ख़ामोशी का रिश्ता
‘एक क़तअ़ा अमृता के नाम’ उपन्यास के कुछ अंश जहाँ साहिर लुधियानवी का ज़िक्र आया है।
डाॅ. उमा त्रिलोक, मोहाली, चण्डीगढ़, मो. 9811156310
साहिर लुधियानवी के नाम के साथ, सहज ही अमृता का नाम जुड़ा हुआ है।
साहिर और अमृता दोनों ने अपने अच्छे- बुरे और सुख दुख के दिन खुद मुख़तियार होकर जिये ।
वह ज़िंदगी की पगडंडी पर, सिर्फ कहीं कहीं ही साथ साथ थे... बहुत बार तो जुदा जुदा ही एक ख़ामोश रिश्ता निभाते रहे।
साहिर के गीतों और गज़लों में तो अमृता की झलक दिखाई देती रही और उधर अमृता ने तो अपनी जीवनी , ‘‘रसीदी टिकट ‘‘ में खुल कर ही लिख दिया कि,
‘‘ रसीदी टिकट में मेरे इश्क की दास्तां दर्ज है
साहिर ने पढ़ी थी
लेकिन उसके बाद भी किसी मुलाकात में , ना रसीदी टिकट का ज़िक्र मेरी जुबान पर आया, ना साहिर की जुबान पर ‘‘
उन दोनों की शुरू की मुलाकातें भी ख़ामोश थीं।
साहिर आता था, चुपचाप सिगरेट पीता और फिर उठ कर चला जाता।
राखदानी में जो सिगरेट के टुकड़े छोड़ जाता, उन्हें बाद में अमृता उठा उठा कर पीती....
इस तरह धुएं की हवा में दोनों मिलते...
अमृता हवा से ही यह उम्मीद करती रही.... यहां तक कि साहिर की मौत के बाद भी इस दुनिया में, वह हवा के जरिए, उस दुनिया की हवा में, वह साहिर को मिलने की कोशिश करती रही ।
अपने अल्फाज में अमृता ने कहा कि,
‘‘ सोच रही हूं कि हवा कोई भी फैसला तह कर सकती है, वह पहले भी शहरों का फासला तह करती रही है। अब इस दुनिया से उस दुनिया तक का फासला भी तह कर लेगी ।‘‘
अमृता का इस दुनिया की हवा से यही तकाजा था और यही साहिर से मुलाक़ात का ज़रिया भी।
साहिर और अमृता का रिश्ता, अमृता की अपनी जुबान में एक कमबख्त सपना था, जिस से उन्हें इश्क़ तो हुआ लेकिन यह भी कहा कि हक़ीक़त अपनी औकात भूल गई और उस से इश्क कर बैठी...और उस से जो रचना पैदा हुई लावारिस कागजों में भटकती रही।
अमृता की याद में एक ख़ामोशी की नदी बहती रही और एक किनारे की छाती में दूसरे किनारे का इश्क धड़कता रहा.. जो, बिरहा के रंगों में चलता रहा ।
वह तो ओक में पानी भर कर, हवा के होठों को लगा कर कहती रहीं
‘‘तुम वहां जाना और उसके मस्त्कि पर हाथ रखना, फिर हौले से उसकी सांसों में उतर जाना की उसे मुहब्बत की सांसें आएं और निगोड़ा इतिहास ही बदल जाए‘‘
साहिर के चले जाने के बाद, अमृता की ज़िन्दगी में, कई पतझड़ एक साथ आ गए ।
वह जिक्र करती हैं-
‘‘जिस दिन वह आया, उसके हाथ एक कागज था, अपनी नज़्म का मुझे नज़्म देते हुए उसने कहा था,
‘‘इस नज़्म में जिस जगह का ज़िक्र है वह मैने देखी नहीं, और जिस लड़की का ज़िक्र है वह है ही नहीं ‘‘‘
जब अमृता, वह कागज उसे लौटाने लगी, तो वह बोला था,
‘‘यह मैं वापिस ले जाने के लिए नहीं लाया‘‘
जैसे कह रहा है कि वह
उसी कागज में अपना सब कुछ, अपने जज़्बात, अपना हुनर, अपना ईमान, अपना वादा, अमृता से दूर जाने की मजबूरी और अपनी ख़ामोशी लपेट कर अमृता के हाथ में थमा रहा हो।
ऐसे लगता रहा की अमृता की ख़ामोशी ने साहिर की ख़ामोशी को तमाम उम्र औढ़े रखा ....
हालांकि वह ख़ामोशी, नज़्मां, कहानियों, नौवलों की शक़्ल अख्तियार करती रहीं....उनके पात्रों के ग़मोदर्द बियान करती हुई, अमृता की खुद की कहानी कहती रहीं ।
जब एक शाम, साहिर उनसे, उनकी एक तस्वीर और कुछ नज़्में मांगने आया और फिर चला गया तो वह लिखती हैं,
‘‘ इस तरह हफ्ते गुज़र जाते, महीने गुज़र जाते,
कोई समागम होता, तो मैं साहिर की आवाज सुन लेती, और जब कभी वह आ जाता, तो मेरी काली रातें भी सपनों के पैरों तले चांदनी बिछा देतीं,
मगर, इस दास्तां की इब्दता भी खामोश थी और इंतहा भी ‘‘
अमृता, अपनी एक कृति की पात्र का वर्णन करते हुए लिखती हैं कि जब वह, शिव-पार्वती की मूर्ति के आगे फूलों की ढेरी अर्पण करती है तो उसकी इच्छा, उन फूलों की आड़ में अपने प्रीतम के पैर छूने कि होती है जो मूर्ति के पास खड़ा होता है।
उसी प्रकार वह अपने बारे में कहती हैं कि उन्होंने भी अक्षर ही अक्षर, फूलों की ढेरी की तरह लिख लिख कर अंबार लगा दिए, जिनके नीचे से बांह ले जाकर वह भी किसी को छूना चाहती थीं ताकि उन्हें ऐसा करते हुए कोई देख न ले।
उन्होंने अपनी पात्र का जिक्र करते हुए लिखा है कि जैसे उसके मन का सेंक कहीं नहीं पहुंचता था वैसे ही उनका सेंक भी, एक पत्थर जैसी चुप से टकराता था, और सुलगता- बुझता उनके पास ही लौट आता था।
यह ख़ामोशी अमृता को इस कदर बेचैन और खिन्न कर देती कि उनकी छटपटाती चेतना से ऐसे अक्षर उपजते जिसे पढ़ कर पाठक आंसू बहाने लगते ।