आधुनिक वर्ण व्यवस्था

 

प्रफुल्ल चंद, बंगलोर, मो. 8762302817

वो बचपन से ही मेधावी थे। इतने मेधावी कि माँ बाप ही नहीं बल्कि इलाके के लोग भी उनमे होने वाले कल्कटर का चेहरा देखते थे। कल्कटर इसलिए नहीं कि वह एक बड़ा पदाधिकारी होता है बल्कि इसलिए कि इसके अलावा किसी और पद की जानकारी ही नहीं थी उन्हें।

यह मेधा जी का जंजाल बन गया शायद। दसवीं करते ही वायु सेना की परीक्षा पास हो गए। जाना नहीं चाहते थे, और पढ़ना चाहते थे। मगर आस पास वालों ने समझाया, “आजकल भगवान मिल जाते हैं पर नौकरी नहीं मिलती हमलोगों को वो तो सेना ही है जहाँ हमे भी बराबरी का मौका मिल जाता है। आज उन्हे एहसास हुआ कि वो समाज के उच्च पायदान पर विराजमान थे।

खैर! उन्होने सेना में नौकरी कर ली। यहाँ जबर्दस्त अनुशासन था। गलती से भी साहब को सलामी न देने पर भारी सजा का प्रावधान था। उन्हें अपना बचपन याद आया जब उनके चाचा ने प्रणाम न करने के कारण अपने से ज्यादा उम्र के एक व्यक्ति को छड़ी से पीट डाला था। बहुत रोये थे वे उस दिन। चार दिनों तक चाचा से बात भी न की थी। तब उन्हे समझाया गया था कि यही व्यवस्था है समाज की- “वर्ण-व्यवस्था”। यहाँ खुलकर रो भी नहीं पाते थे। बड़े जो हो गए थे अब। कई बार नौकरी छोड़नी चाही मगर नियम-कानून ने आर्थिक तथा सामाजिक स्थितियों के साथ मिलकर ऐसा गठजोड़ बनाया कि नौकरी छोडना संभव न हो सका। लोग समझाते थे कि वर्दी की नौकरी मे ये सब होता ही है, समस्या क्या है। वे मन-ही-मन कहते “वर्ण-व्यवस्था” मगर ऊपर से सिर्फ मुस्कुराते। जैसे तैसे बीस वर्ष पूरे किए जो न्यूनतम सेवा शर्त थी आजादी के लिए। लगा आजाद हो गए। ऐसे चहचहा रहे थे मानो पर निकाल आए हों।

सोचा अब शान से जीवन कटेगी, वर्दी का पीछा छूटा। फिर से एक सरकारी नौकरी ज्वायन कर ली। परिवार पालने की मजबूरी थी शायद। मगर जल्दी ही यहाँ भी भ्रम टूट गया। जिस व्यवस्था से आजिज होकर वहाँ नौकरी छोड़ी थी वो यहाँ भी ज्योंकी-त्यों थी। उससे भी कहीं मजबूत, कहीं अधिक ताकतवर। यहाँ उसका नाम अलग था- क्लास या ग्रुप कहते थे उसे यहाँ। दोनों में काफी समानताएं थी मगर काफी भिन्नता भी थी। बिलकुल वैसी ही छुआ-छुत, भेद-भाव। उनके खाने के वर्तन अलग, आपके अलग। उनके रहने की बस्ती अलग, आपके रहने की मलिन बस्ती अलग। उनका शौचलाय अलग, आपका शौचालय अलग। ये तो समानताएं थी। अब भिन्नता देखिये। समाज में वर्ण-व्यवस्था के खिलाफ बोलने वाले को हीरो बना देते हैं मगर यहाँ इस व्यवस्था के खिलाफ बोलना क्या सोचना भी पाप था। उस व्यवस्था के खिलाफ सरकार भी काफी सख्त है मगर यहाँ यह व्यवस्था अनुशासन, नियम, आचार, व्यवहार और न जाने किन-किन नामों से पालित और पोषित है। वस्तुतय समाज की उस कुरीति के उन्मूलन की जिम्मेदारी जिन सरकारी कंधों पर है, सरकारी विभागों में यह वर्ण-व्यवस्था उन्ही के द्वारा पालित और पोषित है।

लोगों ने फिर से समझाया, यहीं आधुनिक वर्ण-व्यवस्था है, यही सच्चाई है और आपको इसे स्वीकार कर लेना चाहिए। मगर, वो बागी हो गए। वहाँ भी वर्णव्यवस्था के खिलाफ खड़े थे और यहाँ भी। बिलकुल अकेले, बिलकुल तन्हा। 


Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य