...ये यादें धीरे-धीरे जिंदगी का हिस्सा बनती जा रही हैं....देखिए न-

 संस्मरण

   वीनु जमुआर, पुणे, मो. 8390540808


‘‘कातिक महीना काय्ल से शुरू भेतय। सुखदेवा, महबीरवा कुम्हार घर गेले हलय की नाय ? दीया-बाती, घीव सब इंतजाम कैर लेले हाय ने बेबी माय...‘‘

(कार्तिक महीना कल से प्रारंभ हो जाएगा सुखदेव, (सहायक) महावीर कुम्हार के घर गया कि नहीं? दीया-बाती तथा घी इत्यादि का इंतजाम कर ली हो न बेबी की माँ...)

ममा (दादी) के ये बोल आज भी गूँजते हैं यादों के आंगन में। कार्तिक महीने के प्रथम दिन से ही प्रत्येक शाम आंगन में स्थित तुलसी चौरा पर घर के हर सदस्य के नाम का दीया थाली में सजा तैयार रहता। संग में कटोरी भर धुले चावल, लोटा भर जल तथा माचिस की डिबिया रखी होती। कुआँ के पास भी पानी की भरी बाल्टी और लोटा रखा रहता।

पापा से लेकर घर का प्रत्येक सदस्य पहले कुएँ पर हाथ-पैर धोता फिर अपने नाम का एक दीपक जलाकर तुलसी पींडे पर रखता। दीया रखने से पूर्व चुटकी भर चावल चैरे पर रखा जाता और उसी पर दीप रखा जाता। जलते हुए दीपक के चारों ओर हाथ को गोल घुमाते हुए जल से अर्ध्य देना अनिवार्य होता।

इसी दिन से हम आंगन के एक कोने में घरकुंडवा बनाना आरंभ करते।

ईंट और मिट्टी से विस्तृत अहाते के साथ किसी निपुण राज मिस्त्री की भाँति कभी एक मंजिला कभी दो मंजिला और कभी-कभी टैरेस के साथ तीन मंजिली इमारत का निर्माण कार्य शुरू हो जाता। मिट्टी तथा ईंट के टुकड़ों से दीवारें बना ली जातीं, छत के लिए बाँस की खप्पचियों का उपयोग करते जो झारखंड के प्रायः सभी घरों के पीछे बँसवाड़ें में बहुतायत से उपलब्ध होते थे। आखिरी ऊपरी मंजिल की छत खपड़े (टाइल्स) के टुकड़ों से बनी होती।

मंशा ऐसी कि बीच में बड़े से आंगन के चारों ओर बरामदा तथा उस बरामदे से लगी बाईस कमरों का वह घर जिसमें हम रहते थे, का छोटा प्रतिरूप हो यह घर कुंडवा! संग हो हमारे उन सपनों का समावेश जिनकी कमी हमें अपने घर में खटकती थी, मसलन कमरों में खिड़की का छोटा होना, अधिकतर देवी-देवताओं वाले कैलेंडरों का दीवारों पर टंगा रहना, दीवार में बनी आलमारियों का छोटा आकार इत्यादि-इत्यादि।

सपनों के अनुरूप घरकुंडे में खुली-बड़ी खिड़कियाँ हम बनाते, सरकंडा (एक प्रकार का घास) के गोल तने से उसका ग्रिल बनता, कार्डबोर्ड काट दरवाजे बनते तथा सचमुच के बीज तथा गेंदा के फूल के छोटे-छोटे पौधे बो कर एक ओर बगिया तथा दूसरी ओर बारी सजाते। (गेंहू, मेथी, पालक, चना आदि दस दिन/दो सप्ताह में उग आते थे) टीन के छोटे गोल डिब्बे को जमीन खोद कर फिक्स कर देते और पानी भर देते थे, कुंआ तैयार हो जाता।

बाहर चिकनी मिट्टी से दीवार की प्लास्टर करते। जब मिट्टी सूखने लगती, ममा चरकी ( बर्तन मांजने वाली ) जिसे हम चरकी फुफु कहते थे, से कह कर गोबर से लिपवा देती। एक-दो दिनों में गोबर सूख जाने पर खली और दूधी माटी से सफेद पुताई करते। अच्छी तरह सूख जाने तक ठहरते और फिर शुरू होता गेरू तथा सब्जियों के पत्तों से निकाले गए रस से बने नैसर्गिक लाल, हरे (सेम के पत्ते) पीले (हल्दी) तथा भूरे एवं काले (कोयला) रंगों से चित्रांकन का कार्य। सबसे ऊपर सूर्य देव फिर सूरजमुखी के फूल, पेड़-पौधे, गाय-बैल, बैल गाड़ी, सगड़-गाड़ी तथा त्योहारों के दृश्य! मांदर तथा तुरही बजाते- नाचते आदिवासी नर-नारी के चित्र एक ओर उकेरते वहीं दूसरी ओर कंधों पर हल-कुदाल लिए खेतों की ओर जाते हुए किसान तथा सिर पर गट्ठर उठाए स्त्रियों को भी स्थान मिलता। दिवाली को स्थानीय भाषा में सोहराय भी कहते थे तथा इस प्रकार के भित्ति-चित्र को छोटानागपुरी सोहराय माड़ना कहते थे।

इधर हमारी तैयारियाँ चलतीं उधर गाँव के कुम्हार, महावीर काका घरकुंडे में रहने वाले गुड्डे-गुड़ियो तथा अन्य मिट्टी के खिलौनों को काया देते, रंग रोगन लगा कर तैयार कर देते। साथ ही नियमित आकार से छोटे आकार के दीये भी रंग बिरंगे रंगों में रंग कर दीपावली के दिन सुबह सुबह ही ला देते। पूसा, घर का सब से पुराना सेवक जो परिवार के सदस्य जैसा ही था, आज भी है, दीयों में बाती और तेल डाल देता और मूर्तियों को हम अच्छे से जगह -जगह पर सजा देते। मूँछ वाली मूर्ति सुरक्षा हेतु किले के प्रवेश द्वार पर तैनात कर दी जाती।

सांझ होते ही दीये जला दिए जाते, घरौंदा जगमगा उठता। ख़ील-बताशे तथा मोतीचूर के लड्डू कुल्हिया-चुकिया (मिट्टी के छोटे बर्तन) में भर कर गणेश जी एवं लक्ष्मी जी के सामने रख देते, ममा बड़े मनोयोग से हमें राम जन्म से लेकर उनके बनवास जाने, सीता हरण, दुष्ट रावण से राम जी का युद्ध तथा उनकी जीत की कथा सुनाती। हम सभी भाई-बहन (कुल मिला कर सत्रह) तब तो चचेरे-फुफेरे ममेरे मौसेरे नहीं होते थे बस भाई बहन होते थे, सो कुल- जमा नौ भाई और आठ बहनों की हमारी टोली बड़ी तन्मयता से राम कथा सुनते।

और-  अब हम बच्चों का घरौंदा मानो बस राम जी के घर आने भर की राह जोह रहा होता। क्रमशः...

दीपावली के दिन की विस्तृत चर्चा फिर कभी करूँगी,इस समय बस इससे जुड़ी इन्हीं यादों के संग...

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