एक प्रेम संवाद का अंत

कृष्णा अग्निहोत्री, इंदौर, मो. 7974632703


‘‘कौन...यस...जी?‘‘

‘‘अरे!...कौन हैं आप, बार-बार फोन लगाकर काट देते हैं?‘‘ 

‘‘यस प्लीज परेशान न करें...‘‘ 

“जी, मैं आपका एक प्रशंसक बोल रहा हूं।‘‘

‘‘प्रशंसकों के नाम भी तो होते होंगे।‘‘

“जी हां, मेरा नाम है मौसम। मैंने मुक्ता जी, आपकी सारी कविताएं पढ़ी हैं। आप बहुत अच्छा लिखती हैं। और उतनी ही सुंदर भी हैं।‘‘ 

‘‘देखिए, आप जो भी हैं। इतना समझ लीजिए कि मेरी आयु साठ वर्ष की है। मुझे पाठकों से केवल अपने साहित्य की प्रशंसा अच्छी लगती है। मुझे व्यक्तिगत कमेंट्स की कोई भी अपेक्षा नहीं है।‘‘ 

“यह तो कह सकता हूं कि मुझे आपके काव्य में जो अवसाद की गूंज है वह अच्छी नहीं लगी।‘‘

‘‘आपने पीड़ा से भेंट नहीं की होगी इसलिए आपको वो अच्छी नहीं लगी। कलाकार जो भोगता है उसकी कहीं न कहीं तो गूंज दिख ही जाती है। यथार्थ से मुक्ति नहीं।‘‘

“मैं भी कुछ लिखता तो हूं। कभी सुनाऊंगा।‘‘ 

‘‘ठीक है।‘‘ मुक्ता इस नए पाठक से ऊब रही थी।


“यस! ...मुक्ता जी हैं क्या?‘‘

‘‘हां...बोल रही हूं।‘‘ ‘‘मौसम बोल रहा हूं। कैसी हैं? क्या कर रही हैं, घर में कौन-कौन हैं?‘‘

‘‘आप क्या करते हैं? आपके घर में कौन-कौन हैं? ये तो बताएं। वैसे आप सी. आई. डी. में हैं क्या?‘‘

‘‘नहीं जी! मैं लगभग पैंतीस वर्ष का युवक हूं। विज्ञापन विभाग की एक कंपनी में काम करता हूं। मेरे मां-पिता, भाई साथ हैं। मेरा विवाह हुआ था, पर पत्नी अचानक इलाज का अवसर दिए बिना ही दो बेटे छोड़ चल बसी। अभी तक उसकी याद से उबरा नहीं। वैसे भी एक भय तो है कि पता नहीं दूसरी शादी के बाद दूसरी पत्नी बच्चों को ठीक से रखे या न रखे।‘‘ 

‘एक बात तो आपसे कहूंगी कि बिना स्त्री-पुरुष के साथ के जीवन निभता नहीं। आप तो इतनी कम उम्र के हैं। आपको तो शादी कर ही लेनी चाहिए। वरना यूं ही इधर-उधर भटकेंगे। एकाकीपन मनुष्य को खोखला कर देता है।‘‘ 

‘‘आप भी तो अकेली हैं।‘‘ 

‘‘अब मेरी उम्र भी तो अधिक है। हां, यह बात तो है कि मैं संगीत सुनती हूं, उपन्यास पढ़ती हूं पर पुलिया पर बैठकर मात्र भजन-चर्चा से संतुष्ट नहीं होती। जेवर, कपड़ों की भी चर्चा मुझे अच्छी नहीं लगती, और कुछ संभावनाएं तो रही नहीं। एकाकीपन में घुटन तो होती है पर सुख-दुःख के साझीदार नहीं मिलते। जो है, प्रारब्ध है वह।‘‘

‘‘मुझे तो एकाकीपन जरा भी नहीं सालता। मेरा पूरा परिवार एक सी रुचियां रखता है। हम साथ-साथ ढाबों पर खाना खाते हैं। मूवीज देखते हैं। गजलें सुनते हैं। लेकिन मैं भावुक हूं, आपकी भावनाओं को समझ सकता हूं। वैसे मैं अपने जीवन से संतुष्ट हूं, मुझे कोई अभाव अनुभव नहीं होता। न ही स्त्री की आवश्यकता है।


‘‘मुक्ता जी! मैं मौसम बोल रहा हूं।‘‘ 

‘‘कहिए? अरसे बाद फोन कर रहे हैं।‘‘

‘‘हां, घर में बच्चे बीमार थे। परंतु आपसे बात न करना तो खटक रहा था। इधर लगातार एक बात कहना चाहता हूं, यदि आप रुष्ट न हों तो।‘‘

‘‘कहिए।‘‘ 

“आपके इतने प्रशंसक हैं। तब आप अकेली कहां हैं?‘‘ 

‘‘प्रशंसा से जीवन पूर्ण नहीं होता। जीवन जीने की सांसें होती हैं।‘‘

‘‘प्रशंसकों में से कई आपको प्रेम भी करते होंगे। तब अभाव क्यों? इस बार की आपकी कविता में मुझे बहुत दरारें दिखाई पड़ीं।‘‘

“अब रचनाकारों की जो वेदनाएं हैं, वे तो कहीं न कहीं दिखाई पड़ती ही हैं न। पर जहां तक प्रशंसकों के प्रेम व प्रशंसा की बात है वह चिंतनीय है। कुछ तो प्रतिष्ठा व सम्मान ही से पेश आते हैं पर कुछ दुखदायी होते हैं। अब मेरी उम्र प्रेम पाने की तो है नहीं, तब भी हजरत समझाते हैं। प्रेम में उम्र, जाति, रूप का तो कोई संबंध नहीं। प्रेम मात्र जरूरत नहीं, उसमें अहसान व शर्त नहीं। कोई स्वार्थ नहीं। यह समझाते हैं।‘‘ 

‘‘तो क्या गलत कहते हैं? ठीक तो यह समझाइश है ही।‘‘

‘‘मुझे तो लगता है वे प्रेम को शब्द मात्र से बांध रहे हैं। अपनी सुविधानुसार परिभाषित कर रहे हैं। उन्हें प्रेम में सुख-दुःख की साझेदारी नहीं, स्वयं के लिए प्रत्येक छूट ले प्रेम का दावा रखना है। मैं जान चुकी हूं कि पुरुष के लिए स्त्री का सौंदर्य व रूप प्रमुख है। मेरी उम्र एक सूखा चरागाह है। पर उसके साथ जुड़ा है स्वाभिमान। मुझे बाद में कोई निरर्थक वस्तु समझ टाले यह मैं सह नहीं सकूगी। प्रेम गंभीरता व विश्वसनीयता लिए होना चाहिए।‘‘

‘‘सभी तर्क सर्वत्र लागू नहीं होते। रूप ही यदि प्रमुख होता तो दिल, रूप को ही देख धड़कता। तब लैला-मजनू न होते। रजिया सुल्तान एक हब्शी को प्यार नहीं करती। मेरे एक मित्र हैं जो 80 साल की वृद्धा से प्यार करते हैं। रोज उससे मिलने जाते हैं। हाथ पकडकर बैठे रहते हैं और लौट आते हैं।‘‘

‘‘ये सब अपवाद हैं जिनसे सर्वमान्य विचार नहीं बनते।‘‘ 

‘‘हैं तो अपवाद ही। कथनी व करनी में अंतर नहीं होना चाहिए।‘‘

‘‘देखो मौसम...यह भारत है। यहां कठोर नियम स्त्री के लिए हैं...वो दूसरी शादी करे तो आलोचना। तब एक ढली उम्र के पड़ाव पर प्रेमी या जीवनसाथी की कल्पना कितनी असंगत है। सामाजिक प्रताड़ना, बेवजह के आरोप। बाज आए इन सबसे। पुरुष तो कह देगा पत्नी के बिना गृहस्थी नहीं चलती। मेरी कौन बुढ़ापे में देखरेख करेगा। मुझे भी कंपनी चाहिए। उसे सोलह वर्ष की लड़की चाहिए। लेकिन स्त्री का अकेला संघर्ष उचित है। उसे संगत बिना जीना आवश्यक है। उसे इन अभावों के साथ जीना ही चाहिए। वरना नारी की गरिमा, भव्यता, मर्यादा खंडित हो जाएगी और उसे जीवन की स्वाभाविक आवश्यकताओं हेतु ढेरों लांछन सहने पड़ेंगे।‘‘ 

‘‘मैं ऐसे दकियानूसी विचारों को तनिक भी अहमियत नहीं देता। शादी केवल सात फेरों या मंत्रोच्चारों से पूरी नहीं होती। मन से यदि किसी को अपना माना या उसके नाम से दिल धड़का तो वही अपना होता है।‘‘ 

“यह विचार असाधारण है। मुझे प्रसन्नता है कि आप सामान्य से कहीं ऊंचे हैं। आप किसी से प्रेम करते हैं? या इन्वॉल्व हैं?‘‘

“अब तक तो नहीं था पर हाल ही में किसी के प्रति गहरा झुकाव व लगाव पैदा हो गया है। जिंदगी अपने आप धड़कने लगी। अच्छा दिखू, अच्छा पहनूं...योग्यता बढ़ाऊं ऐसी इच्छाएं भी जागृत हो रही हैं।‘‘ ।

ये तो शुभ लक्षण हैं। कौन है वह? क्या मुझे बता सकेंगे? यदि बताना चाहें तो बताएं।‘‘ 

‘‘क्या बताऊं। आप स्वयं ही हैं। लग रहा है कि आप शरमा रही हैं। नहीं मुक्ता जी, जो नहीं मिला और मिल रहा है तो उसे पा लेना अच्छा ही है। मैं सचमुच एक दिन भी यदि आपसे बात न करूं तो पूरा दिन खराब हो जाता है। कुछ रिश्ते स्वयं अंदर से अंकुरित होते हैं।‘‘ 

“मैं नहीं जानती कि प्रेम है या नहीं पर हां किसी के कंधे पर सिर टिका देर तक रोना चाहती हूं, तब वह मेरे सिर पर हाथ रख ले जिसकी गरमाहट में मैं अपनत्व व आत्मीयता की पिघल अपने पर अहसास करूं। अच्छा होता हम एक बार मिलकर बात करते। एक कप कॉफी पीकर विचारों का आदान-प्रदान होता या कोई मूवी ही देखते।‘‘

‘‘मूवी तो वे लोग देखते हैं, जिन्हें आपस में एक-दूसरे को देखने की तीव्र इच्छा न हो। मैं तो मन भर आपको देखना ही चाहता हूं। कितनी गोरी व सुंदर हैं आप। मैं तो सांवला हूं। फिलहाल स्थितियां ऐसी तो नहीं कि मैं आ सकू...पर आ जाऊंगा एकाएक कभी भी जब तड़प, बेकरारी सहन न होगी। वैसे मैं भी इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि आपसे सम्मानपूर्वक सामान्य बातें करते-करते ही अचानक कुछ ऐसा टकराया कि धड़-धड़ और टन-टन...न जाने कितनी घंटियां मेरे शरीर के प्रत्येक अंग में टनटनाने लगी हैं। आप ही बताएं कि इन्हें मैंने आमंत्रित नहीं किया। ये तो अंदर से उपजी हैं। हां, मुझे अभी भी आपकी मनःस्थिति का आभास नहीं है ठीक से।‘‘ 

‘‘मैंने तो सुना है कि प्यार के गुरुत्वाकर्षण से व्यक्ति खिंचता है...तब आपको जो समझना चाहिए। वैसे भी मन की बातों का तो कोई प्रमाण नहीं होता। हां...इतना मुझे तो अनुभव हो रहा है कि जो है वह कीमती है...और हमारी भावनाओं को और तेज हो पकने देना जाना चाहिए। पर एक शिकायत है कि आप तो सौजन्यतावश भी हमारे घर नहीं आते। क्या आपको स्वयं पर या मुक्ता पर विश्वास नहीं?‘‘

‘‘विश्वास तो किसी भी रिश्ते की नींव है।‘‘ 

‘‘वो तो ठीक है पर आप मुझे लेकर कुछ जल्दी निर्णय नहीं निकाल रहे? अभी हम एक-दूसरे को जानते ही कितना हैं? वैसे आपसे बात करके मन भर सा जाता है। लगने लगा है कि विषमताओं के बीच कोई अपना तो यहां है। इधर आपने फोन 4-5 दिन बाद किया है।‘‘

‘‘हां. हम सब महाबलेश्वर गए थे। मैं तो वहां चुपचाप लेटा पुस्तके पढता रहा। लेकिन मुक्ता जी आपने तो कभी भी मुझे फोन नहीं किया। वैसे इस बार आपकी सारी कविताएं पढ़ ली।‘‘ 

‘‘अब आप कहां हैं, किसके साथ हैं, मीटिंग में हैं या बॉस के पास, पता नहीं होता। और मैं अपना नाम बताऊं यह ठीक नहीं होगा।‘‘ 

‘‘आप लगभग एक बजे मुझे फोन करें, मैं मेज पर रहता हूं।‘‘ 

“करूंगी, वैसे इस सबमें मेरा-तेरा क्यों। जिसे सुविधा हो वही फोन कर ले। वैसे मैं भी शर्मनाक हूं कि जिसे जानती नहीं, देखा नहीं, उसी की आवाज, बात सुनने के लिए कुछ समय तक बहुत विचलित हो जाती हूं।‘‘ 

‘‘इसमें शर्म की क्या बात है? सभी कामनाएं अशुद्ध नहीं होतीं। चाहत पाप नहीं। जो प्रवाह प्रवाहित होने को बेकरार है उसे प्रवाहित होने दें। मैं आपके इस प्रवाह को कयामत तक साथ रह थामूंगा।‘‘

‘‘अच्छी बात है। आप संभालिएगा, प्रवाह बह निकला है।‘‘

‘‘निश्चित रहें। वैसे मैं सुंदर नहीं हूं। पर आपका जिक्र मैंने कहीं नहीं किया और न ही अपने आप ही से प्रश्न किया, इसलिए सब कुछ विश्वसनीय एवं प्रामाणिक ही रहेगा।‘‘

‘‘मेरे जीवन में बहुत अंधेरा है, वैसे भी ढेरों घावों के साथ जीना सरल नहीं, कितनी बार प्रेम-प्रस्तावों के बाद कइयों के पास, पीछे जाने के अपने कारण उत्पन्न हो जाते रहे, किसी को जाति व उम्र से तो किसी को धर्म, परिवार से, तो किसी को पत्नी व समाज के लिए लौटना पड़ा। भाग खड़े हुए वे।‘‘

“अब आप मत घबराइए। आज का युवा पूर्व सा कायर नहीं। और पतझड़ के बाद तो वसंत आता ही है। जब मौसम ने ही प्रवेशा है तो सुहावना ही होगा सब...अब तो प्रकाश ही प्रकाश है सब ओर...अंधेरे तो भाग जाएंगे मुक्ता जी। बिजली का करंट दिखाई नहीं देता पर लगता जोर से है। मुझे अब कयामत तक आपका साथ देना है। आपकी कोई नई पुस्तक आई है?‘‘

‘‘हां...किसी भी दिन वहां से गुजरी तो आपको दे जाऊंगी।‘‘ 

‘‘मेरे मन में आपके प्रति जो सम्मान और जो कुछ और है...उसके कारण आपको कुछ कष्ट देने की इच्छा नहीं। बहुत कुछ है इस दिल में, ढेरों सदभावनाएं और बहुत कुछ। और बहुत कुछ।‘‘

‘‘जानती हूँ और यह भी जानती हैं कि आप चाहकर भी मुझसे खुले रूप में बात नहीं कर पाते। इस देश में ड्रग्ज बेचने, भ्रष्टाचार, हिंसा, लूट से भी अधिक बड़ा गुनाह है स्त्री-पुरुष की मित्रता, उनका प्रेम। एक अंतिम वसीयत आपके नाम आज ही कर रही हूं, जब मरूं तो न्यूज, पुस्तकों व मेरे नाम की चिंता की कार्यवाही आपको ही करनी है।‘‘ 

‘‘मरने की बात छोड़ो...अभी तुम नहीं मरोगी। मैं तुम्हें वापस ले आऊंगा मौत के मुंह से। मुझे छोड़कर जाने की बात ही कैसे सोचती हो।‘‘


‘‘आ रही हूं...आ रही हूं...हैलो? मौसम बोल रहे हो? मौसम! कहां किस देश में चले गए थे?‘‘

“गोरखपुर...। अचानक ही जाना पड़ा।‘‘

‘‘क्यों, क्या शादी कर रहे हो? मैं तो यूं ही पूछ रही हूं। मेरा मन कुछ अस्थिर है। जैसे आप छूट रहे हैं।‘‘

‘‘आपका साफ मन ठीक समझ रहा है। मेरी शादी तय हो गई और मुझे भनक तक नहीं हुई। बच्चों ने भी हां कह दिया।‘‘

“अरे? आप क्यों बहाने बच्चों या परिवार के ढूंढ रहे हैं। यह तो आपको करना ही था। लड़की तो सुंदर होगी?‘‘

‘‘हां, वैसे तो सुंदर ही है। मन से देखो तो, अन्यथा सामान्य ही है। विद्यालय में पढ़ाती है। उम्र तीस साल है। मुझे पसंद आ गई।‘‘ 

‘‘आपने तो इतने बड़े हादसे की गंध भी नहीं दी। आखिर आ गई न उम्र, स्थितियां बीच में। आप तो पूर्ण थे, कोई अभाव न था?‘‘

‘‘नहीं, ये बात नहीं। कंपनी तो चाहिए थी। और पूर्णता में और पूर्णता मिल जाए तो क्या बुरा है? काश आप मुझे पंद्रह वर्ष पहले मिली होतीं। वैसे भी पांच वर्षों से मैं पत्नीविहीन था। अब मनपसंद स्त्री टकरा गई है।‘‘ 

वो तो पहले भी मिल सकती थी? आपको मुझे अपने विवाह की सूचना तो देनी थी। मैं संभलकर कुछ व्यर्थ की बातें तो न करती।‘‘

‘‘अब कुछ दिनों के संवाद से तो हमारे बीच कोई रिश्ता बना नहीं। आप सब भूल जाएंगी। वैसे भी प्रेम या प्रेम के विचार हेतु मरता नहीं कोई।‘‘

‘‘मौसम, प्रेम सौदा नहीं या उसे पाने के लिए पास रहना या वर्षों की पहचान आवश्यक नहीं। वह पहली दृष्टि या पल भर में भी पैदा होकर पल भर में ही नष्ट भी हो सकता है। मरना-जीना तो मनुष्य के हाथ नहीं पर नाटकीयता, अविश्वसनीयता, भ्रम, धोखा, झूठ व स्वार्थ तो उसके हाथ में होता ही है जो जीते-जी मार देता है।‘‘

‘‘आपके प्रति जो मन में मेरे सम्मान है, वह तो कभी कम न होगा। आप तो मेरी सास से भी पांच वर्ष बड़ी हैं।‘‘

‘‘जो वास्तविकता है वह तुम्हारे सामने है। मैं जानती हूं कि इस उम्र के पड़ाव में कोई खुशनुमा मौसम मेरे जीवन में नहीं आएगा। और संतोष भी है कि ऐसे कायर व कमजोर कंधों पर नहीं रोई जो गंदे व मटमैले हों।‘‘ 

‘‘आपको ऐसे प्रेम-संवादों की तो आदत होगी और कंधों की भी कोई कमी न होगी।‘‘ 

“आप कहना क्या चाहते हैं कि हम यही सब सुनने के लिए लिखते हैं। दो कविता लिखोगे तो समझोगे कि कितना पकना पड़ता है, इतना भी पकना नहीं जो मवाद बन फूट जाए।‘‘

‘‘ऐसा तो कुछ कहा नहीं। तब ये कराहट क्यों?‘‘

‘‘शायद किसी निर्दोष, सरल, कमजोर प्राणी को बैठे-ठाले किसी ट्रक ने अपनी बदसूरत स्पीड से कुचलकर और अपाहिज व घायल बना दिया।‘‘

‘‘सबसे मुक्त हो खूब लिखें। नए वर्ष की शुभकामनाएं।‘‘ (फोन कट गया)

Popular posts from this blog

अभिशप्त कहानी

हिन्दी का वैश्विक महत्व

भारतीय साहित्य में अन्तर्निहित जीवन-मूल्य