खिड़कियां

  मधुश्री. पुणे (महाराष्ट्र) मो. 7710969075


अटल सत्य है समय तू

लौट कर नहीं आता

हर सत्य तेरे सामने

बौना क्यों है बन जाता

चिरंतन स्मृतियों की

खिड़कियां खुली रहती

स्पृहा जाग्रत कर

आंदोलित है कर जाता

क्षणिक अंतराल ठहर

आती और है जाती

भेज समय स्मृतियां

उपस्थिति दर्ज कर अपनी

स्वयं के अमरत्व का

एहसास है करा जाता 

जीवन भर खिड़कियां

खुलती बंद होती है

सिलसिला ये वर्षों तक

अनवरत चला करता

पटाक्षेप होने की

प्रतीक्षा में आदमी

टकटकी लगाए पूरी

उम्र गुजार है जाता



दंगल

है फकत खून तेरे जिस्म में क्यूं

दंगल में उतरना है तो

बेईमानी का कुछ जहर मिला

छिपे बैठे हैं मगरमच्छ 

निगलने के लिए

है समुंदर बहुत गहरा          

मीठा जहर भरा

आज तू मान  ले

जहर को जहर मारेगा

एक दिन या तो तू

लड़ता हुआ मर जाएगा

या फिर तू इस जहर

को ही पी जाएगा

आइना गंदा है बेशक

मगर भयभीत न हो

साफ कर आइना

देख फिर तस्वीर अपनी

अपनी हस्ती को तू पहचान

उतर दंगल में

कितनी मजलूम कुचली हुई

घायल  रूहें 

खड़ी इंसाफ की चैखट 

पर हैं सिसकती हुई

तू है मृत्युंजय 

धर्मयुद्ध में उतरना होगा

प्रश्न जो दफन पड़े

वक्त के शमशानो में

किसी को तो

उनका जवाब देना है

कितने मसले हुए   

फूलों का हिसाब लेना है।

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