खौफ क्या ?
उमा त्रिलोक, मोहाली, चंडीगढ़ए मो. 9811156310
दरो-दीवार क्या,
बह गई उम्मीद भी,
ऐसे में भला सैलाब आने का ख़ौफ क्या ?
मेरे वजूद का तपना है आग-सा,
साँसों में साँस नहीं,
आये-जाये है
शोला-ए-चिन्गारी,
ऐसे में भला घर के जल जाने का खौफ़ क्या ?
भँवर में कश्ती,
भँवर, भँवर में फँस के घबराये,
सहर तो क्या
रात भी नज़र न आये,
ऐसे में भला कश्ती के डूब जो का ख़ौफ़ क्या ?
साभार:
विविधता है। यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि यह गुण, उमा की नई कविताओं में भी है, और बढ़-चढ़ कर है, वैसे उमा की कविताओं का मूल स्वर एक ऐसी वेदना है, जो प्रिय के खो जाने या कुछ मनोवांछित पाने की ललक से उपजती है। न जाने, उमा ने क्या खो दिया है और वह क्या पाना चाहती है ! यह अलग बात है कि कहीं यह वेदना, अधिक परिष्कृत रूप से सामने आती है, तो वहीं कम-पर इस वेदना का आभास आपको पल पल होगा, आपको उदास कर जायेगा और यह उदासी आपको अपनी सी लगेगी, प्यारी-सी लगेगी। आपको भी अपने दरवाजे पर पत्तों की दस्तक महसूस होगी। इस वेदना के साथ ही प्रिय मिलन की सुखद अनुभूतियों का अहसास भी आपको गाहे-बगाहे होगा। प्रकृति की आहट आप अपने दरवाजे के पास महसूस करेंगे । आपको लगेगा, जैसे कोई अजनबी, दबे पांव आकर, आपके दरवाजे पर दस्तक देने वाला है। दरवाज़ा खोलने पर आप भी शायद उमा के साथ यह गुनगुनाना चाहेंगे-
‘‘वृक्षों के झुरमुट में / दूर फुहार तले / जहाँ पुरवाई चले / पक्षी स्वर जोड़ें / मौसम के साज़ बजे / बरखा बरसाये बिखराये मोती की बूदें / सिर रक्ख के तुम्हारे कान्धे पर / गाऊँ मैं आँखें मूंदें -केवल सूद
यह कविता जो उमा जी ने 1996 में लिखी का चयन इस लिए किया गया कि भय मुक्त व्यक्ति ही भाव युक्त अभिव्यक्ति को जन्म दे सकता है- जब सैलाब का ख़ौफ़ नहीं, जल जाने का ख़ौफ़ नहीं, डूब जाने का ख़ौफ़ नहीं तभी तो रचनात्मकता और सकरात्मकता का उद्भव होता है- ‘‘आता है तुफां तो आने दो कश्ती का ख़ुदा ख़ुद हाफिज़ है मुम्किन है बहती हुई लहरों में बहता हुआ साहिल आ जाए!’’