टूटता तारा
योगेश मित्तल, नई दिल्ली, मो. 9711252888
रात की सुरमई में
तारो की रेश्मी छाँव खिली है,
एक दिव्य उपवन की मानो,
मधुर जगमगाती पवन चली है,
कहीं दूर उस मर्म-लोक में,
टिमटिमाते हूये स्वप्न-लोक मंे,
ऐसा प्रभास नज़्ाारा देखा,
एक टूटता तारा देखा।।
प्रकृति पर जलते दीये हो शोभित,
हो नभ-शृंगार नगों से भूषित,
रेशमी किरणों के महा-चरम मंे,
गगन पर छाये उस आलोक परम मंे,
जी-भर के आज उजियारा देखा,
एक टूटता तारा देखा।।
चाँद-तारे आते सज-धज के,
मन, ये अंबर मंे पर्व,
रोशनियों की अठखेली करे,
बिखेरे सृजन पर अपना सर्व,
उस जलसे से, जीवांे के लिये, एक भेंट का झारा देखा,
एक टूटता तारा देखा।।
टूट-कर अपनों से,
विरह की टीस भरे मन से,
करने चला यात्रा सौरमंडल की,
आकाश की, कभी धरातल की,
अकेला है, पर लिये विश्वास,
हर क्षण गंतव्य की ओर प्रयास,
आज बनते एक नया सितारा देखा
एक टूटता तारा देखा।।
ज्योति के जैसा वो लगता,
बिखेरता देव-आशीष का उपहार,
चलता जुगनू के जैसा वो,
केवल भोर तक की बार,
आसमां में आकाल्पनिक नज़ारा देखा,
एक टूटता तारा देखा।।
ब्रह्माण्ड का सौभाग्य बने वो,
संसार की सुखद आस बने वो,
स्रोत को प्रबल करे वो,
शुभम का वाहक बने वो,
जैसे ईश का कोई प्यारा देखा,
एक टूटता तारा देखा।।