मुक्ति वर्मा का अमृता प्रीतम से बीतचीत

 

मुक्ति - जीवन में सबसे महत्त्वपूर्ण क्या है ? 

अमृता जी - जीवन में सबसे महत्त्वपूर्ण बात है ‘‘प्रसन्नता’’ (‘‘इतना कहने पर भीनी भीनी मुस्कराहट और प्रसन्नता उनके चेहरे पर टपकने लगी) आप जानते हैं या आपने देखा होगा अक्सर हमारे बुजुर्ग 108 दाने की माला का जाप करते हैं अगर इसके वास्तविक तत्व को लिया जाये तो यह 12 राशियाँ और 9 ग्रह का जाप है यानि के 12 × 9 = 108। यह 108 ग्रह पूरे ब्रह्माण्ड में विचरते हैं औरअपना अक्स हम पर छोड़ते हैं। 

मुक्ति - आपकी बातों से मैं कुछ समझ नहीं पा रही हूँ। आपका जीवन पूर्णतया कविता, कहानियों व उपन्यासों से सम्बन्धित हैं फिर यह ग्रह, राशियाँ मेरी उत्सुकता बढ़ाने के लिए कम नहीं। 

अमृता जी - निसन्देह बात उत्सुकता की है। लेकिन मुक्ति मैं ज्योतिष को एक पूर्ण विज्ञान मानती हूँ। यह ग्रह-नक्षत्र हमारे जीवन में विशेष स्थान रखते हैं। इनका सीधा सम्बन्ध ज्योतिष विज्ञान से है। ज्योतिष में जिसकी साधना जितनी पूर्ण होगी उसकी बंसबनसंजपवद उतनी ही ठीक होगी। केवल ठीक समय की जानकारी की आवश्यकता बहुत जरूरी है। 

मुक्ति - वाह! आपने तो उत्सुकता को और बढ़ा दिया। क्या मैं आपसे इस ज्योतिष-विज्ञान के बारे में कुछ जान सकती हूँ। 

अमृता जी - देखिए, मैंने बताया न कि ठीक समय का ज्ञान ही ज्योतिष विज्ञान है अगर आप विस्तार से जानना चाहती है तो ‘नागमणि’ पत्रिका में बड़े मनोरंजक किस्से छपे हैं। आप पढ़ेंगी तो समझ लेंगी। यहाँ मैं यह जरूर कहूँगी कि विज्ञान की उन्नति जरूर हुई है, इसने एक जादूगर की तरह हमारे जीवन के हर पहलू पर अपना आधिपत्य अवश्य कायम कर लिया है लेकिन जब तक विज्ञान रूहानी ताकत से दूर है यह मानव को प्रसन्नता नहीं दे सकता। 

मुक्ति - हिरोशिमा बनाकर क्या इन्सान को खुशी मिली? 

अमृता जी - नहीं! नहीं! अमेरिका के वैज्ञानिकों ने सल्फर, लोहा, गोल्ड, सिल्वर, काॅपर इत्यादि धातुओं की खोज के लिए एक पेनडुलम तैयार किया। जो धरती में पाये जाने वाले धातुओं जैसे सोना, चाँदी, पीतल, तांबा की खोज में सहायता करता है। उस पेनडुलम से मौत की दूरी भी आँकी गई जो केवल 40’’ के फासले पर पाई गई। पुरुष और स्त्री का आई. क्यू 27’’ की दूरी पर एक ही समानता में पाया गया। पेनडुलम द्वारा उन्हें कुछ पत्थर मिले जिन पर मौत का साया अंकित था, क्योंकि वो दुश्मनों पर फैंके गये थे। उसके बाद नदी किनारे के पत्थरों को आँका गया उन पर कोई साया नहीं था फिर कुछ पत्थर पटके गये और उन पत्थरों पर गुस्सा दिखने लगा। कहने का तात्पर्य यह कि हमारा व्यवहार हमारे वातावरण को बनाता है। उसका उतार-चढ़ाव हवा में तरंगित हो वातावरण में छा जाता है। विद्रोह बढ़ता है तो नफरत बढ़ेगी वातावरण में वगावत होगी- यह है प्राकृतिक वाइब्रैशन का अपना ढंग है जिसे हम प्राकृतिक टेलिपेथी भी कह सकते हैं। आज हम स्वयं आने वाले भविष्य में विद्रोह को जन्म दे रहे हैं। विज्ञान का दुरुप्रयोग पूरे विश्व की अशान्ति का बायस हो सकता है, और है, अमेरिका में होने वाले दुर्घटना इस का जीता जागता उदाहरण है। काश! आने वाली पीढ़ी रूहानियत का रख रखाव सीखें। 

मुक्ति - आपकी रखरखाव वाली बात से मुझे याद आया कि कल ही एक गोष्ठी में लोगों का यह कहना था कि आज की युवा पीढ़ी साधना नहीं सकती, संघर्ष का आसान रास्ता खोजती है मैं चाहूँगी आप कुछ पथप्रदर्शन करें। 

अमृता जी - विकास कहूँ झुकाव या साधना आज युवा पीढ़ी जिन पहलुओं की ओर ज्यादा प्रेरित है वह है व्यापार और विज्ञान। उनका आध्यात्मिक पहलू विकसित ही नहीं हुआ। जीवन में मौलिकता का आभास ही नहीं रहा। महत्ता केवल शीघ्रातिशीघ्र धन जुटा कर धनी होने की है। जितना धन उनती प्रधानता। अपरिपक्व युवा-पीढ़ी झपटा-झपटी में लगी हुई है। उसे वर्ड-सेंस बहुत है लेकिन फ्रीडम-लव-गोड इनकी परिभाषा का स्वरूप उनको देखकर ऐसा लकता है जैसे- ‘‘मूर्ति बनाने वाला कलाकार-छुरी-छैनी से मूर्ति घड़ता है लेकिन अनाड़ी के अनाड़ीपने से एक बार में ही मूर्ति टूट जायेगी- उस अनाड़ी के तराशने और युवा पीढ़ी के विकसित होने में कोई अन्तर नहीं। हमारे युवा वर्ग को अपने हाथ बड़े करने चाहिए ताकि जिनमें छोटी वस्तुएँ समा सके, वस्तुएँ बड़ी होगी तो हाथ क्या करेंगे? 

मुक्ति - वाह! अमृता जी जी आपने तो युवा पीढ़ी को सचमुच तराश दिया। क्या आपको अपने बचपन में, कभी थोड़ा भी आभास था कि आप और आपकी कलम इन बुलन्दियों को चूमेंगी जो पूरे वातावरण को सुगन्धित कर देंगी। 

अमृता जी - बचपन बड़ी प्यारी और भोली अवस्था होती है। क्या कोई बच्चा कभी इन बुलन्दियों को सोच सकता है? नहीं ! यह जीवन के साथ तुम्हारा वातावरण और आंतरिक प्रेरणा है जो स्वयं लिखने पर मजबूर करती है। हाथ रूकते ही नहीं। आज मैं फिर यह कहना चाहती हूँ कि आने वाली युवा पीढ़ी को सत्ता से, नाम से, दौलत से, हुनर से, अपने बड़े हाथों से अपनी क्षमता से अपना कार्य संभाले। आपने हाथों को छोटा न होने दे। अपने व्यक्तित्व और आत्मिक स्वावलम्वन से अपने को, देश को उन्नत करें क्योंकि पोजिटिव थिंकिंग ही उन्नति का एक मात्र रास्ता है। 

मुक्ति - आप अपने बचपन की कोई ऐसी घटना के बारे में बतलाएँ जिसने आपको बहुत प्रभावित किया? 

अमृता जी - मैं बहुत छोटी थी और माँ की चारपाई के पास बैठी रो रही थी क्योंकि मेरी माँ आखिरी साँस गिन रही थी। इतने में मेरी एक सहेली आई और मुझे बोली- अमृता जी उठ! रो मत भगवान बच्चों की सुनता आया है, जा माँ के जीवन के लिए भगवान् से प्रार्थना कर। मैं उठी और श्रद्धा से प्रार्थना में जुट गई लेकिन माँ की आखिरी साँस का वक्त पूरा हो गया था। मेरी प्रार्थना, उसके दरबार में मंजूर नहीं हुई। लेकिन मेरे मन पर यह घटना एक अमिट छाप छोड़ गई किसी के भी पूछने पर कि ईश्वर है? तो मेरा उत्तर बड़े विश्वास से होता था- नहीं! अगर ईश्वर होता तो क्या मेरी फरियाद न सुनता! 

मुक्ति - तो क्या ‘‘ईश्वर के न होने की’’ बचपन की यह अमिट छाप अभी तक वैसे ही बरकरार है। 

अमृता जी - नहीं मुक्ति, वह बचपन था, एक बाल सुलभ मन का दृष्टिकोण था जो उस घटना से प्रभावित था। बच्चा, कोई भी बच्चा ऐसी घटना के बाद निःसन्देह ऐसी ही धारणा बनायेगा। जैसी मेरी बनी। क्योंकि माँ और भगवान की पदबी में कोई अन्तर नहीं होता जानते हुए भी कि जीवन क्षणभंगुर है। अतः किसी अस्थायी वस्तु को स्थानी मानना तो केवल मन को सान्तवना देना है। 

मुक्ति - तो क्या आप मानती है कि ईश्वर द्वारा भविष्य पूर्व निर्धारित है ? अमृता जी - देखो भई (थोड़ा मुस्कराते मुस्कराते) ईश्वर कोई वस्तु विशेष तो है नहीं। जो बैठा सोचता रहता है? वह तो एक अनादि से अनन्त तक पूरे ब्रह्माण्ड की एक शक्ति है- हाँ यह मेरा विश्वास है कि अपने भविष्य को सांवरना मनुष्य के अपने हाथ में है वह अपने कर्मों द्वारा भविष्य को संवारे यही कर्म उसके भविष्य की जाँच करते हैं और बिगाड़ने और संवारने की प्रतिक्रिया करते हैं गीता में कहा है न ? कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचनम्। 

मुक्ति - कर्म आस्था, उसका महत्त्व, जीवन से जोड़ और सचमुच गीता का श्लोक, आप ठीक ही कह रही हैं। निसन्देह कर्मरत मानव ही मानव हैं, सही और सीधा रास्ता ही उसके जीवन की पूँजी है। आज मैं आपको बहुत कष्ट दे रही हूँ लेकिन इस पवित्र कलश से गागर भरने की इच्छा कम नहीं कर पा रही हूँ एक छोटी सी बात... आपके इस मकाम पर पहुँचने में आपके परिवार का योगदान कितना रहा ? क्या आपके परिवार का वातावरण भी साहित्यिक था ? 

अमृता जी - माँ का देहान्त तो मैं बहुत छोटी थी जब हो गया। हाँ मैं अपने पिता जी से बहुत प्रभावित रही। वे अपने समय के एक अच्छे लेखक और कवि थे, बृज भाषा में लिखते थे। उनका व्यक्तित्व मुझे साहित्यिक मनोवृत्ति देने में सहायक हुआ। यह उनके संस्कार थे जो मुझे मिले। यह उनका डाला हुआ बीज था जो मैंने अपनी आत्मा से सींचा। 

मुक्ति - आपकी शादी तो शायद ऐसे साहित्यिक व्यक्तित्व से नहीं हुई थी फिर यह दौर कैसे सफल हुआ ? 

अमृता जी - शादी के बाद जब मुझे ऐसा वातावरण नहीं मिला जहाँ मैं उन संस्कारों को अँकुरित कर सकूं, बीजों को प्रफुल्लित कर सकूँ। मैंने अपने इस वातावरण का निर्माण किया कुछ पाने के लिए कुछ खोना, त्याग, परिश्रम लगन, जनून बहुत बड़ी आस्था की आवश्यकता होती है। जिसे मैं किसी भी कीमत पर सुचारू ढंग से बरकरार रखना चाहती थी और मैंने किया। मुक्ति - वह बीज भरपूर शाखाओं से सुसज्जित एक ‘‘बड़ का पेड़’’ हमारे समक्ष है। आप जीवन की किन-किन दुशवारियों से गुजरी होगी, यह मैं समझ सकती हूँ। मैं आपके साहस, बलिदान, और मनोबल व मननशीलता व विनम्रता के आगे नत मस्तक हूँ। आप जिस मकाम तक पहुँची हैं बिना किसी रूहानी ताकत के सीढ़ी दर सीढी निषंग चढ़ते जाना विशेषतया इस दो पैनी धार वाली दुनिया में कोई आसान काम नहीं। मुझे लगा मैं मोती बटोर रही हूँ। 

मुक्ति - आपके साहित्यिक व्यक्तित्व को निखारने में कौन से तत्व सक्रिय रहे ? 

अमृता जी - लगता है आज मेरी परीक्षा में कोई विषय छूटेगा नहीं। खैर! उपनिषदों ने मुझे बहुत प्रभावित किया। बचपन से ही मेरा मन ग्रंथों को पढ़ने में रमता था। सूफीवाद में कबीर, दादू, बुल्लेशाह से सदा ही प्रभावित रहीं। बारिसशाह के बोल मेरे मानस पटल को जागृत करने के लिए काफी थे। जिसका प्रभाव आज भी है। शरत चन्द्र अपनी मिसाल स्वयं थे एकदम हट कर। आज कल मैं रजनीश जी से बहुत प्रभावित हूँ। विदेशी यात्राओं के मध्य विदेशी कवियों की कविताओं ने भी बहुत प्रभावित किया। 

मुक्ति - आपकी रचनाओं में ‘डाॅ. देव’’ से लेकर ‘‘एक थी सारा’’ तेरहवाँ सूरज, उन्नचास दिन, आंक के पत्ते, नागमणि, पिंजर, इक तकिया मेरे नाम का, दरवेशां की मेहन्दी, इन सब में इश्क मुहब्बत बड़े सूफियाना अन्दाज में प्रस्तुत है। जिसे त्याग कहा जा सकता है। कोई गिला-शिकवा नहीं- जिन्दगी की प्यास है, जो पूर्ण न हो सकी। 

अमृता जी - अक्सर यही तो सत्य है। अगर हम आम आदमी की जिन्दगी से जुड़ कर चलें तो क्या यह संगत नहीं कि हमारी ख्वाहिशें कहाँ पूरी होती है ? 

मुक्ति - आपने कहीं तो औरत को जीवन के तराजू पर लाकर ऐसा पूरा उतारा है। लगने लगता है यह हमारी यानि हर औरत की अपनी कहानी है। जब ‘‘डाॅ. देव’’ में ममता के स्पष्ट बताने पर कि एक बच्चा उसके पहले ब्याह से है तो किस तरह इतना प्यार करने वाला पति एकदम दूर हो जाता है। वो अपने बच्चे को उसके साये से भी दूर रखना चाहता है। कितना सुन्दर कटु सत्य थो वो ? 

अमृता जी - हमारी सोसाइटी पुरुष प्रधान है। हम आज इक्कीसबी सदी में पहुँच कर भी वहीं खड़े हैं। औरत को उसका दर्जा देना आदमीके बस का काम नहीं। आदि युग से चले आये वेद पुराण व उपनिषद जिसको लिखने वाला केवल पुरुष था। इन का कथा वाचक है और नारी जाति का खनन करने का जिम्मेदार। 

मुक्ति - मुझे विश्वास है आपकी कलम औरतों के लिए अवश्य कुछ कह सकेंगी। 

अमृता जी - विश्वास है भी और उम्मीद भी है, आप भी देखेंगी- 

मुक्ति - आपके पात्रों में अक्सर स्त्री पात्र पिछले जन्म की कोई हकीकत व परछांईया तराशते हैं। लगता है तलाश पूरी नहीं हुई प्यास बाकी है। 

अमृता जी - यह हकीकत है कि मुहब्बत का द्वार जब दिखाई देता है तो उसे हम किसी एक नाम से बावस्ता कर देते हैं। पर उस नाम से कितने नाम मिले हुए होते हैं। कोई नहीं जानता शायद कुदरत भी भूल चुकी होती है कि वह जिन धागों से उस एक का नाम बुनती है वे धागे कितने रंगों के होते हैं, कितने जन्मों के होते हैं। मेरे लिए अब एक ही नाम है जो अन्तरध्यान जैसा है-इमरोज़ अभी इन्हीं दिनों में जब लिखा- तुम मिले, तो कितने ही जन्म नब्ज बन कर मेरे बदन में धड़कने लगे अब कौन वैद मेरी नब्ज देखेगा क्या इस तुम को कोई अलग नाम दिया जा सकता है जिन धागों से कुदरत ने इमरोज़ का नाम बुन दिया उन धागों में खुदा भी शामिल है और जब खुदा ही उसमें शामिल हो गया तो किस का नाम बाकी रह जायेगा। इमरोज़ के हुनर की बात मैं नहीं करती हाँ मेरी कविता को लकीरों में उतारना या अल्लाह का काम है या इमरोज़ का- मीरा एक रंग में रंगी हुई और उसके रोम-रोम में बसने वला कृष्ण रंगों से भींगा हुआ है-वह बोली ‘‘इमरोज़ तो अम्बर का पानी है’’ 

मुक्ति - आपकी कविता मजबूर 1947 में होने वाले फसादों की रूह-बरूह तस्वीर खेंचती है और ‘‘वारिस शाह से’’ एक दिल को चीरने वाली भावनाएँ अंकित होती हैं। क्या कुछ बोल सुना सकेगी। 

अमृता जी - पंजाब की एक बेटी रोई थी तूने एक लम्बी दास्तान लिखी आज लाखों बेटिया रो रही है बारिस शाह, तुम से कह रही हूँ पंजाब की हालत देखो। अपनी कब्र से बोलो और इश्क की किताब का कोई नया वर्क खोलो। 1947 जब भारत और पाकिस्तान पर कहर छाया था। अदल-बदल मारकाट दंगे-फसादों से दिल में रवानगी थी लगता था कहां थे क्या हो गया सब एक डार और एक पात में जीने मरने वाले अलग हो जायेंगे और एक दूसरे की अस्मत लूटेंगे। 

मुक्ति - आपने अपने काव्य में ‘गुरु नानक’ को लेकर एक कविता लिखी है ‘‘नौ सपने’’ फिर कृष्ण और उसकी बाँसुरी से भी आप प्रभावित है- साई बाबा का भी प्रभाव है क्या साहित्यिक मनोवृत्ति में यह सब मानना रखते हैं। 

अमृता जी - क्यों नहीं आखिर है तो हम भी इन्सान ही क्या हुआ उसने हमें कलम दी। इन अक्षरों-अक्षरों को संवारतेढाते हैं। यह भी उसी की देन है। 

मुक्ति - ‘एक तकिया तेरे नाम का’’ मैं ठीक ही रामनारायण ने कहा ‘‘कहते हैं भगवान् जब अमृता जी का भाग्य लिखने बैठा तो अमृता जी ने कहा- जरा कलम मुझे दीजिए मैं नोट्स तैयार कर दूँ’’ और जब उसके हाथ में कलम आ गई तो उसने भगवान को लौटाई ही नहीं। 

अमृता जी - खूब हँसी, हरे भई! मैं तो इन्सान से भी झूठ नहीं बोल सकती फिर खुदा से तोबा-तोबा। 

मुक्ति - आपकी साहित्यिक मनोवृत्ति में राजनैतिक दौर कैसा रहा ? 

अमृता जी - अच्छा था लेकिन राजनैतिक काल का पूरा होना ज्यादा अच्छा था- क्योंकि मेरे बुनियादी सवाल कोई नहीं मानता था। वेदों का कहना है ‘‘जड़ को समझो नहीं तो नये पत्ते नहीं आयेंगे। और आने वाले नये पत्तो का स्वागत करो लेकिन आज केवल डिमाक्रेसी के नाम पर शक्ति हाथ में लेने की कोशिश है वोट लेने के लिए।

मुक्ति - क्या आपके युवाकाल में भी देश की स्थिति ऐसी ही थी ? उन दिनों सघर्ष का क्या स्वरूप था ? 

अमृता जी - मैंने देश की तकसीम 1947 और 1984 में देखी और अब 1992 में देखी। पता नहीं क्यों यह स्थिति गुजरने में ही नहीं आती ‘‘पिंजर’ पिक्चर 1947 की तकसीम की देन है। 

मुक्ति - ‘‘पिंजर’’ के गीत, गिद्धा, डायलाॅग, कहानी मैं समझती हूँ। 1947 की तकसीम से जुड़ी एक बड़ी ही खूबसूरत दर्दनाक कहानी है जिसमें नारी को समाज में ऊपर उठाया गया है। उसकी ससुराल में वापिसी बहुत महान कार्य था जो आपने दिखाया आपको पुरस्कृत किया गया। आप सचमुच बधाई की पात्र हैं। 

अमृता जी - बीमारी की हालत में बिस्तर में सिमटी सी बोली- मैंने घर में देखली है और न जाने किस पात्र में खोकर आँखें बन्द कर लीं। 

मुक्ति - मेरे सामने बहता सागर सिमट रहा था। और मेरे हाथ बेजान से मोती बटोर रहे थे। अमृश क्लश को थामे।


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