पुराना पता

 
दीपक शर्मा, -लखनऊ, मो. 9839170890

‘इन दीज न्यू टाउन्ज वन कैन फाइन्ड द ओल्ड हाउजिस ओनली इन पीपल’ (‘इन नये शहरों में पुराने घर हमें केवल लोगों के भीतर ही मिल सकते हैं।’) इलियास कानेसी वह मेरा पुराना मकान है... उस सोते का उद्गम जो अपने आप जाग उठता है...

समय समय पर...

झर झर झरने के लिए...

कभी मेरे अन्दर तो कभी मेरे बाहर...

तभी उस मकान की ऊपर वाली मंजिल पर स्वतंत्र खड़े छतदार वे छज्जे मुझे आज भी स्पष्ट दिखाई दे जाते हैं...

अपनी पीली पोताई वाली दीवारों के बीच हरे रंग के दरवाजे लिए...

बिना आवाज दिए मैं गलियारा पार करती हूँ...

सीढ़ियाँ चढ़ती हूँ...

और जैसे सिनेमा में किसी पुरानी इमारत में पात्र के पहुँचते ही ओझल हो चुके पुराने चेहरे एवं दिन पुनरुज्जीवित हो उठते हैं, हुबहू वैसे ही वह चैखटा, वह अड़ोस-पड़ोस, वह जमाव मेरे सामने आन खड़ा होता है...

अप्रैल, 1947...

उन दिनों हम, अन्दरुन-ए-लाहौर के मोची गेट में रहते थे। गेट के नाम को लेकर दो अनुमान लगाए जाते थे- “मोची” शब्द या तो “मोती” का अपभ्रंश था फिर “मोरची” का। कुछ का कहना था इसका नाम उस पंडित मोतीराम के नाम पर रखा गया था जो अकबर के जमाने में इस गेट पर मरते दम तक गार्ड रहा था। अकबर ने सन् 1584-98 के अपने राज्यकाल में लाहौर ही में अपना आवास रखा था और इसकी सुरक्षा के लिए तेरह गेट बनवाए थे जिन्हें रात में बंद कर दिया जाता था। गेट का मूल नाम मोरची गेट होने का अनुमान इस बात से लगाया जाता था कि इसके दो मुहल्लों के नाम मोरचाबन्दी से संबंध रखते थे- मुहल्ला तीरगारा और मुहल्ला कमान गारां।

“मोची दरवाजे” के दाएँ हाथ “मोची बाग” था जहां उन दिनों खूब राजनैतिक भाषण और समागम आयोजित किए जाते थे। असल में सन् 1946 के चुनाव में ब्रिटिश सरकार ने जब पंजाब असेम्बली की 175 सीटों में से काँग्रेस को 51, सिक्खों को 22, यूनियनिस्ट पार्टी को 18 और मुस्लिम लीग को 86 मुस्लिम सीटों में से 75 सीटों पर कब्जा करते हुए पाया था तो उसने घोषणा जारी कर दी थी कि जून 1948 में भारत स्वतंत्र कर दिया जायेगा। उस घोषणा का परिणाम घातक हुआ था। मुस्लिम लीग के साथ-साथ लाहौर की दूसरी दो साम्प्रदायिक पार्टियों-राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा अकाली पार्टी- की नारेबाजी तेज हो गयी थी और अप्रैल, 1947 के आते-आते लाहौर में साम्प्रदायिक तनाव पराकोटि छूने लगा था। झगड़े की जड़: भारत का सम्भावी विभाजन।

“सर्कुलर रोड से एक जुलूस इस तरफ आ रहा है।” 11 अप्रैल के दिन मेरे पिता अपने लोको शेड- मुगलपुरा रेलवे वर्कशाप पर वे इंजीनियर थे- से घर जल्दी लौट आए थे, “हमें अपने सभी दरवाजे-खिड़कियाँ बंद रखनी चाहिए।”

“मुझे क्या बता रहे हैं?” मेरी माँ सौतेली थीं और पिता से मुझे डांट दिलाने का कोई भी अवसर हाथ से नहीं जाने देतीं, “अपनी बिट्टो को समझाइए जिसकी पूरी दुनिया अपनी खिड़की से बंधी है...।”

यह संयोग ही था कि मेरे कमरे की एकल खिड़की हमारे पड़ोस के मकान के उस कमरे की एक बगली खिड़की के ऐन सामने पड़ती थी- और वह भी केवल दो हाथ की दूरी पर- जिसमें शाहीन किदवई रहती थी: शाहीन, जूनियर गवर्नमेंट गर्ल्स स्कूल की चैथी जमात की मेरी सहपाठिनी और मेरी अंतरंग सहेली। अवसर पाते ही हम सहेलियां एक-दूसरे की इन खिड़कियों पर दस्तक देतीं और जैसे ही दूसरी की खिड़की खुलती हम अपने साथ बिठला लेतीं- अपने होमवर्क: जिनमें उर्दू, हिन्दी और अंग्रेजी के निबंध तो रहते ही रहते, साथ ही भूगोल के रेखा-चित्र और गणित के कठिन सवालों के हल और हासिल। हमारी गुड़ियाएं भी अपने परिधान एक-दूसरे को दिखलातीं और कभी-कभी अदला-बदली भी कर लिया करती। हमारी स्वांग भरी रसोइयां के पकवानों को एक-दूसरे के खिलौनेनुमा बरतनों में उलटती-पलटती हुई।

“क्या इस समय भी तुम्हारी वह खिड़की खुली है?” मेरे पिता मुझे लगभग घसीटते हुए मेरे कमरे में ले गए।

गनीमत थी कि मेरी खिड़की उन्हें बंद मिली। किंतु केवल ऊपर वाली सिटकिनी के सहारे।

“नीचे वाली सिटकनी क्यों नहीं चढ़ाकर रखती?” मेरे पिता ने मेरी पीठ पर धौल जमा दिया।

जभी शाहीन की खिड़की की दिशा से एक दस्तक हमारे पास चली आयी।

“कौन?” मेरे पिता का ताव घबराहट में बदल लिया।

दस्तक की खटखटाहट तेज हो चली।

“कौन है?” मेरे पिता ने खिड़की की सिटकनी जा खोली।

“मैं राशिद किदवई हूँ,” शाहीन की खिड़की पर उसके साथ उसके पिता खड़े थे।

अपने परिवार में केवल मैं ही उन्हें पहचानती थी। किदवई परिवार के किसी भी पुरुष सदस्य के संग मेरे पिता का संबंध औपचारिक अभिवादन से आगे कभी नहीं बढ़ा था। कारण, पाँच बेटों के पिता, शाहीन के दादा उधर मोची-गेट की मेवा-मंडी के सबसे बड़े मावा-व्यापारी थे तो इधर मोची गेट के हमारे इस मुहल्ले के एकल तिमंजिले मकान के मालिक। जबकि मेरे पिता के पास आय-स्रोत के नाम पर केवल अपनी रेलवे नौकरी थी और परिवार के नाम पर, मैं और मेरी सौतेली माँ। भरा-पूरा मेरे पिता का परिवार रावलपिंडी में रहता था और यहाँ लाहौर में उनकी नौकरी उन्हें लायी थी और जिस दुमंजिले मकान की इस दूसरी मंजिल पर हम रहते थे, वह किराए की थी। इसके मकान-मालिक जनवरी के दंगों के बाद ही नीचे वाली अपनी मंजिल पर ताला लगाकर सपरिवार लुधियाणा भाग लिये थे। अपनी ससुराल वाले घर।

“जनाब!” मेरे पिता अपने स्वर में बेहद नरमी ले आए, “मैं बाल मुकुन्द हूँ, प्रभा का पिता।”

“मिश्री बाजार से फोन आया था,” मिश्री बाजार अमृतसर में स्थित था और वहां भी मोची गेट की मेवा-मंडी की तरह सूखे मेवे की ढेर सारी दुकानें थीं, जिनमें से एक शाहीन के नाना की थी, जो रिश्ते में शाहीन के दादा के सगे भाई थे, “उधर अमृतसर में बड़े पैमाने पर मार-काट चल रही है। मुझे डर है इधर भी कुछ बुरा होने जा रहा है...।”

उस समय की जनगणना के अनुसार अमृतसर में मुसलमान यदि 46 प्रतिशत थे और हिन्दू एवं सिक्ख 51 प्रतिशत तो इधर लाहौर में मुसलमान 60 प्रतिशत थे और हिन्दू एवं सिक्ख कुल जमा 35 प्रतिशत।

“क्या करें?” मेरे पिता बगले झाँकने लगे।

“मेरी मानें तो जब तक माहौल ठंडा नहीं हो जाता आप घर से बाहर कदम न निकालिए और न ही किसी बाहर के बंदे को घर के अंदर ही आने दीजिए। दूध वाले को, सब्जी वाले को, फल वाले को सबको खटखटा कर लौट जाने दीजिए। दूध, सब्जी, फल, दाल, आटा, ईंधन, जलावन सब आप को शाहीन की अम्मी सुलभ करा दिया करेंगी... इसी खिड़की के जरिए... आप के, दस्तक देने की देर रहेगी बस...”

शाहीन की अम्मी बेशक इस समय पीछे रहीं किंतु मुझे यकीन है मिश्री बाजार वाली खबर की जानकारी मिलने पर उन्हीं ने पति को हमारे सामने वह प्रस्ताव रखने के लिये तैयार किया था। वह थीं ही बहुत स्नेही। शाहीन को जब भी मेरी खुली खिड़की के पास पातीं अंदर से सूखे मेवे की एक मुट्ठी भरतीं, मुझसे मेरी हथेली मांगतीं और उसमें अपनी मुट्ठी खाली कर दिया करतीं और जब कभी उनकी आवाज मेरी सौतेली माँ को मेरे कमरे में खींच लाती, दोनों वे आपस में जरूर हँसती बतियातीं। हाँ, बाद में मेरी सौतेली माँ मेरी हथेली के पिस्ते-बादाम या अखरोट-चिलगोजे या किशमिश-खुमानी या फिर अंजीर-खजूर जरूर देखतीं-जोखतीं और उन पर अपना साझा लगाते हुए मुझे आदेश देना कभी नहीं भूलती: “खबरदार, जो अपने पिता से इनका उल्लेख किया। कैसे तो सनातनी हैं! ख्वामख्वाह सनसनाएंगे, मुसलमान का छुआ कैसे खा लिया? क्यों खा लिया?”

“बड़ी अच्छी बात है,” मेरे पिता प्रकृतिस्थ हो चले, “आप पड़ोस धर्म जानते हैं, समझते हैं, निभाना चाहते हैं...”

“खाली चाहते नहीं, निभाएंगे भी”, राशिद किदवई हँस पड़े।

और उसे निभाने का पूरा अवसर उन्हें अगले ही घंटे मिला भी।

अवसर दिया उस जुलूस ने, जो नारों के बीच हमारे मकान को घेरने में लगा था। हाथों में बरछे-भाले और राइफलें एवं अग्नि शस्त्र लिए।

“यह कैसा बवाल है?” तत्काल राशिद किदवई अपने मकान की एक अगाड़ी खिड़की पर आन खड़े हुए।

“रावलपिंडी जैसे कांड आज यहाँ न कहीं दोहरा दिए जाएँ?” अपनी अगाड़ी बंद खिड़की के पीछे काँप रही मेरी सौतेली माँ ने चिन्ता प्रकट की।

रावलपिंडी में न केवल मेरे पिता ही का परिवार रहता था किंतु मेरी सौतेली माँ का भी। 80 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले रावलपिंडी की भांति मोची गेट में भी मुसलमान बहु-संख्यक थे। उस वर्ष के फरवरी एवं मार्च में हुए रावलपिंडी के दंगे इतने भयानक रहे थे कि उन्हें ‘द रेप आव रावलपिंडी’ का नाम दिया जाता था। वहां के थोहा खालसा में 200 व्यक्ति तो मार ही डाले गये थे तथा 83 स्त्रियों ने जब एक के बाद दूसरी ने एक कुएँ में छलांग लगानी शुरू की थी तो आक्रमणकारी आतंकित हो कर गाँव छोड़ गए थे और फिर सेना ने उनमें से जीवित बची स्त्रियों को बाहर निकाला था।

“अमृतसरी अपनी छुरियां और तलवारें हमें दिखाएंगे तो इन हिन्दुओं को हम सबक नहीं सिखलाएंगे भला?”

“मगर यहाँ हिन्दू हैं कहाँ? यह मकान अब मेरा है। इसका मालिक लुधियाणे जाने से पहले मुझे बेच गया है। इस पर पड़ा ताला मेरा है, उसका नहीं...”

“और इसका यह बोर्ड आपने हटाया नहीं?” नारेबाजों की कुछ ईंटें बोर्ड पर टूट पड़ीं।

हमारे मकान के बाहर हिन्दी अक्षरों में साफ खुदा था: टंडन निवास, 1944 जब कि पुश्तैनी उनके मकान पर उर्दू में लिखा था, किदवई मस्कन, 1901।

“हमें कौन जल्दी है? कोई जल्दी नहीं...”

“और जो हिन्दू किराएदार ऊपर बिठलाए हैं उन्हें निकालने की भी कोई जल्दी नहीं?”

“वे भी गए। गए वे। अब यहाँ कोई नहीं। अब आप भी जाइए...”

जैसे ही उन नारों ने मनचाही दूरी हासिल की, शाहीन की उस खिड़की से हमारी खिड़की पर फिर दस्तक हुई।

मेरे पिता ने लपक कर खिड़की जा खोली और राशिद किदवई को सामने पाकर भावुक हो उठे, “आप अपनी बात पर खरे उतरे जनाब। अपना पड़ोस-धर्म निभाया और बखूबी निभाया...”

“अभी पूरा कहाँ निभा है? पूरा तो तब होगा जब आप आगे भी यहाँ महफूज रहें। क्या मालूम रात में वे फिर हमला आन बोलें? मेरी मानें तो आप आज रात के लिए हमारे घर में आन खिसकें...”

“कैसे?” मेरे पिता एकदम तैयार हो गए।

“इन खिड़कियों के रास्ते...”

वह रात हमने शाहीन के कमरे में गुजारी। लगभग जागते हुए।

रात भर नारेबाजी जारी रही थी, कभी पास आती हुई तो कभी दूर जाती हुई...

अगली सुबह राशिद किदवई ने अपनी निजी बग्घी तैयार करवायी, हम तीनों को बुर्के पहनाए और हमें हमारे सामान समेत लोको वर्कशाप में जा पहुँचाया।

दो अतिरिक्त झोलों के साथ। जिन्हें शाहीन की अम्मी ने तैयार किया था। एक में ताजे फल थे और दूसरे में सूखे।

ताजे फल तो ज्यादा हमीं तीनों ने खाए किंतु सूखे मेवे जरूर हमने रावलपिंडी के अपने उन सगों-सम्बन्धियों के संग भी साझे किए जिन्हें मेरे पिता इसी मुगलपुरा की लोको वर्कशाप पर लिवाने में सफल रहे थे।

अपने रेल-मार्ग से।     


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