हिन्दी साहित्य का विलक्षण पुरोधा: रामेश्वर काम्बोज हिमांशु

संस्मरण

 
ज्योत्स्ना प्रदीप, जालंधर, मो. 6284048117


रामेश्वर कम्बोज ‘हिमांशु, नई दिल्ली, मो. 9313727493


9 सितंबर, 2013 की एक दोपहर, उस दिन फोन की वो एक घंटी मेरे लिए माँ सरस्वती के किसी मंदिर के पुजारी की आह्लादित घंटी से कम मधुर न थी जो साधकों को स्तुति-गान के लिए अनायास ही आमंत्रित कर देती है और साधक तेज कदमों से देवालय की ओर बढ़ने लगते हैं।

मेरे फोन उठाते ही दूसरी ओर से एक शान्त,गंभीर और सधा हुआ स्वर उभरा, ‘‘बहन ! मैं रामेश्वर काम्बोज हिमांशु बोल रहा हूँ, आप ज्योत्स्ना प्रदीप है न! ‘उर्वरा‘ हाइकु संकलन मेरे सामने है मैंने उसमें आपके हाइकु  पढ़े...

रामेश्वर काम्बोज हिमांशु, इस साहित्य-मनीषी का  नाम  मैंने  बहुत सुना था, अब आवाज भी सुन ली थी। मैं विस्मयाभिभूत थी, हर्षातिरेक से आँखें नम हो गईं, उनके उदार हृदय से निकला हर शब्द मुझे प्रोत्साहित कर रहा था, उनका मनोबल बढ़ाने वाला अंदाज़ औरों से  बड़ा अलग लगा। उनके मुख से निकली प्रशंसा मेरी नवीन भावनाओं की अनुशंसा बन गई थी।

माँ शारदे का यह पुत्र हिन्दी साहित्य की अनवरत यात्रा पर निकला हुआ था। साधकों और श्रद्धालुओं की इस भीड़ में उस दिन से उन्होंने मुझे भी शामिल कर लिया। 

मैं उन दिनों केंद्रीय विद्यालय जालंधर में अंग्रेजी की टी.जी.टी अध्यापिका के पद पर कार्यरत थी।

उस दिन के पश्चात उनसे फोन पर ही साहित्यिक चर्चाएँ होने लगीं। मैं क्षणिकाएँ, गीत, बालगीत और हाइकु बहुत वर्षों से लिख रही थी पर अब इन विधाओं में ऊर्जा का नव-संचार होने लगा। हिमांशु जी गुरु की भाँति ऑनलाइन ही साहित्यिक विधाएँ जिज्ञासु रचनाकारों को सिखाते थे। मुझे भी उनका मार्गदर्शन मिलने लगा। भारत में जापानी विधाओं के भिन्न-भिन्न पुष्प जैसे हाइकु, ताँका सेदोका, चोका, हाइगा, हाइबन की सुगंध को चहुँ ओर फैलाने का कार्य वो बड़े ही जोर-शोर से कर रहे थे, उन्होंने इस उर्वरक कार्य में मुझे भी सम्मिलत कर लिया। अन्य विधाओं के लिए भी वो सभी का मनोबल बढ़ाते थे, मेरा भी बढ़ाने लगे। माहिया विधा के विकास के लिए उन्होंने दिन-रात अत्याधिक परिश्रम किया। पंजाब की इस सुन्दर विधा के लिए उनका श्रम पूजनीय व अनुकरणीय है। माहिया की पहली सम्पादित पुस्तक ‘‘पीर का दरिया ‘‘का प्रकाशन भी उनका एक अनूठा कार्य है। ये सारा कार्य ऑनलाइन होता रहा। यहाँ ये इंगित करना अत्यावश्यक है कि ये केन्द्रीय विद्यालय प्राचार्य के रूप में भी विद्यार्थियों को नई दिशा की ओर अग्रसर करते रहते थे और आज तक भी नवांकुरों व जिज्ञासु रचनाकारों को सिखाने का ही शुभ कार्य कर रहे हैं ।

माँ शारदे की जगमगाती साहित्य की माला के लिए नये-नये साधकरुपी मोतियों को चुनना और पुराने मोतियों की आभा को भी सँजोये रखना इनकी साधना का ही एक भाग है।

निःस्वार्थ होकर पर-कल्याण करने वाले लोग आज के युग में मिलने दुर्लभ हैं। ऐसे सुन्दर संस्कार निःसन्देह इन्हें अपने माता-पिता से ही मिले हैं ये इनकी सुन्दर रचनाएँ पढ़कर हर पाठक को ज्ञात हो ही जाता है।

रामेश्वर काम्बोज हिमांशु जी से मिलने का सौभाग्य मुझे 10 जनवरी 2016 की दिल्ली के प्रगति मैदान में मिला। मैं अपनी बेटी के साथ पुस्तक मेले पहुँची। वहाँ बहुत भीड़ थी। हम उन्हें मोबाइल के माध्यम से ढूँढ ही रहे थे कि तभी किताबों से भरा एक बड़ा झोला लिए वो हमारी ओर बढ़ते दिखाई दिए-लम्बा, कद, भरा, पावन चेहरा साथ ही उनके उजले मन की स्वर्णिम किरणें उनके नेत्रों में पावन उत्सव मना रहीं थीं। मैं और मेरी बिटिया उनके पाँवों की ओर झुके ही थे कि वो बोले,‘‘न  बहन! आप मेरी अनुजा हो, बहन और भाँजी कब से पाँव छूने लगीं? उन्होंने अपना हाथ मेरे और मेरी बेटी के सर पर  रखते हुए आशीर्वाद दिया। जिस आत्मीयता और स्नेह से उन्होंने मुझे बहन कहा, वो हृदय के अंतस को छू गया! लगभग 37 पुस्तकों का प्रबुद्ध सम्पादक, अनेकों विधाओं में लिखने वाला अति कोमल-हृदय का कवि, जापानी विधाओं को भारत में नवीन आभरण पहनाने वाले अनुपम सर्जक और सुन्दर लघुकथाएँ लिखने वाला महान लेखक का व्यवहार कितना सहज और सरल था! ऐसे महान व्यक्ति का आशीर्वाद पाकर मैं कृतार्थ हो गईं !

उत्तर प्रदेश में भाईदूज पर बहनें अपने भाई के लिए बेरी के पेड़  की पूजा करती हैं। बेरी के कटीले वृक्ष की उस टहनी की पूजा करती हैं जिसमे हरे-भरे त्रिदल लगे हों। ये तीन पत्तियाँ-महासरस्वती, महालक्ष्मी और महाकाली का रूप हैं। इनका पूजन जीवन के कंटकों से भाइयों को बचाता हैं। काँटों से बचाते हुए, हर एक भाई के लिए टहनी पर लगे त्रिदल को संयुक्त कर,उजली रुई से लपेटकर बाँधा जाता है। उसके बाद व्रती बहनें बेरी तले दीप जलाकर,नैवेद्य समर्पित करते हुए भाई के सुन्दर भविष्य के लिए उपासना करती हैं।

हिमांशुजी से मिलने के बाद जब अगला भाई दूज का पर्व आया तो अपने सगे भाइयों के अलावा एक और नया हरा-भरा त्रिदल चुन लिया था मैंने उनके सुखद भविष्य के लिए!

यूंँ तो हिमांशुजी कई वर्षों से लिख रहे थे परन्तु सन 2008 में केन्द्रीय विद्यालय के प्राचार्य पद से निवृत होने के बाद निरन्तर साहित्य साधना करना ही इनके जीवन का ध्येय रहा।

इन्होंने हिन्दी साहित्य को अनेकों अद्भुत पुस्तकें प्रदान की हैं जैसे- माटी, पानी और हवा, अँजुरी भर आसीस, कुकड़ू कू, मेरे सात जनम, झरे हरसिंगार, धरती के आँसू, दीपा, दूसरा सवेरा, मिले किनारे, असभ्य नगर, खूँटी पर टंगी आत्मा, भाषा चंद्रिका, मुनिया और   फुलिया, झरना, सोनमछरिया, कुआँ, रोचक, बाल कथाएँ, लोकल कवि का चक्कर, माटी की नाव, बनजारा मन, तुम सर्दी की धूप, मैं घर लौटा, बंद कर लो द्वार आदि। इनकी कुछ पुस्तकों का अंग्रेजी, उड़िया और पंजाबी में भी अनुवाद हुआ है। 

शिमला के एक अंग्रेजी एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. कुँवर दिनेश सिंह जो खुद एक जाने-माने लेखक हैं, उन्होंने हिमाँशु जी के काव्य पर मंत्रमुग्ध होकर एक पुस्तक सम्पादित की है- 'काव्य यात्रा' (रामेश्वर काम्बोज हिमांशु के काव्य का अनुशीलन )। यह हिमांशु जी के काव्य पर आधारित एक प्रेरणास्पद उत्कृष्ट पुस्तक है।

 निःसन्देह रामेश्वर काम्बोज हिमांशु हिन्दी साहित्य के विलक्षण पुरोधा हैं। 

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