साहिर लुधियानवी और उनकी शायरी

   प्रकाश पंडित 

शायर की हैसियत से ‘साहिर‘ ने उस समय आँख खोली जब ‘इकबाल‘ और ‘जोश‘ के बाद फिराक़‘, ‘फैज‘, ‘मजाज‘ आदि के नामों से न केवल लोग परिचित हो चुके थे बल्कि शायरी के मैदान में इनकी तूती बोलती थी। ऐसे काल में, जाहिर है, कोई भी नया शायर अपने इन सिद्धहस्त समकालीनों से प्रभावित हुए बिना न रह सकता था। अतएव ‘साहिर‘ पर भी ‘मजाज‘ और ‘फैज‘ का ख़ासा प्रभाव पड़ा। बल्कि शुरू-शुरू में तो लोगों को उसकी शायरी पर ‘फैज‘ के अनुकरण का सन्देह हुआ-वही नर्मो-नाजुक स्वर, वही शब्दों की सुन्दर तराश-खराश और वही नींद में डूबा हुआ वातावरण। लेकिन उसके व्यक्तिगत अनुभव आड़े आए, उस वर्ग के प्रति घृणा तथा विद्रोह की आप-ही-आप उमड़ी हुई विचारों की धारा काम आई, जिसका एक पात्र उसका पिता और दूसरा उसकी प्रेमिका का पिता था, और सांसारिक दुखों में तपकर निकली हुई चेतना ने उसे मार्ग सुझाया। और लोगों ने देखा कि ‘फैज‘ या ‘मजाज‘ का अनुकरण करने के बजाय ‘साहिर‘ की रचनाओं पर उसके व्यक्तिगत अनुभवों की छाप है और उसका अपना एक अलग रंग भी है। यह ‘साहिर‘ की व्यक्तिगत परिस्थितियाँ ही उससे कहलवा सकती थीं कि:

मैं उन अज़दाद का1 बेटा हूँ जिन्होंने पैहम2 

अजनबी क़ौम के साए की हिमायत की है 

ग़दर की साअते-नापाक3 से लेकर अब तक 

हर कड़े वक़्त में सरकार की ख़िदमत की है 

और यह भी उसी की मनःस्थिति थी जो शब्दों के इस चित्र में प्रकट हुई:

न कोई जादा4, न मंज़िल, न रोशनी, न सुराग़ 

भटक रही है ख़लाओं5 में ज़िन्दगी मेरी 

इन्हीं ख़लाओं में रह जाऊँगा कभी खोकर 

मैं जानता हूँ मेरी हमनफ़स6 मगर यूँ ही

कभी-कभी मेरे दिल में ख़याल आता है ! 

कि ज़िन्दगी तिरी ज़ूल्फ़ों की नर्म छाओं में 

गुज़रने पाती तो शादाब हो भी सकती थी 

ये तीरगी7 जो मिरी ज़ीस्त का8 मुक़द्दर9 है 

तेरी नज़र की शुआओं में खो भी सकती थी।

और मैं समझता हूँ कि ‘साहिर‘ को जो अपने बहुत-से समकालीन शायरों से अलग और उच्च स्थान प्राप्त हुआ, उसका बुनियादी कारण उसके यही अनुभव और प्रेक्षण हैं, जिनमें किसी प्रकार का मिश्रण करने की बजाय (कलात्मक श्रृंगार के अतिरिक्त) उसने उन्हें ज्यों-का-त्यों प्रस्तुत किया। प्रेम के दुख-दर्द के अलावा समाज के प्रति जो विष तथा कटुता हमें उसकी शायरी में मिलती है, वह माँगे-ताँगे की नहीं, उसके अपने ही जीवन की प्रतिध्वनि है।

‘साहिर‘ मौलिक रूप से रोमाण्टिक शायर है। प्रेम की असफलता ने उसके दिलो-दिमाग़ पर इतनी कड़ी चोट लगाई कि जीवन की अन्य चिन्ताएँ पीछे जा पड़ीं। राहों में ‘हरीरी-मलबूस10‘ देखकर ‘सर्द आहों‘ में अपनी प्रेमिका को याद करने के सिवाय उसे कुछ सूझता ही न था। हर समय उसे अपनी आँखों पर अपनी प्रेमिका की झुकी हुई पलकों का साया महसूस होता और वह तड़प-तड़पकर उससे पूछने लगता:

मेरे ख़्वाबों के झरोकों को सजानेवाली

तेरे ख़्वाबों में कहीं मेरा गुज़र है कि नहीं

पूछकर अपनी निगाहों से बता दे मुझको

मेरी रातों के मुक़द्दर में11 सहर12 है कि नहीं   

और 

मेरी दरमांदा13 जवानी की तमन्नाओं के 

मुज़महिल ख़्वाब14 की ता’बीर15 बता दे मुझको 

तेरे दामन में गुलिस्तां भी हैं वीराने भी

मेरा हासिल, मेरी तक़दीर बता दे मुझको

और सम्भव है कि आयु-भर अपनी प्रेमिका से वह इसी प्रकार के प्रश्न करता रहता और उचित उत्तर न पाने पर निराशा तथा शोक की घनी और घिनौनी छाँव में जा आश्रय लेता और नारी के प्रेम से शुरू होनेवाली उसकी शायरी नारी के प्रेम तक ही सीमित रह जाती, लेकिन बार-बार प्रश्न करने पर भी जब उसे कोई दो-टूक उत्तर न मिला, बल्कि हर उत्तर नए प्रश्न के रूप में सामने आने लगा तो इस तकरार से घबराकर उसने सोचने की आदत डाली। ऐसा क्यों हुआ? ऐसा क्यों होता? और वह इस परिणाम पर आ पहँचा कि ऐसा नहीं होना चाहिए। और यों उसका व्यक्तिगत प्रेम विभिन्न मंजिलें तय करता हुआ अन्त में उस बिन्दु पर पहुँच गया जहाँ व्यक्तिगत-प्रेम सामूहिक-प्रेम में बदल जाता है और शायर अपनी प्रेमिका का ही नहीं मानव-मात्र का आशिक़ बन जाता है और:

तुझको ख़बर नहीं मगर इक सादा-लौह को

बर्बाद कर दिया तेरे दो दिन के प्यार ने 

कहते-कहते पहले वह अपनी प्रेमिका से दबी आवाज में कहता है:

मैं और तुम से तर्के-मोहब्बत16 की आरज़ू

दीवाना कर दिया है ग़मे-रोज़गार ने17 

और फिर बड़े स्पष्ट शब्दों में कह उठता है:

तुम्हारे गम के सिवा और भी तो गम हैं मुझे 

नजात18 जिनसे मैं इक लमहा19 पा नहीं सकता 

ये ऊँचे-ऊँचे मकानों की ड्योढ़ियों के तले

हर एक गाम20 पे भूखे भिकारियों की सदा21 

ये कारखानों में लोहे का शोरो-गुल जिसमें 

है दफ़्न लाखों गरीबों की रूह का नग़्मा 

गली-गली में ये बिकते हुए जवां चेहरे 

हसीन आँखों में अफसुर्दगी22-सी छाई हुई 

ये शो‘लावार फ़ज़ाएँ23, ये मेरे देश के लोग 

खरीदी जाती हैं उठती जवानियाँ जिनकी


ये ग़म बहुत हैं मेरी ज़िन्दगी मिटाने को 

उदास रहके मेरे दिल को और रंज न दो

तुम्हारे ग़म के सिवा और भी तो ग़म हैं मुझे

और यहीं पर बस नहीं, उसकी घायल आत्मा ने ज्यों-त्यों उसे तड़पाया, उसमें इन ‘ग़मों‘ से जूझने, इन पर विजय पाने और इन्हें सुखों में परिवर्तित करने की ज़िद-सी पैदा हो गई। और अपनी इसी ज़िद में उसने उन समस्त विषयों को पकड़ में लेने का प्रयत्न किया जो उसके और इस शताब्दी के समक्ष हैं। यद्यपि कुछेक को शायरी का वैसा सुन्दर लिबास पहनाने में वह इतना सफल नहीं हुआ, जितना अपने विशेष विषय ‘प्रेम‘ को. और कहीं-कहीं तो भावावेश में वह अपनी सीमाओं से इतना बाहर निकल गया कि आश्चर्य होता है, जीवन-भर स्वयं को शायर मनवाने का प्रयत्न करने वाला ‘साहिर‘ क्यों इस बात का आग्रह कर रहा है कि लोग मुझे फनकार न मानें‘ और जब उसने प्रतिज्ञा की किः

आज से ऐ मज़दूर किसानो! मेरे राग तुम्हारे हैं 

फ़ाक़ाकश इन्सानो! मेरे जोग-बिहाग तुम्हारे हैं

और 

आज से मेरे फ़न का मक़सद ज़ंजीरें पिघलाना है

आज से मैं शबनम के बदले अंगारे बरसाऊँगा 

तो सन्देह-सा हुआ कि क्या सचमुच ‘साहिर‘ इतनी कड़ी प्रतिज्ञा कर रहा है और क्या स्थायी रूप से वह अपनी इस प्रतिज्ञा पर दृढ़ रह सकेगा? क्या अब वह कभी ऐसे गीत न गाएगा जिनमें:

......उम्मीद भी थी पसपाई भी 

मौत के कदमों की आहट भी, जीवन की अंगड़ाई भी 

मुस्तक़बिल की किरणें भी थी हाल की बोझल ज़ुल्मत24 भी 

तूफानों का शोर भी था और ख़्वाबों की शहनाई भी 

यानी जीवन का एक पहलू ही नहीं समस्त रंग विद्यमान रहेंगे।

सौभाग्य से ‘साहिर‘ उर्दू ग़ज़ल का परम्परागत माशूक़ सिद्ध होता है और अपने वायदे से फिर जाता है। फिरता नहीं तो दामन जरूर बचाता है और यहाँ-वहाँ दो-चार जल्वे दिखाने के बाद वापस अपने बुतख़ाने या सीमाओं में लौट आता है। उसे अनुभव हो जाता है कि उसका काम ‘परचम25 लहराना‘ नहीं ‘बरबत पर गाना‘ हैं26

‘साहिर‘ की शायरी पर बहस करते हुए उर्दू के एक शायर क़ैफी‘ आज़मी ने, जिन्हें कम्युनिस्ट पार्टी के एक ज़िम्मेदार नेता ने उर्दू शायरी का ‘सुर्ख फूल‘ कहा था, ‘साहिर‘ के बरबत पर गाने और साथी के परचम लहराने पर आक्षेप करते हुए एक स्थान पर लिखा था कि भावना और कर्म के इसी भेद ने ‘साहिर‘ के जीवन में अराजकता और कला में उदासीनता पैदा कर दी है। इस प्रकार के कुछ और परिणाम भी उन्होंने निकाले थे और इस स्वीकारोक्ति के बावजूद कि “ ‘साहिर‘, मौलिक रूप से प्रगतिशील और प्रगतिशील शक्तियों का साथी है‘‘, उन्होंने इस ढंग से ‘साहिर‘ को एक-साथ परचम लहराने और बरबत पर गाने का परामर्श दिया था कि मालूम होता था, उनकी नजर में बरबत का उतना महत्व नहीं, जितना कि परचम का।

परचम का अपना महत्व है और बरबत का अपना, और इतिहास साक्षी है कि बरबत बजानेवाले हाथों ने जब भावावेश में आकर, या किसी भी कारण से, बरबत के साथ-साथ परचम उठाने का प्रयत्न किया तो बरबत भी टूट गया और परचम भी न लहरा सका। और यह तो सरासर गलत प्रवृत्ति है कि केवल मजदूरों और किसानों के बारे में लिखकर ही कोई लेखक अपने-आपको प्रगतिशील लेखक कहलवाने का अधिकारी बन जाए। हमारा समाज विभिन्न वर्गों में विभाजित है और हमारे कलाकार अलग-अलग वर्गों से आए हैं। यदि कोई लेखक किसी कारण से अपनी सीमाओं से बाहर नहीं निकल पाता, लेकिन मानसिक रूप से प्रौढ़ है, तो अपनी सीमाओं में रहते हुए भी वह स्वस्थ, आदर्शवादी तथा प्रगतिशील-साहित्य की रचना कर सकता है। बुर्जुवा और ऊँचे मध्य वर्ग का लेखक अपने वर्ग की बेअमली और बेराहरवीं दर्शाकर उतना ही बड़ा कार्य सिद्ध कर सकता है, जितना कि वर्ग-संघर्ष में सीधा योग देने वाला कोई मज़दूर या किसान। इसके प्रतिकूल अपनी सीमाओं में रहते हुए यदि कोई कवि या लेखक, फैशन के तौर पर, यह जाने बिना कि कपड़ा बुनने की मशीन के पास मज़दूर खड़ा होकर काम करता है या लेटकर, या धान किस ऋतु में बोया जाता है और गेहूँ कि बालियों का क्या रंग होता है, मज़दूर और किसान पर कलम उठाएगा तो उसकी रचना में वे गुण न आ पाएँगे जो अनुभव और प्रेक्षण पर आधारित और अनिवार्य रूप से महान साहित्य की नींव होते हैं। सौभाग्य से ‘साहिर‘ सामूहिक रूप से हमें वही देता है जो ‘तजुरबातो-हवादिस‘ की शक्ल में दुनिया ने उसे दिया।

पिछले तीस वर्षों से ‘साहिर‘ बम्बई में है और ‘कैफ़ी‘ आज़मी ही के कथनानुसार आजकल फिल्मी दुनिया पर जितने ख़तरे मंडरा रहे हैं, ‘साहिर‘ उन सबसे शदीद है। मालूम नहीं फिल्मी गीत लिखते-लिखते वह कब प्रोड्यूसर या डायरेक्टर बन जाए (क्योंकि आज उसके पास शानदार कारें भी हैं और बंगले भी और नज़्में लिखना उसने बहुत हद तक छोड़ दिया है), लेकिन कैफ़ी‘ आज़मी की ही तरह जब मैं पहली बार ‘साहिर‘ से मिला था तो वह केवल शायर था और जब अन्तिम बार मिलूँगा तो भी वह केवल शायर ही होगा क्योंकि अभी तक अपने पहनने के वस्त्रों का वह स्वयं चुनाव नहीं कर पाता और उसे जितनी अधिक ख्याति प्राप्त हो रही है27, उससे कहीं अधिक वह यह महसूस कर रहा है कि शायर की हैसियत से उसकी लोकप्रियता कम हो रही है।

...अन्तिम बार मैं ‘साहिर‘ से 1978 में तब मिला था जब उसकी ‘माँ जी‘ का, जो मुझे भी अपना बेटा मानती थीं, देहान्त हुआ था और साहिर‘ पर दिल का पहला दौरा पड़ा था और वह फिल्मी गीत लिखने का धन्धा छोड़कर आराम और शायरी करने पर विचार कर रहा था

‘‘और उसके बारे में अन्तिम समाचार मुझे 26 अक्तूबर, 1980 की सुबह को साढ़े पाँच बजे टेलिफोन पर यह मिला कि पिछली शाम दिल का दौरा पड़ने से मेरे प्रिय मित्र का देहान्त हो गया है।

‘ख़ुदा बख़्शे बहुत-सी खूबियाँ थीं मरनेवाले में !‘

संदर्भ  1. बुजुर्गों का, 2. निरन्तर, 3. अपवित्र घड़ी। 4. मार्ग, 5. शून्य, 6. सहचर, 7. अँधेरा, 8. जीवन का, 9. भाग्य, 10. रेशमी वस्त्र, 11. भाग्य में, 12. सुबह, 13. विवश, 14. शिथिल स्वप्न, 15. स्वप्न-फल, 16. प्रणय-विच्छेद, 17. सांसारिक चिन्ताओं ने, 18. मुक्ति , 19. क्षण-भर को भी, 20. पग-पग पर, 21. आवाज, पुकार, 22. उदासी, 23. आग बरसाता हुआ वातावरण । 24. अंधकार, 25. झण्डा, 26. तुमसे कुव्वत लेकर अब मैं तुमको राह दिखाऊँगा तुम परचम लहराना साथी, मैं बरबत पर गाऊँगा। 27. वह पद्मश्री से सम्मानित किया जा चुका है। उसकी नई पुस्तक ‘आओ कि कोई ख्वाब बुनें‘ पर उसे सोवियत नेहरू एवार्ड, उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी एवार्ड और महाराष्ट्र स्टेट एवार्ड भी प्राप्त हो चुके हैं, भारत-पाक युद्ध के दिनों में भारतीय जवानों ने उसके नाम पर एक चैकी का नामकरण किया था तथा उसकी कई कविताओं का अनुवाद अंग्रेजी, रूसी, अरबी, फारसी, चेक आदि कई विदेशी भाषाओं में छप चुका है।

साभार: साहिर लुधियानवी और उनकी शायरी, प्रकाश पंडित,  प्रकाशक: राजकमल एण्ड संस दिल्ली

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