पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी और उनका रचना संसार

 समीक्षा

आशुतोष आशु ‘निःशब्द‘, सत्कीर्ति-निकेतन, गुलेर, काँगड़ा, हिमाचल प्रदेश, मो.  9418049070


कांगड़ा रियासत के राजा हरिचंद ने गुलेर रियासत की स्थापना की थी। उन्हीं के नाम पर राजधानी का नाम हरिपुर हुआ। वस्तुतः गुलेर गाँव आपकी हथेली जितना छोटा ग्रामक्षेत्र है। इसे आत्मनिर्भर होने का गौरव इसके राजाओं की दूरदृष्टि के कारण प्राप्त हुआ था। सत्ताईस जातियों की क्रमशः बसाहट किसी शिल्पकार का वो स्वप्न है जो गुलेर सभ्यता के कण-कण में आलोकित होता है। गाँव भले छोटा है, परन्तु इसकी कीर्ति का पूर्णचन्द्र हिमाचल ही नहीं अपितु देश-विदेश में दमकता रहा है। वर्तमान पीढ़ी भी अपने प्रयासों से गाँव का नाम रोशन करने के लिए कृतसंकल्प है। यह दीगर बात है कि सभ्यता के राजवंशीय शिखर छूने तथा हिमाचल प्रदेश का नाम विश्वभर में चमकाने के बावजूद इस भू-भाग को सदैव सरकारों की उपेक्षा ही मिली है। अस्तु... 

इस गाँव के पानी में साहित्य और कला की अविरल धारा बहती है। यहाँ के राजाओं की जीवन के प्रति सौंदर्य-भाव की बानगी है कि ‘गुलेर कलम’ ने ब्रिटिश म्यूजियम तक अपनी छाप छोड़ी। साहित्य के क्षेत्र में भी गुलेर का विशेष योगदान है। राष्ट्रीय साहित्य में सम्भवतः सर्वाधिक चर्चित नाम इसी गाँव की मिट्टी से उपजे हैं। ब्रजभाषा के सर्वश्रेष्ठ कवि, कवि बृजराज, का जन्म गुलेर रियासत के गाँव गुलेर में हुआ था। गुलेर गाँव का छन्द-काव्य में योगदान का इतिहास शायद इससे भी पुरातन निकले। 

7, जुलाई, 1883 ईसवी को इसी मिट्टी से हिंदी साहित्य के कोहिनूर ने जन्म लिया था। साहित्यिक अमावस्या को ज्ञान-रश्मियों से आलोकित करने के भवितव्य को उनके पिता पंडित शिवराम देख पा रहे थे, तथापि ‘चंद्रधर’ नामकरण किया गया। गुलेरी जी के आलेखों और पत्राचार के आलोक में कहा जा सकता है कि उनके बचपन को गुलेर के बछूह और बँडेर ने भरपूर सिंचित किया। जैसे हम कह आए हैं कि इस गाँव के पानी में साहित्य बहता हैः ऐसे में पारिवारिक विद्वता के योग से उनका साहित्यिक वटवृक्ष होना तय था।

उन्नीस वर्ष की आयु में जयपुर वेधशाला के जीर्णोद्धार में प्रमुख भूमिका का निर्वहन उनकी विलक्षण प्रतिभा का अंशमात्र ही उजागर करता है। स्वर्गीय पंडित जी को मैं जितना पढ़ पाया हूँ, उसके आधार पर, इतना कहने का साहस किया  है कि वे न केवल वेद-वेदांगों में पारंगत थे बल्कि टीकाकारों द्वारा इनके गलत व्याख्यानों पर आक्षेप लेने से भी नहीं चूकते थे। एक सुघड़ साहित्यकार होने के साथ-साथ समालोचना की गूढ़ दृष्टि भी स्वर्गीय चंद्रधर जी की विशेषता थी। 

कहानीकार होने से अधिक उनकी रूचि निबंधों में रही। गद्य-विधा का अन्य कोई धुरंदर उनके समकक्ष प्रतीत नहीं होता। गद्य में व्यंग्य-विधा का प्रचलन भी स्वर्गीय पंडित जी की देन कही जाए तो अतिश्योक्ति अलंकरण न माना जाए। काव्य-विधा में भी व्यंग्य पर काका हाथरसी ने उनके बहुत बाद हाथ आजमाया। यह दीगर बात है कि स्वाध्याय के जिस शिखर पर विराजित होकर गुलेरी जी व्यंग्य लिखते हैं, उसे समझने की शक्ति सामान्य साहित्यिक-बुद्धि के बस की बात नहीं। यही कारण रहा होगा कि उनके रचना-संसार को योग्य अधिमान प्राप्त नहीं हुआ। उनका प्रत्येक आलेख ज्ञान के गोमुख से निकली वो वेगवान गँगा है जिसे मस्तक पर धारण करने के लिए पाठक का स्वयं शिव होना अपेक्षित है। 

साहित्य में आलोचक और टीकाकार खूब हुए। पर एक आलोचक का स्वयं उत्कृष्ट साहित्यकार होना असंभव है। गुलेरी जी को कोहिनूर कहने का तात्पर्य यही है कि वे एक विलक्षण उत्कृष्ट साहित्यकार-आलोचक हुए हैं जिनका रचना और समालोचना का व्योम शब्दातीत है। 

समाज उन्हें केवल एक कहानी ‘उसने कहा था’ से जानता है। हरि अनंत, हरिकथा अनंता की तर्ज पर प्रत्येक वर्ष अनगिनत शोधपत्र इसी कहानी की परिधि में बौद्धिक हल जोत रहे हैं। ‘बुद्धू का काँटा’, सुखमय जीवन’ और ‘हीरे का हीरा’ पर कोई बात नहीं करता। ‘हीरे का हीरा’  कथानक तत्कालीन ग्रामीण परिवेश और सामाजिक मनोविज्ञान का दर्पण है। माँ का वात्सल्य और पत्नी की वेदना की सजीव अभिव्यक्ति पाठक की आँखों से संवेदना के अश्रु बहा देती है, यही इस कहानी के शिल्प की सुन्दरता है।  

कथा संसार से अलग गुलेरी जी व्यवहारिक व्यक्तित्व थे। केवल शब्द-ज्ञान की गँगा तो बहुतेरे बहाते हैं परन्तु उनके द्वारा निष्पादित कर्मों को यदि धरातल पर खोजने जाएँ तो हाथ हवा लगती है। गुलेरी जी साहित्यिक अपवाद हैं। मेयो कॉलेज में संस्कृत विद्यापीठ की स्थापना हो या काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में संस्कृत अध्यापन की व्यवस्था का जिम्मा, गुलेरी जी के पदचिन्ह इन वीथियों में स्पष्ट अंकित मिलेंगे।

व्यंग्य/निबंधों के माध्यम से राष्ट्र की सुप्त-चेतना पर पंडित जी ने करारा प्रहार किया ताकि लोग जागृत हों। 

ऋग्वेदोक्त मंडूक सूक्त को आधार बनाकर जिस शैली में गुलेरी जी ने ‘इंडियन नेशनल कांग्रेस’ के गठन और उसकी कार्यप्रणाली पर कटाक्ष किया है, वो वर्तमान में भी प्रासंगिक है। यह व्यंग्य एक ऐतिहासिक दस्तावेज है जिसे प्रत्येक भारतीय को अवश्य पढ़ना चाहिए। उपमाओं से अलंकृत यह गद्य तत्कालीन परिस्थितियों और राजनीतिक मनोविज्ञान का भरपूर चित्रण करता है।

महाम्ना पंडित मदन मोहन मालवीय जी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर उन्होंने काशी विश्वविद्यालय को आगे बढ़ाने का कार्य भी किया। गुलेरी जी की रचनाओं से प्रतीत होता है कि उनका मानना था कि कर्म-प्रधान व्यक्ति को राजनीतिक द्वंद्व से परहेज करना चाहिए। अल्पायु में लक्ष्य की स्पष्टता उनकी विलक्षण बुद्धि को रेखांकित करती है। 

मालवीय जी और पंडित जी हिंदी के उत्थान के लिए कृतसंकल्प थे। सत्ता से नजदीकी के चलते पंडित मालवीय जब ‘महाम्ना’ हुए तो ‘सरल हिंदी’ अर्थात मिश्रित हिंदी की पैरोकारी करने लगे। इसपर गुलेरी जी का विरोध ‘खुली चिठ्ठी’ के माध्यम से समालोचकः 1904 ईसवी में प्रकाशित हुआ। उसका एक अंश पढ़िए - 

“... वैसे ही जिन लोगों ने - मालवीय जी की देखादेखी हिंदी का पक्ष लिया था, जो मालवीय जी की हिंदी को हिंदी मानते थे, वे आज मालवीय जी की दूसरी डिबिया को देखकर, चकराते हुए कह रहे हैं - “सरल हिंदी, उर्दू मिश्रित हिंदी।” जिज्ञासा यह है कि डिबिया जेब में कहाँ से आ गई? पहले ही से थी, या अब इसकी जरूरत पड़ी है?...”     

इस समय गुलेरी जी का वय 21 वर्ष था। आज इसी वय के युवा दुधमुँहे कहलाए जा रहे हैं।  

इस देश में जहाँ साहित्यकार होने के मायने केवल पुस्तकों के प्रकाशन तक सीमित हैं, भले पुस्तक में सामग्री के नाम पर पाठक को निराशा हाथ लगे, ऐसे में गुलेरी जी लीक से हटकर वो रचनाकार हैं जिनकी कोई पुस्तक प्रकाशित नहीं हुईः फिर भी वे साहित्यकार कहलाए। युवा तुर्कों के लिए भी गुलेरी जी नजीर हैं कि स्वाध्याय के बिना लेखन में परिपक्वता नहीं लाई जा सकती। साथ ही, उनका कृतित्व दृष्टान्त है कि साहित्यकार होना केवल अनुभवी वृद्धों की बपौती नहीं। 

पंडित जी का अधिकांश लेखन समसामयिक विषय वस्तुओं से प्रेरित रहा है। फिर वो ‘वर्ण विषयक कतिपय विचार’ निबंध हो या ‘काशी’ अथवा ‘जय जमुना मैया की’ जैसे आलेख ,वे समाज को जगाने के लिए शाब्दिक कशाघात करने से नहीं चूकते। समाज की विद्रूपता को व्यंग्य का जामा पहनाने की विलक्षण प्रतिभा के धनी पंडित जी मानो ‘शब्दो वै ब्रह्म’ का साक्षात्कार कर चुके थे। ‘कछुआ-धरम’, ‘धर्म और समाज’, ‘शिक्षा के आदर्शों में परिवर्तन’ जैसे आलेखों के माध्यम से उन्होंने समाज को सार्थक विचारधारा से जोड़ने का प्रयास किया। सामाजिक अवगुंठन न खुलने की स्थिति में उनके धारदार कटाक्ष मानसिक ग्रंथी का छेदन करने में सक्षम थे। 

सबसे पीड़ादायक पक्ष यह है कि इस सब के बीच गुलेरी जी की काव्य प्रतिभा से पूरा साहित्यिक समाज अनभिज्ञ है। जो कुछ लोग जानते भी हैं, वे भी उनके इस पक्ष पर सार्थक चर्चा नहीं करते। गुलेरी जी छंदोबद्ध कविताओं में राष्ट्र-प्रेम तो स्वरित होता ही है, साथ ही, उनकी लेखनी का संतुलन भी आश्चर्यचकित करता है। उनमें प्रखर राष्ट्रवाद की स्पष्ट झलक है परन्तु गुलेरी जी कट्टरता से परहेज करते हैं। विरोध में उनके स्वर मुखरित हैं परन्तु रणनीतिक समझ और भावी कठिनाईयों के प्रति भी उनकी कलम सजग करती है। 1905 ईसवी में जब बंग-भंग के विरोध में स्वदेशी अपनाने का प्रण लिया गया तो इसी आलोक में समालोचकय अक्तूबर, 1905 ईसवी में प्रकाशित उनकी इस कविता के कुछ अंश पढ़िए, 


”प्रतिज्ञा की तूने अति कठिन, उत्साह भरिते !

निभाओगी कैसे ? धन-जन-धरा धान्य रहिते !

अखंड ज्योति जो अब यह जगाई, भगवती !

सदा पालोगी क्या तन-मन उसे दे? गुणवती !“


शिखरिणी छंद में रचित इस कविता का शीर्षक था ‘अहिताग्निका।’

गुलेरी जी का व्यंग्य केवल गद्य तक ही सीमित नहीं था। व्यंग्य-काव्य के द्वारा भी उन्होंने सामाजिक पुरोधाओं के हृदय पर बड़ी भारी चोट की थी। जिन पर उनके व्यंग्य का वज्रपात हुआ होगा, उनकी मानसिक व्यथा के प्रति मेरी संवेदनाएँ। समालोचक, 1906 ईसवी में प्रकाशित ‘रवि’ गुलेरी जी की चिर-परिचित उपमा अलंकार से सुसज्जित एक गूढ़ रचना है। उपमेय, उपमान के आलोक में शब्दों का संयोजन इस प्रकार किया गया है कि एक बारगी आप असमंजस में पड़ जाएंगे कि इसे व्यंग्य कविता कहा जाए या नहीं। पंडित जगन्नाथ सम्राट (1652-1744, आमेर के महाराज जयसिंह के दरबार के विलक्षण गणितज्ञः इन्हें सिद्धांत-सम्राट भी कहा जाता है) को आधार बनाकर रचित इस काव्य में व्यंग्य का सम्पुट खोजने के लिए पहले आपको गुलेरी जी के समग्र साहित्य को यथारूप जीना पड़ेगा। उनके आसपास की घटनाओं को उनकी रचनाओं में खोजना होगा। एक छंद पढ़िए, 


”नव गति गणना चारुचलन कलना चिंतामनि !

जय प्रकास के आदि आचारज सुभमति धनि !

दिगदिगन्त गत तेज ! यंत्रराजन के प्यारे !

म्लेच्छ तमिस्र हटाय पूज्य मूरति रखवारे।।“


यह छंद उनके व्यंग्य की केवल भूमिका है जिसका उपसंहार अंतिम छंद में होता है, देखिये, 


‘अपत कटीली डार’ सेई चाहें कुसुमन को। 

‘हारे को हरिनाम’ ‘राम ही बल निर्बल को’।

मन! बनि है कब दास मदन मोहन चरनन को ?

या लहि है सायुज्य चंद्रधर पद कमलन को ?


इन चार पंक्तियों में गुलेरी जी की जीवटता और अक्षुण्ण आत्मसम्मान की झलक मिलती है। रही बात बीच के इक्कीस छंदों में व्यंग्य की तो पाठकवृन्द भी थोड़ा अध्यवसाय करके पूरी रचना अवश्य पढ़ें। 

पंडित जी की अन्य काव्य रचनाएँ ‘भारत की जय’, ‘एशिया की विजयादशमी’, ‘झुकी कमान’ के साथ-साथ ‘सोऽहं’ मुझे विशेषतः प्रिय है। इस कविता के माध्यम से गुलेरी जी सरकारी कर्मचारियों की अकर्मण्यता पर कुठाराघात करते हैं।  

13, सितम्बर, 1922 ईसवी को गंभीर ज्वर के चलते गुलेरी जी ने स्वर्गारोहण किया। भारतीय साहित्य जगत की यह अपूरणीय क्षति है। मात्र 39 वर्ष की अल्पायु में भी उन्होंने साहित्य संसार को अपनी ज्ञान रश्मियों से भरपूर आलोकित किया। गुलेर में उनकी आत्मा निवास करती थी परन्तु कार्यक्षेत्र उन्हें गाँव से दूर ले गया। ग्रामीण व्यक्ति को आप ग्राम से बाहर ले जा सकते हैं परन्तु उसके अंदर की ग्राम्य संवेदना को नहीं हटा सकते। यही कारण था कि उन्होंने ‘गुलेरी’ उपनाम का वरण किया। गुलेर गाँव का प्रत्येक जन-मन अपने नाम के पीछे ‘गुलेरी’ लगाने के मूल अर्थ से भले अनभिज्ञ हो परन्तु वे पंडित चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ जी के गाँव में पैदा होने का गौरव अवश्य करते हैं। गुलेरी जी को समझने के लिए सागर ‘पालमपुरी’ के शब्दों को पढ़िए, 

”तट से ही जो देख रहा है, लहरों का उठना-गिरना। 

उसको अंदाजा ही क्या है सागर की गहराई का।।“


गुलेरी जी की जयंती पर सादर समर्पित।    



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