प्रमथ्यू

कमला दत्त, USA, Kdutt1769@gmail.com

तुम अभी-अभी गये हो और मुझे दे गये हो साढ़े छः घंटे। तुमने कहा था जाते वक्त... कि छः बजे तक लौट आऊँगा। और मैंने कहा कि नहीं, साढ़े छः! और समझौता हो गया था। न तुम्हारी बात रही न मेरी। इधर हम अक्सर ऐसा करते हैं। शायद यह हमारा खेल है, जिसे हम दोनों ही जानते हैं। तुम कहते और मैं मान लेती तो शायद तुम मुझ पर हावी हो जाते, या मुझे लगता हो गये हो। साढ़े छः! शब्द हवा में तिर गये हैं। तुमने काटा नहीं, सवा छः नहीं कहा। तुम जब भी आते हो, वक़्त को लेकर समझौता हम में जरूर होता है। तुम जाने लगते हो और मैं कहती हूँ, “पन्द्रह मिनट और रुको न!‘‘ और वह पन्द्रह मिनट कभी आधे घंटे में, कभी पैंतालीस मिनट में और कभी कई-कई घंटों में फैल जाते हैं। पहले-पहल तुम हैरान हुए थे कि यह कैसा खेल खेलती है। कभी बिना फोन किये आ जाऊँ तो एकदम नाराज हो जाती है। कभी एक हफ्ते में दो बार आने को कह दूँ, तो खीज उठती है, मगर आने पर जब भी जाने लगता हूँ तो पन्द्रह मिनट और रुकने का आग्रह जरूर करती है।

मुझे हमेशा लगा है कि हम किराये का वक़्त ले जी रहे हैं। जो वक़्त हमारे बीच है वह हमारा नहीं, किसी की दी हुई खैरात है, जो जरा भी ज्यादा इस्तेमाल करने पर छिन जायेगी।

यह बात हमारी जान-पहचान के पहले दिनों में तुमने कही थी। नहीं, शायद मैंने! हमारे बीच जो है, वह मुझे सौगात लगती है।... और जो कि अपव्यय होने पर लौटा ली जायेगी। मैंने तुम्हें उस राजा की कहानी सुनायी थी, जो राजा से रंक हो गया था...तीन वरदान मिले थे उसे. कोई भी मनचाही चीज तीन बार मिल सकती थी, मगर चैथी बार माँगकर राजा ने सभी कुछ गँवा दिया था... अपना राज भी। फिर हम दोनों ने मनौवैज्ञानिक दृष्टि से इस बात को नापा-तोला था, कुरेदा था... कि हमारे ऐसा सोचने के पीछे क्या छुपा है... जानने की कोशिश करते हुए हम इस नतीजे पर पहुंचे थे कि एक तरह से हम दोनों ही बचपन में मातृविहीन हो गये थे। अब किसी के भी जाने पर हमारी वही असुरक्षा की भावना उभर आती है।... और जाते हुए किसी को भी रोकते हुए हम अपनी-अपनी माँ को रोक रहे होते हैं। अपने-अपने डॉक्टरों से बातें करते हुए हम दोनों ही आधे मनोवैज्ञानिक बन गये हैं। हर चीज के सूत्र खोजने की कोशिश... कि परोक्ष में ऐसा क्यों हैं? प्रत्यक्ष में क्या दिखता है?... और क्योंकर? इन बातों को लेकर हमारे विवाद अक्सर होते रहते हैं। तुम कहते हो, डॉ. जार्सकी भी कहते है कि अपने बचपन की लावारसी के अनजानेपन में माँ के चले जाने को अपनी किसी गलती की प्रक्रिया मान लिया था हमने! तब का बैठा डर बराबर अपनी जड़ें फैलाता रहा है। और तुम बताओगे कि तुम्हारी माँ जब अपने दूसरे पति (जो तब उसका पति नहीं था) कि साथ भाग रही थी, तो तुम कितने लाचार बने, जाती हुई को... बस, देखते भर रहे थे। यह समझ नहीं आया था कि वह भाग रही है! पहले बाप गया और फिर माँ...! और तुम कहते हो कि तुमने अपनी समझ के मुताबिक एक हल ढूँढ़ लिया था। उस दिन के बाद तुम किसी पर भरोसा नहीं कर पाये, किसी से प्यार नहीं कर सके। बस, तुम बहुत देर तक पत्थर ही हुए रहे... और कि मैंने तुम्हारा कवच तोड़ा है। और तुम जब तब मुझे यह भी याद दिलाते हो कि मैं सौगात वाली बात बड़ी गम्भीरतापूर्वक लेती हूँ। तुम्हें पूरी उपेक्षा दिखाने के बाद जब मैंने तुमसे बोलना तक बंद कर दिया था, तब तुम एक महीने के लिए दक्षिण अमेरिका चले गये थे। तब तुम्हारी अनुपस्थिति में मैंने एक सूची बनायी थी... और हर चीज के लिए एक ही बार माँग की थी कि,

मैं तुम्हारे साथ

1. एक अच्छी तस्वीर देखना चाहती हूँ। 

2. एक बार अच्छे चीनी रेस्तराँ में खाना खाना चाहती हूँ। 

3. एक बार केप-कॉड जाना चाहती हूँ। 

4. एक बार समुद्र किनारे जाना चाहती हूँ। 

5. एक बार कोई अच्छा नाटक देखने जाना चाहती हूँ।

6. और एक बार...नेक से नेक इंसान को छः गुनाह करने की इजाजत होनी चाहिए।

वापस आने पर यह सूची देखकर तुम खूब हँसे थे।

अब साढ़े छः घंटों का वक़्त है मेरे पास। तुम वक्त से पहले आ जाओगे तो यह सवा छः में सिकुड़ जायेगा और अगर जरा देर से आओगे तो पौने सात तक फैल सकता है। इससे ज्यादा खींचतान हो नहीं पायेगी। वैसे मुझे घड़ियों से नफरत है। बरसों घड़ी नहीं लगायी इसी वजह से। आज के ये घंटे कीमती हैं। सो, घड़ी पास रखी जरूर है। कह नहीं सकती, मुझे टेलीफोन से ज्यादा नफरत है या इन घड़ियों से। पर घड़ियाँ सोते-जागते मेरे जेहन में घूमती रहती है... इंगमर-र्बंगमन, हर आकार और आकृति की झील जैसी, पक्षी जैसी, दानव जैसी दिखती घड़ियाँ तस्वीरों की - तरह हर ववक़्त टक-टक करती रहती हैं। पर इनकी सूइयाँ, बस, रुकी रहती हैं, हिलती नहीं। यह घड़ियाँ दहशत पैदा करती हैं, वक़्त नहीं बतातीं। 

आज सुबह की शुरुआत ठीक नहीं हुई थी। मैं बहुत डरावने स्वप्न के साथ उठी थी। मैंने कहा था, ‘‘आज हमें बाहर नहीं जाना चाहिये... बुरा सगुन है।‘‘ तुमने कहा था, ‘‘नहीं, यह तो बड़ा पारदर्शी स्वप्न है।... तुम मेरे साथ, कहीं बाहर जाने को लेकर बड़ी दुविधा में हो शायद...!‘‘ और फिर तुमने कहा था, “तुम पूरे-के-पूरे शहर का बोझा अपने सिर पर लिये हो। यह अमेरिका है, तुम्हारा छोटा शहर नहीं। तुम किसी के भी साथ कहीं भी जाओ, कुछ भी करो, किसी को क्या वास्ता। यह तुम्हारा मध्यवर्गीय समाज नहीं और न ही वेस्टइंडीज है, जहाँ हर कदम उठाने से पहले दस बार सोचना पड़ता है।‘‘ तुमने एक बार फिर अपनी मनोवैज्ञानिक सूझ-बूझ से काम लिया था और कहा था, ‘‘अच्छा, चलो हम उस दिशा की ओर कार ले चलते हैं। शहर से बाहर निकलने पर तुम्हारा डर कम हुआ तो चले चलेंगे, नहीं तो जहाँ से तुम कहोगी लौट आयेंगे।‘‘

तुम जानते थे एक बार शहर की हद लाँघते ही मेरा डर कम हो जायेगा। यह तुम्हारी दूरदर्शिता ही तो थी। तुम्हारी दूरदर्शिता की मैं कायल हूँ। खेल के तरीके तुम्हें खूब आते हैं और तुम्हारा कभी-कभी अनजान बन जाना संजीदा मौकों पर...,बस, नाटक भर है। मुझे जानने के ठीक कुछ दिनों बाद जो कौशल लेकर तुम आये थे, उसमें कतई बदलाव नहीं हुआ। खेल की चालें बदली हैं, ढंग बदले हैं। पर तुम्हारे निर्णय में कोई अंतर नहीं। बदलाव आया है तो मुझमें। शुरू में खेल में जरा भी दिलचस्पी न रखने के बावजूद अब पूरी तन्मयता के साथ खेल रही हूँ। क्या यह खेल नहीं कि हम बातें करते हैं, सूचियाँ बनाते हैं और जल्द ही उनकी चिंदियाँ उड़ा देते हैं। तुम कहोगे कि ऐसा तुम नहीं करते, मैं करती हूँ... कि तुम में ढेर से विरोधाभास हैं... कोई भी रोमानी बात करने के बाद बर्फ का गोला गिरा देती हो! तुम एक बार फिर किसी मनोवैज्ञानिक तथ्य की व्याख्या करने लगोगे और मैं उस तथ्य की चिंदियाँ उड़ा दूंगी। अभी रास्ते में आते वक्त जब गाड़ी पेड़ों के झुरमुटों में घिरे कैबिस में से गुज़र रही थी तो मैंने एकदम चिल्लाकर कहा था, ‘‘देखो. कितने खूबसूरत नाम हैं... व्हिस्परिंग पाइंस, फ्लाईंग क्लाउड्स...!‘‘ और बाद में एकदम कह उठी थी, ‘‘बैगर्स बेंक्वेट!‘‘ और साथ ही यह भी कह डाला था, “यू शुड ब्रिग यूअर डेट्स हियर!‘‘ और तुम कह उठे थे, ‘‘देखो, तुमने अभी-अभी वही किया है जो कि मैं हमेशा कहता हूँ और तुम करती हो। व्हिस्परिंग पाइंस और फ्लाईंग क्लाउड्स जैसी रोमानी बात कहने के बाद एकदम यह पढ़ देना...बैगर्स, या मेरी डेट्स का हवाला देना। तुम हमेशा डरी रहती हो, हमेशा दहशत में रहती हो। कुछ भी अच्छा कहने के बाद, किसी भी चीज की सराहना करने के बाद यह ‘नॉक-वुड‘ वाली तुम्हारी प्रतिक्रिया... वही प्रतिक्रिया दुहराई है तुमने, मेरी डेट्स का हवाला देकर। प्यार में थोड़ा डर, थोड़ी जलन ठीक रहती है पर, तुम्हारा यह सोचना कि तुम जरा ज़्यादा प्यार करोगी तो वह चुक जायेगा, ठीक नहीं। हर स्टेटमेन्ट के बाद गैर रोमानी फैक्टस स्टेट करना क्या जरूरी है?‘‘ और हम फिर बहस में उतर गये थे। मैं कह उठी थी, ‘‘देखो, तुम्हें अब एहसास हो गया है कि तुम प्यार कर सकते हो और अब कोई भी लड़की उस रोल में फिट हो सकती है और में अनगिनत लड़कियों में से हूँ। जब तक तुममें प्यार करने की ताकत नहीं थी, तुम अकेले थे और अब यह एहसास कि तुम प्यार कर सकते हो, तुम्हारे लिए बहुत-सी सम्भावनाएँ पैदा कर देता है‘‘, तो तुम आहत होकर चोट का जवाब चोट से देते हो, “तुम ठीक कहती हो। तुम अकेली नहीं हो और भी बहुत सी होंगी तुम जैसी!‘‘

मैंने अपनी मनोवैज्ञानिक सूझ-बूझ और वाक्पटुता से काम लिया था और कहा था, “तुम मूलतः खुद को प्यार करते हो!... मैं बहुत कुछ तुम्हारे जैसी ही हूँ और तुम सोचते हो कि मुझे प्यार करते हो!‘‘ और तुम कह उठे थे, ‘‘तुम्हारी समस्या यह है कि तुम खुद से प्यार नहीं करती!‘‘ और कहा था, “क्यों इतनी हीन भावना है तुममें अपने को लेकर। कोई कितना भी प्यार या कुछ भी देना चाहे, तुम ले नहीं पाती। तुम अपने को प्यार के काबिल नहीं पाती, क्या तुम उसे सचमुच प्यार कर सकी थी?‘‘ मुझे ऐसे लम्हों में अक्सर सोचना पड़ता है। रुक-रुककर, सोच-सोचकर जवाब दिया था, “पहले प्यार नहीं किया था उसे, बाद में शायद बहुत किया था।... और मन में यह भी आया था कि शायद वह बाद वाला, जो प्यार लगा था, महज़ अस्तित्व बनाये रखने की अभिलाषा ही न रहा हो, आहत अहं ही न हो। डॉ कैंटर के कहे शब्द दिमाग में भन्ना रहे थे..., ‘‘तुम्हारी उसके साथ जुड़े रहने की ज़िद, छटपटाहट, इन हालात में भी यातना शिविर के ज्यूस की तरह है... कि कोई बात नहीं, जो होता है, सो हो। हम जर्मनी में ही रहेंगे! इतनी ही भाग्यवादी हो तुम?‘‘ और मेरी आँखों के सामने घूम गये थे होलोकोस्ट में देखे यातना शिविरों के गैस चैंबर्स में कुलबुलाते अनगिनत यहूदी! मैं तुमसे अचानक पूछ बैठी थी, “तुम यहूदी हो न!‘‘ तुमने कहा था, “आधा यहूदी... मेरा बाप यहूदी था... मेरी माँ क्रिश्चियन... पर मेरा लालन-पालन क्रिश्चियन तरीके से हुआ है... पर तुम्हें इसका ध्यान कैसे आया इस वक़्त?‘‘ और मैंने तुम पर यह ज़ाहिर नहीं होने दिया था कि मेरे ज़ेहन में इस वक़्त गैस चैंबर्स में कुलबुलाते यहूदी घूम रहे हैं। तुम्हें गैस चैंबर्स की राजनीति से जोड़कर तुम्हें दुःख पहुँचा रही हूँ, पर पहली चोट तुमने की थी, यह पूछ कर कि क्या मैं उससे प्यार करती थी! क्या मुझमें प्यार करने की क्षमता थी और क्या अब है?मैं विषय से भटक गयी थी। सवाल का जवाब सवाल से होना चाहिये। पूछा था, “क्या तुम उससे प्यार कर सके थे?‘‘ तुम्हारा जवाब था, ‘‘जो कुछ मैंने तुम्हारे साथ इतने लगाव से इतने कम समय में महसूस किया है... वैसा उसके साथ पन्द्रह सालों में केवल दो-तीन मर्तबा ही महसूस किया है... और वे सभी घटनाएँ मुझे याद हैं। और मैंने कहा था, “मेरे साथ बिताया वक़्त नया है और इतना करीब है... तुम उसमें वे सब देख रहे हो जो है ही नहीं।‘‘

उस समय मेरी आँखों के सामने घूम गये थे लैब के जॉय, जोइल और एलाइस. .. कैलीफोर्निया से गिलहरी की एक खास किस्म मँगायी गयी थी, जो रंगों की पहचान नहीं कर सकती थी। ढेर सारा ईथर डालने के बाद हथौड़े से लकड़ी की पेटी तोड़ी गयी थी... बाहर निकली थी छः इंच की गिलहरी, ईथर से भीगी हुई। बड़ी दया आयी थी मुझे। तीन छः फुटे जवान हाथ में हथौड़े लिये तैयार खड़े थे कि गिलहरी निकले और इससे पहले कि वह उन पर झपटे, वे उसे अधमरा कर दें। मैं खुब हँसी थी, “मुझे समझ नहीं आता कि आप लोग, इस क़दर डरे हुए क्यों थे?‘‘

सभी एक साथ बोले थे, “तुम समझती नहीं, बड़ी जहरीली किस्म है!‘‘

मैंने हँसकर कहा था, ‘‘मैंने कोबरा और क्रेट के साथ काम किया है। जहर की किस्में जानती हूँ।‘‘ डॉ. रीतिप्रिया के पत्र का ध्यान आया था... ‘‘क्या तुमने ज़हर पचाने की ताक़त पैदा कर ली है?‘‘ अपनी टाँगों को सीने में सटाये डरी बिल्ली की तरह मैंने अपने से कहा था, ‘‘हाँ, मैं ज़हर की सारी किस्में जानती हूँ। क्या ज़हर पहचाने की ताकत या विषपूर्ण बनाने की सामर्थ्य एक ही नहीं!‘‘ पूछने पर कि क्या मैं उससे प्यार कर सकी थी, मैंने भी वही पूछा था, ‘‘क्या तुम उससे प्यार कर सके थे?‘‘ और दोनों के बीच घूम गई थी भीगे हुए रिश्तों की तरह लाशें! एक लाश तुम्हारे पास है... और एक लाश मेरे पास है। हम उन्हें ढ़ोते भी हैं और कवच की तरह इस्तेमाल भी करते हैं। किसी भी बात को लेकर हम उसकी जड़ तक जाना चाहते हैं। मैं अपने से कहती हूँ... तुम्हारी खोज कोई नयी नहीं, आदमी से लेकर ऋषि-मुनियों की यही खोज रही है। जैसे पुरानी किताबों से आप उनके पिछले मालिकों का चित्र खींचने की कोशिश करें! ऐसा ही कुछ हमारे बीच भी है, इन लाशों के ज़रिये हम एक दूसरे के अतीत का अंदाज़ लगाते हैं, खाका खीचंते हैं। अचानक मैं कह उठी थी, “उस रिश्ते में प्रमुख निर्णय कौन लेता था?... क्या तुम अपने मनपसंद की कोई भी चीज खरीद सकते थे?... अपनी मनपसंद की किसी भी जगह पर जा सकते थे?... क्या तुम्हारा साझा खाता था?‘‘ और तुम पूछ उठे थे, “अच्छा, तो नाम को लेकर झगड़ा था तुम्हारे बीच!... पैसे को लेकर भी झगड़ा था!‘‘ ऐसे लम्हों में, अपने में खोयी मैं जोर से कुछ कह डालती हूँ। मेरे दिमाग में उठ रहे बवंडर से नावाक़िफ तुम चैंक जाते हो। तुम्हारा चैंकना मुझे अच्छा लगता है, क्योंकि तुम मेरे आक्रमण का जवाब नहीं दे पाते!

मेरे दिमाग में घूम रहा है बचपन में नाना का घर...

बचपन की बहुत-सी बातें मेरे जे़हन में है, पर आठ साल की कमज़ोर लड़की ने वे सारे दुखद अनुभव भुला दिये हैं। सिर्फ रंगीन कहानियाँ ही याद रखी हैं। तुम कहोगे, ‘‘डॉ. जार्सिकी भी कहते हैं... भुलाया कब जाता है, पीछे धकेल दिया जाता है और जब आप चैकस नहीं रहते, छुपा-घुटा सब कुछ आ दबोचता है।‘‘ हाँ, उसे छोड़ने में इतनी दिक्कत तभी हुई थी। वजहें कुछ भी, होने पर यह बात जे़हन से नहीं निकलती थी। वह भी तो घर छोड़ गयी थी। मुझे घर नहीं छोड़ना, कुछ भी सहना पड़े, झेलना पड़े, घर नहीं छोडूंगी। तुम कहोगे, “नफरत करते-करते हम नफरत करने वालों से कहीं बहुत जुड़ जाते हैं और बहुत प्यार भी करने लगते हैं।‘‘ 

अब तो मुझे यह लगने लगा है कि मैं खुद से ही कटती जा रही हूँ... गुस्सैल चिड़चिड़ी! नहीं, मुझे ऐसा नहीं बनना। तुमने कहा था, ‘‘अपने को यों दुःखी न किया करो। खुशी का मौक़ा आने पर भी उसे स्वीकार न करके क्या तुम अपनी माँ से बदला ले रही हो?जानती हो तुम क्या साबित करना चाहती हो कि तुम प्यार के काबिल नहीं हो, लायक नहीं हो!‘‘ और मैं कह उठी थी, “क्या तुमने अपने बच्चे को छोड़ अपने बाप से बदला लिया है।‘‘ तुम यह आक्रमण सह नहीं पाये थे। तुमने कहा था, “तुम जानती हो मैं उस रिश्ते में पंद्रह साल तक घुटा हूँ। उसे सम्बन्ध रहे हैं और ये मरे नहीं, मुझे जिन्दगी में पहली बार यह एहसास हुआ है कि मैं पूरी तरह चुका नहीं, बहुत कुछ बाँट सकता हूँ। तुम नहीं लेना चाहोगी तो न सही। कुछ अरसे के बाद कोई और जरूर मिलेगा... जो लेना चाहेगा। सारे का सारा प्यार और सभी कुछ जो मैं देना चाहता हूँ, बाँटना चाहता हूँ!‘‘ कभी तुम वार सह लेते हो कभी बराबर का वार करते हो... आज तुम वार करने के मूड में हो। तुम कहते हो तुम्हारा अंदेशा और डॉ. जार्सिकी का कहना ठीक है - तुमने अपनी माँ जैसा पति ढूँढ़ा था, जो तुम्हें तुम्हारी माँ की तरह जरा भी प्यार नहीं दे सका, सताता रहा और मैं सभी कुछ देना चाहता हूँ और तुम ले नहीं पा रही, और तुम दुबारा ये अपनी संवेदनात्मक जरूरतों की वजह से कोई और क्रूर व्यक्ति न ढूँढ़ लेना। क्या तुम्हारे घर वाले बड़ी सख्त तबीयत के थे?‘‘, मैंने कहा था, “ उस जमाने के सभी माता-पिता सख्त ही हुआ करते थे... कट्टर विक्टोरियाना। बाकी सभी ने तो समझौता कर लिया है, पर मैं ही समझौता नहीं कर पाती। मेरी लड़ाई जारी रहती है। माफ कर देने से आप ऊँचे उठ जाते हैं... मैं माफ नहीं कर पाती... इसी से ज़्यादा दुःखी हूँ, पर मुझसे यही निभता है। शायद मेरी लड़ाई मुझसे ही है... मेरी लड़ाई निजी है, मैं खुद से ही लड़ रही हूँ। मैं क्षमाशील नहीं हो पाती!‘‘

हम दोनों ही उस दूसरी दुनिया से असलियत की दुनिया में आ गये थे। हम दोनों की अपनी-अपनी गुफाएँ हैं... अंधेरी ज़हरीली और रंग-बिरंगी बदलती तस्वीरों वाली भी... ठीक तमाशाई दूरबीन की तरह, हम जैसा वक़्त होता है, देखकर मनपसंद सफेद या काली चाबी लगाकर अपनी मनपसंद गुफा में पहुंच जाते हैं... एक-दूसरे को भी ले जाते हैं। सिम-सिम ताले खुल-रे-खुल!... सिम-सिम ताले खुल-रे-खुल! गुफाओं में कभी अँधेरा रहता है, कभी भयानक आवाजें़ रहती है, कभी चीखती हुई आकृतियाँ! कभी हम उन पिछली आवाजों में अपनी अब की आवाज़ों को शामिल कर लेते हैं, एक-दूसरे के तहखानों के गहरे जहन में पहुँच जाते हैं। अपने में छुपी आवाज़ों का पता लगा लेते हैं... अपने सवालों के जवाब पा लेते हैं। कभी-कभी तुम कह उठते हो, कि मैं बहुत दुर्गम हूँ! तुम एक किला तोड़ते हो, मैं दूसरा खड़ा कर देती हूँ, गुफा के बाद गुफा... गुफा के बाद गुफा! मैं कहती हूँ, “मैं कोई किला या गुफा नहीं, एकदम साफ हूँ!‘‘

तुम कहते हो तुम मुझे बहुत चाहते हो और तुम्हारी पिछले पंद्रह साल की जिन्दगी बड़ी दुरूह रही है। मैं भी यही कहना चाहती हूँ कि जो कुछ लम्हें तुम्हारे साथ जीये हैं, भरे-पूरे हैं। सतरह साल की उम्र में प्यार की बातें बड़ी बचकानी लगी थीं... और अब इस उम्र में यह अल्हड़पने वाला जो कुछ तुम मुझे देना चाह रहे हो, बड़ा गहरा भी हो सकता है... और यह भी हो सकता है कि अपने उस पिछले रिश्ते से तुम बहुत निराश थे और बहुत अकेले भी... और जहाँ कोई जरा अपना लगा तुम उसमें, उस रिश्ते में गहरे अर्थ ढूँढते रहे हो। पर इन लम्हों का कोई गहरा अर्थ शायद नहीं है। बस, यह सिर्फ अपने में मुकम्मल हैं। पर इस उम्र में भी तुम्हारे भेजे गये फूल, खत, कविताएँ उतने ही प्यारे लगते हैं जितने शायद इस तरह की उम्र में लगते! और साथ में यह भी लगता है कि किसी रिश्ते की मुहर लगते यह सब कुछ चुक जायेगा! तुम कहते थे कि मैं तुम्हारा दुःख नहीं समझती। तुम मुझे इतना कुछ देना चाह रहे हो और मैं ले नहीं पा रही और मेरा इंकार तुम्हें कितना आहत करता है। और मैं कह उठी थी, “तुम अपने दुःख को बढ़ाते-चढ़ाते रहते हो। तुमने अपनी पत्नी ही नहीं, अपने बच्चे को भी छोड़ा है!‘‘ तुम कह उठे थे कि बच्चे से तुम बराबर मिलते रहोगे और मैं इंकार पर इंकार करती रहूँगी, तो कुछ अर्से के बाद तुम कोई और मनपंसद साथी ढूँढ़ लोगे। एक मेरे रिश्ते का भार तुम उम्र भर नहीं ढो सकते थे। तुम कह उठे थे, कि तुम्हारे दुःख को मैं नहीं मानती तो मेरा उसे छोड़ने का दुःख किस श्रेणी में आता है। मैं कह उठी थी, “क्यों कर नहीं था। जान-बूझकर खुद अपने को सजा देते चले जाना भी तो आत्मग्लानि का ही नतीजा है।‘‘ मैं कह उठी थी, “रोटी का अभाव दुःख है।... किसी द्वारा पीट दिये जाने का दुःख, दुःख है... पर यह तुम्हारे रोमानी उद्यम मुझे दुःख नहीं लगते!।‘‘ 

तुम मुझे मेरी कही बात याद दिलाते - दुःख की श्रेणियाँ नहीं होती, अभाव, अभाव ही होते हैं। चाहे किसी तरह के ही क्यों न हों! जिसके पास रोटी नहीं, उसे रोटी की भूख सालती है। जिसके पास प्यार नहीं, उसे प्यार की भूख सालती है। तुम अपनी कही बात भूल जाती हो। अभी उस दिन कितना नाराज थी हम सब पर.. . कि हम अमेरिकन मानव जीवन पर ‘मूल्य कार्ड‘ लगाते हैं। 6 वियतनामी=1 अमरीकन, 2 इजराइली=1 अमरीकन, 10 पेलस्तीनी=1 इजराइली, 20 काले=1 अमरीकन, और अब खुद बैठी दुःख की श्रेणियाँ बना रही हो। अगर मानव जीवन पर मूल्य-कार्ड नहीं लगाया जा सकता तो दुःख की श्रेणियाँ भी नहीं बनायी जा सकतीं। अभाव, अभाव है, कैसे भी क्यों न हो। और फिर तुम कह उठे थे, कि तुम्हारा सभी कुछ मेरे लिए है। मेरे लिए तुम कुछ भी कर सकते हो। और मुझे उस वक़्त ऐसे मौकों पर दुहराये जाने वाले अमरीकी और अंग्रेजी फिल्मों के संवाद याद आये थे। ऐसे मौकों पर कहानी या फिल्म की हीरोइन संजीदा होकर पूछती है, “इज इट ए मैरिज प्रपोजल?‘ मैं यकायक ठठाकर हँस दी थी। तुमने कहा था कि शादी की तुम्हारी कोई खास ख्वाहिश नहीं... पर अगर मैं शादी करना चाहूँ तो तुम उसके लिए राजी हो और अगर यों ही साथ रहना चाहूँ तो तुम उसके लिए भी राजी हो... और कि तुम्हें बस मेरा साथ चाहिए... एफीडेविट के साथ या एफीडेविट के बगैर! तुमने कहा था, “मंत्रों में तुम्हारा विश्वास नहीं।‘‘ मैं कह उठी थी, “मंत्रों के रास्ते से गुजरने से रिश्ते तोड़ने में थोड़ी दिक्कत होती है!‘‘ और फिर साथ ही यह भी कह उठी थी, “जो भी है, यह एक सांकेतिक सवाल था!‘‘ तुमने जवाब दिया था, “सवाल सांकेतिक ही रहा होगा पर तुम्हें मेरा जवाब मिल गया है।‘‘

झील के किनारे सुंदर-सा केबिन ढूँढ़कर हम दोनों ही बहुत खुश हो उठे थे। मैंने कहा था, ‘‘रोमांटिक ब्रीड इज ए वेनिशिंग ब्रीड... यू आर वन ऑफ द लास्ट स्पेसिमन!‘‘ तुम कह उठे थे, ‘‘तुम्हें चॉकलेट बहुत पसंद है मेरी तरह।‘‘ मैंने कहा था, “उसे मीठी चीजें कतई पसंद नहीं थीं।‘‘ तुमने कहा था, ‘‘कॉमन फैक्टर लिस्ट में मैं यह जरूर डालूँ कि हम दोनों को चॉकलेट पसंद है!‘‘ फिर तुम नाराज हुए थे कि मैं नैगेटिव फैक्टर लिस्ट में तो सब कुछ डालती जाती हूँ, पर जब भी पॉजिटिव फैक्टर्स की लिस्ट लम्बी होने लगती है, तो कुछ चीजें निकाल फेंकती हूँ। और कि नैगेटिव फैक्टर की लिस्ट लम्बी होती जाती है पर पॉजिटिव फैक्टर की लिस्ट छोटी की छोटी रह जाती है।

तुम पाँच घंटे बाद ही लौट आये हो। तुम इस छोटे शहर में अकेले घूमकर जो कुछ भी कर सकते थे कर चुके हो और अब ऊब गये हो। मेरा वक्त साढे छः से सिकुड़कर पाँच हो गया है। तुम पूछते हो, “क्या लिखा?‘ मैं नाराजगी से कहती हूँ, ‘‘तुम नाराज तो होगे, पर कहानी नहीं। बस, अपनी-तुम्हारी बात लिखी है।‘‘ तुम नाराज हो और कहते हो, “मैं जिन्दा हूँ, जिन्दा रहना चाहता हूँ। मैं तुम्हारी कहानियों में कैद नहीं होना चाहता... जो घटनाएँ घटी नहीं, जो रिश्ते उभरे नहीं... या तुमने जानबूझकर कुचल दिये हैं, वे तुम्हारी कहानियों में जकड़ गये हैं!‘‘

मैं तुम्हारा हाथ पकड़ लेती हूँ। तुम कहते हो कि हम उन नक्षत्रों की तरह हैं जो एक-दूसरे के इर्द-गिर्द घूम रहे हैं और घूमते रहेंगे। अक्सर एक का अँधेरा भाग दूसरे के रोशनी वाले भाग के सामने होता है। अँधेरा-उजाला आमने-सामने... ऐसा क्यों नहीं मुमकिन कि दोनों का रोशनीवाला हिस्सा आमने-सामने हो! तुम कहते हो... तुम्हें लगता है, तुम ग्रीक माइथालॉजी के किरदार प्रमथ्यू की तरह हो जिसने देवताओं को चुनौती दी थी और देवताओं से आग लेकर आम जनता में बाँट दी थी। देवता नाराज हुए थे। उन्होंने उसे पत्थर का रूप दे दिया था... और नरभक्षी पक्षी रोज आकर उसे नोचते थे, पर प्रमथ्यू अपने निश्चय पर अडिग रहा... उसको कोई बाँध नहीं सकता!

प्रमथ्यू... द अनबाउंड!... अनचेंज्ड !... तुम कहते हो, तुम प्रमथ्यू की तरह अडिग हो! मैं कहती हूँ, कहानी का अंत प्रमथ्यू से कर दूँ! तुम प्रतिवाद करते हो। तुम कहते हो... स्पेनिश फिल्मों जैसा अंत क्यों नहीं करती... पेड़ों के झुरमुट में भागते हीरो-हिरोइन!... तुम मेरा हाथ खींचते हुए मुझे केबिन से बाहर ले जाते हो!... फिल्मी अंत??? प्रमथ्यू??? 

Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य