मित्र

निशा चंद्रा, अहमदाबाद, मो. 9662095464


एक अजीब सी गंध पूरे डिब्बे में व्याप्त हो गयी है, सब की साँसो और पसीने... की मिली-जुली गन्ध। फस्र्ट ए.सी. के आरामदायक डिब्बे में बैठकर भी उसे सुकुन नहीं मिल रहा है, लग रहा है किसीने बडी सी काँच की पेटी में बन्द कर दिया है। अजीब सी छटपटाहट महसूस हो रही है, पर वह ट्रेन में आया ही क्यों ? आँखो के सामने से होकर कितने आदमी दौड़-भाग कर रहे हैं। देखकर भी जैसे नहीं देख रहा हूँ, सिर्फ अपनी जिन्दगी की घटनाएँ ही उसे स्पष्ट, उज्जवल और जीवन्त दिख रही है। बहुत सारी स्मृतियां तैर रही हैं। बच्चों ने मना भी किया था, कहा था, कार से जाईये, या प्लेन से, ‘पर वह अड़ गया था, नहीं इस बार ट्रेन से ही जायेगा। कौन था जो उसे बार-बार ट्रेन से जाने के लिये मजबूर कर रहा था । कौन सी अदृश्य ताकत उसे बुला रही थी। ट्रेन ने धीरे-धीरे सरकना शुरु कर दिया था। उसने नज़र घुमा कर चारों तरफ देखा, सभी अजनबी ।

पचास, पचास साल का हो गया हूँ। बहुत होते हैं पचास साल एक उम्र जीने के लिए। गुज़रे पचास सालों में - गुज़रे पचास सालों में मैंने बहुत कुछ हासिल किया है। बहुत कुछ खोया भी है, खोने की लिस्ट में जो सबसे महत्वपूर्ण है वह है विभूति, विभु मेरा मित्र। सत्रह साल का था, जब हम गाँव छोडकर शहर आ गये। गाँव में कितना कुछ छूट गया था। गाँव का वह घर, बौराई अमराईया, ईखों के झुरमुट, पगडंडी के मुड़ते ही रमिया कुम्हारन की झोंपडी, चाक पर तेजी से कुल्हड, सकोरे बनाते हुए उसके हाथ, छत की दीवारों पर उग आये पीपल, खिडकी की झिरी से झाँकता पूर्णमासी का चाँद और इतने सालों का फासला। 

...और विभु। जन्म से लेकर सत्रह सालों में दोनों कभी अलग नहीं हुए। दोनों के घर की दीवार साँझा थी और छत एक। गर्मियों की गर्म रातों में जब छत पर ठन्डी हवाए चलती, दोनों घरों के बिस्तर वहीं लगते। आधी रात तक दोनों तारे गिनते, भूत-प्रेतों की कहानियां सुनाते। ऐसी ही एक रात विभु ने मुझ से कहा था, 

‘मनु, तू मुझे छोड़कर चला तो नहीं जायेगा ?‘

‘मैं कहां जाऊँगा और क्यों ?‘ 

‘‘मैंने कल काका को बापू से कहते हुए सुना था कि अब यहाँ काम-काज ठीक नहीं चल रहा है, उनका एक दोस्त उन्हें शहर बुला रहा है, सोच रहा हूँ, चला ही जाउँ, फिर मनु को आगे पढाना है, यहाँ तो कोई काॅलेज भी नहीं है।‘ 

मेरे लिए ये नई सूचना थी। और वही हुआ, जो विभु ने कहा था। कल गाँव छोड़कर शहर चले जाना है। घनघोर अँधेरा छाया है। गाँव की नदी की ठहर गयी लहरें और हवा की मद्धम सरसराहट रात के अंधकार में एक रहस्यमय वातावरण पैदा कर रही है। विभु और मनु के बीच एक अजीब सा मौन पसरा है।

‘मुझे छोड़ने स्टेशन आयेगा ना।‘ 

मौन अचानक करुण क्रन्दन में परिवर्तित हो गया। 

‘मत जा मनु।‘ 

‘मुझे भूल तो नहीं जायेगा ?‘ 

‘नहीं, शहर जाकर तुझे भी अपने पास बुला लूँगा।‘

कितनी देर लगती है, क्षणों को छूटते हुए, रास्ते खतम होते हुए, दृश्य बदलते हुए। एक पर्वतमाला को देखते हुए कौन जान सकता है कि उसके पीछे कैसी अनन्तता छुपी होगी।

सूर्यास्त का हल्का केसरी रंग वातावरण में फैला हुआ था। संध्या की दियाबत्ती प्रत्येक घर द्वार को एक दिव्यता से आलोकित कर रही थी। ट्रेन बस चलने को ही थी, मेरी आँखे व्यग्रता से उसे ढूँढ रही थीं, पर वह नहीं आया। गाँव का छोटा सा स्टेशन, इक्के-दुक्के लोग, दूर एक नीम का पेड़। उस नीम के पेड़ के नीचे वह धुंधली सी छाया किसकी है, अरे विभु ही तो है, ट्रेन ने हल्के-हल्के रेंगना शुरु किया और वह छाया दौड़कर आयी। ट्रेन ने गति पकड ली थी और विदा देता हुआ उसका उठा हुआ हाथ धीरे-धीरे मेरी नजरों से ओझल हो गया। बस वह हमारी आखिरी मुलाकात थी। कुछ समय तक पत्र-व्यवहार चलता रहा, फिर वह भी बन्द हो गया। कुछ सालों बाद पता चला विभु का परिवार भी कहीं और चला गया है। शनैः शनैः स्मृतियां भी धूमिल होती गयी । गर्द का ऐसा अम्बार जमा कि पुराना सब कुछ उसमें दब गया। चाइना, जापान की महंगी कटलरी के नीचे रमिया कुम्हारन के कुल्हड-सकोरे कब के फूट चूके थे। बाँस और चंदन के ऊँचे-ऊँचे वृक्षों के साये में देख के झुरमुट छितरा चुके थे। कुछ भी शेष न था। यादों का हल्का सा धुंआ भी नहीं। अब मनु, मनु नहीं सफल उद्योगपति मनस्व था। 

इतने सालों बाद आज फिर स्मृतियों का ये कैसा कोहरा छाया है कि आज का कुछ भी नजर नहीं आ रहा है। तैंतीस साल पहले पीछे छूटा सब एक पल में चकरघिन्नी सी घुमा गया।

ट्रेन एक स्टेशन पर रुकी और मैं नीचे उतर गया। थोड़ी खुली हवा में साँस ले लूं। सामने के प्लेटफार्म पर एक ट्रेन आकर रुकी और एक अनजानी सुगन्ध से मन का नन्दनवन जैसे महक उठा। बचपन जैसे फिर से धूल-मिट्टी में कुलाचे भरने लगा। ये ट्रेन में खिडकी पर चेहरा टिकाये हुए कौन बैठा है। उदास आँखें, निर्लिप्त चेहरा, बडा पहचाना सा चेहरा है, बडा आत्मीय भी लग रहा है। कहाँ देखा है कहाँ, अचानक जैसे किसी ने हथौड़ा मारा, अरे विभु है ये तो, दोनों की आखे चार हुई, उन उदास आँखों में पहचान का चिह्न उभरा। खिड़की से उसने हाथ निकाला जब तक मैं उस हाथ को अपने में समेटता, ट्रेन आगे बढ चुकी थी। 

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