पत्र: अहिल्या जी के नाम

 

आदरणीया अहिल्या मिश्र जी,

              आपके बहु आयामी व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केंद्रित ‘‘अभिनव इमरोज़‘‘ पत्रिका का दिसंबर 2020

अंक मिला, आभार। 

आलोच्य विशेषांक में जिन विद्वान मनीषियों ने आपकी रचनात्मकता को विवेचित करते हुए जो मन्तव्य व्यक्त किये हैं, उनका ऐतिहासिक मूल्य महत्व है। 

गोवा की पूर्व राज्यपाल, डाॅ. मृदुला सिन्हा, प्रो. राजाराम शुक्ल, प्रो. निर्मला एस, मौर्य, वरिष्ठतम कथा लेखिका  उषाकिरण खान के शुभ संदेश विशेषांक की गरिमा को एक उँचाई प्रदान करते हैं।

आपके विरल व्यक्तित्व एवं अमर कृतित्व से मैं वर्षों से परिचित हूँ और आपके द्वारा सम्पादित ‘‘पुष्पक साहित्यिकी‘‘ पत्रिका ने आपके कर्मठ लेखकीय व्यक्तित्व तथा सृजनशीलता से और गहरे रूप में रूबरू कराकर मेरे ज्ञान में अभिवृद्धि की है। आपका सम्पादकीय समसामयिक विषयों पर बहुत ही गम्भीर चिन्तनपूर्ण होता है।

अंक में पृ. 157 से 161 तक दर्ज सम्पादकीय इसकी पुष्टि करते हैं-जिन्हें पढ़कर बीसवीं सदी के महान सम्पादक अम्बिका प्रसाद वाजपेयी जी की याद ताजा हो आती है।  वाकई  आप उस महान परम्परा की पोषक हैं। 

विवेच्य विशेषांक में आपके रचना संसार के  अन्तर्गत कविता, कहानी, निबन्ध, लेख एवं समीक्षाओं की बानगी काबिलेगौर से ज्यादा काबिले-तारीफ है। बंजर का आर्तनाद,पथिक, शब्दों का सौदागर,गुलाब जैसी सशक्त कविताएँ अपने कथ्य-कथन-क्राफ्ट में कसी हुई हैं। गीत यात्रा के क्षणों में... और भारतीय नारी के सम्बन्ध में अपनी बात, और वैश्वीकरण,स्त्री विमर्श एवं बाजारवाद शीर्षक लेख वैचारिक दृष्टि से विशिष्ट हैं। भारतीय नारी के सम्बन्ध में नारी-विमर्श का ज्वलंत पक्ष उजागर होता है। कुछ भूली सी यादें  ऐतिहासिक भाव-सन्दर्भो से समन्वित उत्कृष्ट विश्लेषणात्मक लगीं। निस्संदेह यह विश्लेषण प्रबुद्ध पाठकों और  अनुसंधित्सुओं के लिए नव्य ज्ञानवर्धक एवं अति उपादेयता लिए है। गम्भीर चिन्तनपूर्ण निबन्ध लेखन के साथ आप नाट्य-लेखन में भी  सिद्धहस्त हैं। ‘‘भारतीय नारी तेरी जय हो‘‘ प्रस्तुति विशेष रुचिप्रद एव मंचन की दृष्टि से उपयुक्त कहा जा सकता है। भारतीय संस्कृति के आदर्श तथा उसके उजले उत्कर्ष को इसमें बड़ी बारीकी से उद्घाटित किया गया है।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि वैश्विक परिप्रेक्ष्य में नारी अपने नानाविध अधिकारों के निमित्त पिछली कई शताब्दियों से संघर्षरत रही है। उन्नीसवीं शताब्दी का परिवेश देखें तो  इसे केन्द्रित करते हुए सतत् आन्दोलन भी चलाए गये तब कहीं  जाकर नारी को थोड़ी आजादी मिली। वरना वह सामाजिक दायरे में शोषित पीड़ित, दलितवत् रिसती रही। उपेक्षिता रही,दासी सी जिन्दगी जीने के लिए विवश बनी रही। उसका उज्ज्वल अतीत कलंकित कर घर की चारदीवारी में कैद कर दिया गया।

मगर आज वह समाज के प्रायः सभी क्षेत्रों में पुरुष से कदम से कदम मिलाकर चलने में समर्थ है। यही आपके लेख का प्रतिपाद्य भी है।

मेरी इक्यावन कहानियाँ से उद्धृत ‘‘स्नेह की डोर‘‘ तथा ‘‘घरभरौनी‘‘ कहानियाँ स्थितियों का यथातथ्य चित्रण है। सृजन में सच्चाई है। आपने बड़ी ईमानदारी से समय समाज के धरातल पर विषयवस्तु को उठाया है। कथ्य, भाषा और प्रवेश के नये रूप की पकड़ की प्रतीति  कराती हैं ये कहानियाँ। अस्तु। 

आपने दक्षिण भारत में हिन्दी की जो ज्योति जलायी है उसका भव्यालोक भारत ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व को आलोकित कर रहा है। यह सर्वाधिक सुखद, सराहनीय सन्तोषप्रद है।

इस श्रम- साध्य सार्थक सम्पादन के लिये अतिथि सम्पादक डॉ. उषारानी राव का हार्दिक धन्यवाद। गागर में सागर जैसे संक्षिप्त सम्पादकीय में उनका वैदुष्य प्रतिभाषित होता है। ‘‘आपसे... बातें‘‘में  साक्षात्कार के तहत समकालीन सृजन-साहित्य से सम्बंधित अनेक उद्भृत्तियों पर प्रकाश पड़ता है, साथ ही आपकी अद्यतन रचना पक्ष का बोध भी  होता है।...

विशेषांक के यशस्वी सम्पादक आदरणीय अग्रज देवेन्द्र बहल जी को धन्यवाद देना औपचारिकता मात्र होगी। सम्पादन- कला में प्रवीण उनकी पैनी पकड़ की दिव्यता की प्रस्तुति इस अविस्मरणीय अंक में आद्यन्त झलकती है। तदर्थ साधुवाद।  

 डॉ. राहुल, नयी दिल्ली, मो. 9289440642

              

Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य