संपादकीय
ऐसा अभासित हो रहा है कि वर्ष 2021 ‘अभिनव इमरोज़’ एवं ‘साहित्य नंदिनी’ के लिए शुभ होगा। यह पूर्व अनुमानित आकांक्षा पूरी होती हुई उन संकेतों से सादृश्य हो रही है जैसे कि वर्ष के आरम्भ से ही दोनों पत्रिकाओं का विस्तार-संचार का दायरा बढ़ना आरम्भ हो चुका है। एक पत्रिका का आधार उसकी समृद्ध होती हुई संपदा से होता है, और उसकी संपदा होती है- उस पत्रिका के सहयोगी लेखक, सुधि पाठक, सद्भाव से भरपूर संरक्षक और सच्चे शुभचिंतक। और यह सब हमारी पत्रिका के आधार स्तंभ निरंतर गुणात्मक गति से बढ़ते जा रहे हैं। एक और विशेष महत्वपूर्ण योगदान जो हमें मिल रहा है, वह वर्ग है ‘उभरती हुई प्रतिभाएँ’ जिनका निरंतर संवर्द्धन हो रहा है, जो हमारी पत्रिका के मिशन को संपूर्णता की ओर ले जाते हुए हमारे भविष्य का संबल हैं। इस से बढ़कर एक पत्रिका के प्रारब्ध की खुशहाली का और क्या कोई दूसरा मापदण्ड हो सकता है। निश्चय ही नहीं।
इस फरवरी अंक में- आवरण पृष्ठ पर माँ की एक अंग्रेज़ी पो’इम और बेटी की चित्रकारी-माँ ने आशा और आस्था का संदेश दिया तो बेटी ने बसंत के स्वागत में उसे फूलों से सजा दिया। एक ने जीवनदर्शन को परिष्कृत करने की प्रेरणा... तो दूसरे ने प्राकृतिक सौंदर्य की रंगों से तर्जुमानी... स्निग्धा की सास और शिउली की दादी- श्रीमती वीणू जामूआर- उन्होंने बसंत पर एक कविता भेजी तो उसके समकक्ष मुझे याद आ गई बेगम मल्लिका पुखराज की ग़ज़ल ‘‘लो फिर बसंत आई’’ देखें आवरण पृ. सं. 2, यह शायद पहली बार हो रहा होगा जब किसी पत्रिका में एक ही परिवार के तीन अहम सदस्यों ने अपनी रचनाएँ भेज कर पत्रिका में शब्दोत्सब का नज़ारा पेश किया हो। वीणू जी से अनुरोध है कि स्निग्धा की पो’इम्स के हिंदी अनुवाद भेजें और शिउली को अपनी चित्रकारी की अनुपम रचनाएँ भेजने के लिए प्रेरित करती रहें।
इस अंक में सुश्री मीनू खरे ने अपनी अदबी बग़िया में चहल कदमी को पहल कदमी में तबदील कर दिया। और कुछ फूल चुनकर शब्दों की माला में पिरोकर हमें भेज दिए। और फोन पर कहा कि ग़ज़ल विधा में यह मेरा प्रथम प्रयास है, मैं ग़ज़ल ज्ञान से अनभिज्ञ हूँ। मैंने कहा शिल्प, बहर, वज़न और बुनावट बाद की बातें हैं; विचारों में प्रछन्न प्रचुरता तो है न?... हाँ! तो इन विचारों को पिरो-पिरो कर अभिनव इमरोज़ में फिक़्स डिपोजिट करवाते जाइए, वक्त आने पर आपकी विचार सम्पन्नता अपने आप ग़ज़ल ज्ञान सम्पन्न हो जाएगी बशर्तें कि विचारों की क्यारी को निरंतर सींचती रहंेगी। आपकी ‘कहने भर की’ ग़ज़ल की कपड़छनाई, ख्याल की बुलंदी और गहरे फलसफे से लबरेज़ जैसे के तैसे पेश की जा रही है।
मीनू खरे, बरेली, Email : meenukhare@gmail.com
अपना तो जग सारा है (सलक्षणता: पहचान योग्यता)
फिर भी कौन हमारा है
रोता है नभ बारिश बन (जड़ और चेतन के प्रति समस्तर संवेदनशीलता)
क्या ग़मगीन नज़ारा है।
गाता जिसको दीवाना (उल्लास और उन्माद की सांझेदारी)
वह गीत हमारा है
सच को कहने से पहले (विचार मंथन)
सोचा ख़ूब विचारा है
लिखने से पहले का वक़्त (अध्ययनशीलता)
पढ़ने में ही गुजारा है
आज तुम्हारा है माना पर (दृढ़ निश्चय एवं आत्म विश्वास)
कल का वक़्त हमारा है।
उपरोक्त भाव बदस्तूर आपकी ग़ज़ल में नुमायां हो रहे हैं। अभ्यास बनाए रखें, निर्णय पाठकों और स्थापित ग़ज़लकारों पर छोड़ देवें।
भाई रामेश्वर कम्बोज हिमांशु के हम आभारी हैं कि उन्होंने हमारा मीनू जी से परिचय करवाया।
इस वर्ष की एक ओर उपलब्धि:
आदरणीय विजय बहादुर सिंह जी के हम आभारी हैं जिन्होंने सुश्री अपर्णा पात्रीकर जी से हमारा परिचय करवाया।
आशा है गहन सोच लिए हुए आपकी ग़ज़लें हमारी पत्रिका को सुशोभित करती रहेंगी। विजय जी की प्रस्तुति पृष्ठ 8 और अपर्णा जी की ग़ज़लें पृष्ठ 9 पर पढ़ें।
भूल सुधार
अभिनव इमरोज़ अंक 1, जनवरी 2021, पृष्ठ 3 विषय सूचि में, पृष्ठ 5 में भूल से अंजना संधीर की बजाय रंजना संधीर प्रिंट हो गया था। पृष्ठ 39 में मूल लेखक ब्रिज प्रेमी का नाम प्रिंट होने से रह गया। भूल के लिए हमें खेद है।