आधुनिक भारत में ‘मगध’: रंगमंच का हस्तक्षेप

जुगेश कुमार गुप्ता, 

शोधार्थी इलाहाबाद विश्वविद्यालय, Email : jugeshgupta141@gmail.com, मो. 9369242041

हम ऐसे युग में जी रहे हैं जहाँ प्रशासन की आलोचना करना देश के ख़िलाफ होना पर्याय समझा जा रहा हो, ऐसी स्थिति में कला का अपने उद्देश्य से भटकना लाजमी है। मानो हिन्दी साहित्य का रीतिकाल चल रहा है। बावजूद रीतिकाल में साहित्य को उन्नति की ओर ले जाने के कई आयाम दिखाई पड़ते हैं लेकिन आधुनिक साहित्य और कला का इस कदर गिरता स्तर चिंता जनक है। जब सब कुछ सामान्य नहीं रहता, तब प्रतिकार की स्थिति बनती है और धरातलीय स्तर पर आम जन के बीच सुधार की गुंजाइश तलाशी जाती है। ऐसे में विषय का चुनाव भी बड़ी सावधानी पूर्वक करना पड़ता है जो विभिन्न परिस्थितियों और खामियों पर नजर रखती हो। जब किसी बात को सीधे रूप में कहना या आम जिन्दगी में लोगों को समझा पाना मुश्किल हो जाता है तब ऐसी स्थिति में कला ही अभिव्यक्ति का सबसे सटीक माध्यम बनती है। आम जिन्दगी में कला का जुड़ाव मानवता में हस्तक्षेप है।

कला का अपने उद्देश्य से भटकना उसके विपरीत जाने के बराबर है। क्योंकि कलाएं समाज में समरसता और सांस्कृतिक चेतना का प्रारूप होती हैं। जब इनमे विकार उत्पन्न होता है तब समाज पर इसका बुरा असर पड़ता है। लेकिन समाज की भलाई चाहने वाले विकल्प तलाश ही लेते हैं। हम बात कर रहे हैं रंगकर्म की। जो दिन पर दिन व्यावसायिक जरिया और चकाचैंध की गिरफ्त में फंसता चला जा रहा है। जब तक रंगमंच में आम जन की भागीदारी नहीं होती तब तक इसके उद्देश्य की पूर्ति नहीं मानी जा सकती। आधुनिक रंगकर्म की सबसे बड़ी त्रासदी है आर्थिक स्वतंत्रता की, जो व्यावसायिक होने तथा रंगकर्म के विकास में बाधा पहुँचाने की मुख्य भूमिका अदा करती है। लेकिन इन सब परिस्थितियों के बावजूद कला प्रेमियों के लिए यह बात गौण हो जाती है या अपने छोटे से स्तर पर ही सुधार के रास्ते तलाशने लगते हैं। 

रंगकर्म को लेकर इलाहाबाद की चर्चा अक्सर होती रहती है। कई संस्थाएं जो रंगकर्म की उन्नति को ध्यान में रखकर कार्य कर रही हैं तो कई संस्कृति मंत्रालय से आर्थिक मदद प्राप्त कर जीवन यापन का कार्य कर रहे हैं। जहां दर्शकों के नाम पर ज्यादातर रंगकर्म करने वाले लोग और कुछ साहित्यिक विरादारी होती है। इन्हीं सब के बीच इलाहाबाद विश्वविद्यालय में यूनिवर्सिटी थिएटर की ओर से श्रीकांत वर्मा की कविताओं के कथ्य और मुक्ताकाशी स्पेस शैली पर आधारित नाटक ‘मगध‘ का मंचन किया गया। आम धारणा को तोड़ता हुआ यह नाटक मंच से उतरकर मनोशारीरिक रंगभाषा में हिन्दी विभाग की लॉबी में छात्रों और अध्यापकों के बीच मंचित किया गया। इसका मंचन उसी जगह पर दिन में दो बार किया गया जिसमें दर्शकों की प्रतिभागिता करने वालों में आम छात्रों और हिन्दी विभाग के अध्यापकों का सहयोग रहा। इस नाटक के आलेख में यूनिवर्सिटी थियेटर का सामूहिक प्रयास रहा। कई साल बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय में सही मायने में आम छात्रों को ध्यान में रखकर नाटक को मंच से उतार कर छात्रों के बीच प्रस्तुत किता गया।

‘न कोई बोलता है / न मुंह खोलता है / कभी- कभी मगध को न जाने क्या हो जाता है / चुप क्यों हो मित्रों / क्या हुआ मगध को‘ श्री कांत वर्मा की यह रचना आज के दौर में इस हद तक प्रासंगिक है, जैसे इस स्थिति की कल्पना उन्होंने पहले ही कर ली थी। इसमें मगध कविता संग्रह का नाट्य रूपांतरण प्रस्तुत किया गया। इसमें शामिल कुछ कविताओं का ही चयन किया गया जिसमें नांदीपाठ, मगध के लोग, काशी का न्याय, काशी में शव, वैशाली, कौशल में विचारों की कमी है और कोशल की शैली आदि शामिल हैं। ‘जो होना था सो हुआ / अब हम, मुंह क्यों लटकाए हुए हैं? / क्या कशमकश है? / किससे डरे हुए हैं?‘ डर का माहौल आज समाज को गिरफ्त में लेता जा रहा है। कोई भी अगर प्रशासन के ख़िलाफ कुछ भी लिखना चाहता है तो उसे रोक दिया जाता है, उसे डरा दिया जा रहा है। जबकि आलोचना करना किसी भी सार्थक पहलू को उन्नति की ओर ले जाना है। ऐसी स्थिति में सब मुर्दे के रूप में तब्दील होते जा रहे हैं, एकदम ख़ामोश। 

वैसे तो मगध निवासियों कितना भी कतराओ / एक बार शुरू होने पर कहीं नहीं रुकता हस्तक्षेप / तुम बच नहीं सकते हस्तक्षेप से / यह हस्तक्षेप इस नाटक के माध्यम से किया गया। समाज की चुप्पी तोड़ने के लिए रंगकर्म को माध्यम बनाया गया। हम ऐसे समय में भी जी रहे हैं जब लोगों के भावनाओं की प्राथमिकता दी जा रही है, संवैधानिक और न्यायिक प्रक्रिया गौण हो चुकी है। जब संवेदनाएं ख़तम होने लगती हैं तब समाज अपनी मृत्यु की ओर चल पड़ता है। ऐसी स्थिति में कला ही एक ऐसा माध्यम है जो लोगों के अंदर सड़ रही मानसिकता के विकार को दूर कर सकता है साथ ही एक स्वस्थ मनोरंजन के साथ चिंतन का आधार भी प्रदान करता है। इससे अजीब स्थिति और क्या हो सकती है जब लोग देश के अंदर ही देश ढूंढ रहे हों ‘सुनो भाई घुड़सवार, मगध किधर है / मगध से आया हूं / मगध / मुझे जाना है / किधर मुड़ूं‘। मगध कविता की ये पंक्तियाँ विस्थापित होते जन्य भाव की दारुण कथा का पाठ करती है। लेकिन छोटे शहरों से देश के जो सपने लेकर हम बड़े होते और बढ़ते हैं वह देश सिर्फ किताबों तक ही सीमित है। क्योंकि किताब के देश और वास्तविक देश में गहन अंतर है। किताब के आधार पर देश को जानकार आप गर्व कर सकते हैं लेकिन सत्यता के आधार पर आपको निराशा ही हाथ लगेगी। ‘सोयी है वैशाली / या / मर गयी है / अम्बपाली / सपने में/डर गयी है।‘ नाटक के आखिर में वैशाली की ये पंक्तियाँ शून्यता को चीरती हैं। जो शून्यता व्याप्त है समाज में और लोगों के दिलों में। अभिव्यक्ति में एक ऐसी चीख जो सोचने पर मजबूर कर देती हो।

कविताओं के चयन से लेकर उसके नाट्य रूपांतरण का आधार भी कला की विविधता को उभारने में मदद करती है। घुड़सवार, मृतकों की हड्डियाँ, चलती हुई शरीर जो विचार शून्य सिर्फ लाश हैं, भीड़ की मानसिकता और विचार की मृत्यु का बिम्ब बड़े ही सरल और स्पष्ट दृश्यों में प्रस्तुत किया गया। रंगमंच का समसामयिक पक्ष काफी मजबूती से उभर कर आया क्योंकि कला जब अपने समय की बात नहीं करेगी तब उसकी सार्थकता का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। इस नाटक के मंचन में प्रकाशीय बिम्ब परे था। अक्सर हम देखते हैं जब हम किसी पात्र को समझने में कोई कसर छोड़ते हैं तब उसकी अभिव्यक्ति अपने यथार्थ रूप में बाहर नहीं आ पाती, लेकिन जब खुद का चरित्रों के साथ तादात्म्य स्थापित कर लिया जाता है तब नाटक की प्रस्तुति एकदम सहज हो जाती है, उस सहज स्थिति में अभिनेता को अलग से संघर्ष नहीं करना पड़ता है। यह सहज स्थिति अपने समय की परिस्थितियों से रू-ब-रू होने तथा कवि या लेखक के विचारों की गहराई से प्राप्त की जा सकती है।

जब एक नाटक अपने अवस्था में पहले से ही निर्मित होता है तब निर्देशक और नाटककार को परिकल्पित करने में पर्याप्त सुविधा होती है, वहीं किसी काव्य को नाटकीय रूप में तथा उसी भाव बोध के साथ दर्शकों के बीच ले जाना साहसिक कार्य हो जाता है। कोई भी रचना अपने महत्व को हमेशा बना के रख पाए यह बात रचनाकार पर निर्भर करती है। और यह भी निर्भर करता है कि वह देश की स्थिति और बदलते वातावरण को कितना अच्छे से समझता है, क्योंकि परिस्थितियाँ एक समय के बाद बदल जाती हैं और रचना की प्रासंगिकता धीरे- धीरे क्षीण होने लगती है। लेकिन एक रंगकर्मी समाज के भीतर हो रहे बदलाव को महसूस करता है और उसके साथ तादात्म्य स्थापित कर खुद को एक प्रक्रिया के तहत इस काबिल बनाता है कि वह रचना के उन पक्षों को लोगों के बीच ले जा पाए जो वर्तमान परिदृश्य में प्रासंगिक हो। इसके अलावा रंगमंच में प्रयोग होने वाले विचार, प्रवाह और बाहरी आवरण जो बिम्ब के रूप में दर्शक के मन पर एक प्रभाव छोड़ता है उसका युगानुकुल होना आवश्यक है। इन सब प्रक्रियाओं के आधार पर किसी भी प्रगतिशील रचना का आधुनिक रूप प्राप्त किया जा सकता है।

जब किसी नाटक की तैयारी होती है नाटक साथ तैयार होता है नाटक में अभिनय करने वाला अभिनेता और दर्शक वर्ग। यह तैयारी अभिनेता के चरित्र की तैयारी होती है। नाटक के बाद दर्शक उस नाटक के बिंब और कथ्य के आधार पर सामाजिक स्थिति का अनुशीलन करते हैं, दर्शक खुद के अंदर और समाज में बदलाव की तैयारी करता है लेकिन अभिनेता नाटक की तैयारी से लेकर आखिर में प्रस्तुति तक खुद को तैयार करता है। उस पात्र के प्रति ईमानदारी और उससे प्रभावित होकर अपने चरित्र के निर्माण की तैयारी अभिनेता करता है।

नाटक के निर्देशक अमितेश कुमार का कहना है कि नाटक के खत्म होने के बाद कुछ भी औपचारिकता करना बाकी नहीं रहना चाहिए, इसलिए कि उसके बाद नाटक का प्रभाव लोगों के मन में बना रहे, कुछ भी बोल देने पर उसका प्रभाव टूटने लगता है और यही हुआ भी आखिर में सिर्फ थैंक यू बोलकर लोगों को जाने का इशारा किया गया, जबकि लोग पूरी तल्लीनता के साथ इस इन्तजार में बैठे रहे कि अभी पात्रों का परिचय और कुछ टिप्पणी भी सुनने को मिलेगी। नाटक के जरिए एक ऐसे दर्शक वर्ग को तैयार करना है जो साहित्य और कला के आदर्श का उच्च आधार स्थापित कर सकते। एक बेहतर नाटक के लिए दर्शक का समझदार होना भी बहुत ही आवश्यक है। जो कला को सिर्फ मनोरंजन तक सीमित न रखकर साहित्य, समाज और संस्कृति के उन्नयन का भी दृष्टिकोण पैदा कर सके। 

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