‘‘देखा जब स्वप्न सवेरे’’ (एक यात्रा वृत्तांत: मन प्राण को आह्लादित करता हुआ)

 समीक्षा


 लेखक : डॉ. जीतेन्द्र पाण्डेय, मो. 9158700049, प्रकाशक: परिदृश्य प्रकाशन, मुंबई।

हृदयेश मयंक, -सम्पादक, चिंतन दिशा, मो. 9869118707

‘देखा जब स्वप्न सवेरे‘ डॉ. जीतेन्द्र पांडेय के यात्रा वृतांत की पुस्तक पढ़ रहा था और मन के अन्तरतम में कई सवाल और उनके जवाब कलम की नोक पर उतरकर मुझे आह्लादित कर रहे थे। इससे पूर्व पढ़े कई यात्रावृत्तों की याद आ रही थी। एक सवाल यह भी उठ रहा था कि जिन कारणों से लोग यात्राएं करते हैं क्या उनका दाम उन्हें मिल पाता है ? लोग अपने उद्देश्य के अनुरूप सफल होते हैं क्या ? सवाल अपनी जगह हैं पर आज यदि देखा जाय तो कई यात्रा वृतान्त लिखने वाले लोग और उनकी पुस्तकें लेखन जगत को प्रभावित और आह्लादित करती रही हैं। जिन उद्देश्यों और जिन माध्यमों से यात्राएं की जाती हैं सबका अपना-अपना सुख है। यात्रा प्लेन से, बस से या ट्रेन से की जा रही है। सबके अपने-अपने अनुभव होते हैं। पैदल भी यात्रा करने वालों की एक लम्बी फेहरिस्त है। राहुल सांकृत्यायन, कृष्णनाथ, इनसे पूर्व ह्वेनसांग, फाह्यान की यात्राएं विश्व प्रसिद्ध हैं। संत नामदेव पंढरपुर से कराची तक गए। उनकी ज्ञानयात्रा-धर्मयात्रा भला हम कैसे भूल सकते हैं ? इससे पूर्व नानक ने एक आध्यात्मिक यात्रा की थी जिसका परिणाम सिक्ख धर्म की सबसे पवित्र पुस्तक गुरुग्रंथ साहिब की रचना है। राहुल संकृत्यायन ने पूरे एशिया महाद्वीप की पैदल यात्रा की। रूस से 17 खच्चरों पर लादकर पुस्तकें पूरे हिमालय को पैरों से रौंदते हुए भारत ले आए। वे रूस और भारत की प्रगाढ़ मैत्री के पहले सेतु थे। उनकी कृति घुमक्कण शास्त्र तमाम यात्रा वृतान्त लेखकों के लिए आज भी अनुकरणीय है। उनकी यात्रा सांस्कृतिक और ज्ञान की यात्रा थी। एक यात्रा वृतान्त लेखक कृष्णनाथ हैं। उनकी कृति है ‘स्पीति में बारिश‘। उन्होंने बौद्ध धर्म की स्थापना व विस्तार के लिए यात्राएं की। आध्यात्मिक, सांस्कृतिक व आर्थिक, मनोवैज्ञानिक आधार पर उनकी यात्रा एक सफल यात्रा मानी जा सकती है।

महाराष्ट्र के इतिहास लेखक काशीनाथ रजवाड़े भी यात्रा वृतान्त लेखक थे। उनकी यात्रा ज्ञान की यात्रा है। कहते हैं कि अफ्रीकी यात्री इब्नेबतूता की यात्रा कथाएं विश्व प्रसिद्ध हैं। इन सबके यात्रा वृतांतों में तत्कालीन जीवन दर्शन व संस्कृतियों की झलक मिलती है। स्थितियों को जीवन जगत के व्यवहारों की कसौटी पर परखना व उन्हीं से ज्ञान अर्जित करना एक मुख्य उद्देश्य होता है। कलिंग युद्ध के बाद बौद्ध धर्म स्वीकार करने वाले सम्राट अशोक ने अपने बेटे महेंद्र व बेटी अनुराधा को लंका की यात्रा करने को कहा था। लंका में बौद्ध धर्म आज भी फल फूल रहा है।

यात्राओं को यदि विभाजित करके देखें तो तीन तरह की यात्राएं प्रमुख हैं - 1. तीर्थयात्रा 2. पर्यटन यात्रा 3. शैक्षणिक यात्रा। तीनों यात्राओं का उद्देश्य नाम के अनुरूप स्पष्ट है। ज्ञान, शिक्षा, इतिहास, भूगोल, पर्यावरण को जानना व उन्हें आत्मसात करना इनका मूल उद्देश्य है। तीर्थयात्राएं आध्यात्मिक बुद्धि व भारतीय दर्शन के अनुरूप मोक्ष प्राप्त करने की यात्राएं हैं। जीवन जगत के कार्य व्यापारों से ऊबा हुआ व्यक्ति संसारिकता के मोह से मुक्ति के लिए इस तरह की यात्राएं करता है।

आज शिक्षा, व्यवसाय, व्यापार की यात्राएं दुनिया भर में की जा रही हैं। भारतीय प्रधानमंत्री विश्व यात्री के रूप में मशहूर हैं। इनकी यात्रा को राजनीतिक यात्रा भी कहा जा सकता है। यात्राओं से व्यक्ति का समाज में रूपांतरण होता है। वह देशकाल, समाज व विभिन्न संस्कृतियों से समृद्ध होता है।

यात्राओं से एक व्यक्ति का न सिर्फ मानसिक उत्थान होता है बल्कि सांस्कृतिक व आध्यात्मिक उत्थान भी होता है। यह उत्थान कई स्तरों पर होता है। यात्राओं से अहंकार या स्व का विनाश होता है। मनुष्य पूरे देश-काल, समय-समाज को देखकर विभिन्न स्तरों पर समृद्ध होता है। यात्रा स्व की जगह सर्व के लिए की जानी चाहिए। विज्ञान, तकनीक, कृषि में अत्याधुनिक संसाधनों का विकास हो रहा है। इनको जानने व आत्मसात करने के लिए यात्राएं बहुत ही महत्त्वपूर्ण हो सकती हैं। विनोवा भावे ने भूदान यात्रा की थी। जयप्रकाश नारायण ने देश में समग्र क्रांति के लिए यात्रा की थी जिसने देश की राजनीति की दशा और दिशा ही बदल दी। दुर्गम एवं दुरूह जगहों की यात्राएं करने वाले ऋषियों, मुनियों, साधुओं व संन्यासियों की न जाने कितने आख्यान हमारे जन-मन में सदियों से बने हैं। सुन्दरचार्य एक ऐसे ही पर्यटक साधु हैं जिन्होंने आजीवन हिमालय की घाटियों की खाक छानी। अभी हाल ही में एक पूरा एल्बम उनके द्वारा खींचे गए चित्रों से भरा, प्रकाशित हुआ-'Himalaya from the eyes of Sanyasi'.

इतने विवरणों व महान व्यक्तित्वों के बाद जब हम डॉ. जीतेन्द्र की यात्रा वृतांत पुस्तक ‘देखा जब स्वप्न सवेरे‘ को पढ़ते हैं तो पाते हैं कि यह पुस्तक व डॉ. जीतेन्द्र स्वयं उन्हीं मनीषियों-चिन्तकों की राह के अन्वेषी हैं जिन्होंने बड़ी निष्ठा और लगन से न सिर्फ अपनी यात्राओं की बल्कि अनुभवों को सविस्तार पुस्तक रूप में ले आकर अन्यों के ज्ञान भंडार को समृद्ध करने की पूरी कोशिश की। परिदृश्य प्रकाशन मुंबई द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक तकरीबन 15 यात्राओं के यात्रा वृतांत के रूप में सामने आई है। ये यात्राएं कभी धार्मिक-आध्यात्मिकता के रूप में हुई हैं तो कभी बच्चों व सहयोगियों के साथ की गईं पर्यटन यात्रा के रूप में। कुछ यात्राएं अध्ययन-अध्यापन के सिलसिलों की हैं तो कई जिम्मेदारी के तहत विद्यार्थियों के साथ की गई यात्राएं हैं। मुंबई के कई पर्यटन स्थलों की यात्रा विशिष्ट यात्राओं जैसी है जिसमें जीतेन्द्र के अंदर का एक जिज्ञासु लेखक न सिर्फ मन मस्तिष्क में छवियां उकेरता चलता है बल्कि कागज-कलम से उनका अंकन भी करता चलता है। सारे वृतान्त चलचित्र जैसे हैं। बिना वहाँ गए उन स्थलों की रम्यता का अनुमान किया जा सकता है। पंचगनी और महाबलेश्वर दोनों विश्व प्रसिद्ध स्थान हैं। यहाँ की प्राकृतिक सौंदर्य का साहचर्य उन्हें भाग्य से मिला है। उन्हें तो कवि भी होना चाहिए। यदि अभी नहीं हैं तो भविष्य में कविता के द्वार भी खुलेंगे, ऐसी उम्मीद हम कर सकते हैं। इनकी भाषा व शब्दों के प्रयोग का लालित्य किसी कवि या कविता से कम नहीं है।

इनकी यात्राओं में हरिद्वार में कलकलाती गंगा हैं तो महाराष्ट्र की हरीतिमा, अलीबाग का हरहराता समुद्रतट, प्रयाग की पवित्रता और संगम का महात्म्य। सर्दी का ठिठुरता मौसम है तो खेतों में लहलहाती मनोहारी फसलें। यात्रा में आई जगहों का लोकरम्य जीवन है तो वहाँ की वैविध्य भरी संस्कृतियाँ अपने पूरे उत्स में आई हैं। बच्चों का उल्लास है तो बूढ़ों की मुक्ति लालसा। अनेक तीर्थ व वहाँ की किंबदन्तियाँ, पेड़, पौधे, पशु-पक्षी, नदी तालाब, पुष्प पादप सबके मन को भाने वाले अनेक दृश्य इस पुस्तक की पठनीयता व तथ्यों की विश्वसनीयता बढ़ाते हैं।

पुस्तक में ढहते पहाड़ों की पीड़ा, कटते वृक्षों और जंगलों का रुदन, पर्यावरण के प्रति एक चिंता और विकास के नाम पर प्रकृति का दोहन लेखक की नजर में है।  अनेक नदियों के तट और उनसे जुड़ी पावन कथाएं पुस्तक की रोचकता बरकरार रखती हैं। तरह-तरह के ज्योनार हैं तो दक्षिण की इडली व चावल के पकवान। ब्रज का वात्सल्य है तो छप्पन भोगों की लिस्ट जिन्हें मैं पहली बार इसी पुस्तक से जाना। कश्मीर की रमणीयता है तो वहाँ की पीड़ा भी। फूलों से लदा गुलमर्ग है (जिसे हम फूलों की घाटी कहते हैं और फिल्मों में देखते आए हैं) कश्मीरी युवतियों का बाँकपन जिसके लिए शायर ने पहले ही कहा है-‘‘हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पर रोती है/तब कहीं जाकर चमन में होता है दीदावर पैदा।’‘

‘देखा जब स्वप्न सवेरे‘ पढ़ते हुए मैंने पूरे देश की यात्रा कर ली है। उत्तर से दक्षिण, कश्मीर से कन्याकुमारी और पूरब से पश्चिम तक। पता नहीं इन जगहों पर मुझे जाने का सौभाग्य मिलेगा या नहीं ? कह नहीं सकता। पर पूरे मन प्राण, हृदय की गहराइयों से मैं डॉ. जीतेन्द्र पाण्डेय को और इतनी महत्त्वपूर्ण कृति के लिए बधाई व साधुवाद देता हूँ।  

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