‘‘खंडित रत्नावली’’

चेतना उपाध्याय, कुन्दन नगर, अजमेर , मो. 9828186706, 8094554488

रत्नावली खाण्डेकर नाम था उनका। और जहां तक मैं उन्हें समझ पाई थी। भीतर से पूरी तरह खंडित थी मगर बाहरी स्वरूप बड़ा ही तेजस्वी सा था। एकाएक वो किसी को भी खंडित रूप में दिखायी नहीं देती थी। जाने किस मिट्टी की बनी थी जरा सी गरमी/नरमी उन्हें मोम सा पिघला देती थी व जरा सी दर्दील/सर्दील स्थितियां पुनः पत्थर सा मोम में बदल जाती थी। मेरा जब से उनसे परिचय हुआ इसी रूप में निरंतर टूटते, बिरखते जाते, फिर खुद से संवरते ही देखा था मैने उन्हें। उन्होंने अपने मुंह से कभी कुछ कहा नहीं मगर उनकी भाव भंगिमा, इस तरह की रहती कि स्वतः ही उनके मनोभाव परोस कर रख देती। समझने वाले अपने अपने चश्मों के आधार पर ही उन्हें समझ पाते थे। जैसा कि रत्नों के साथ होता ही है। आम व्यक्ति चमकीला पत्थर के रूप में, सुनार सोने के दाम में लुहार लोहे के दाम में, बिरला जौहरी ही उन्हें उनके असली स्वरूप (किमती रत्न के रूप) में समझ पाता।

आज सवेरे से ही उनके घर में चहल पहल दिखाई दे रही थी। करोना संकट काल के दौरान सभी अपने अपने घरों में सिमटे रहते हैं इसलिए कारण भी पता न चल पाया।

अचानक लगातार गाड़ी का हार्न उनके दरवाजे पर बार-बार बजते सुना तो मैं भी बाहर आई। खांडेकर साहब अपने पुत्र, पुत्रवधु व पोते के साथ गाड़ी में बैठते हुए जोर से बोले ठीक है हम चलते है देर हो रही है। होटेल में मात्र 05 घण्टों की ही बुकिंग मिली है जिसमें से दो घण्टे बीत चुके है। तुम बाद में आ जाना हम पहुंचकर ड्राइवर को वापस से लेने भेज देंगे।

ठीक है। ........ मरियल सी आवाज में रत्नावली जी ने जवाब दिया। मुझसे रहा न गया अपना दरवाजा बंद करके मास्क लगाकर उनके घर पहुंच गयी। दरवाजे तो उनके खुले ही थे मगर मुझे देखकर भी वे रूकने की बजाय शौचालय की ओर भागी। तो में स्वतः ही चुपचाप वही कुर्सी पर बैठ गयी। कुछ ही देर में वे बाहर आई तो नेपकीन से हाथ पोंछते हुए बोली। दस्त लग रहे हैं। माफ कीजिएगा आपसे बात करने के बजाय शौचालय भागना पड़ा......... हाँ....हाँ वह तो मैं समझ गयी कुछ दवाई की जरूरत है तो मैं कुछ ला दूं ? मैने पूछा...... नहीं नहीं जब अन्दर का सारा कचरा बाहर निकल जाएगा मेरी तबियत तब अपने आप ही ठीक होगी। बचपन से इस आवागमन को भोग रही हूँ। कहिये कैसे आना हुआ ?

हाँ आज कुछ विशेष कार्यक्रम है क्या ? सभी लोग सज धज कर जा रहे थे। आपकी आवाज कुछ निढाल सी कमजोरी वाली लगी तो बस जानने चली आयी।

हाँ बस देखते रहो जो हो रहा है वही होगा। सही-गलत मुझसे आसानी से हजम नहीं होता तो बस शौचालय का आवागमन शुरू हो जाता है। वे बोल कर पुनः बैठने को हुई कि फिर उठकर शौचालय चल दी।

इस बार जब बाहर आई तो उनकी आंखों में आँसू भी भरे थे। चुपचाप आकर निढाल हो सोफे पर पसर गई उनकी हालात देख मैं उठी रसोई में से पानी लिया नींबू की शिंकजी बनायी और उन्हें कहा यह ले लीजीए थोड़ी ताकत रहेगी। हाँ यह ठीक है कहकर उन्होंने भी हाथ बढ़ा लिया और बोली थोड़ी आप अपने लिए बना लेती.......

अभी आपको तुरंत इसकी जरूरत है। मैं बाद में ले लूंगी। अभी शायद कहीं जाना भी है आपको। आप कहें, कुछ मेरे लायक काम हो तो ?

अरे कुछ समझ ही नहीं आ रहा है। जाऊँ। ना जाऊँ ?

जरूरी ना हो तो मत जाइये अभी आपकी हालत भी कुछ जाने लायक लग नहीं रही है। कहाँ जाना है क्या काम है ? मुझे बताईये हो सकता है मैं मदद कर सकूँ.....

उन्होनें कुछ कहने को धीरे से मुंह खोला कि उनकी आंखों से अविरल अश्रुधारा बह उठी। ऐसा लगा कि मानो अचानक से उनके धैर्य का बांध टूट गया हो...... गंगा जमना बह निकली शायद मेरे कंधे पर हाथ धरते ही मैं भी सकते में आ गयी मुझे तो इनके घर किसी खुशी का अनुमान लगा था। ये गम के बादल कैसे उमड़ घुमड़ कर बरस गए। मेरा अंदाजा गलत निकला शायद मैं भी पशोपेश में पड़ गयी... फिर उन्होंने ही बताया आज शंशाक की रेखा के साथ शादी हो रही है। जो मेरे गले में फांस की तरह अटक रही है पर मैं कुछ कर नहीं पा रही मेरे सामने गलत होते हुए देखना मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रहा।.............. हां वह तो है शंशाक शादीशुदा है। बीवी बच्चे साथ है। सुजाता तो खुद दुल्हन सी सजी हुई थी ?

हाँ वह भी रेखा के साथ ही पारलर से तैयार होकर आई थी। वो तो खुद खुशी खुशी तैयार है चालाक लोमड़ी सी .......... मैं नारीवादी सोच के कारण दुखी हो रही हूँ। मैने अपने आप से वादा किया था कि जो दुख मैंने भोगा है अपनी बहू को नहीं भोगने दूंगी। मुझे अपनी सासूमां का जरा भी सहारा न मिला मगर मैं किसी अन्य स्त्री की सहयोगी रह पाऊं ? या न रह पाऊ.... अपनी बहु के साथ ढाल बन कर खड़ी रहुंगी फिर अंजाम चाहे जो कुछ भी हो। मगर यहां तो स्थितियां ही उलट गयी। कल भी मूक दर्शक बने रहना मजबूरी थी। आज भी मूक दर्शक बने रहना जरूरी हो रहा है। यह मेरे लिये असहनीय हो रहा है। अच्छा हुआ आप आ गयी तो कम से कम मेरे भीतर का लावा तो बाहर आ गया। वे एक सांस में कह गयी..

मुझे कुछ ठीक से समझ नहीं आ रहा था। पता नहीं चल पा रहा कि आखिर यह हो क्या रहा है ? अरे आपको जाना भी तो है ? मैनें बीच में टोक कर पूछा..........

वे बोली क्या फर्क पड़ता है मैं जाऊं या ना जाऊं जो होना है वह तो हो कर ही रहेगा....... आप कई दिनों बाद आई है। जरा बैठिए, चाय बना लाती हूँ।

अरे नहीं नहीं आपकी तबीयत खराब है। आप आराम कीजिए हो सके तो मुझे यह विस्तार से बताईये क्योंकि मुझे कुछ अजीब सा लग रहा है। ठीक से समझ नहीं पा रहीं।

हाँ हाँ बताती हूँ आप तो मेरी हमराज बनें मुझे अच्छा लगेगा। आइए चाय भी चढ़ा लेती हूँ मेरा सर भी भारी हो रहा है। साथ में चाय के साथ पूरी गाथा बताती हूँ।

दो साल पहले तक जो हमारे यहां सफाई करने आती थी ना.... यह रेखा उसी शान्ति बाई की बेटी है। बड़ी होनहार है। इसके पिता निजी कम्पनी में नौकरी करते थे। फिर उन्हें दमे की बीमारी ने जकड़ लिया। काम ठीक से कर नहीं पाते थे तो कम्पनी ने ईलाज के लिए एक मुश्त दो लाख रूपये देकर घर बैठा दिया ईलाज में सारी जमा पूंजी भी खत्म हो गयी मगर बीमारी ना गयी। रेखा कभी कभार मां के साथ आ जाती थी मां-बेटी दोनों ही बड़ी सेवाभावी। रेखा ने बारहवीं 85 प्रतिशत के साथ कर ली मगर आगे आर्थिक स्थिति रोड़ा बन रही थी तो वह पूरी जिम्मेदारी मैने ले ली। पहले भी रेखा के बोर्ड परीक्षा परिणामों पर स्वेच्छा से ही मेरे द्वारा कुछ ना कुछ निकल ही जाता था उसके लिए। फिर अचानक सड़क दुर्घटना में इसकी माँ चल बसी। पिता तो लम्बे समय से बिस्तर पर ही थे रेखा अकेले ही उनकी तीमारदारी, हमारे घर का काम, खुद के घर के काम, साथ में स्नातक भी कर लिया। फिर उसने इच्छा जतलाई कि मैं अब अपने पैरों पर खड़े होना चाहती हूँ। बाद में अच्छा समय आया तो आपकी तरह बड़ी बड़ी डिग्रियां भी लूंगी। उसकी सेवा व समझदारी की कायल तो में शुरू से ही थी। मुझे अपनत्व भी रहा है इसके साथ लगा कि मेरी बेटी ही मुझसे ऐसा कह रही है। मैनें उसे पढ़ाई रोकने से इन्कार कर दिया। देखों समय का कोई भरोसा नहीं कल किसने देखा। तुम अपनी नियमित पढ़ाई के साथ ही प्रतियोगी परिक्षाओं के आवेदन भी कर दो पढ़ाई थोड़ी और बढ़ा दो जहां किसी सरकारी सेवा में अवसर मिले तो जाइन कर लेना। यदि शिक्षण में आना चाहो तो पहले बी.एड. कर लो।

जी मैडम यह ठीक रहेगा कह कर उसने प्री. बी.एड., आर.ए.एस., रेलवे, बैंक, सभी जगह आवेदन कर दिया। ऑनलाईन आवेदन शुल्क भी ऑनलाईन वह मेरे पास ही बैठकर कर लेती थी। कैश लेनदेन की नौबत कभी आई नहीं। घर का राशन, कपड़े, दवाईयां सभी कुछ हमारे घर की सामग्री के साथ ही हो जाता था। उसका व्यक्तिगत खर्च कुछ था ही नहीं एक चाचा था मगर वो अलग मकान में रहता था। इन लोगों की कभी कोई सुध ना ली उसने। इसकी मां के दाह संस्कार में शामिल हुआ था फिर उसके बाद पुनः कभी उसने मुड़ कर भी न देखा उससे सहायता तो इसे कभी भी नहीं मिली। फिर एक दिन अचानक इसके पिताजी की भी सांसें अटकने लगी तो उन्होंने भाई को अंतिम समय पर मिलने की इच्छा जताते हुए फोन करवाया। रेखा तो धार धार रोऐ जा रही थी, मेरे पापा को बचा लो, मेरे पापा को बचालो उसका रूदन असहनीय था, मैने ही शशांक को कहा चलो हम इन्हें एक बार अस्पताल ले चलते है। इन्होंने गाड़ी निकाली शशांक ने गोद में उठाकर कार में लिटाया और हम अस्पताल पहुंच गए। वहां जाते ही ड्रिप चड़ा दी गई। व साथ में ऑक्सीजन भी, घंटे भर में ही उन्हें राहत महसूस हुई ऑक्सीजन मास्क हटा कर बोले, अब मेरा समय आ गया है रेखा को पूरी तरह आपको सौंपता हूँ रेखा का एक हाथ तो मेरे हाथ में पहले ही था मैं उसे सहला रही थी ढ़ाढ़स बंधा रही थी। उन्होंने उसका दूसरा हाथ पकड़ शशांक के हाथों में देते हुए कहा बेटा यह तुम्हारी जिदंगी भर सेवा करेगी। और तब तक रेखा के चाचा भी वहां पहुंच गए थे। उनसे बोले भाई मेरी बेटी के हाथ पीले कर देना इस परिवार में मेरी बेटी बिना खर्च के निपट जाएगी। बस ये ही अंतिम वाक्य थे उनके।

उसके चाचा तो मात्र खड़े थे, चुपचाप। भाई के अंतिम क्रियाक्रम में भी बस मात्र आकर खड़े हो जाते थे बाकी सभी कुछ रेखा को ही करना था सो स्वाभाविक है मैनें ही उस भूमिका का निर्वाह किया।

कुछ दिन पहले ही रेखा के चाचा हमारे यहां आए रविवार का दिन था हम सभी घर पर ही थे। बोले ऐसा है कि भाई साहब की अंतिम इच्छा थी मैं चाहता हूँ यह कार्य भी जल्द से जल्द निपट जाए तो अच्छा हो आखिर मेरी बेटी भी जवान हो रही है उसकी करूंगा तो समाज में चार बातें बनेगी। करोना संकटकाल चल रहा है तो ज्यादा कुछ करना नहीं है। चार भांवरे फिर जाएं बस में फ्री.. अभी रेखा पढ़ रही है प्रतियोगी परीक्षाओं की भी साथ में ही तैयारी कर रही है। इसलिए अभी शादी करना तो ठीक नहीं रहेगा बाद में कोई अच्छा सा लड़का देख कर हम ही कर देंगे उसकी शादी।

नहीं नहीं यह बात समाज के पंचों ने कही है। अंतिम संस्कार के समय ही यह बात हो गयी थी कि रेखा का आना-जाना आपके घर में बहुत ज्यादा है तो क्यों ना इसकी शादी ही करा दी जाए यहां। भाई सा. की भी अंतिम इच्छा यही थी उन्होंने ही रेखा का हाथ शंशाक जी के हाथ में रखकर कहा था। मरने वाले की अंतिम इच्छा तो पूरी करना भी जरूरी है। फिर जवानी के जोर में कल को कुछ ऊंच नीच हो गई तो समाज में मुझे अपनी बेटी ब्याहना भी मुश्किल हो जाएगा

उसके चाचा ने अपनी बात पूरी तरह से स्पष्ट की......... आपको पता है शंशाक एक बेटे का बाप है। एक पत्नी के रहते दूसरी शादी का गुनाह मैं नहीं कर सकती। रेखा को बचपन से मैनें अपनी बेटी की तरह पाला है। उसकी हर आवश्यकता की पूर्ति मैने की है। आपने नहीं, अतः आपको उसकी चिंता करने की जरूरत नहीं। आप जा सकते हैं। ऐसा कह कर मैं वहां से उठकर अंदर चली आई। मगर वह चाचा वहीं बैठा रहा। शंशाक और उसके पिताजी को पट्टी पढ़ाता रहा। पता नहीं क्या खिचडी पकी उन लोगों के बीच...........

मुझे पड़ोसन से पहले ही पता चल चुका था कि ये चाचा महा काइयां है। इसकी नजर इनके मकान पर है। पुश्तैनी मकान है। वह रेखा को भी निकाल पूरे मकान पर कब्जा करना चाहता है। भाई के बिस्तर पकड़ने के बाद भाई-भाभी की किसी भी किस्म की मदद तो दूर उसने इनसे कोई संबंध ही नहीं रखे। इसकी बीबी भी ऐसी ही है। रेखा के सर पर आपका हाथ है पूरी कॉलोनी जानती है........ तो वह इसका और कुछ तो कर नहीं सकते।

फिर उस चाचा के जाने के बाद शशांक, उसकी पत्नी और शशांक के पापा के बीच मंत्रणा लम्बे समय तक चलती रहीं। मैं अपने रसोई के कार्यो में व्यस्त हो गई। कभी कभी कोई ऊंची आवाज में बोलता तो मेरे कानों में भी पड़ जाती। शशांक भी पहले तो राजी न था वह जानता है मम्मी भी किसी कीमत पर यह स्वीकारेंगी नहीं। नौकरानी से क्यों शादी करूं? मेरे पास मेरी पत्नी व बेटा पहले से ही है।

वैसे शशांक व उसकी पत्नी सुजाता इस रेखा से मन ही मन ईष्या तो बहुत रखते है। ऐसा अनेकों बार उनके व्यवहार से मैंने महसूस किया था। मगर शंशाक की दूसरी शादी की बात तो भला उसकी पत्नी सुजाता भी नहीं स्वीकारेगी। ऐसा मेरा अनुमान था, मगर वह गलत निकला............ ।

वह बोली देखो पापा, मम्मी को आप ही समझाइये, वैसे वे समझने वाली है नहीं। उनका तो दिमाग ही खराब है। मां बाप के पैसों पर पहला हक उनके अपने बच्चों का होता है। और वे सारी जायदाद रेखा पर ही लुटाने को तुली रहती है। उसकी पढ़ाई-लिखाई कपड़े-खाना दवाई सभी खर्च खुद ही वे आगे होकर करती रहती है। अभी प्रतियोगी परीक्षाओं के कितने फार्म भरें है उसने। सारे शुल्क मम्मी के एकाउंट से ही जमा करवाएं है। अरे नौकरानी है तो नौकरानी की तरह ही व्यवहार करो। सर पर बैठा रखा है उसको। अभी कह रही थी कि उसकी शादी भी मैं ही करूंगी। उसमें कितना खर्चा होगा ? फिर इतनी जगह आवेदन किया है कहीं न कहीं तो नौकरी लगेगी ही। उसके मार्क्स भी अच्छे आते है हमेशा। कोई न कोई जगह नौकरी लग ही जाएगी ....... फिर क्या वह पूछेगी भी नहीं हमें। सारा पैसा लगाया तो हमने और कमाई होगी उसकी........... अपनी कमाई में से हिस्सा तो कौन देता है।

मेरी मानो तो शशांक आप ही उससे शादी कर लो। देखों झाडू-पौछा, कपड़ा, बर्तन तो वो करती ही है। हमारे घर में रहेगी तो खाना वगैरह भी उसी से बनवाएगें। नौकरानी की तरह से घर में बनी रहेगी। नौकरी लगी तो पैसा भी अपने कब्जे में ही रहेगा शादी तो नाम की ही होगी। नौकरानी की हैसियत से रखेगे घर में। उसका चाचा तो राजी है ही। वरना मम्मी तो उसकी शादी पर भी हमारे हक का पैसा लुटा देगी।

दूसरी शादी कानूनन जुर्म है। शंशाक बोला अरे शंशाक तुम कौनसे सरकारी नौकरी में हो जो सरकार तुम्हारे ऊपर अंकुश लगाएगी। तुम तो व्यापारी हो, व्यापार में सब चलता, तुम्हारे दिल में, मैं ही राज करूंगी इसको तो अपने पैरों की जूती बनाकर रखूंगी शादी तो खाली दिखावे के लिए करनी है। ताकि इस पर किया खर्च वसूल सकें। मम्मी ने इस पर कितना पैसा लुटाया है.......... जानते हो न। उन पैसों पर हक हमारा था... सोचो यदि मम्मी इस पर पैसा न लुटाती तो कितना बैंक बैलेस होता हमारा ?

वो बेवकूफ लालच के चक्कर में अंधी हो गई थी और ये दोनों बाप-बेटे चुपचाप इसे सुन रहे थे। मैं रसोई में थी.... मगर सारी बातें जोर जोर से जोश में हो रही थी। सो मेरे कानों में भी पड़ रहीं थीं। ये दोनों बाप बेटे भी स्वीकारोक्ती की तरफ बढ़ते लग रहे थे। तो वे तीन, चैथा रेखा के चाचा इधर मैं अकेली..... कैसे भिडू ?

वो कहते है ना, स्त्री पूरी दुनिया से विरोध का साहस भले ही रखती हो मगर अपनी औलाद के आगे हार ही जाती है।

सुजाता लालची, स्वार्थी व कामजोर प्रवृत्ति की संस्कार विहिन स्त्री है। यह तो मैं जानती ही थी मगर कोई स्त्री लालच में इस कदर अंधी हो जा सकती है। यह समझ नहीं पा रही थी। जबकि मुझे तो लगा था कि सुजाता एक पत्नी के रूप में इसे नहीं स्वीकारेगी। सुनते सुनते मेरा सर चकराने लगा...... घबराहट के मारे मेरे पैर कांपने लगे....... जैसे तैसे दर्द की जगह नींद की दवा खा ली थी तो गहरी नींद आ गई। रसोई में खाना तैयार हो चुका था तो उन लोगों ने भी उठा कर खा लिया। मेरी तरफ किसी का ध्यान ना गया ।.........

आज पता चला कि सब कुछ फाइनल हो चुका है। आज देवउठनी ग्यारस होने से अबूझ सावा रहता है अतः आज ही उनकी शादी होने जा रही है। करोना संकट के कारण रिश्तेदारों को न्यौता देने की जरूरत है नहीं। पंडित, भोजन, व विवाह के सारे इंतजाम उस होटेल के पैकेज में शामिल है। अतः किसी को कुछ करना नहीं पड़ा घबराहट, झल्लाहट होने से मेरी शारीरिक स्थिति खराब हो गई। डिप्रेशन सा हो रहा है कि मैं कुछ कर नहीं पा रही हूँ। वे लोग मुझे इसी चक्कर में छोड़ गए..... कि सभी जानते है यह स्थिति स्वीकारना मेरे लिए संभव नहीं। अतः सभी कुछ उन लोगों ने ही अपने आप तय कर लिया और मुझे दूध में से मक्खी की तरह निकाल फेंका बाहर...... किसी और का विरोध करना होता तो मैं जैसे तैसे ताकत जुटाकर खड़ी हो जाती रेखा के साथ.... यहां तो अपने ही पति व पुत्र सामने है जिससे टूट गयी हूँ ऐसे में रेखा की सहायता तो दूर स्वयं खुद अपनी सहायता भी नहीं कर पा रही हूँ। मुझे ठीक से खड़ा भी हुआ नहीं जा रहा।

हाँ यह दिख रहा है। मगर आप खाण्डेकर जी से एक बार कह तो सकती थी.... ....... मैनें सुझाव दिया। उन लोगों ने मुझे पता ही नहीं लगने दिया। पूछना-कहना तो बहुत दूर की बात है। तनाव अवसाद की स्थिति में मेरी हालत खराब हो गयी। खांडेकर जी झड़वासा में पोस्टेड है वहां जिस महिला के घर में पेईंग गेस्ट के रूप में रह रहे थे अभी वहां हस्बैण्ड के रूप में रहने लगे हैं। माह में दो बार हमारे पास भी आते हैं। यहां की व्यवस्थाएं भी देखते हैं। माताजी को भी पता हैं पर सभी चुप हैं। मैनें थोड़ा विरोध किया था तो माताजी ने चुप करवा दिया। पीठ पीछे बातें तो सभी बनाते हैं मगर साथ कोई नहीं देता। उन्होंने भी बड़ी ढिठाई से बात स्वीकारी और कहा तुम्हें कोई तकलीफ तो देता नहीं। तुम्हारी सारी जरूरतों का पूरा ख्याल रखता हूँ। बाकी मैं अपनी मरजी का मालिक हूँ जैसे चाहूँ रहूं तुम्हें क्या ? तुम अपने काम से काम रखो, ज्यादा बकवास की तो ठीक नहीं होगा। घर में रहना है रहो वरना रास्ता नापो तुम्हारी मरजी....... मुझे क्या ?

स्त्री होने के नाते सासूमां से सहयोग की अपेक्षा थी मगर उन्होने भी सहयोग न दिया प्यार मोहब्बत सब किताबी बातें है। आम जीवन में काम चलता रहना जरूरी होता है। वो अपना चल ही रहा है। खबरदार जो मेरे बेटे को इस विषय पर दोबारा परेशान किया तो........ अभी सभी कुछ ढ़का हुआ है। समाज में पगड़ी उछालोगी तो तुम भी नहीं बचोगी, चार उंगलियां तुम्हारे चरित्र पर भी स्वतः ही उठने लगेगी। अभी जो तुम्हें सब हरा हरा दिख रहा है वह सब मेरे बेटे की वजह से ही है। तुम्हारी वजह से वह मटियामेट हो जाए ऐसा मैं होने नहीं दूंगी। हमारे पूरे खरचे उसी के पैसों से चलते है यह मत भूलो।

बस तब से इस दर्द को सीने में दबाए जी रही थी। अब यह दूसरा दर्द भी झेलना मेरी किस्मत से जुड़ गया। सुजाता की सहयोगी रहना चाहती थी मगर उसे मेरे सहयोग की जरूरत ही नहीं रेखा को मेरी जरूरत है मगर उसको सहयोग नहीं कर पा रही। यह शादी नहीं चाहती, बस यही राम कहानी है। कहकर वे बेहोश हो गई मैं उन्हें पानी के छीटें मार उठाने के सिवाय और कुछ ना कर सकी।

Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य