संवेदनहीन आत्मा
डाॅ. शुभदर्शन, अमृतसर (पंजाब), मो. 9417290544
दरीचों से चुपचाप
सरक गया कोई
सोचा,
हवा की ही कोई करामात होगी
पर, कोलाहल बढ़ता गया
आवाज़ कानों के छेदों को चीर
करीब आने लगी
तो जाना
अंदर से ही टूट रहा है कुछ
बिना कोई गिला-शिकवा किए
ऐसा तो कभी न था
कि बिना कोई बात किए
दुख-सुख सांझा करने की आदत छोड़
चुपचाप दरक जाए कोई
पैरहन से मुझे सरे राह नंगा कर
आम की मंजरी हो
हवा में तैरती अबाबील हो
या लहरों में डूबते सपनें
किसी बात का पर्दा नहीं था
अचानक
सांसों के उठते धुएं में
सामने आ खड़ी होती
रास्ता दिखाती
पर अब धड़कनों का
शोर भी अनसुना कर
चली गई वह
पहले भी एक नाशुक्रे दिन
जब चिड़िया के बोट का
पंख, मास-मज्जा
एक-कर कर
बाज ने नोंच डाला था
तो वह बदहवासी में
मेरे अंगों को टटोलने लगी थी
कि
जुमलेबाज़ राजा को
शीशा दिखाने के जुर्म में
पूरा बच के आया हूँ या नहीं
आज कुछ उखड़ी-उखड़ी सी
उदास, बिना कुछ कहे
अपने ध्रुवांत से धीरे-धीरे
पूरी तरह से खिसक गई
-मेरी आत्मा
कोई नहीं बोलता
इस अफरा-तफरी के माहौल में
क्या दुनिया संवेदनहीन हो गई है
या
अंधभक्तों की तरह
दूर छिटक अपने पैबंद
मर गई है मेरी आत्मा!