आप चाय बनायेंगे“

“ हाँ, रोज ही बनाता हूँ। चाय,खाना,घर के सब काम कर लेता हूँ। सफाई,बर्तन और कपडे के लिए एक आया आती है। पर दो दिन से वह भी छुट्टी पर है।”

“ नहीं सर मैं फ्रेश होकर आती हूँ, फिर मैं चाय बनाती हूँ “ सुहासिनी ने कहा और बाथरूम में चली गयी।

सुहासिनी ने चाय बनाई,चाय पीते हुए देवधर सर और सुहासिनी एक दूसरे के दर्द को पीते रहे और सांत्वना की पट्टी करते रहे। घर बहुत अस्त व्यस्त और गन्दा था। सुहासिनी ने घर की सफाई की, खाना बनाया,और कपडे धोकर प्रेस करके सब कुछ  व्यवस्थित किया।

एक हफ्ता कैसे बीत गया,पता ही नहीं चला। सुहासिनी का आज का वापसी का आरक्षण था। देवधर सर सुबह से परेशान  थे, बार बार अन्दर जाते बाहर आते, पर मुँह से कुछ कह नहीं पा  रहे थे।

सुहासिनी भी सर की हालत देखकर चिंतित थी,उसका मन भी जाने का नहीं था।

उसने डरते डरते कहा-“ सर मेरे बाद आप यहाँ कैसे रहेंगें ? अकेले हैं,कमजोर बहुत हो गए हैं, किसी चीज की आवश्यकता होगी तो किससे कहेंगें ? सर आप मेरे साथ चलिए।”

“नहीं सुहासिनी, जीवन भर तो मैं यहीं रहा,इस जगह को मैं कैसे छोड़ दूँ ? यहाँ पर मेरी यादें हैं, गुजरे समय के अवशेष हैं, बच्चों के बचपन के और पत्नी की जवानी के खंडहर यहाँ पर हैं, मेरे परिवार की मीनार तो गिर गयी पर नींव तो यहीं है। अब समय ज्यादा कहाँ है मेरे पास, मैं यहीं रहूँगा।”

“पर आप अकेले रहने की दशा में नहीं हैं सर।”

“अरे अकेले आया, अकेले जाना है,तो अकेले रहने में संकोच कैसा सुहासिनी।”

“पर सर मैं आपको अकेले नहीं छोड़ सकती, अगर आप मेरे साथ नहीं चल सकते तो मैं यहीं रहूँगी।”

“अरे तुम अपने घर जाओ,यहाँ कब तक रहोगी। समाज क्या कहेगा, तुम्हारा परिवार है, वे क्या सोचेंगे। यह ठीक नहीं है।”

“नहीं सर आपने मुझे एक दिशा दी है, मैं आपको इस दशा में छोड़कर नहीं जा सकती। रही समाज की खुशी की बात, तो समाज के लोग तो भगवान से भी खुश नहीं होते।”

“समाज क्या सोचेगा, किस रिश्ते से यहाँ रहोगी ? लोग किसी को भी नहीं छोड़ते है,कई कडवे घूँट पीने पड़ते हैं सुहासिनी।”

“समाज को जो सोचना है,वह सोचे। मैं इसकी परवाह नहीं करती। सर हर रिश्ते को कोई नाम नहीं दिया जाता। क्या जरूरी है कि हम हर रिश्ते को कोई नाम का आवरण चढ़ाए। कभी-कभी आवरण भी तो झूटे होते हैं। और आपके और मेरे बीच का  रिश्ता नाम की हद से कोसों दूर है। हम जबरदस्ती किसी रिश्ते का नाम देकर क्या इस सम्बन्ध की पवित्रता को खत्म नहीं कर रहे हैं।” 

मुस्कराते हुए देवधर सर ने कहा...“अब लग रहा है सुहासिनी कि तुम बहुत बड़ी लेखिका बन गयी हो क्योंकि तुम्हारे तर्कों और विचारों के आगे मैं यानि तुम्हारा गुरु भी नतमस्तक हो गया हूँ। 

और देवधर धीरे से उठकर अन्दर जाने लगे। जैसे ही उठे वह लड़खड़ा गए। सुहासिनी ने तुरंत उनको सहारा दिया एक बेनाम रिश्ते की वैसाखी  उन्हें थमाकर अन्दर ले गयी।  

Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य